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श्री सेठिया जैन पारमार्थिक सस्पा, बीकानेर

पुस्तक प्रकाशन समिति

भ्रष्पच- भी दानंदीर संठ भैरोदानमी सेठिया मँत्री-- भी अठफपस्तद्ती संठिया | उपमस्त्री- भी मालकचन्दवी संठिया, साहिस्मसगथ |

लेखक मण्डल

भी इल्द्रचन्द्र शास्तों ४! + (0०००, शास्ता्ार्य, स्यायतौय॑, बंदान्तबारिधि भी रोशनशाज्ष जन | #..7.. बहाौस हाइ कोर्ट। न्पायतीष, काम्पतोर्ध, सिद्धान्ततीय, विशाएद

श्री शपामसाक्त जन »। # न्यायतोर्ष, विशारद भी पेदरचन्द्र बौठियां 'बीरपृत्र! मिद्धान्तशाल्रौ, म्याप तीष, स्याऊरछदीर्ष, संदव छिपि विशारद |

विपय सूची

जिपप प्र ओ्ोमान्‌ शठ भेरोवानजी सेठिद्ा का चित्र

पांच दोहे प्रीमान्‌ सेठ सैरोदानजी सेठिश की संक्षिप्त शोषनी ३-१६ श्री सेठिप्य मैन पारमार्थिक संस्था के सबन का चित्र

(जीवनी के 9 ८€ के बीच में ) 2 भी सेद्िया बंश वृक्ष ( संस्कृत में ) १७-२०

भीमाम्‌ सेठ मैरोडानओ लेठिफ के परिवार क्य सित्र २०-२१ के भीच में प्रीमाम्‌ सेठ घमंचस्दूज्ी सेटिया का बंशा ( हिन्दी में) २१-२३ ये श्री सेठिया एंशाशली ( दोडो मे ) शरद $ भारद भावना के बोह २६ १३ १० भार भांषना के दोहे ३४-४१ ११ आारम प्रधोध साबसा इर> १२ संस्था की सन्‌ १६४८ की रिपोट रा १४, सम्मतियाँ ३५७१ १४ झाठ भागों का बिपप विवरण ज्र-न्८ १४ सूचना फपन्‍-फ, १६ प्रमाणभस्थों की सूची स्प्रे १७ दो शब्द च्य्दथ

१८ भामास्दशैन घ्घ्व्ए

६44 १६ मूमिष्य ३० भद्यरादि अमुकमणिका ३१ इद्धि-कत्र २४ पहल्चा बोल १३ इसरा बोस ३४ तीसरा बोल १४ चोजा भोख्ष २९६ पांचवां बोर

प्रिपय ध्इ नह १३० ३३१३९ ११ श्य३

१-४१ २०३-४४१

दोहा छः घर्मघन्दजी सेठ थे, पासी बीकानेर ओसबश में श्रेष्ठ वे, बेनपर्म में शेर ॥१॥ ठप्मीसी वेद्ीस में, प्रिखयादशमी मान उन$ घर शुमछप्र में, जन्मे मैरबदान ॥२॥ दो इखार अरु पांच में, पिक्म संद्त बान। उम्र सयासी षप॑ फ्री, सपरिषार सुख स्रान ३॥ बहु आगम संचय फिया, पढ़न गुणन के शत आपक प्रत को ग्रइथ फर, मन समापि में देस आगम पाॉसन अवण में, राखे भषिको ग्रेम चुंदता पूछ पालवे, लिए हुए थव नेम॥ ४॥

पुश्तक प्राप्ति श्याना-..

श्री भफरक्‍न्द मैरोदान सेटिया श्री सेटिया जैम छाज्जोरी बीऋनर ( राजपूतामा ) छिडय्काटा

मैरोदान सेठिया जन्म स० १९२४ विजया दशमी फोटो स० १९९४ अक्षय तृतीया १क

2 50229 2272:

00 ववडिल हट कदितहियहि कई हित हि 7 हट दल

श्रीमान्‌ घमभूषण दानवीर सेठ श्री मेरोदानजी सेठिया

| संक्षिप्त जीवनी

दानवीर सेठ भी मैरोदानजी सेटिया का अन्म सैन बीसा ओसवाज्त इक्त में बिक्रम संघत्‌ १६२३ विजयादशमी फ्ले दिन हुआ | झाप के पिता का नाम भीमान्‌ सेठ धर्मभन्दरजी था। आप चार माई थे। भी प्रतापम्तमी झौर भी अ्रगरधन्दसी झाप से बड़े भौर भी इस्ारीमक्षमी भाष से छोटे थे | झाप दो वष के ही ये दि झयापके पिता फा स्वर्गवास हो गया। सात भर्ष की अवस्था में बीफानेर के बड़े उपाभ्रय में साधुयी मामझू यति फे समीप आपकी शिया का झ्रारम्म हुआ। दो वर्ष यहाँ पढ़ कर परिकम स॑० १६३२ में आपने कर्क की यात्रा की | पर्शों से ज्तीटफर भाप बीकानेर छे समीप शिवबारी गांव में रईदे। मन्दिर, उघान भीर सरोवर छे पह साँप सुष्दा

(५)

देना €ै। उस समय राज्य की विशुप इपाद्टि हानस था का स्पापार बढ़ा घ्मा था। यहाँ सदा प्राजार में मेलाला रुगा रएवा या | यहाँ आप भपने स्पष्ट स्राता शी

के पाप स्पापार का झाम सीखने लगे। सं० (ले आपने बर्म्दर छी गात्रा की ! वहाँ अपन बढ़ माह रो भर बन्दुजी के पाप्त र६ ऋर भाषन परदीखाता, जमा संस भ्रादि स्पापारिण शिक्षा $ साथ भरग्रेजी, गुजराती प्ादि मोहाएँ सौ | शिक्षा साथ आपन यहाँ स्पावशरिर भव मी प्राप्त डिया यहीं झाफ्डी शिदा समाह नह! होतीं भरी शान ऐौखन करो झगन भापकी मोषन मर रह भर भाज मी है ज्ञान सीयन के प्रस्पक्ष अवसर झापने सदी हर्ष उठाया (६। दूसरों को पहल धार सिसान में मी भाप सा दिश्षघस्पी शते रहे हैं। कद स्पक्तियों कप स्पापार स्पर्षर्सयि का काम पिसा कर झापन उन्‍हें सफल व्यापारी बनाया है।

भआापन अपनी संस्या से मी सुपोग्य स्पक्ति बैयार दिस एएं उन्‍हें ऊंची झुँच्ी शिव दिसए

संदत्‌ १६४० में श्राप दशा झआाप॑े। इसौ बर्ष आप का विदा इझा इछ समय इश में ठइर कर रे १६४१ में आप पुनः गम्पई पष्ारे। वहां जार आप एक कं में, हिसमें अ्ामी का काम दोता था, धुनौम फे पद पर निपुक्त हुए आपके बढ़े मद श्ौ अग्रएन्दबो इस फम के सामौदए भें

पम्प में सात दर्ष रइरूर स॑० १६४८ में भाप कशरूरो शामे भीर बहाँ भापने अपनी संचित पूँजी से मनिद्ारी भौर रैय की रढाम बोली घौर गांसी घता का कारदाना शुरू किपा। सफछ स्पापारी में स्पापारिक धाम, अतुमब, समप

(५)

की सक, माइस, भष्यपसाय, परिभ्रमशीक्षता, ईमानदारी, दलन की शजुता, नम्रता तथा स्वभाव को सघुरता आदि जो गुण ऐोन चाहिये मे सभी आप में पिधमान ये ' इसछिये झोड़े ही समय में आपका स्यापार चमक उठा | घीर॑ घीर आपन प्रयक्ष करे मारत से बार बेण्थियम, म्थिमरटींड आर बरषिन झादि के रंग के कारसखानों क्रो तपा गग्रलंज (०४०००) झाए्या के मनिद्दारी क्र फारदानों प्टी सोक्त एजेन्सियाँ प्राप्त फर छीं। फत्ततः भाषको अधिफ क्ताम दोन छगा भौर काम मी बिस्दृत हो गया। इसी समय भाषऊ पढ़े भाई श्री अगरभनन्‍्दली 'मी भाषकी फ्म में सम्मिलित हो गये भब फर्म का नाम 'ए. सौ थी सेठिया एन्द छरूम्पनी! रा गपा | कार्य के विस्तृत हो आन से भाषने फर्मचारियों को घढ़ाया फसे फी सुभ्ययस्था के लिये झ्रापन एक अंग्रेज का असिस्‍्लेन्ट मैनजर के पद पर नियुक्त किपा और फ्य स्पेषइार के सिय॑ एक पकीत को रक्पा। फ्रमचारियों साथ आापफा न्‍्ययद्दार स्‍्वामीन्‍संबक फा नहीं किन्तु परिवार के सदस्प का सा रहा ६! भाप क्रमचारियों काम सना खूप जानते हैं. आर उन्हें सप तरइ निमात मी हैं। उक्त पग्रेप आपके पास २७ वष रह्य भार ब्ोल धाप्‌ झ्राथ भी झापछ मुपुत्र भी उठमलदी साइप घी फम में इ। आप स्पमाय सं दी कमंठ भौर कृगन पाल हैं। झापन फार्य फरना दी सीया ई, बिभाम सो भाषन जाना हो नहीं धिस पाय फो झापन द्वाय में लिया, उस पूरा छिये पिना आपने फमी नहीं छोड़ा ल्यापारिद जीदन में ण्मी सफरसा पाइर भी झाषन भिभाम नहीं लिया। भाप और झाग एरना बाइठे थे। 'झहस्वसूप भाषन द्वाइड़ा में दी सदिपा

(६

कर पुन्ड फेसिससश दर्स्स सिमित्डे! भामर रण का कारखाना खोशा जिसके भाप मनर्तिंग डॉपरेकटर में पढ़ कारपाना मारत॒इर्प में रंग का सइ प्रथम कारथाना था। कारपान से हैयार दोने डाल सामान फी खपत के स्लिय आपने मारत के प्रदुप नगरों-ऋनतकचा, बस्थई, मद्रास, कराची, कानपुर, देइसी, भमृदसर भार भ्रदमदाबाद में भपनी फर्स की शाताएं खोतीं। इसफ्र सिद्राय जापान » झ्रोमाका नगर में मी झापने ऑफिस साक्ता |

यों यह दबता देना भी भ्रप्तासंगिर होगा कि कार

खान भीर ऑफिस में दिमिश्र क्ार्पों पर कुशज्ञ ब्यक्तिपों नियुक्त दोन॑ पर मी झ्ाप झआाभश्पक्षताः पर छोटे से बड़े समी काम निम्संकोच्र मा से कर छेते पे। शुरू भ्नन्‍्त तह समी छामों की छालकारी झाप रक्षद ये। सर्दया झ्लोगों पर आपका कार्य निर्मर रहे यथ भापको कतई पसन्द गा यही कारण £ हि रंगों कविश्तंपण् के फॉर मौजन रु छिपे भापन एक जर्मेन विशेषज्ञ को बेजड देनिक पाँच प्रिनिर छिपे ३००) साप्तिक पर नियुक्त क्रिया एवं रस लिये भापन निम्री प्रयोगशाला स्थापित की

मंदत्‌ १०४७ में एक पुर्ी ( बसन्तफुंइर ) आर दो पुष्रों | भ्री जंमरओी भौर श्री प्रानमशजी ) को कोदकर पड घमंपती का स्वर्गरास दोगया। आपकी पढ़ी पर्मास्‍्पा अर यूइकार्य में बड़ी दव थी। इसो करण भाष गृह-स्यदर स्पा ही जिनता सदा हुक रहे एु्य अपनी सभी शक्तियाँ श्पा- पर र्यदमाप में छृपा स$ थे पहली घरमपदी स्वमंगर

पर भारडय दृदूरा पिषयए हुआ | क् ब्यत्रिप्ठ भी सेडिपाबी

(७) का ठस समय व्यापार-स्यवसाय फी भोर ही ६िशेप ध्यान था। झाप कुशलवापूर्पफ व्यापार-स्यपसाय में छगे रहे और उत्तरोपर उन्नति फरन खगे। सं० १६७१ (सन्‌ १६१४) के

गत महायुद्ध में भापफ़ो रंग के कारखाने से भाशातीव शाम हुआ |

संवत्‌ १६६४ में आप एक मयंछूर प्रीमारी से ग्रस्त हो गये। ठस समय भाप कछ्तकसे थे। वहाँ के प्रसिद्ध डॉक्टर भौर परेधों का इत्ाव हुआ पर झापको कोह क्ञाम पहुँचा भन्व में भापने फल्तफचा फे प्रसिद्ध इोमिपोपैधिक डॉक्टर प्रतापचन्द्र मजूमदार से इक्तांघ करपाया भौर आप सुपस्‍्थ इुए। इसी समय से भाषञों होमियोपैभी चिंक्तित्सा- पद्धति में अपूर्म ब्रिश्वास हो गया। भाषकी जिट्ठासता बढ़ी ओर ठक्त डॉक्टर के सुयोग्य पुत्र डॉक्टर शटीन्द्रनाथ फे पास आपने इोमियोपैथी का भरम्पास क्रिया एवं इसमें प्रवीशता प्राप्त फी | समी से झ्राप होमियोपपी साहित्य देखते रहे हैं एवं मनता में अमून्‍्य दवा विवरण फरते रहे हं। दर्पों फे अलुमय ने आपको इस प्रथाली का पिरोपध बना दिया |

विक्रम संवत्‌ १६६६ तदलुसार सन्‌ १६१३ में सेठ साहेय ने बीकानेर नगर में किंग एडवर्ड मेमोरियल रोड़ पर एक दुकान “थी सेठिया एन्ड सन्स” के नाम से खोशी | नाना प्रकार के फेन्सी बढ़िया सामान, पैंटेल्ट दवाइयों भौर नह नई फैशन की चीज़ों फे लिये यह बीकानेर की प्रसिद दुकान ! पह्धां से सेठ, साहकार, रईस भौर ऑफिसर क्नोग सामान परौदते हैं। इसे सपछया पूर्वक चत्ता कर सेठ साए्टेय ने यह दृकान अपने द्विदीगपुत्र भी पानरछजी को दे दी। दुफान

(८)

के पीछे उससे जुड़ हुई एवेछी ६। सेठ साइव ने ; को एकान भर इपेलीब्ण पूरा सालिक पता दिश | पर, तारीय १४ १०-१६३० छो इन्हीं फे नाम पर

इस श्ापडाद का पडा रनगा दिया है। शी पातमहदी कस पास भार भी मीन खरीद कर इस खापदाद को गए; ऋाफी ज्ञागठ क्षगा ऋर पृकान को दुपारा पनगाया।

मए फशन फा दुर्मजिष्ठा शिशस्त मदन ईै। झमी भी

ही आर उन पुद्र श्री इन्दनमत्डी इस दुकान | सहिषा एन्द भन्‍्स! के नाम से ही चर रई है।. 27:

सठ साइप ऋचछ घन छमाना शी नहीं

* आशय पमप समय पर भस्कार्ों में उद्ारठाएूर्वक रूर्ष रह हैं। मं १६७० में भाषने बीकानेर में सकूश किया | इसमें इक का स्यावद्रररिक शिक्षा के साई शिदा भी दी जी थी | इस भी पएले भापन का छाम शुरू करा दिया भा |

मइनू १०७८ में आपक अड माह भी दीऊानर में बीमार है गय। उन्होंमे प्रापको शुलाया दानों मादपों मिप्त कर समाज पम प्रयार & लिप 'भगरघन्र मरदान मंदिया ऊत (१ ६: सुस्याप ? स्थापित फरना हय दिया इसझ इइ है श्री अगरणन्दजो झा स्द्गंदाम हो गणां लिधप कै घमुसार भाव एरं आप सुयोग्य झप्ठ जअदपमओी भाइव, जा हि भी अभरगरपन्दजी के सह मंष्याघों क। बजा रष्ट हैं| मंम्शाओों में रोष रास भेज धम्पति आर इए करत अलुपार मंभ्या'

परतर में० संठिया चैन पारमार्थिक संम्धा मपन, बीकानर

(धान तमसा पर्ति प्टलियन सस्यार्थमुद्धासयन

# आन्तान सस्पथ दनिन सुखद मार्ग सटा स्थापयन॥| पर वानालाकवरिफासननसनते . मलोक्माले |

६8 औमद्र्मरघटानमान पटयी पीट सदा राजनाम्‌ दबा

गज ट्य्न्ः! (-+ 3३ है;

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डे 4204 *

अमककन

थामी प्रीसानर के शंगापन्त कूसपन्‍- है नियम प्रम भुत्र पाललः सर पस्ममौनन्‍्त ? ॥॥ पे थाएग समडारधितव धोता अर्यझान रा हानों मिस पर हिपा धान इस. पनहान है सुन संदव उगरीस सी सचर उप चाना [। मंग्या भौषारमार्धिर स्पा है गुम शान 3 लियायारी उहइन “या पृत्र गुदियायर ! सेप्धा हा प्राण इर दम दास अनुभाग / |

्वा

( १०) (६६८ में वृष ६६ स॑ प्रकाशित हुई जे भी चैन सिदान्त बोल सग्रह प्रथम मांग ४० गा पंगत्‌ १६६७ मैं एक /'ुस्तक प्रकाशन का कि रिल ष-ओ दानवीर सठ मैरोदानजी पेठिपा | भंत्री-औ

५७७० सेठिया “साहिस्य-मूपण”। मासरुक्‍रनी सै

डेसक-मप्डल रे शी थे शास्राचार्य, न्यात तौव, पर्व पारिषि श्भौ

्यादरकष न्बाए भाटिया “बीरपुक्रए सिद्धान्त शाखौ, न्य रोशनसाक ६३ प;6-सिपि-बिशारद सके पोल | कि तैपार | नेछु ०३ताद बंध तक लए ३५५२ है हि भार्य पेवरचंद्नी बांठिया दिशा ३... फेवन झादि कार्य कर से ह। 3 कस्पा के मी झापने निरंतर . "प बेन विशाल

परिभ्रस कर झपूर्त हमने पंप आठ भाम, घोसइ सती;

(११)

आईत प्रवभ्नन और जैन दर्शन अंथ तैयार करा ऋर प्रकाशित कराये

स॑० २००२ में भरी दशवेकालिफ़ सत्र भ्रन्पय सहित शब्दार्थ भर संर्घिप्त माबार्थ सद्दित निर्माण करा कर प्रकाशित किया | झापकी क्षान पिपासा एं प्लान प्रचार फ्री माषना के फस्स स्परूप संस्था से १११ पुस्तक प्रकाशित हुई ईं |

इनके सिवाय ठच्चराध्ययन एवं झ्राचारांग प्रथम खणद मूक्ष शब्दार्थ, भन्ययार्थ रशा संधिप्त मावार्थ सद्दित संबत्‌ २००४ में सैयार फराये हैं सो शीघ्र ही प्रकाशित ने वात्ते हैं

ब्रापकी दानवीरता एपं समाध तथा धर्म की सेवा का सम्मान फर सन्‌ १६२६ में झसख़िज्त मारतवर्षीय श्री श्मेता- म्थर स्थानकवासी जैन कान्फरन्स के कार्यकर्साशों ने झ्ापको कान्फरन्स फ्रे पम्भई में इोने बास्ते सप्म झधिपेशन का धमा- पति चुना कान्फरन्स का पह्ट अधिषेशन बड़ा शानदार और सफम्त हुआ। भापक्ी दानशीक्षता के श्रमाव से उस अधिवेशन में एक सास से भभिक फ़यट इकहा हुआ |

समाज भौर धर्म कौ सेवा के साथ भापन बीफानेर नगर और राज्य की मी सेवा की। ज्गमग दश वर्ष तक आप मीकानेर स्थूनिसिपत्त बोर् के कमिभ्र रहे। सन्‌१६२६ में सप से पहले अनता में से शाप डी सर्व सम्मति से बोर पाएस प्रेसिडेन्ट घन गयं। सब्‌ १६३१ में राज्य ने आपको ऑनररी मजिस्ट्रेट भनाया। खगमग सदा दो वप तक भाए इंच भॉफ भॉनरेरी मजिस्ट्रेट में कार्य करते र४इ! भाषह दैसल किये हुए मामलों क्री प्रायः झपीततें हुई ही नहीं, यटि दो एक हुए मी यो भपीसेंट कोर्ट में मो आप हो की राय

(१९)

अद्ृश् रही | इसमे आपझी नीर चीर परियक्तिनी न्‍्पाग्रवृद्धि का मशजम् ही अन्दराव हो जाता ई। सन्‌ १६३८ में म्यूनि सिफ्स घोई की ओर से आप बीकानर लजिम्लरिद्र एसम्बली के सदस्य चुन गय॑। निम्स्दार्थभाद ब्रीक्रानर की मनता की सबा फर आप ठसक किशन जिश्वस्त एवं प्रिय बन गय, यह इमस स्पष्ट |

सन्‌ १८३० में संग्ोगइ्रश सठियाजी का पुन स्पश्माय

चेश्र में प्रमेश करता पढ़ा | बीकानर में पिज्रसी को शक्ति धत्तन बाला झने फी भाँठे पाँघन का एफ प्रेस विकाऊ था पोग्य कार्यक्रताओं के भ्रभाव से बदइ बन्द पढ़ा था! प्रेस रू माछिक उस अना पढ़े ये! क्रियात्मझ शिपषा इकर अपन पुत्रों को स्यापार-स्पत्रसाय में शत बनाने के रऐश्प से भापन रक्त प्रेम खरौद छ्तिपा। आपन प्रेस को एवं बीफानेर के झन कर स्पापार को उप्तति दंन का नि्रय किया प्रेस रू भरते में मापन इमारतें, गोदाम और मरा नात अनबाय आर घ्यापारियों स्विप समी सहत्तियतते प्रस्तुत की | झपन ऋ#मौशन पर स्पापारियों का खरीद फ्रोस्त का फ्राम इगताना, प्राढर सप्माई एज यहाँ सीघा विज्ञापत में मा अड्मान का क्राम ध्युरू किया। मात्त पर पेशगी रक्म देकर भी झापन स्पापारियों को प्रोत्साहित किया। भाएन प्रयश्न करक ध्यापारियों के इक में राज्य एवं बीक्यनेर स्तन रस्म सुषिधाएँ प्राप्त कीं। सभी प्रफ़ार की सुविधाशों के डोनंस बीक्ापजा रान्प एवं बाहर $ स्यापारी यहाँ काफी दादाद में झल का फ्रारपार फरन बास्टी बड़ी बड़ी कम्प

अपन रर्मचारी रफन॑ ज्ष्गीं। इस प्रफार उत्त

* छगा पत्‌ १६३४ में झापने ऊन

(९१३ )

के काँगों सं ऊन निकालन के लिये उस्र बरिंग फंक्टरी ( ५५ ००! छएटफाद 7२००३ ) खरीदी इस प्रकार कुछ ही शर्पो-में झरपफी ज्ञगन और परिश्रम ने आपके संक्प को कार्य रूप में परिसत फर दिया। भाज उल!/प्रेस सन्‌ १६३० उन प्रेस से कुछ भोर दी यहाँ सैंकड़ों मजद्र छगते हैं भौर इजारों मन उन का ष्यापार होता ई। इलारों गाँठे अैघती झौर अमेरिका सीवरपुल झादि को जाती ई।

सठ साहमम फ्री घार्मिफता एथं प्रोपफ़ार मारना के फल स्वरूप ऊन प्रेस में मी गाय, गोघों के घास एवं कपूतरों फे सुगे फे लिये, होमियोपैयिक्त एवं आायुर्षेदिक आौपधियों रू लिये तथा साघारण सहायता भादि के श्षिय॑ प्थक्‌ प्रथक फट कायम किये हुए हैं भौर समी में भलग अछ्तग रकम जमा कराई हुई ६। रकम के स्याम की आय से उपरोक्त सभी फयर्य नियमित रूप से पक्ष रहे है

इस प्रकार उन प्रेस गो सब भाँति सम्मुश्रत झर संठ साहेद न॑ उसे अपने सुयोग्य पत्र भरी सदरचंदजी, शुगराजपी और झानपालजी द्वाथ सौंप दिया एयं आप श्यापार स्पयसाय से सर्मथा निहस दो, घर्मभ्यान में संश्ग्र हैं| पिछत्ते नौ वर्षो से घार्मिक साहिस्प परना, सुनना भर सैयार फरबाना शी आपका कार्यक्रम रहा है और अब मी आपफा समय श््मी प्रफार की घर्म सेवा में न्‍्पतीत शो रह ६|

परिष्ार फी दृष्टि से सेठ साइबर जस माग्पशाली विरल

दी मिलते ई। ध्ाय के पाँच पुत्र है समी शिद्दित, संस्कृत शयं ध्यापारइशल हैं। सभी जुदे हिये हुए हैं. एपं शुदे

ब्पापार स्पद्साय में लगे हुए ६। पषों पुत्र सेठजी रे

(१५)

भ्रात्तानुवर्शी एबं सभी माहयों में परस्पर सराइनीय

£। यही नहीं आप प्रष, प्रपोत्र, पाश्ी भार शअ्रपाश्री सठजी # दो पृत्रियों में से छोटी पुत्री मौजूद एवं दो। भार दोहितियाँ ईं दया प्रदोहिते प्रदोशिधी

संठली सफल्त स्पापारी, समाथ भौर राज्य में प्ररि प्राप्त, पड़े परिवार के नेता एवं सम्पन्न स्यक्ति हैं। झाप दान भर परोपफ्ारप्रायस हैं। धर्म आर परोपछार के काये आपने ठदारता साथ घन ही नहीं बहाया किन्तु तन ! मन छा योग भी भापन दिया ई। बचपन में माठा ! बड़ी बढ़िनों स॑ घार्मिक संस्कार प्राप्त करन बासे एवं ' स्थान में शिक्षा का ओगसंश करने बांस सठ साहेब प्रदत्ति सांसारिक कार्पो के भौच रश्त हुए मी सदा घा। रही ६। संसारिक बमज में जलकमहझबत्‌ निर्शिप्त र्‌इव आपने नाम स॑ डी नहीं, कर्म से भी पर्मचन्द दा पुष्र सिद्ध किया ६। अ्रापन बचपन में ही पूज्य भी हुक्मौचनर महाराज की सम्प्रदार के छति भी ऋबलशचन्द री महा म॑ परम अ्रद्धा ग्रदश की आर जमीकंद का शाव जौद किया | भाप भुझों पुजारी हैं! पत्र मइजत निर्मल माघार बाल्ध सममी सापु झापक छ्षिए बन्दनीय आपका बाय, मंग, तमाखू, अफीम भाद के सेवन ब्पसन नहीं एज सात स्पसनों का भाषकू त्यागई रातज्िमोजन का भी झापक नियम ६। अंगूटी पद्रक्खाए बहुत बपा ै। ध्यापन आवक के बारह परत घारश हें आर जीवन के एिछल वर्षों में मापन समस्रीक शीर मी घारण दिपा £| सचत्‌ २०४५ में भापन निन्न सर किय है

(६२)

(१) उल प्रेस बिल्टिंगस्‌ षीकानेर ( आपक निवास स्थान ) से ११ कोस-उपरान्त भारों दिशाओों में स्वेच्छा ऋाया से छाने फा त्याग |

(२) स्वय व्यापार घन्धा करने का स्पाग ( ) कमठाझा झादि आरम्म का स्पाग |

(४) ऋ्रमश' आपन पुद्गलों पर से ममता उतारते उताहते अपनी नेभ्राय में केवल नाम मात्र के पुदृगल रखे हैं | प्रइण छिये हुए स्पाग प्रत्पास्यान आप दृढ़ता के साथ पालन

फरते रहे हैं

आपकी सप से धड़ी विशेषता यह है कि आप स्वनि मत हैं। श्राप सदा स्पायलम्धी, साहसी, भ्रध्यवस्तायशीक्ष एवं कमेंट रहे हैं। सभी प्रकार से सम्पक्ष होकर मी भाप सर्वथधा निरमिसान हैं। 'साटा ख्ीवन और उठन्च बिचार! इस महान्‌ सिद्धान्त को झापने लीपन में फाये रूप दिया ६। आपका घरित्र पत्रिश्न ए॑ भनुफरसीय ६। झाप में परमइंसों का सा स्पाग, साधुभों का सा कर्मसंन्यास झौर घौरों फ्री सौ ऋर्मनिष्ठा टै। भापने क्‍या नहीं किया और फ़्या नहीं पाया परन्तु सांसारिफ पिध्ृति छक सोह घन में आपने अपने फा ऋमी नहीं प्रॉधा भापफे इन्हों गुणों प्रमावित्त शोफर जैन गुरुक्ल शिवण संघ, स्पाबर न॑ आपको घर्म मूपथ्य फी उपाधि स॑ विभूषित फ़िया ६। पद्ट उपाधि सद तरह मे भाष जैसे महापुरुष को शोमा देती

सा० २० ७-१६४७ तदनुसार प्रयपस भावशण सुदी संबत्‌ २००४ धि० को “भी स्पंताम्घर साधुमार्गी जैन दितकारिणी सेस्था! बीकानेर के सदस्प एयं फ्मचारोगण ने झापको भाषफी

(१६)

२० प्रप सझ रक्त संस्था की नि'स्वाथ सेघा करन उपसस्य में डार्टिछ भमिनंदन-पत्र भर्पित दिया |

सबत्‌ २००४ में घ्ोत्त संग्राट हमे प्रथमारचि समाप्त इोन झाश परन्तु हसक लिए खनता की मांग बऱती ही जा रही थी इस छिय आापन परिभ्रमपूज्रक शक्षाशीत्त स्पानों दा मान्य बिडानों निश्रय मंगवा कर संशोपन करबाया और पाल संग्रद भाठों भाग, प्रतिक्रमश, ऊनागम तक्त दीपिका आदि प्रथों का संशाधन हुआ कई मायों की डितीयाइरत्ति कप गई | शेप प्रडाशित डो रा |

परमास्मा से इमारो यही प्राथना £ कि झाप भिराफ्धू हों

रोशनलाल मन

बी ए., एस एस वी, >ल्पाज-काव्य-सिमास्तती्ण दिशरद | बक्तोक्ष दाइ ऊो5

उद्ययपूर ( राजस्थान )

(९५)

श्री सेव्यावशइत्

पीडानेरे शमे राज्ये, मरोः मस्सफ़सपरने

भासीद्‌ फस्तूरिया नामा, ग्रामो घर्मविदां खनि इस्त्रीय सम धिश्य॑, यशोगन्घेन प्रयन्‌

सेटिपाद शवदोध्यम, एुसुतेजन्बर्थनामफुम्‌ तस्मिन्कुले मद्ातेमा', घार्मिफः झुलदीपछः पेव्यूरजमप्लोउ्मूव्‌ , पशस्षी स्फीतकीर्दिमान्‌ पेसन्बये घर्मचन्द्र' भेप्ठी घर्मरतोडमबत्‌ ! भात्ममास्तस्प धर्मस्य, यस्वार इब देतव' जाता) प्रतापमहन्नोधप, अग्रयन्द्र' सुधीषरः मैरोदानों वदान्यम्, इखारीमदन्न इस्पपि अ्रमणोपासकाः सर्वे, धर्मप्राणा" गुणप्रिया' गुखरबाकरा चने, चत्वारस्तोयराशय ६॥

, सिंदासनप्ुपेयुपः भीकाताजार्यवर्य स्‍्प, मक्ता' गौरबशालिन' ॥। श्रीखालानन्तर्॑ सर्प, तस्पद्सुशोमिना भमतो ज्यादिराधापान्‌ , तेशोराशीन प्रपेदिरे ८॥ इम्नारीमट्ठ पत्नी तु, भीरसझ वराद्यया | ग्राण्यादेव विरक्तासीद, सँसारेश्व॑र्यमोगद £६ ॥। पायरसनिधीन्दी सा, पत्पो प्राप्दे सुसतपम्‌ | शरीलात्षासार्यबर्येम्प , दीचां जप्राइ साधपीम्‌॥ १० श्रीमानइ दरायाया', भन्तैबासिन्पमूचदा | रंगूमीसम्मदापे बच, माता मोचामिलापियी ११ आनन्दइ परास्त्याया', प्रवर्तिन्या सुशासने। पर्ममाराषयन्ती या, सप्यारिप्रपरायणा १२ |!

( (८)

अपापि पूर्शवैराग्या, घर्में इशवराघिरा सरन्सी प्रतिनां द्रचि, पूर्णोस्साह्ा बिराजते १३॥ भीमत्पतापमब्रस्प, सम्शातास्वनयाख्' ज्येप्ठ' सुगुशभन्द्रएहपा, शीरालात् मध्यम' १४॥ कनीयांमन्दनमक्ष , ुसवन्तो बिचदणा' | थौदने एप पर्दे ते, ऋालपर्मध्रपागता३ १४ तिश्ष' फन्‍्पास्तथा साता , सुशीक्षा' सदुगुश्ाभया' रुक्‍्खूषाई प्रधानाउप्सीत्‌, सुगुणीबाइ मष्पमा (| १६ मानप्राई टृतीयाध्भूत्‌ , घमाराघनतस्परा) | ब्यूडए शुदे इसे सर्था', प्रजाइत्यः दिवं गठा' १७॥ भीमद्मैरबदानस्प, पट पृश्रा बिनछ्विरे पददर्शनीबाष्पास्मस्प, भाषारा! इसदीपना' १८॥ है कन्पे 'ब सथासूठाम्‌ , एका ज्यप्ठा समेप्यभूत्‌ | “बसन्दबा३! स्पास्याना, बंशयुस्मप्रमोदिनी रै६ न्पेष्ठमन्नः गुर्ेन्पेट्ट , विनीदों भार्मिकः सुपी' | ओमदगरचन्त्रस्प, दक्तकस््मद्राप २० ॥| पानमद्तन' कराबिह्ठ', खादस्तदनु नीतिषित्‌ दतो स्तारचन्द्रो<मूत्‌ , राजनीतिपडमद्ान २१ ददेकशों दि प्राप्त, युदंच ऋलचर्मठ | युगराजत्ततों सात , स्पापारंडसिविभध्स' || २२ ज्ञानपाक्त' रमामितः, काश्यसाहिस्पयो' पढ़! | स्वयं छा सुराष्पानां, पिदवस्सवी कब्रिप्रियः २३ मोदिनी आवृमनसां, मोहिनीबह नामिका | सण्जाठा शामना इन्या, शौचशीलगुणान्तिता [| २४ | भीमतो ज्यष्टमन्नस्प, भत्दारस्वनपास्तथा।

-४झा कल्पा इनिएफमूत्‌, गृदछचमीब शोमना २४ ॥।

(१६)

मायकरन्द्र झात्मार्पी, बातो माणिक्पदीप्िमान्‌ ! भमच्चन्दनमध्नस्य, घर्मपत्नी गुणालयम्‌ ॥२६॥ पत्युनामार्थिनी लेमे, दचक॑ य॑ शुमाशया ! फ्रेसरीपन्द्रनामाष्मूतू, दत' स्वातन्त्मप्रीतिमान्‌ || २७ मद्रो मोइनलालोड्मूत, यशफर्ण सुयवृद्धिमानू। प्रखरप्रतिमायुक्त , पुएयशीज्ञो5पि पालक' २८ ॥। शंशपे निईविं नौत', झुम्ेनाकायक्ारिणा

तत स्वर्यलता जाता, ज्योस्स्नेय इछदीपिनी २६ पानमप्तमुत भीमान्‌, मैंवरक्षात्ञापराहय

सात इन्दनमप्लास्य , ज्येप्ट पैप्रोउस्ति यः कुत्ते ३० तत्सुवो5स्ति रपीन्द्रास्य , प्रपोष्ा मुत्ततारफ,

खीपाधथा रप्रिमाति, भुमिमएठछतदीपर' ३१ भीमप्वएरघन्द्रस्प, पेमपन्द्रामिष' सुत मियापिनयसम्पञ्न', विप्रत्तसा नन्दिनी ३२ भ्रीमद्मरषदानस्तु, पुरुपार्ये मगीरष'

दान फर्णो चंदा धर्में, न्पाय मझुरिध स्थिर हेरे शशपेडघीतपियों , युवा घनपुपा्यन्‌ !

निजपाइुबलनप, स॑जात फोटपधीश्यर' ३४ मंसारामारतां पुद्धपा, उदेकयाजसानत'

परमार्थ मनबके, दान ध्याने घामिछ ३५ ओमानग्रपन्द्रय, वीवनम्पान्तिमे दय

परलोफम्प यात्रार्या, विश्विदातु मर्दि स्पपात्‌ ३६ ठमी कृपा मनो हान, पलवमितं घनम्‌

घुपसेश दिधायाष, स्थागिनीं पारमादिफराम ३७ स्थाएयामासतुः सस्थाम्‌, घमस्पोद्धदय ठथा झुमशिदाप्रयाराय सपाय मिनपर्मियाम्‌ ३८

( २० ) साहित्पस्प प्रसाराय, घर्मम्ागरसाय | समाजे भाइविदुर्पा, प्रणाम चर्ति तथा २६ पृणयप्रतापतेजो 5म्पि , गंगारसिशे तृपाग्रसी' शासको मारबाइस्थ, प्रवाया झ्रठिवद्ठम" ४० तस्वैय ऋष्ह्दायायां , शोझानाम्ुपकारक बैनोपानस्प इचोड्यम्‌, फ्तछायासमन्वित' | ४१ बढ्तां फ्ठतां शाप्रत्‌, यात्रच्धन्द्रदिगाकरा | बर्द्भानजिनेशस्प, मक्त. शक्तः सदा सुखी ॥| ४२

पश्चापामिशनो5पिकाशि निषसन्‌ यो विश्रविषासय | शाहात्रा्यफद तबान्यपदवीः प्न्मानितः प्राप्यान ॥| सिद्धपकुफूनिभी इे शुमदिन शाश्रच तीयावियी

सोर्य निर्मितबान्‌ प्रशस्सिपटशी'मिन्द्र”” शुर्यः प्रेरिव * सेठियास्पापिते पीठे, प्रथम” पादपो5स्वि य' |

बद्धिंत पुष्पितस्तश्र, प्रथम फछलमबाप्तवान्‌ श्रीमवूमैरबदानस्प, पुएपयो पादपक्चयो' |

पुष्पार्सि बिनीतः सत, इन्द्रअन्द्र'' प्रयन्छृति है

अक्षप दीया इस्द्रचन्द्रः शास्री, श्ष्ध्य देदान्तदारिध्रि', शाखाचाः बीक््मनेरणगरम्‌ न्पाणदीर्थ , 3 4

््ध्य्य्य्ट पी जज अप अभी अज अर जल जज पलक जल '3०2०८३०००००८००१००+००००-०--०--२-- ८-० श््ञज्ज्वश्ल्श्शक्ल््त-

अकबर 2४पछ 808८४४--९ ।॥ शायंत्र 80020 'ै2॥0 ४७२३8 ':७३+३७--८ 2४ 880 2/0% १०७३३ +७४७/४--३ 90

(६*१)

ओमान्‌ सेठ धर्मचन्दजी सेव्या का वश |

ओऔमान्‌ सेठ घर्मघन्दसी छ्ले चार पृत्र भर पाँच पुश्रियाँ , हैं। उनके नाम--भी प्रठापचन्दजी, श्री अगरघन्दजी, भी , भी इज्ारोमलजी, चाँदाभाई, पमापाई, फ्सीपाई, भीराबाई भौर हगीबाई। ओऔमान्‌ प्रतापचन्दजी फे सीन पैथ्रियाँ भौर तीन पुत्र हुए | उनके नाम-सक्खुपाई, सुगनी पाई, मानमाई सुगनचन्दजी, शीरालालजी, 'वन्‍्दनमलमी। रैन तीनों के स्पेई संतान हुई इन ऐीनों फा रस््यापस्पा में है स्वर्गगास हो गया। भीमाच पन्दनमक्तजी फ्रो धर्मपत्नी भी मौजूद ! उन्होंने भीमान्‌ जेठमसजी संरिया ज्यष्ट पृथ्र भी माशथकचन्दवी को गोद लिया। भीमान्‌ झगरघन्दजी के फाइ सन्‍्तान मे हुए। उन्होंने भपने लघुआता भीमान्‌ भैरोदानभी फे ज्यष्ट पुत्र भी जठ- भल्तजी फ्रो गोद लिया | ओऔमान्‌ मेरोदानणी के पुत्र भर दो पृत्रियाँ हुए थे इस प्रकार ६-१ वसंठड़ वरपाइ, ? जेठमसथी, पानमलतजी, छारचन्दमी, उदयथन्दजी, शुगग़जणी, श्ात्र पालजी, भौर मोदिनीएाइ। संवत्‌ १६६६ मिति फा्ती सुद £ फो पस्तन्तफु बर बाई फा स्वगवास हा गया उनसे दो पृष्र भर तीन पुद्रियाँ भार पोत, दोहित भोर दाएवी £।

भ्रीमाद्‌ उंठसत्तत्ती चार पृत्र भौर एड पुत्री दर उनके नाम-भायफपन्दवी, बणरीपन्दवी, मोहनलालजी, जम करणयी झौर स्वथलवाबार संपत्‌ १६६७ में बवल आर बा की अपस्पा में शो यसकरएजी पा स्वगवास हो गया। थी मंरक

(४२२ )

चन्दथी के इस समय एक पृष्र इुसुमझुमार ओर एक्क पुत्री आशालता है| स्व्येछतात्राई छ॑ इस समय दो पृत्र हैं।

औमान्‌ पानमत्जी इस समय एक पुत्र श्री कन्दन सलझ्दी ( संदरस्ताज़डी ) हैं। झन्दनमत्तम्री क॑ एक पुष्र रविक्लभार और दो पुत्री एक सीज्षा भौर पर मुशीसा ६।

औमान्‌ छ्रचन्‍्दबी के इस सम्य एक पुत्र भी खम घन्दुझी और एक पुत्री चित्ररंखा ऐ। खंमचन्दसी एक पुत्री और चिप्ररेखा पाई के एक पुथ्री इस समय

संदत्‌ १६७६ में श्रीमान्‌ उदयचन्दसी का कपल १४ बरप की अबस्था में री स्थगवास हो गया उनक स्पर्गभास

पश्मात्‌ करीब १६ महोनों बाद उनकी पर्मपस्नी का मी स्वगंपास शो गया

अरमान जुगराखत्री इस समय एक पुत्र भी चेतन कुमार है। बाब्‌ झ्ञानपाक्तजी भमी भषिषाहित है।

भोएिनी बाइ के इस समय दो पुष्र योर तीन पुत्रियाँ हैं।

भ्रीमान्‌ मरोदानसी छोरे माइ भ्रीमान्‌ इसारीभक्धजी थं। उनका स्वर्भवाप्त युबाबस्पा में ही हो गया। उनकी घर्मफ्नी भ्री रस्नहु बरछ्बी को दसपन स॑ दी घम #$ प्रपि दिशेष रुचि एवं प्रेम पा। संबद १६३६ में कंबल बर्ष की अवस्था में भापन रत्तत्ताम में पूज्य भरी उदयसागरखी सहारा के पास सम्पक्स्व ग्रइय फ्री थी। पति फ्वा स्व दास दबाने पर धर्म प्रति झ्रापकी रूचि आर मी तौद हो गए भापड़ों संसप छी. असाएल| छा अकुणद चुछा और

(२६ )

डराग्म़ मावना जागृत होगई। संवत्‌ १६६४ में समस्य सांसारिक पैमयों फ्रा त्याग कर श्रीमज्जैनाचार्य पूज़्यभी शऔीक्षाक्तणी महाराज के पास और॑गूजी मद्ारात् की सम्प्रदाय में भी मैनाजी महारात छौ नेश्राय में पूर्ण बैराग्य फं साथ दीचा झंगीकार की | ४० साल ६ए झाप पूर्ण उत्साहफ्रे साथ सयम क्वा पालन करती हुई भात्म कप्याण की साधना में अग्रसर हो रद्दी है।

बिक सं>० २००१ क्वान प॑चमी |

(न्४्ट) श्री सेठ्िया वशावली दोहे ( दोई ) (१) सुन्दर मारततरप में, धत्रिय इस का राम | जिन शासन से सदा, इुआ सुखद जगफ़ाज (२) ब्रासि बढां विख्यात पुनि, पँँषवारा? जहि काल | सह जन्मे शम समय में, उदयादित मूपाल (३) हाद राच्च फ्री खोज में, जो रत रहे इमेश। इनके पुएय प्रवाप से मिले गुरु प्ञानेशर (४) रह्न प्रम सरीरशा की, हो शिक्षा में छीन। शब घमं को स्पाग कर, जन धर्म को छीन ।॥ (५) ढो सा बाइस वर्ष में, विकम नूप के याद शर्म भूमि शुम भोमिया, नगर किया आदाद (६) धंद्रत झ्रापा भार सौ, तड़े पर पुनि छचीश!। मृप घंशात तम कर 'तत, झोसिपः नगर पूरीश॥ (७) ग्राम जहाँ दाम रखपमण, देश सुसद ग्रुजरात | निरस॑ जाय बर्शों समी, सह के जन शुम गाठ |] (८) संबत आया पांच सो, पुनि इम्पारइई बपष | मात्र नगर में था बपे, नृप बंशज सइ धर्ष॥ (६) झ्युम संदद जद सात सो, भार अषिफ अड़तीश। शत्रुम्भ्रप में जा ग्रय, तौर्थरान की दीश॥ (१०) स॑ंदत भाया शाठ सौ, भौर झ्पिक दशऋर£ | झाप॑ असन कं क्षिएणए, मारताड़ मरनेर॥

(१) सुप्श-स्ुप देने बाला | (२) दैजबारा-अतिषो भी एड खाति] (३) द्वानशा-यनी (२) भासिष-आाप्तिषों। (४) बशकेर-जूस

(२५ )

(१?) धारद सौ फ्रे बर्ष खंब, बासठ भषिक सुपर | झाये पसन फ्रे लिए, विबरी ओपापूर (१२) पम्द्र॥ सौ के माद जब, भागा सैंताशीश पहुँचे पीझानेर में, जईं कर घीका ईश१ी॥ (१३) घर भन फ्रो संचय क्रिया, नानापिषर ड्यापार। कृष्ठ ही दिन में हो गये, घनिक्रन में सरदार (१४) पूनि सोझ्तड सौ पर्ष जब, बरासठ अधिक सुपर घन घामादि समृद्धि से, पढ़े तहाँ मरपूर॥ (१४) हुई प्रसिन्‍्ठा शादर में, छोरति पढ़ो परदेश। मान पड़ा सृप चित्त में, जोघषपूर के देश।॥। (१६) एक समय भस झागया, ठह्मकमन का झुछ काम) इश इशारा पाय के, दिये गाँठ से दाप्त (?७) तब्र तई फ्रें महराय न, रामहितेंपी धान। झरजमलजी को दिया, सेठ उपाधि मद्दान॥ (१८) प्ररचमछथी संठ शो, किये नियम जत दान। मूक्रूप" से झागये, झुत्त हो करणीदान॥ (१६) फ्रश्ीदान सुसंठ के, रामदानमी सेठ पृत्र हुए घनघर्म में, कमी थे जो हेठ॥ (२०) रामदानयी संठ के, पृत्र भ्रसीयन्द हुए अलौोफिक मूर्ति मो, निबइक्त फ़ैरवचन्द१ | (४११) सुन्दर शुम छन पायके, खंगत हुआ आनन्द | धर्म 'बड़नें' के लिए, हुए भूरसीनन्द॥ (२२) पर्मघन्द पता नाम को, किया धर्म का काम। परम बडढ़ोने में गे, छन शन झ्ा्ठों योमश्॥ (१) इश-रासा (८) मूच रूप-साकार-शरीरघारी (१) कैरबचर- शृष्ररूपी कुमुए के सझिप चन्द्रमा के समान। (४) पाम-पहर। 3 डर

(,२६ ) 4

(२३) रचा दित -भस्तिल - का, धमरूप घर चार। , पर्मूधन्ददी सेठ के, हुए पुत्र" मु चार॥ (१४) पहले सेठ प्रठापमक्ष, जो पिनयों की ख्ान। झाये , जो पम्पर्क में, किये सदा ऐेडि आन (१५४) मनु जिनके प्रताप से, ऋुपथ्च दोप इट दर गया झुकान के लिए, छईं थे मालुप कर (२६) घो चाप वन के लिए, दिए सद्दा घन दान। इपने छू. मले सद्दे, इजे का रख मान॥ (२७) भगरचन्दजी + इसरे, पुत्र इए स्दार। सिनकी गन दठदारता, ,घुरमित इछ संसार (२८) तीबे पुत्र सुसेठ श्री, उनमे भैरूदान | कग में रखने के ज्लिए, शान मान का प्रान॥ (२६) डिनकी पुक्क दिचित्र थी, संग बचपन की बास। दोनदार विरषान! के, शोत 'पीछने पातर | (१०) था स्वमाद इनका सदा, बचपन ही के माँय ना करना नहिं जानते, श्रेष्ठ कर्म के माँप॥ (३१) प्रो, दुर्यन परे अक्षणम रइ, सतन प्ले «कर प्रेम। फ़रते थे पात्तन सदा, जप शप पृनि शाम नेम

(३२) हुए. इबारीमब्नड्री, अौथे पूष्र सुम्रान | विनय झादि थो सीम्य ग्रु, बे उत्के सब प्राय

(१३) झरान्ना पाकर काल की, युवा अभस्था साँय। सृस्पु छोक हुख कर रपये, स्वर्ग लोक के माँय॥

(१४) पत्नी जिनकी नेक थी, रह्र कुंदरि था नाम। बचपन से डिसने किपा, सदा पर्म (का राम

(१) विरवान-हए (१) प्रत-पत्ता।

(२७ ) (३५) उम्नीसौ , छव्ीक्त | में, भाव नगर रवत्लाम ग्रदय छिया सम्पकत्त को, शुमद्‌! सुखद शिषघाम (३६) पवि फ्ो अन्तिम समय में, दिया प्लान का साख | पतिमक्ता पनिता सदा, फरती ऐसा काम ३७) जीवन साथी महं? कं, स्वर्ग गमन +फ्रे पाद। भद्ी मावना घर्म की, भूख गई विस्मांदरे (३८) एस असार संसार में, रहा न्‌ तनिक सनेहद | मनु बिराग घर रूप को, आया नर के देह।॥ (३८) पूर्ष पुएप ,फ्े, योग से, जगा. घमम_ परिशाम | जतादान? के हेतु से, पहुँची गुरु के घाम॥ (४०) पूछ्यष भी भीलाक्ष जी, मदाराज के पास। र॑ंगूजी महाराज की, संप्रदाय नई खास (४१) भ्री मैनाजी बी जहाँ, साथी श्रम ग्रुण खान। रस्नत्रप” आराधना, पूनि संयम जेद्दि प्रान॥ (४२) उच्मीसों प॑थ साठ में, समी प्रिमव को त्पाग। मनाशी क्रे पास में, पनी असी६ई सविराग (४३) दो इलार पुन्ति पाँच भव, सवत का मान०। दीया षर्ष हुआ भमी, चालित्न दर्ष प्रमान।॥ (४४) घरार अधस्था प्ममी, नहिं संयम कुछ साम। सपभ क्री झ्माराघना, करती भाठों पाम |

(१) शमद-एुमदासक (२) सत्‌ पति (३) विस्माद-महाव शोक। (४) क्रतावान-वीका (परत) मदण करना। (५) रत्नत्रय-दान, इशान चारित्र (६) हती-प्रत प्रइय्य डिश्रा हुआ | (७) मान-अमाणृ (८) बग-अुड्ापा |

* (२5) (२५) घरमघन्दजी संठ के, ये सब घारों पुत्रा सभी प्ुरन्धर धर्म झ, समी घर्म के सत्र! (३६) शन में मर्बदानदी, मभभष मी मौजद | उम्र तयासी बर्ष छी, मू्च? पुण्य लिमि सूद (४७) मुत्त पात्राडि अनकू ईं, समी योग्प इर होर। र्खिलात प्रेम को, समी धर्म के टौर॥ (४८) स्मी परस्पर प्रेम से, रात भपन धोम। शुम सुन्दर व्यापार स, ऋरत अपन काम (४६) ऐसे सुत पात्रादि सह, दानी भरबदान | आजक, हत पाक्तन करें, आगम का रस मान (५०) दो इजार पुनि पांच झअत्र, विक्रम संबत्‌ घाय। ये बाते छीखरी गरे, विकानर के माँप॥ (५१) बगती जल सत्र तक रह, सर्प दव का पय३े। बंश पृद्च यइ संठिया, नित्य नये फल इय॥

(१) स॒तर-रक्षक। (२) मृच -रारीरधारी | (३) पस-पीस बम्प।

(२६ )

' »वारह भावना ( दोहे ) (१) अनित्य भावना (१) काया कआन कामिनी, ब्रिपप मोग सप ओय। चशमझुर! .र्ससार में, रह सकें पिर कोय (२) जेैती -वस्तु अद्दान? में, छिन दिन पलटा साथ। जो दिखती हैं मोर में, सो संध्या में नायथ॥ (३) इस थरग में कोइ कहीं, वस्तु ऐसी सखास। जिसमें इरइम $ सिए, किया आय विश्वास ॥| (४) छपी सेष्पा की छा, पौधन जल फा फेल राजवरे अशिनिमेष९” तक, जाया आत बह्ेन

(२) धशरण भावना |

(५) मात पिता झुत भामिनी,€ झरु जेप्रिय परिबार | फाल-स्पाप्रर के साले से, कोड हाखनहार

>> (६) घर्म एक शी बगत में, शरणागत प्रतिपास | सेदि पिन रधा को कर, फाल चक्र फ्रजाल |

(३) ससार मावना )

(७) लकर गर्मारम्म स, दंइ स्पाग पर्यन्द। सगत जीत सब बु'ख से, पीड़ित हें हा इन्तण (८) कहीं कष्ट झतिवर्टि सं, कई ृबर्षा भिनु हाय दुःख मरा इस खोक में, शान्ति नहीं कई पाय

श्‌ कुणभाह्‌र-नाराबाब। अशान-संसार। 2 राजत-ठडय्वा है। अषछ्तिमिमेफ-सस्समात्र सामिनी-झी दारू ब्याभ-सस्मु रूपी सिंइ इस्त-खप

(३० )

(६) रुंगमछझ! पद मगठ £, कर्म ' खिक्ाबन हारा नाना रूप , बनाय के, भेतन , खेशन हार॥ (१०) कमी जीत माता बना, पिता पृत्र फ़िर नार। माई मंगिनी इन गया, यह विशित्र संसार (११) पह संसार भसतार हैं, सेश श्समें सार। मटका ज्रीबर प्रनादि से, पाया दुख अपार

(४) एकल भावना ।”

(१?) जीव भकला बनमता, मरे भकसा हाय।

कर्मों का सभय करे, सुखझ्र दुख जोगे भोष

> (१३) सभी कुशम्पी इपं से, घन मांगें मन साय सीव भक्केसा कम का, अपराधी बन छाय।|॥

(१४) मीब अकृत्ता स्व्रग॑ छुस, मांस्रे झति हपाय।

नरकादि दुस एकछा, भोगत पुनि | पछताय

(१४) तन त््पामे खम ब्रात जो, रहेन मेँग छिन एक।

किया कैम सफ़र चला, पर मद प्राणी एक॥

(५) अन्यल (परंप्ष) मावना

(१६) जीब छुडा क्रापा शुदी, फ्रापा बीबर एक | चयमज़ुर यह काय ६, जीय निस्य पुनि पक ।॥ (१७) कापा पुवृगण-पिंड £€ै, चेतन ज्ञान सख्प | पद शरीर पुनि सूर्ष है, जीव अमृत्त अमूपर (१८) भीद भनादी कापक्त सं, सइता ग्रोग बियोग। कमी किसी विछड़ता, क्रमी किसी से योग॥

र॑ंगमआ-खश्षन की जगइ अनूप-दपसा राहिल 2. कक

|]

(३१)

(१६) जितनी पस्सु जद्ान में, ये सब परकोया | इनसे ममता त्याग कर, ध्यापो -भात्मलकीय*

(६) अशुचि मावना

(२०) शूखित घस्तु सयोग से, हुए काय तैयार | भशुति दृस्‍्तु-से है. भद्ठी भाषा गर्मागर३ (२१) उत्तम सुन्दर सरस मो, होय मले भाहर | "आकर अन्दर फाय के, भअप्युति इोत तैयार | (२२) नेश्रोदिक नपय॑ डरे से, ,मरता मैं, शमेश।! निर्मत पह नहिं घनि सके, फरिये यत्न भशेपश (२३) शाड़ मांस का पॉींजरा, ईका चामड़ी माय। भरी भझसह दुर्गन्‍्घ से, महाप्द्येथ यह फाय॥

(७) झआाश्रव भावना

(५४) मन वच सन के शुम भ्रशुम, योगों से श्री खोय। शाह शुमा-शुभ कस को,-;भाभ्रप सानो सोप॥ (२५) एक्रेन्द्रिप भाधीन हो, संग खोसे निब्र गाता पस्वेन्द्रिप भाषीन जो, फिर उनकी क्‍या बात

(८) सुंवर मावना ) (२६) मिस वत के स्पीकार से, आभव की सप भाय ।. रुक जाती तत्वस्त ही, बह संवर कइसाप |! » (२७) डइुब परटोद्टीग जाय दे, छिठ रारी६ घट्ट चांय। बन्द फरें लब छिद्र को, सुख से थे तरिणांय॥)

| परकीब-पशई आस्म स्वप्न ब-भपनी गर्मागार-गर्म में। भशेप-सम्पू्ण « घटोद्दी-पात्ो | ररी-नाब

(३) (२८) आश्रद सं जिस कर्म की, ,शोती छिन छिन आय सो रोके उन सन का, संपर हस्प कद्ठाय | (२८) मद देतुऋ छद कम छा, मन से सच्चा त्याग माबरूप संदर बढ़ी, अस? सुनिर्यों की बागी

(९) नि्जेश भावना

/ (२०) संग का कारस शत ओ, कर्मो को सन्तान उसका ध्य £ नियरा, ल्‍्ननिजन का झस गान

(३१) मिमि सोन के मे को, भाग साफ कर देत

तिमि त्पु रूपी श्राण मौ, भ्रास्म शुद्धि करि देत

(१२) पाप पहाड़ों $ किए, यह बज | स्वरूप

पाप रूप घपनरे के छिए यह भांधी रूप।

(३३) इस तप के फरमाद से, पार्पों का कर नाश

#ददत श्नों क्रिया, अविच्नतर शिवपुर/ भ्रास |

(१०) लोक स्वरूप मारवना (3४) ईस अंग के संस्थान का, करना सदा भितार सोक माबना दर पढ़ी, धर्म पड़वन डार . (3४) लाक माबना के किये, तचक्त॒धान श्रढिपाय मन बाइर जादे नहीं, प्रन्दर बिर हा पब्लाप

(११) बोधि दुलेमे मावना | * (३६) रब दीन सम्यक्‍त्प पुनि, ज्ञान प्रोधि का अप साधन मिसना घम का, कड़ी होते यह प्र

जे [फज है शप-बड झआाण-कर्दी / दन-बाइला अधिचण- पथ है शिवपुर-मात्च !

(३३ )

३७) पह्ाँ श्ञान ही एुस्पय £, भन्य भर्य गौस। धान बिना सदर्म फो, पहचानेगा कौन (३८) थोषि! रत्र॒ टोठ तुन्‍्य हैं, इनमें घ्म समान। रनों में चतिए घृरय £, पुरूष ग्रोधि में प्रान॥ (३६) पद अगाघ मं कूप में, मटकूत फिरे इमंेश | पोधिरन पापे फह्ाँ, जई माया छ््वा देश॥

(१ २) घमे भावना।

(४०) जिससे परम मुघरता, इस मष में फ़ल्याण। प्रदी घम्र £ परम हित, भस भागम भमिधानर (४?) भारों शी पुरुपाथ में, धम पढ़ा भरदार। मूललमुत स॒र्र उक्त झा, मद्विमा अमित अपार॥ (४२) फामपनु पिता रतन, रन्‍प शव मुख दृत। सप सपक £ घमे फ, पिन मांगे फल देंत (४३) घमर माइना प्र छिये, जीप घम्र थिर होय। घम फार्य में रत रद्द, धर्म प्युबश ना शोप॥

बापि-सम्पक्तर। मं यु ति-चम्ति अमिषपान>झूथन | ब्युतर्नगरना

(१४)

चार मावना (१) बादि जोति पा गये, शिवपद् अखिस्त! निनश। सोइ जोदि मो मन बस, जग-मग रह हमश॥! (२) वों य॑ भार्सों मावना, मह्तारत छी सतुए करू झात्म छत के लिए, भनन्‍्प कोइ हतु।। (३) मैत्री करुणा सुदित पृूनि, ठदासीनता घार। साधक मय-शारिधि छरं, पाव फू अबिकार॥ (०) वाले चारों भावना, भात्रो मनन के ग्रोग। सासे मंम्र बत्घन झतठों, मिट सकृश्त मं राग (५) मादेव नित मात्ना, चदछल मन भिर होप। प्रक्ति मार्ग फ्रों पाय के, शिव मभिकारी होम॥

* मैत्री मावना

(१) छडग के जीबों को सदा, करहु मित्र सम प्यारा दर करिये काह्ू से, मिश्र सादर सन घार॥ (२) बर माष हद्ेंग शी, पूनि मय दुख छी रान। मिष्र साबता धदा, शान्ति सु्ों फा थान।।

मैत्री मावना के लिए वर त्याग--

(३) दु्प रूप दादाप्ति को, जा पदन समान घिनता रूपी पल क्वा, सीचे मर समान (७) घम॑ रूप टद्युम कमल को, नाशन बर्ा्ध समान। मशामयों फ्री खान लो, कर्म गन्‍्भ का भान।

(५) रागद्रेप पहाड़ का, उषा शिप्र समान! एमा वर जिपच३१ हैं, चित्त दाम क्रा थान॥

(१) अप्िल-सत (०) तेतु-पत्र। (0 विषक्रपु। 7

(8४ )

(६) बैर विषदी से रहो, मलुझां! तू दशियार। त्यागे इसफ्रे जीत है, नेइ करे ते हार॥ (७) शममज़्कर दुख मृक्ष जो, पिन्‍्ता क्रा जो मेपरे | सैत्री मायों का रहे, जो प्रतिषष्द इमेश।॥ (८) मित्रो! पइ शृइ नहिं पसे, कर बैर नह पास। फौरप पॉँडम वंश का, क्रिया इसी ने नाश॥ (६) तासे मैत्री भावना, मारो छंद इमेश। पैर माव सथ दूर हो, रहे दुख का ज्षेश॥ (१०) मैत्री माव मलुप्य का, है ग्रुण् सहन महान। बेर माषना जाहि में, वह नर पशू समान (११) सैत्री भ्त विकासते, आम पास के छोग। बिसर जात हैं पैर क्रो, फरहिं उचित सइयोग॥ (१२) निज विकास द्वित जि जो, निमंज्ञ करना होय। वो तुम मैत्री माय क्रो, अपनाभो छल खोय॥

सभी जीव भाई ई--

(१२) मद मत्र फ्रे सम्बन्ध से, लीब माप्र सप्ठ॒दाय | नहिं. फोइ ऐसा रहा, शो इमारा माय। (१४) सघद्दी जीव जद्यन फं, जय हैं मरे माय। करना उनमे वैंर भी, अनुचित समझा शाय॥

चमापना--

(१५) समी जीव सब हो चुके, प्रधृ फ्रिसी मप साँय। उनका घुरा सोचना, करना सदा सद्दाय॥

(१) रामसश्चर-शाम्ति को नष्ट करमे बाला ।(०) मेप-रूप।.«

(३६ )

(१६) सा तुझेम अप्नान बश, हुई किसी की शनि। सो घू शाम सुबह ठस, करा शान्त सतमानि।॥|

मैत्री कम--

(१७) न्यों ज्यों भातम शक्ति का, दोता श्ञाम प्रकाश।| मैत्री रूपी ग्रस्त का, स्यपों सथों होत विकाश॥| (१८) बड़ इसकी नित्र गेह में, जो हा सुन्दर बेप। स्कन्प इठ्म्यों में रह, शाद्या सार देश।॥ (१६) इड़ि जिधि मैत्री माजना, भादों श॒द्र इमश। तो पृनि मंत्री बेलड़ी, बाद सारे दश॥ (२०) झन्प भर्तों क॑ साथ दूँ, कर नहिं सरा पिरोष। तस्थ सोम की दृष्टि सं, कर तूँ मत का शोध! (२१) किसी जाति के क्ोग से रफ नईहिं जरा भिभेद। मित्र भा त्पागो नहीं, स्रो स्व्रमाव कुछ मेद॥ (२२) श्ीष भादि हट दरब्य का, स्वभाव में मेद। तो मी पे जग में रहें छिशमिल, रखें ने मंद (२३) भन्द्र रह, भाकाश में, भू पे रईइ चहोर। भैजी इनड्ी लित बढ़, कमी होए पोर* (२४) सैस उक्त पदार्थ में, दंश स्राति का मेद। कर॑ किजिन्सातप्र भी, मित्र माद का छेद।॥ (२५) बैंस तुरको ठवित है, कर ओषों से प्रेम! इोने मैं इछ मेद मो, तब मत मभेत्री नम (१६) दुर्माग! धृषासिया ! बषा आतु के भाय। शरत्तता फ्पों इस मांति से, इरा भरा तूँ नाय॥

(0 ग्रोड-छोम (९) बोर-कम।

(३०)

(२७) माई भझब्र मैं कया कहूँ, अपन दुस की बाव। वनस्पती का ठउटय छखि, खख गया मम गात॥ (+८) भर दुष्ट जवासिया !, त्‌ हो बड़ा नादान। पर सम्पत्ति क्सि न्‍्यरय॑ ही, फ्यों होता ईरान॥ (२६) थावर जग में अन्म से, जड़तावश? में नीच। पर" मानव ईइर्प्पछ जो, है बघद घुक से नीच॥

प्रमोद मावना

(१) शष्रि गुखिजन क्री पूजना, झादर सह पुनि मान। इर्पित होना ताहि ते, है प्रमोट शुम खान॥ (२) पीठराग भरिदंत का, पुनि ज॑ साधु सुधान। दानी क्राइक्क थर्ग का, समझा कर शुख्गान॥। (३) फच् भय ग्रत पाल कर, जां चाइसि भव पार। तो ईप्पा मन से रुजों, रोपकरे सवा द्वार॥ (४) पन जन सम्पधि भ्नन्‍्प झी, दस मन ललनाप। अन्प पुरुष सन्‍्मान का, देख इटय इपाय॥ (५) ठदित धर्म फ्रा दस कर, जिमि सराज” खुश दाग च्तु पमन्‍्त फा दसत, जिमि यन विक्मित होते (६) मुनत॒ मंघ की गज़ना, नाथत मच्तर मयूर। घातक जिमि जल पिन्द्‌ पा, ड् प्रमझ्र भरपर॥ (७) मानव ! हृद्दि भांति ते, परटझति यत दंखा। अति प्रमप्न शुम दृष्टि म, ताहि भार सूँ प्ंयी३॥

(१) गदहताररा-झषण्टानतावशा। (६) पर-परस्लु (३) रोपह-रोशन बाहा। (२) सराज-रम७। (३) मत्त-यम्त मतदासा। (६) परस-रैस

( इ5 )

(८) करो ने उप्पा अन्प मे, संडि उम्नति इपत॥ ऐसा फ़रन स॑ सभी, करें हुम्हारा चाज॥ (८) टिलमिक्ष तुम सप्र से रहा, प्राशी से रस प्रेम। इष्टि विधि! सत्र थारिणि” सरो, कर जप तप पुनि नम (१०) बिरफाशिक संस्कार से, प्ठ मन इप्पां खाना पर उभ्नति नाहिं सह्ति सके, इषा अल नादान॥ (११) दृष्प. सदृयृशद्ारिसी, पाप मड़बनि डोार। इृह भद्र में दुस् दापिनी, परम नाशनि हार] (१२) ऐसी ईप्पा फ्रो खरा, दो नहिं मन में थान। लो चाइसि इस लोऊ में, या पर मं इशयाण॥ (१३) पद प्रमोद छुम भावना, ऋरती सदा प्रमोद। समी दुश्स को दूर कर, मन में रखती मोद॥

करुणा मावना

(?) मन भ्रढे पन के दुष्ल से, दुखी लीग*्को जाप) वुख नाश की चाह फ्रो, जाना फ्रसु्णा सोस। (२) करुणा गुण समरष्टि फ्रा, तैनागम के भाँप। घसमृत्त ठ्सा फ्द्ो, गत्प प्र्म कर माँय॥) (३) सापूपवा आवकपना, बिन अइरुसा नहिं शोप। करुया गिन नहिं खरा सकू, संत्रा पत्र पै कोय। (४) जीषन प्रिय सब जीव को, सध् को सुख की चाह | विरम्कार दुस मृस्यु क, नहिं सादे कोष राइ।॥ (५) तुम्हें वाइ जिस वस्तु छी, ठसे शीभ कर दान। वाहि एस्तु का हाथ स, तुम्दें माम्य दे मान३१॥

(१) ऐड विचि-”स प्रखर ( )मच आरिजि-संसार समुद्र) (३) सान-आदर |

(३१४ )

(६) दूखो जीव जिस द्रस्य से, सुख नहैं पाये दोया बह घन नईिं कुछ फ्राम करा, बकरी गल?-गन सोय॥ (७) दुखी जीव घिस फाम से, रचित इुए होंय। दुखी जीत्र शिस शक्ति से, ठद्धत हुए होंय॥ (८) मोच भार्ग जिस प्रृद्धि से, नहिं पहचाना द्वाय। है नहिं छुछ फ्रम कू, मार रूप पुनि स्ोय॥ (8) मुख, द्विव, विद्या कीर्ति पुनि, सुस विनीत सब जोय | पुएप इस के फल समी, जो सुखदायी दोय॥ (१०) जो पाहों इस हव के, दरमर हों पात। फरुणा जल से सींचिय, इसकी अड़ दिन रात॥ (११) फरुणा जल पभमिपर? प्रिन, पुएय इच्च नशिजाय। ता प्रिन सुख सम्प्॑नता, चश में म्वर्य विलाग३ (१२) दीन, भप॑ग, दरिद्र नर, रोगी माग्य पिदीन। पिघता, रद, झनाथ, शिष्ठ, पर पीड़ित, बश्तहीन (१३) दिक्टट समय जो मर रह, प्रिना भश्त प्रिन पास। ये सर फरु्णा पात्र हैं, रखें तुम्दारी आझराश॥

भध्यम्थ भावना

(१) जग जीवों क्रो सदा, फरन में अघ! दर। सध्य माना झा सनन, साथ देय मरपूर (२) सष्य सापना के बिना, समर हा द्रिपम' समान | पर अप-मोयन दूर रह, भाषपृददिं मुग बिलगरान*

(१) इफरी-गक्ष-घन-वररी फे सल्ल मे क्षटरन बाल्ला स्तन! (६) भमिपर-सींचना (७) शिज्ञाप-नप्ट दो जाता है (२) भव-वार (२) सम-सम्रमाद (६) विय्म-विप्म भाव (७ विल्ञगान-दृर दोना

(४०)

(२) छग सेषा जग सरीब का, ऋरन में उपकार | पुनि छम पर्म प्रचार में, साइन शीक्षवा घार॥ (२) शप्रु एुम्हें यदि मारन, का मी उद्यद होय] कोप खद झरना नहीं, जब्दि रब कारणश दोप|॥ (५) चेतन इस संसार में, एसे हैं इुद्द जीब। जो संरे प्रतिष्त हैं, पाप कर्म के सींब! (६) साम, दम भरू मद सं, सुन्दर उपदेश पुनि सेष्टि मीट भचन से, ग्राधित करो इमेश॥ (७) समी उपायों स॑ यदपि, नह समर बह फूर। सरा तैद्टि भपमान कर, तेड़ि से इट तूँ दर (८) पापी का मत नाश क्र, कर पुनि पाप बिनाश | किसी जीग के नाश से, दिंसा भाबे पास (६) हिंसा के प्रागमन से, पाप सृष्टि अषिकाय। अधघ' पात हो झास्म का, पुएप छीख हां माय।। (१०) छान करना इस का, मछ नाशन के दत | नीधषि शाख्र मार्ग में, नहिं यह्र शामा देत (११) धिमि जत्त क्रोमत्त बस्तर स, मैक्त इठाया जाप। बातों झरें नम्न तिमि, पापी पाप नशा (१२) इंश दितेपी मनुज जो, अधिक हाय प्रशबान। इदज्ता ज्ञ नहिं शत्रु सं, कमर साह्टमि सनन्‍्मान॥ (१३) सन शीलता घारना, बीरों का दाम | घार सझ सहिष्णुता," दुर्घस नर बल्खाम३े

(श) सींग-इइ 4 (०) सहिप्छुता-सबनशीक्रता। (१) गहलाम- बछडोन

(४१ ) (१४) चेतन की पल पृद्धि से, सशन शीलता इदोय। सादे तुम घारण करो, शान्ति खा! झ्ुम दोय। (१५) उदासीनता घार लो, जो निञर मन के माँय। तो अरि? स्थागे ध्ृष्टता, पुनि सेबक बन जाय (१६) ये सद ही शुभ मादना, भागे मैरबदान। झो भापे शुम मावस, शोय परम फ्रम्पान॥

(१) समा-क्षमा ] (०) भरि-शाधु 4

(४९ ) आत्म प्रबोध मावना

(१) नमो प्रादि प्ररिईंत क्रो, जिन प्रकटा सं बान। धर्म सिखाया पगत को, दूर किया भन्नात || (२) सके अराब्र विश्व जस, इस्तामस्कर समान | सो प्रस्ु मति निर्मत्त परे, विम इरे बलबान॥ (३) जोक दितेपी धर्म रत, पमृनि जन प्वान प्मत। कीनी भरहु सवूमाबना, मंद नाशन हे इत॥ (४) सोह झ्रघार कछु प्राय के, भार्म मनन हेतु | करता हैं सदुमानना, भोर मे होई इंत॥ (५४) यद्ट शरीर प्रयाप जो, निते, निव पत्चट खात। पर मैंने जाना नही, दिन दिन निरकव गातर (६) भ्रमी देइ की यह पिती, निरसत ममता आह | प्रत्ध फी बायी धस्प बह, “अबिर विनश्वर१ गात!! (७) परमाणू फ्र मिक्तन से, बना हुआ पद्ट गात॥ विखरन से इनक नहीं, भेतन का कुछ जाते।। (८) थ्विमि झरफाश में बादसी, घुमड़त बविद्ठरत आप कोई अग कत्ता नहीं, दाता श्रापो आाप।॥ (६) चेतनक्ाय बियोग से, क्यों तू है प्तरात। रखने से कया रहि सक, छोड़े से क्‍या सात (१०) मैं हो चेतन झमर हूँ, इशन सुप भर ज्ञान। दौप॑ झादि सहज गरुश, सब मेरे पहचान।॥। (११) काय रह था आप डो, पुृदंगत का परिशाम। मैं अविनाशी एक सा, बिन्ता का क्या डाम॥

(१) इस्तामश्नक-इबकी परगद्टा हुआ आांचजा। (०) गात-ग्यीर। (३) विनशबर-#ए दाने काया

(४३ ) (११) अझष तक था मैं जानता, यह मेरी देह। पाक्षी पोसी प्रेम से, फर फ़र नित नव नेद॥ (१३) पर अ्रब मैंने समझ सी, इस काया फ्री घाक्त | अब्र रु हुई ने भाषशी, झागे कौन इवाश > (१४) मेरी शोठी काय जो, रहती मम झाधीन। रोग, शोर भरु सृस्यु के, क्यों होती धाघीन॥। (१५) एक एुम्दारे देह फ्रे, क्रिते सगे ने भन्त। मोह फाँस में सप्र यघे, मूर्ख अरु मत्तिमन्त (१६) जग फा नाता झूठ है, क्यों फेसता इस फ्रंद ! खीप एक अ्रु नित्प है, सदरभ सब्षिदानन्द > (१७) सम्पति कारण आस सक, भाँपे फर्म भपार। शिन भोगे छूटे नहीं, फरो कोटि ठपघार / (१८) पीसी सो बीती सर, अप तो समता छाँट। नया फ्रमे बांघों मती, छत फर्मो को झाढ़ (१६) में हूँ निर्मेत गगन सा, रूप शीन पैसन्प। आदि भन्त से हीन हूँ, महिमा झ्रमित झनन्प (२०) प्तमो सक्त्व को धान कर, करू आत्म सययन्‍्त | इरन में समरयथ पर्न, रागदेप पक्)न्त (२१) दाड़ मांस झरु रक्त वह, मल प्पादि छखाय। चशभप्ुर इस ऊहाय में, ममता क्यों श्रषिकाय (२२) स्पर्गांदिक फ़लदान से, मित्र सृत्यु को जान। दित फारक्क फ़ोइ नहीं, इससे परकर मान (२३) शत्यु बिना इस पंथ स, छीन छुड़ाबन हार। मपसागर में दपये, गुरु पिन कौन उपर (२४) इृध्त दृदत तू पका, मन ) शमसुझ! यपहुपार।

पर नें मरण समाधि पिन, शम समाधि पिन, शम सुछ पा दायार॥_ शमसुरम-मात्ततुप

(्ख्) (२५) मृत्युप्द्त की हाँह में, ऋर बिषपों क्र स्पाग | स्रो नहिं स्पागों दिपय को, तो भौरापी शाग॥। (२६) सात छातुभों सं बनी, यह ओौदारिर देह। गराते बार ज्ञाग ही, जिमि यतप्त-उपलन-गेइ! (२७) नय उपनय अरु इंसु स, स्टटान्त भनक। अंतन को पहचानते, पुनि लन सहित विवेक || (२८) चेतन तू इस काय पे, कर नहिं तनिक सनह। यद शरीर वेरा नहीं, तू निर्मत्ष निर्सेइश » (१६) झ्पाबी कर्माषौन ई, नहिं भोषय भाघीन। तात॑ झ्रापप छोड़ के, दो छूम भ्यान विज्ञीन॥ (३०) बेंधराख जिनराल की, भोपप मरण समाधि। सेदबन स॑ भाषे नहीं, भाधिर स्पाणिश ठपाघिर (११) भजर अमर भय सदा, प्रब्यात्ाघ१ भनन्त | सपने जे सुझ्ध नहिं मित्त, आते विकसन्त (३१२) ठेज ताए से राप यथा, सोन्या निर्मत्त दोत। समता स॑ स॒ईइ बेदना, जौध्ध भमत्त तिमि होत (३१३) 'द्वायधोय!*» तुम नाक रो, बढ़ने से हे योर | हाय क्िप॑ दुख ना धरे, बेंघते कठोर (१४) इससे अप्छा है यही, पद दुरू मत्रि सममाष। नपा कर्म बाघों नहीं, सद्चित कर्म खपाव॥

जश्न सपपन पद - धफ़े कर घर | विज्ञीम-सक्छीन

निर्जेद-निर्दंप-सेप रद्टित ३। झाधि-सानसिक चिल्ता | स्पाधि- शारौरिक रोग | इफ्रणि-बाइरी झणाड़े। भण्दाबाब -रोग रहित दायक्ञॉप-बेइला कै खद्द पकन से लो क्यरत के शप्द सिकश्वते हैं।

(४५)

(३४) ज्ञा तन नरऊादि में, बहू * झवागर पर्यन्त। सही विविध विध बेदना, जिस का नई कुछ अंत

(३६) तादि बेदना सामने, मलुत्र बेदना खोय | ड््पा £ यह दस दायगिनी, भन्‍्प कालिनी सोय (३७) यद्व तो दुख, सुख मूत् £ै, सार रूप पुनि सोय। कांयर पन फो त्याग कर, सइ मन दुस दृढ़ दोय

(३८) पह ता सरा ही किया, मंद मव फा ध्ाण मार। सीतव असाता बंदनी, ग्ांपघा कर्म अपार॥ (३६) पष्टी भ्रसाता बेद कर, ठष्यस् हुआ तू भाल। फर्म भार इलका हुआ, हुआ सकल सुख साज (४०) हो परवश तू नरक में, पीड़ा सद्दी अनन्त। पर उससे झुछ नहीं सरा, बिन समक्तित ग्तवन्त

(४१) सइनस॒ भी पबेदना, बहू सागर पर्यन्त हुई सकाम निमरा, हुआ मय का अन्त

(४२) अमित निजरा डांयगगी, छोगा भव का भन्‍्त। चर! दुख सम्माद सं, सहृ्ष जो शुस्मबन्त

(४३) चेतन त्‌ पह्ट जान ल, निमभ्य £ं यह पात। किप फरम॑ मोगे बिना, ब्ासी माच ने जात

> (४४) प्रपक्त पुएप कु उदय से, मिला मनु|ब मबजान। फदा मगवती सत्र में, सीयघ्र मगबान॥

(४५) हा में मी बह पुएप से, झागे चेत्र में क्राप। उत्तम कृत्त घिर जीौदिता, रोग दीन रन पाय॥

(४६) पश्चेन्द्रिय परिष्थता, सदुगुरु छा मंयांग। सा पे मित्तना फ्टिन हैं, प्ररघन अब मसुयोग

भा क्ष7 > इछ समर

६४३१7

(४७) भ्रागम सुन कर अभदनों, कठिन कद्दा जिनराय। उससे भी प्रदखाय प्र, करना कठिन फ्दाय।॥ (४८) भ्रदाल्‌ू संसार में, कर स्पाग पचलाण ग्यारड अत भी साथ स्ते, फटिन मुपातर दान (५६) ऐसा झदसर पाप &, ऋर संत सनिक प्रमाद। नहिं तो फिर पछतायगा, समय वपूफन बाद] (३०) छर्म काम में मत करो, समय-माद्र परमाद | झानेंद सुख शारबत सदा, मिले धर्म परसाद (५१) सद ठफ्र पट में प्रास ६, जप्ता रद नवफ्यर | हुए हेर॑ कट झायते, होगा मद से पार॥ (३११) श॒द अपन साँव में, पर्म-रक्-मय्डार ! इरना हू फिर रायगा, खाछझी ढ्राप पसार (४३) कर प्रमाद संत घर्म में, झायुष शीती चाय; काश चक्र £ पूमता, इश साझशे कब द्याय॥ (४७) बिना धर्म पंदन क्रय, मोग दुश्ख भनेफ सारासी मम्दा रहा, अभ्रव तो रास बिमरके (१५४) द्वाट बरगीघा रूत पृनि, साना चाँदौ घाम; जैती मम्पति खगतव की, मृत्यु पक नहिं थाम

(१६) ठगिनी सम्पत्ति सदा, मन तू रह इशियार यह इतनी मायाबिनौ, जिसक्षा बार ने पार )॥

(१७) भन्‍प महांघन पही, दे घन का शुभ ठामा आजकू धत क्रो घार ऋझर, करता श्यातम काम |

(भ८) थागा प्राश्वी मोर है, नहिं झब थह रात | सौने मैं दुमन दिया, इम्मपरण को मात

कर

(४०)

(५६) भावम द्वित फो मदना, मान्रे मैरबदान। पूनि राखे यद कामना, दशोय जगत रून्याय

माता पिता के प्रति-- (१) भात पिता से देह के, लीजे खूब विचार यह शरीर था आपकी खूब फ्रिया था प्यार॥ (२) थी इसकी इतनी थिती, अब्र आयु भवशेप | नेइ करें कुछ ना सरे, भाड़े दुःख विशेषता (३) यद हन उतना ही रहे, जितनी वय पषशेप | नई ऐसी शक्ति जो, रख से इस विशेष (9) भातम साधन में प्रुझ्े, दीजे अप सहयोग गमनागमन पिनए्ट हो, मिट्रे सकझृतस मपरोग (५) फ्राया भौर छकुइम्प करा, तब पर सभ सम्भभ। मेरा अतन एड यने, एसा फ़रो प्रजन्ध

पत्नी के प्रति-- (१) दे सहयोगिनी हे प्रिये ! सुन मम्र दिव की भाव मेरा तेरा नियत था, इतने दिन का साथ (२) देने प्रम इफ थिव से, संया फी दिन रासत। अब यट्ट_ तन पिनसन लगा, छरो धर्म' री घात (३) सो सच्पी दितकारिणी, डा पतिमक्ता नारा इस अवसर ममता वा, दूगति की दातार॥ (ए) जाता था पर्गाँर् सप्र, तुम पियेफ की खान। दवी थी घुसा सटा साने को पक्यान॥ (४) परमय माता पाँय दो, घुम परिसाम भथारि!। * झप स्‌ मोइ ममत्य रर, भद्दित करा ना मोरि॥

(९) अप।सरि- अहूत

(शघ)

(६) घमस॑गिनि | दो झुक, भ्रन्द समय में साथ | मदद भ्द का फरा टक्खन, मीके भझातम काज॥ (७) घिन निगदित! शुभ घम का, पाततन करना रोज बन कर सच्यी भाविका करना आातम खोब (८) धर्म ध्यान में छीन हो, जिन बाशी अनुसार | मोड स्पाग दाम को कर, भीरण मन में घार। (६) भस्म प्यान फ्रा स्पाग कर, करो सदा छुम ध्यान पक्ञान सहित शुम कस कर, करो झ्रात्म कश्याल (१०) ज्ञानािक छुम रतन घर, करो नियम पचरखाल | जिन मारपित झ्ुम पसं का, निशदिन करना मान

पुत्र के प्रति--

(१) नीति सप्रित सँसार से, सु | र्पना झ्यवद्वार [ अंश टिपाना भाषना, ते कर मिख्याचार (२) सदुगुरु को सेषा करो, भ्रविफ अत खस्रो घार। अदा रक्‍खों धर्म में, भागम के भलुसार।॥ (३) क्ूभा सहा फ़ाटका, कमी ने करना सूछत छोमों में उठ्रद पर, धुनि घबिन्ता का सूक्त (४) लोक इसी नूप दूह पृनि, जिन कामों से होय। उन कामों सदर रह, जाते इसी होय॥ (४) संप किय कत्मी बड़े, प्रेम रख सुख हांय। मामछबाजी? सदा, बर का घन छिनरे होय | (६) संगत करना ग्रुशिन की, शिवा उनदही भान। खोटी भादत स्याग ऋर, बन्म करो फेशवानर निगडित-सपपित-कश्स हुआ मे साथबाजी- मुकदसा बभायी )

छिम- क्ीय | फम्रबान-सत्र रू |

(४६)

(७) न्याय मार्ग फा पंय्रिक्त भन, कमी फ़र भन्याय | नदिं विरुदू कुछ काम फर, ज्ञाति इसे फे मांय (८) उप्त मत में शामिक्ष रशो, जिसमें सस्‍्प विभार | स्रींखा तानी मत फ़रो, गुरुषन शिक्षा घार॥ (६) अपवशुण झकाड़ो भापना, दोप ने दोजे क्राहु | मत फर निन्‍्दा अन्य दी, गुण प्राइरू पनि बाद (१०) शान गुमान करो नहीं, पा सादगी भालत। सीठा पचन पुझार फर, शिल मिल सप से दाक्त (११) यू नौइरि यह झूलड़ी, क्यों फरता तफ़रार। इसफी माथ्ी परिखरसी, छेरे रत्त भपार (१०) पूरी रीति को स्याग कर, सत्पमाग फ्रा घार। जैन घम॑ पालन करो, आगम है भनुसार

शान्ति मागै--

(१) कहाँ शान्दि करा यूक्ष हैं, दृद रहा ससार। फ्रस्तूरी निज्र नायि में, पर झूग अमृत रेंगार (२) में ही दुस हा मूल हैं, भें ही परमानन्द। स्थामी हूँ में दास हैँ, हूँ पेंघित स्वहन्द (३) राग ट्रप दी पट बिक्ट, चेतन उसमे बन्द पराघीनता यहाँ, पशों झानन्दाा (४) क्यों प्रता श्‌ राग ६, शगा फ्् कान संकट में तू दखनां, होंगे सार सामना (५) झा दप क्‍यों रूर रदा, हे मइ तर सीत | सरा प्रा बटा रहें, सड़ता ठस्दी रोत॥ »६) तैस भन्‍्दन लेप से, मिटरे इंटद सन्‍्ताप। सैम घीरञ से मिट, चेतन रे प्रय-ताप! रे अप किक कप 7 का शभलधी नमन लेट

( २० )

(७) जा देत हैं गालियाँ, या करत तफरार। दे छुगदी को मेनते, तुमको घक्‍का मार || (८) भघीर बगें दवा रद, घीरतव का गुश धार। जो भवसागर बिक्त करा, पाना शी पार॥ (६) झाग भाग से ना घुझखे, पानी से बृकर जाय। फ्रोध क्रोष से ना मिरे, समठा से मिट जाय (१ ) जैसे घन्‍्दन लेप स, मिट दाह ज्यर पीर तैसे घमदा से मिटे, क्रोघी क्री तासीर॥ (११) सुर में फृक्ता क्‍यों ऐफिरे, क्ष्यों दुस में घबराय | जो सुख दिन ना रहे, तो दुशः्स क्‍यों रिक्र जाय (१२) अतुमद का कर दीप से, पढ़ भागे हर बार तब पहुँचेगा भ्येप! को, चेतन अविकार | (१३) पाने से सदेग फ, दृढ़ होता बैराग्प। शग ठेप को बीतता, दोता विकसितर माग्य॥ (१४) बता छीन निर्वेद तो, छाड़ेगा भारम्म। करता बह पप३ विमक्त? , शिष्षपुर* क्य प्रारम्म (१५४) भ्रद्धा ही प्राप्त हों, त्याग भौर बैराग। पुर छुस को भी स्पागते, कर शिव सुख अनुराग९ (१६) संषा देती बिनय क्रो, बिनय समी गुणखखान। गुय का धारक छीद ही, कर मो पस्पान॥ (१७) शत्रु मित्र सुख दुख में, साम्य भाद को घार | पद्ट सामायिक्त सुखद ईं, रुके पाप आचार॥ (१८) दमा यात्रता से मिटें, क्‍्लेश झौर संताप। बड़ मित्रठा मय इटे, विकसित हो शुख झाप॥ा व्पेज-स्शथ | विकसित-पिस्तार होना फेश्नना | प्रज-रास्‍्ता। पिमल्त- निमेह्त | शिक्षपुर-मोक्ष। अमुराग-प्रेम।

(५१)

(१६) क्रीघ पिजछय से नाथ कया, इोता ठपफ्रार | चमा शान्ति प्रद प्राप्त हो, इंटे कम का मार (२०) मान बिडय से नाथ फ़्या, दट्वोता उपकार | पिनय शीक्ष घन नाएगा, छोड़ फर्म फा भार (३२१) माया स्रीसन से प्रमो, फ़्या होता ठपकार | सरत-भाष-सम्फ् दो, सवृगति फा दातार॥ (२२) श्ोम विज्रय से जीब फ्रा, क्या होता ठपकओर। पायेगा संतोप क्रो, सभ्र भुख फ्रा मयढार (२३) धर्म रूप शुभ इध का, पिनयमृूल पड़चान। सोते यश फ्रीरति घड़े, पाधे पद निवाख (२४) यदि फ़ोइ अन्दन कर, या फर दे अपमान। राखे समता दोठ में, सो क्षानी पहचान॥ (२५) शस्त॒ घाव कुछ फाल तक, करता पब्रेच्ेन | भचन घाव छग जाय पो, दुखित फर॑ ठिन रैंन (२६) सच्तों से हो मित्रता, गुशिम्नन फ्रा हो चाव | कृपा क्सि.्! जन पर रहे, मैरी पर सममाव

कल्याण मागे

(१) बूंद पूँद्द से घट मरो-यह जानत सब फोय। गुश का ग्राइक झंत में, ग्रुस-रत्नाकर होय। (२) बिस ग्रुस फी भनुमोदना, करते हैं नर नार। घइ गुण भाता साथ ६, हाया के भजुसार (३) पर निन्दक पर दोप को, लेता ड्ाथ पसार। गुण गाइक गुण को गहे, दूनिया पासार

ब्लिए-युरी। गुस-रत्ताकर - गुणा का समुद्रा

(५० )

(४) कर्मों से इस खोब को, जाना अति बलवत | भब मंतर के सब कर्म का, दल में करता 'भंत (४) मोह कर्म की प्रझलता, कर फर्म बसबान। मोइ कर्म कौ शिग्रितता, करत कसे की हान॥। (६) देह इच की छाँइ में, बठे भात्म सफीर! | कौन जानता कब' उड़े, जैसे पश्तरः कीर३ (७) एक झास्म पहचान से, मंद मद के सब रोग। मिट आते हैं जीव के, यों कहते पनि छोग।॥। (८) मसे बादस के इटे, सरर्य प्रक्र हो बाय। शाग देप पट के इटे, ज्ञान प्रफट हो आय ।॥ (8) मदरोग इस छगत के, फ्रेसे »ैं. भगवान | प्रघम रोग झार॑म! ई, दितय 'परिप्रइ! आम (१०) एनफुस पड़फ़र नेत्र में, प्टकंव जिसि दिनरैन। समहती भारम्म से, रइता तिमि बेसन (११) ज्ञानी ग्रपती देश से, करते कर्म पिनाश। भतानी को देह है, झेंद्ल ठसकी पाशर॥ (१२) नर मद आया, गया, श्स मद्र मरप ध्यान निप्फत्त सता जाय यह, कर इसमें कल्याण

चात्म निन्‍्दा-- (१) सीद्रय श्नकों क्रिप बाला मिप्यावाद। चोरी मे पर धन ६र्पा, किया मर बरबाद | (२) देरी की बष्ट बम्तु की, लित्तका नहिं कद फ्ाम। पड़ी पड़ी बह पड़ गई, भरी हुई गोदाम॥ा

घपीर - मुसारिर पञ्रर -यींजरा क्र - तोता प्रश - जासत्र ब्पन। हए-हऋद्नचर्ष

(१३)

(३) हैं क्षम्पट हैं लाशधी, फर्म किया फई कीड़े तीन सुवन में हे नहीं, मेरी फोई जोड़ ।॥! (७) छिद्र पराया रात दिन, जोता हैं जमनाथ। कुगति रुणी फरणी फरूँ, जोढँ उनसे साथ॥ (५) मैं अषगुण क्री कोटड़ी, नईिं गुख प्र में कोय | पर शुख देख सहूँ नहीं, तिरना फ्लिस विध होय (६) एन कोघा मिन मोमिया, फोकट फर्म ब्ंधाय। आर्च रौद्र मिटता नहीं, फ्रीज़े कौन ठपाय (७) मूठ कफ्ट बहु सेविया, क्रिया पाप क्र संख मोक्तों को ठगिया पधणा, फरि अनन्त फरपंच (८) मन चंचस्त थिर ना रहा, राधा रमशझी रूप। कर्म पिटमना क्या कहूँ, नाँखे दुर्गति कूप॥ (&) भ्रषमों में मैं हूँ अपम, भअपषगुस भरे भनक। फिसी दिताहित फ्म फा, पुरे नहीं विवेक | (१०) मैं क्रोपी मैं सात्ती, नह छोड़ा भभिमान। मैं कफ्पटी अ्षिनीत हूँ, पापी मैरवदान (११) हाथ ने प्ुझसे हो सका, जनता फ्रा ठपकार | यश के कारस ही किया, मैंने सत्र स्पधहार (१२) नाथ! दिपस फंष झायगा, सब दो भनगार। कर्म पोझ को राल कर, बन सिद्ध श्रविकार आलोचना--

(१) अलुपम! बिनकी ज्योति से, जग मगात संसार सदा हमार सन घसो, खिनवर जग दिसकार॥॥ (२) करूं पन्‍्दना वीर फो, भर सप सबफार। पापों की भालोचना, करता हूँ इस धार॥

(१ ) भलुपम-ठुपमा रहित हमर ०१३०० ००म ७४ िए॑

(98)

(३) प्रबम शरण भरिदंद का, दितप सिद्ध का जान घृदय सन्त लखन का कहां, धोया धरम प्रमास॥ (४) शरण गदी प्रद्ध भापकी, ऋरता झास्म बिचार। मैंने मद मर में प्रमो ), सम्या पाप भठार (५) चौरासी छल योनि फो, दुखित किया दिन रात लेखा ठसका क्‍या कहूँ, कइत जी पबरात | (६) प्र श्रस फ्रे ग्राथ से, मैंने खेले खेल। पूँछी से देना बड़ा, मिले बिन्दुश मेक्त (७) भरष्टाइश' जो पाप हैं, उनका बोझ भअपार। रुगमग नया झइर रही, कसे पाऊँ पार (८) नाकर मत मद्य में किये, मैंने अत्पाभार | सोच सोज कर हो रहा, विभसित हृंदप भपार (६) सन बच तन के योग सं, लो इुछ कियप अतिपार | ज्ैनागम विपरीत छो, मापथ या आभार (२०) क्रस्प विरोधी काम या, अक्ररण्यीय कुछ काम | आार्स रोद्र फ्रिप स्यान जो, भर्मप्यान पं बम? ॥| (११) मेरे चेतन ने कमी, जो री हुए निगाई। नियमों का कुछ मंग या, बरी वस्तु की चाह || (१२) आवफ घम बिरुदू लो, क्रिपा कमी कुछ कलम पुनि ढर्शन या ज्ञान फ, क्रिया कमी छल बाम (१३) देशवत भागम तथा, सामायिझ अतिबार | माद्द बिद्रश सबन क्रिया, जा बुछ मिध्याषार (१४) मन, द्च, तन, स्यापार का, बश में रखा होप। जा फ्राघादि क्रषाय का, दमन डिया नहिं हाय

(४) भदावरा-श्रद्यरद (४) बएम-विपरी ता

(श१)

(१९) भगश्युवत पहले! पांच हैं, गुझवत सीन छुजान। शिक्षा ग्रव हैं बार पुनि, पारदह श्त्त जान॥। (१६) एक दश या सर्व से, हुई पिराषना कोय॥ संबं हो भप्तिघार जो, मिम्छा गुरूद मोय।| (१७) इस भष पर मव में फ्रिया, पनरा क्रमदान। त्रिदिध श्रिविष से वोसिरँ, लो दूर्गति री खान (१८) य्रप्नादिक भारम फ्रे, मैंने कोने काम। श्रिविध प्रिजिघ से घोसिरूँ, फेर नहीं परिणाम (१६) घास बगीचा खेत पर, खा मी मेरे डोंय। प्रिषिष श्रिविष स॑ भोसिरू, ममता त्ाँ मोय (२०) मेर॑निज्न फ्रे नाम में, घर दुफान जो होई। उन सबको मैं त्यागवा, ममता खरा मो (२१) निन्पाणू भतियार में, जा सतब्या शोय। करता हूँ भालांचना, मिच्छा हुक मोय॥। (२२) मैं झ्परापी खन्‍्म का, संस्पा पाप झअठार॥ निश्र भातम क्री साख स, ग्रार भार पघिक्‍्कार॥ (२३) शत नियमादिर में कमी, टंटा ज्ञाग्पा होय। अरिददत सिद्ध फ्री सास स, मिल्‍्ला दुषूदं मोय (२४) चौरासी क्षखयोनि में, फ़िरिया थार अन॑ंठ। पाप झलोऊँ पाझला, अग्र तारो भगवन्त (२५) जान अनजान कमी, सब पाप मभद्दान। उन सब को भातोचना, झूरता भमैरबदान॥

(२६)

क्षमायाचना |

(१) चारासी-ल्स योनि फ्रा, कमा झइरू सप्र दोप। चमा करें पुनि दे पके, एफसे रखे रोप! (३) मंत्री माद्र सदा पक, सदर लीबों फ्र साम। पर नईहैं पम्रफ्रो कहीं, किसी खीढ & साथ | (३) मन, बच, तने, स्पापार सं, मैंने किप जो पाप | प्र सदर मिस्या हों सदा, बन सदा निप्पाप॥ (४) पृनि उनसे जो छुद् क्रिपा, सड् फ्रपाय स्पबहार | समा घाहता ताड़े $ं, मन, बच, न, ध्यापार (५) पूज्प अभ्रमस प्रनि संघ रो, द्वाय जोड़ सिर नाठँर उन दोपों छो शर्मूँ, पुनि निज दीप ख्रमाठें (६) मात्र सहित सम्र लरी्र स, घर्म बुद्धि थिर होय सर्मूँ उमाऊँ दाप का, जा दोनों कम द्ाय (७) राग द्वंप भअछतद्तारे , था झाग्राश बश सोय। कड़ी बात इर तार से, थमा फरें सब कोय॥ (८) सझू महतार दाद्कपा, जा मर संग होंग। पा मर सम्परई में, छा काट झाय होंप॥ (६) प्ग इड़म्बी बाघु जन, या गोपर जो कांय | खर्मू खमाऊे टाप का, हुभा परस्पर जाय (१०) झगड़ा टैंटा भादि पा, कहराप विगश स्पषरहार | किपा स्सी # साथ झा, जा इछ मिथ्याचार (११) या काइ पसा दाप डा, मिसक्ता नहिं इछ व्ान | दमा इरे मम दाप छा, प्लमका बालक जान |। 6) राफडप। (६) माई-नमाता हैं। (3) अहरक्षता-कृतानता। (२) आभष-इुठ (७) मशता-मुमीम-गुमाम्ता | (६) जोष-जा

(२७ ) (१२) घीरामी छख योनि से, तन, सन, पच्च से जान। कमा याचना कर रहा, भाषकू मेरखदान (१३) सकल चघराचर जगत का, दोय सदा फ्रश्यान | सं प्राणी पर हित रहे, फरें धर्म छा मान॥ (१४) सब मंगल फा मू् जो, सभी शित्रों का हेतु जिन शासन बिजपी रहे, सभी पर्म का क्ेनु

इति हमस्‌

चुए्त% प्राप्ति स्थान+--- भी अमर बन्द मेरोदान संठियां ली सेटिषा मैन द्वादज री बीसपेर ( राभपूताना ) अछाग्म्चः

( 2८ ) भी भ्रगरचंद मैरोदान संठिया जैन पारमार्थिक संस्था, बीफानेर का

३५वेँ। वार्षिक विवरण

(१ श्नवरी से ठा० ३१ दिसम्बर सन्‌ १६४८ का )

इस संस्था की स्थापना सम्‌ १६१३ में हुई इसका दौड़ आफ ट्रस्ट सन्‌ १६४४ में कलतकतते में झौर सन्‌ १६४६४ में शीकानेर में रजिस्टर्ड कराया गया इसकी स्यवस्पा फे लिए तीन कम्ेटिपों बनी हुई हैं। यथा'-

(१) ट्रस्ट कमेटी | ( छेणवाच ल॑ प्रब्घाएल् )

भीमान्‌ सेठ मैरोदानसी सेठिया समापति चजंठमछबी सेठिया रसादरचन्दयी सेठिया मंत्री

लुगराजयी प्ेठिया

?” सासकचसन्द्मी सेठिया (२) मैनेजिक्न कमेटी ( प्ररन्थकारिणी समा )

उपरोक्त पाँचों सजन इस कमेटी के सेम्बर |

(३) जनरक्ष कमेटी।

भीमाद्‌ संठ मैरोदानजी सेटिपा।

?” लेठमश्तजी सेठिया।

ममनमल्जी कोठारी !

महा बुघर्सिइवी बेद।

2. पानमक्तमी सेठिपा |

(४४ )

भीमान्‌ लद्दरबन्दली सेठिया। सन्त्री ! जुगराजजी सेठिया। ८! ऊफुन्दनमलली सेठिया !? मायफचन्दजी सठिया। ] १० ! गोभिन्द्रामबी मशसाली | ११५ धंपरघन्दजी बाँठिया। १२५ फशरीघन्दजी सेठिया। १३ सेमचन्दजी सेठिया ! १४ !” मोइनल्लाक्षत्री सेठिया।

इस साक्ष के क्षिए भयुत्‌ सतीदासमी सा० ताधेड़ और भीमान्‌ दीराक्षाज्षजी स्ा० प्रष्टीम झॉडिटर (हिसार निरीचक) नियुक्त किये गये हैं

इस सस्था क॑ भरन्तर्गत चलने पाले विभाग भौर उनझा फार्य दिवरस इस प्रकार हैः--

विद्यालय विभाग।

इस पिमाग में पमंशांख, हिन्दी, संस्कृत, आक्ृत, भंग्रेजी आदि की उच्च शिक्षा दी साती हैआंर उनकी परीकाएं दिल्लाई जाती ईं।इस साख्ष १८ विद्यार्थियों ने उपरोक्त मिन्न भिम्न जिपयों फ्री शिषा प्राप्त की है। श्नमें पे दो विषार्थियों ने (भी शान्तिक्नाल मोगरा भौर बावृत्ताप्त परेश्त ने) पस्णाप्र मुनियर्सिटी की मेट्रिह परीा दी और उसमें ड्ितीय श्रेणी में ठत्तीर्थ हुए £। एक विधार्मी हिन्दी साहित्य सम्मेशन की साहिस्प रश्न परीक्षा में भौर पांच विद्यार्थी साहित्य बिशारद परीदा में सम्मिशित हुए हैं

(६० ) श्राविका भोर कन्या शिक्षण

इस बिसाग में आविकाओों तथा कृन्पाओ्रों को शिवण दिया साता | इस दर्ष १३ आविकाशों भार कन्याओों को संस्या ढी भोर हिंदी और बार्मिक का भ्रध्ययन कराया शया।

सिद्धान्त गाला विमाग

पिद्धान्त शाह में शिद्ी, संस्कृत, प्राइत भार पर्मशास्त्रो का साधु स्लाध्विपों को उनके धमस्पानों पर जाझुर विद्वानों द्वारा भ्रध्यपन कराया धाता भौर उनकौ मासिक परीचाएँ मी ध्ी छाती हैं

इस वर्ष सिद्धान्त शाक्षा में मन्दिरमार्गी भार साधुमार्गी समाज के साधु और ३० साथियों झपुरोध्दी, सिद्धा काप्दी, सिद्धात ाद्रका, जन सिद्धान्त कापदी, भ्राकृत स्याकरण ( इमचन्द्र भष्टमाध्याप ), स्पाद्टादमश्नरी, ठ्तराध्पपन सज़, दशपैकासिक छत, स्पानाह धज्न, शिन- शतक आदि का अध्ययन किया

छाप्रालय ( छत 0०४८ )

शैस सात्त छात्राह्य में रइ कर ११ छात्रों सलाम उठाया | प्रैटिया घंश्या कौ यह विशेषता सदा हो रही कि बोहिकर-शठस छात्रों ढ़ छिए सदा निः्युक्त (फ्री) राई

(६१)

धर्म प्रचार विमाग

इसके भन्तर्गत उपहार विभाग, धर्मोपफरण विभाग और दीत्ोपफरण बिमाग ई।

उपद्दार षिमाग- इस साल १६४८ पुस्कफें ठपथ्टार रूप मिन्न भिन्न पुस्सकाक्यपों और सऊनों को दी गई भौर भेजी गई। मेट में दी गई ६६२, भमृल्य पुस्तकों फे सिवाय मूल्य पाली ६८६ पुस्तकों का मूल्य ४८६०) है।

घ॒र्मोफ्करण विमाग- इस विमाग से रुपये १६३॥०) के आसन, प्‌ धक्षी, नवकरवाली झ्रादि आवफ आबिकाओों को भेट दिये गये

दीचापकरण विभाग- इस साछ्ठ चार दौधार्थियों फ्रो ओपा, प्‌ अणी, पातरा, शास्त्र, पुस्तकें भादि स्टॉक में से मैट मेले गये।

ग्रन्थालय (लायबेरी / विभाग

(१) सेग्रशाश्य बिमाग- इस पिमाग में इस वपे ४७१ पुस्तक नई संगाई गई संग्रशक्षय में इस पुस्तक १४०६४ है। संस्था पे प्रकाशित ६४४०० पुस्तक स्‍्टाक में हैं। पत्राकार १३००० स्टाझ में हैं।

(२) भाचनालय पिमाग- इस वर्ष दैनिक, साहादिक प्रादिक, मासिक, अ्मासिद प्र पत्रिफाएं ४४ धाती रहो है |

(६२)

(३) पुस्तक सन देन - इस षर्ष १४१ सऊनों ने १४०० पुस्तफों का छेन देन करक ज्ञाम उठाया

साहित्य प्रकाशन विभाग

इस घप॑ भी जन सिद्धान्त बोक्ष संग्रइ के पाठ मार्गों फे कई स्पक्तों झा तथा मूल भार भर्प युक्त प्रतिक्रमण, जैनागम पत्प दीपिका, १४ गुखम्पान फ्रा भोफड़ा, सघधु दणइक, पश्चीस भ्रोश्त का थोकड़ा भार पांच समिति तीन गुप्ति का थाकहा भादि प्रन्थों फ़रा मंशोषन हुआ भार दस प्रकार फ्री ६१०० पुस्तक दस बर्ष छूप कर प्रकाशित हुई |

कार्यालय विभाग (४४०७

इस बिमाग में संस्था के झ्माय ब्यय का शिसापर कितातर रथा जाता | संस्था की रकम का स्याप्तन, मकानों का माड़ा आदि से सो झाय होती उसका तथा सस्या भन्तगंत चर्न॑ बाल झ्रप्यापकों भार करमंबारियों का मेदन शिलों का झुगतान झाड़ि जो स्पय शोता उसका तथा रुपयों के स्तेन दंन झादि का दिसाद फ्िताब रख छर बहीखातों में लमाखर्च होता सामाजिक पत्र स्पबडार झादि समात्र सत्र का कार्य मी इसी कायाक्षय द्वारा छुगताया जाता हे

लोन (० विभाग

ह० ७१६८) रुपये छात्रों को उप्च शिपय र॑ किए बिना स्याज् छोन पर दिए इए ई।

सन्‌ १९४८ फी भाय का विवरण- इस बर्ष (१६४८) संस्था में ऋलकरे मकानों का १२

(६३ )

मास के भाड़े रुपये २०३०४०-) | और स्पाज करे रुपये ३४१८।) रु० (शेयरों का डिविडेणएड-१ ८८८) रु० तथा और रकम फा ब्याज १५५०) झल रुपये २२९७८२।-)! की आय हुई

इस दर्ष पर्मोपकरस खाते में रुपये ४००), दया पिकि- त्सा खाते में १०००) रुपैये, दीधोपहरथ खाते में १०००) रुपैये और दया भायम्बित्त खाते में ५००) रूपये | इस प्रकार उपरोक्त खातों में रूपये २०००) भी मैरोदानजी सेठिया खमा करापे ईं।

सन्‌ १९४८ का व्यय का विवरण --

रु) १७३८।७)॥ विषात्तय पिमाग-इसमें संस्कृत, प्राकंत, दिन्दी, हिन्दी शॉर्टेंणड, भंग्रेमी, भौर पार्मिक शिक्षण देन पाले भष्यापकों का पेतन सर्स तथा विद्यालय में भ्रष्यपन फरने, परीचा देन के लिए मये हुए विधार्थियों फ्ा सफर सर्च तथा परीचा फ्रीस सच

रु० २३४४५) प्रन्यालय (सायप्र रो) विमाग-- इस में संस्कृत, प्रात, दिम्दी, फ्रँग्रेली श्रादि मापाझों झी मवीन पुस्व्े मंगवाई जिनका खर्च तथा ज्लायमे रिपन और सहायक लाय ओरियन आदि का पेवन यर्घ सवा वाषनालय पिमाग में आने वाले पत्र पशत्रिकाशों फा सभ |

हु० ४१००) साहिस्प भ्रकाशन विमाग-इस बिमांग में नधीन साहिस्प निर्माण, सजों का भनुबाद, सादिस्य संशोषन आदि कार्य करने बाले पणिदतों का बेतन दया छपाई आझादि सच

(९ 5६४)

रु० १४२१.) सिद्धान्वशाल्ा-साधु साजियों फो उनकू धमंस्थानों पर आकर अध्ययन फराने पाले पयिडतों का बेतन खच |

रु० १३० १॥)्र फन्पा भार आाविफा शिक्षण--फल्याश्रों और आधिकाशों को अध्ययन कराने बाल्ली भ्रध्यापिफा्शों का वैसन रुर्य |

२२४०।७)|॥ छायाप विमाग--

२१६८॥)॥ घनीम, रोकड़िया धपा फर्मचा- रियों का शतन खचच |

<६०)॥ स्टशनरी खबर | ७०॥०)॥| फुटकर खचे |

रु० ४८६।-)। घर्म प्रघार-ठपहार विमाग-भावक भाविका मां को ता मिन्न मिम्र पुस्तक्ात्षपों का मूल्य बाली पुल्तके मेट भेती गई, उनकी कीमत ठथा उनझा डाकखर्भ |

क० ५५०॥)॥ धर्म प्रयार पर्मोपकरण् बिमाग-भावक आाषिकाशों को आसन, पू नसी, नवरछूर॒पास्ती भादि मेंट दी गई, उनकी कीमत |

रु १४८४-)॥ छात्राज्तप बिमाग-बांडिक में रहन बासे हाडों का माजन पत्र तथा पानी और राशनी खच

रू० १४७१॥७)॥ छात्ररचि-तोर्डिक़ कू सित्राय बाहर के भमफ्त विधार्दियों प्रो तथा उच शिपश प्राप्त फरन बाते दिधाधियों को छात्र इृच्धि (स्कासर शिप) दी गई

(६१ ) ४३८ाछ) ठवा, चिकित्सा बिमाग-दवा भार डाबरर की फीस आदि का सर्च। रू० १४५७॥) फमठाशा घिमाग-क्ोठड़ी ( ब्यास्यान मपन ) की मरम्मत में खर्च हुमा। ४०) दया भायम्पिल्ञ पिमाग | ४७३) भ्रसक्तों फ्लो सहायता दी संस्था फ्रा इस वप छल #्पय रु० २३७१७॥०ओ॥ हुए भ्री जन सिद्धान्त घोल संग्र इ, प्रथम माग पर प्राप्त

सम्मतियों

जिन प्रकाश! (वम्बई ता० १० अक्टूबर १९२०) श्री जैन सिद्धान्त घोष्त संग्रए ( प्रथम माग )।

सग्रएस्चा--मैरोदानमी सेटिया, प्रकाशक- संठिया जैन पारमार्थिफ संस्था, बीकानेर | एष्ट २००

उपरोक्त पोछ संग्रह में प्रथम बोल पांचप धोत्त सफ़ सप्रद किया गया ६। इस संग्रह पर्तमान जैन साहिस्य में एक बड़ी चति फी पूर्ति हुए ६। इस संग्रइ फो इस “जन विश्व फोप” मी फट सफ्से हैं। भत्परू प्ोस् इस सखूगी संग्रह किया णया £ क्लि उस पोक्त सम्पप रखन बाल प्रयंक

पिपय को इसमें स्पष्ट ऋर दिया ६। प्रन्येश् भोज्त कर साथ

(६६)

जैनगात्र स्पत्त का मी संपूर्थ रूप से उल्लेय किया ई। झताः

जिड्ासु और व्िधार्षियों क्रे लिये यद संग्रद बहुत शी उप पोगी

पक्की जिल्द, बढ़िया कागत और सुन्दर छपाई से पुस्तक को प्रद्त ही प्राकपक रुप से तैयार दिया गया है। इस रष्टि पे मूल्य गरदुद फम ६।

पेठियाओी इसमें सो अराय छिया ६, उसके शिए इम 5नक़य घन्पाद देते

'स्थानकवासी जैन! धयहमदाबाद त्ता० १६ १९४१) भी सैन सिद्धाल्त बोल संग्रह ( प्रषम माग )

संप्रशता--मैरोदानबौ सेटिया, प्रश्मशह्र-सेठिया घन पारमार्थिक संस्था, प्रीफ़ानर। पाक सोनेरी पुदद्ध, डेमौ पेजी घाइशना प्रष्ठ ३००

जन फिखांसोफ़ी कटक्षी सएद्ध अने संगीन दे ऐेनो पुराषो भा प्रन्य झ्ति संधचेप मां आझाएी दे ७! भम्पासी ने कपा दिपय पर लाशबू छे वनी माहिदीौ क्रद्परादि भी झापेश दपुक- भहिका पर दी मछी रह छे। उपाष्याप श्रौ भास्मारामशी महाराजे बिदत्ता मरी सूमिका रूखी छे।

भाद सुघौ माँ तशश्नत्त विपय ने स्पर्शतां संदुपा बन्‍्प पुस्तकों भा संप््वा तरफ थी बहार पत्मा छे | ऐे् झा एक मो छुन्दर छमेरो करो संस्थाएं शैम समामनी सुम्ध्र सेषा ददादी छे |

(६७)

आीमान सैठ मैरोदानवी सा० ७२ वर्ष नी वयना इद्ध होदा ठत़ां देशोनी छदारता भने लेन धर्म प्रत्पेनी अभिरुषि अम प्रेम फेटलो छे से पेमना भा धंग्रइ शोख थी बयाह भागे छे। बैन समामना भनेक घनिद्नो पैक्ी मात्र ५-४० घो जैन पाहिस्प ना शोखीन निकले सो जैन साहिस्प रूप बगीचो नत्र पल्नषित बनी जाय सेमां धन्देद नथी ! भी सेटियाबी ने प्ेमना झात्रा प्लेन तक्त ह्वान प्रत्येना प्रेस बदल घन्यदाद घटे छे |

झा ग्रन्थ मां भास्मा, समकित, दण्ड, धम्पूद्दीप, प्रदेश परमाझु, तरस, स्वावर, पांच ज्ञान, भुतचारित्र धर्म, इन्द्रियाँ, कर्म, स्थिति, कार्य्य, कारण, सनम, मरण, प्रत्पारुपान, गुल- स्थान, भेणी, छोग, भेद, झ्रागम, भाराधना, भेराग्य, कपा, श्प, ध्यद्धि, फ्स्योपम, गति, कपाय, मेयर, वादि, पुरुपार्थ, दर्शन वगेरे संर्या बन्न धिपयों सेद-उपमेदों अने प्रकारो थी सबिस्तर बर्खपा्मां झाव्या छे। झा प्रन्थ पाठशाक्षाप्रों मां भने भम्पासियों मां पाठ्यपुस्तक तरीके सूबल ठपयोगी नीबड़ी शर्से तेम छे।

श्री साधुमार्गी जैन पूज्य श्री हु्मीचन्दजी महाराज को सम्पदाय का दहितेच्छु भावक मण्डल रतलाम को निषेदनपत्र ( मिति पौप शुक्ता १४ सं० १६६७ )

श्री चेन सिद्धान्त बोल संग्रह, प्रथम माग। संग्रइकर्चा-

भीसान्‌ सेठ मैरोदानली पैठिपा षीकानेर। प्रकाशरू-भी सेठिया जैन पारमार्मिक संस्पा, घीकानेर

पुस्तफ भीमान्‌ छेठ सा० की ड्ञान जिज्ञासा का प्रमाण स्व॒रूप है। पुस्तक के भन्दर बर्शित सैद्धान्दिक बोलों फ्री

(६८)

मंप्रइशत्ती एवं उनझा विषरण घडुत सुन्दर रौधि म॑ टिमा गया ६। भापा मी सरल धर्व भाव पक है| पुस्तप के पटन मनन से साघारण मलुप्य मौ जन तप्तों फा बाघ सुगमता पृथक कर सकता ६| पुस्तक का फट पद खिम्द की सुन्दरता दखस हुए न्योद्धा वर नाम मात्र है | प्रत्यक लन को तास्त्विक्र भाप करन एप लिए ठपपागी ६। सेठ सा० ढी तत्वरुषि आर तश्मप्रभार फी माबना प्रशंसनीय ६। आपन साहिस्य अरभार में अपनी रूपमी कला सदुपयाग बहुत फ़िया ऋर रह हैं।

7 छेग्ाहम 97$ ]शए जे. $ (?एा०७) 70 )2 (07090 ई.च्लणाला 0ग्रव्तप्गों 20686 34.२४0०7८ 7 2-4

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( ६६ )

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बनारसीदास यैन एम ए. पी एच डी युनिवर्सिटी क्ेक्धरर ओरिएयटक्त फासेतर, ख्ाइोर

बीकानेर निवासी भ्री मैरोदानली सेठिया द्ारा संरक्षित “श्री लेन पिद्धान्त बोल संग्रह का प्रदम माग पहुफर ध्रुझे प्रड़ा इप हुआ संठियाजी मगवान्‌ महावीर के सच्चे अ्रनुयायी और धन दर्शन पुराने भम्यासी हैं ) इसलिए भपने हाथ में ज्षिण हुए फाम के प॑ पूर्द भ्रपिकारी हैं। पुस्तक जेनु सिद्धान्त दिपयक सचनाओं क्री खान इसकी मरिपय प्यवस्था ठाणांग यप्न कं भनुसार की गई ई, लह्ाँ समी दिपय उनके उपमेदों की सरूया के अनुसार इकड्टे करिए गये ६ं। इसके फ्त स्वरूप पुस्तक का भषिक्र माग टाणांग सृप्न से क्षिया गया है| इस माग में एक से लेकर पाँच भेदों वाले पदार्थ एपं सिद्धान्द रुथा ४२३ घोल सभिहित हैं|

बोलों झा विधार या इन सिद्धान्तों फा स्पष्टीरूरश मैन दर्शन का भाघार स्तम्म ई। प्लेन साहिस्प का विशाल प्रासाद इन्हीं पर खड़ा किपा जा सकता ई। इस फासथ पे पह पुस्तक सेन दर्शन के अम्पात्तियों के छिए घहुत छाम-

(७)

दायक सिद्ध होगी | पद पुस्तक लिखकर संठियाजत्री ने बैन साएित्प की पहुत बड़ी सबा की प्यार सेन विद्वानों को सदा क॑ लिए अपना ध्यूणी बना सिया है।

पुस्तक के साथ छगी द्‌ई दिप्य सघ्री ने इसकी छपयो- ' गिवा छो बहुत बढ़ा दिया £

मैं इसफ दूसरे मार्गों क्री उस्‍्सुकवा प्रवीदा कर णाहं।

मारतभूषण, शवजघानी पणशिदत रन पनि भी १००८ भ्री रत्नसन्‍्द्र श्री मइाराश् की सम्मति।

आवक बर्ग में साहिस्प प्रचार करन सेष्र में प्रिठनी क्षमन सेटिया सी 'भी अग्रणी मैरोदानसी सा» में दिखाए देती है छतनी क्गन भन्प किसी में क्बर्ित्‌ दी दिखाई देती होगी !

झ्मी उन्होंने पद एक बोल का क्रम शकर शाख्रौप इस्तुभों का स्वरूप दतान बाली एक पुस्तक तैयार करन के पीछे अपनी देखरेश के अन्दर शझ्रपन पणिदर्तों द्वारा “भी बेन सिद्धान्त बोल संप्रइ” के प्रथम माग को धय्पार करपान में जो भ्रषाह परिश्रम उठाया है, ५६ अति प्रशंसनीय एक बोस स॑ पाँस बोल धक का विमाग बिश्कुछ तैयार हो सया उस विमाग का अषस्तोकन दशा सुषार करने के हिए प॑ पूर्यचन्दजी इक भबमेर तथा पाप्तनपुर धारूर उस आधोपान्त सुना गण हैं।

उंपरेष पुज्तक बेनशए से बहुत ही 8पगांगी | लैम

(०१)

शै्ती तथा जैन सत्तों प्रो समझने के सिर जैन तथा प्रैनेदर डोनों को ज्ामप्रद होगी |

ता० ३-5-४० पँ वसन्‍्ती लाए लेन घाटकोपर </० उचमकाक कीरचम्द ( बस्बई ) खाल बंगखा, पाटकोपर | जैन घर्म दिवारूर, जैनागम रताफर, साहिस्प र्र, जैन पुनि री १००८ उपाध्पाय भी आत्मारामली महाराज (पश्चामी) का

सम्मति पत्र ओऔमान्‌ पं० श्यामसाश्तमी थी ए. प्रस्तुत प्रन्य को दिखाने यहाँ झाये ये। मैंने सथा मेरे प्रिय शिष्प प॑० हेम- शन्द्रमी ने ग्रन्य का मस्ती माँति पर्यपेत्तण दिया

यह प्रन्थ भरतीद सुन्दर पद्धति से तैयार किया है।

- धझागमों से रबा भ्रन्प ग्रन्थों से घदुत दी सरस पर्व॑ प्रमा बशास्ती पोछों का संग्रइ हृस्य में भानन्द पैदा करता है। साधारण बिह्रासु घनता को इस ग्रन्य से बहुद अच्छा श्वान का छाम दोगा | प्रस्पेक सैन विधात्वय में यह प्रन्प पाठ्य- पुस्तक के रूप में रखने पोग्य ई। इससे जैन दर्शन सम्पन्धी अधिक्य॑श शासस्प बातों रा सहज दी में ज्ञान शो खाता है

ओरीमान्‌ सेठिपाजी का सस्वज्ञान सम्बन्धी प्रेम प्रशंसनीय है छत्तमी के हारा सरस्दती की ठपासना करने में सेठियाजी

सदा ही अग्रसर रदे ६। प्रस्तुत प्रन्य कम प्रकाशन करके प्रेट्मी ने इस दिशा में सराहनीय उदधोग किया ६।

ताक ३2७-९-१३६४० छेन घनि उपाण्पाय भारमाराम (पप्मावी) (पश्चाथ ) छुषियाना।

(४२) भरी अगरच॑द मरोदान संठिया जैन ग्रंथमाला बीकानर द्वारा प्रकाशित श्री जन मिद्धान्त बांत्त सग्रद & भाठ मार्गों बा संधिप्त डिपप विवरश श्री लेन मिद्धान्त प्रीसत स॑प्रा-

हु ( डितीपाइतति ) मामा स८ तक | ये माग सरख

हिल्दी में ठाशांग भौर समव्रामांग के इंग पर तैयार किये गये हैं। इनका प्रभम सस्‍्करस सम्पूर्ण मारतबप में पहुँचा भार इनफ्री प्रक्तकठ स॑ प्रशंसा की गई ई। जन सिद्धान्त प्रायः प्रत्येक दिपय का इन में सरक्ष विधि समझाया गया £। इन्हें देन सिद्धान्दों का इन्‍्साइडत्तोपीडिया ( विश्वक्रोप ) कहा जाप ता भनुवित होगा। यई संग्र/ भागम शाखों भौर प्रामाणिक पर्म शाझ्रों भाघार से हैयार किया गया | उनऊे नीभे प्रमास क्र ठस्लंख मी किया गया ई। प्रत्येक भाग में अफारादि क्रम छी छज़ी मी थोड़ दी गई £। इस सशाधित भापृत्ति प्रत्पक मांग का मूल्प लागद मात्र ज्ञान प्रभार की रएटि प्त रखा गया ई।

« भागों का सक्षिप्त विवरण इस प्रकार हई-- (१ ) प्रधम माग- इस में बिद्िघर प्रऊार बोछ् स॑ग्रा ? से तक | पोक्त संख्या ? से ४२३ हैं! इस में एफ एड कै, दो दो के, तीन तीन क, चार चार कं, पांच पांच %, पोस आगम शाद्रों सं छ़कर टिय गये हैं।

(२ ) द्वितीय माग- हस में गाल संग्रद भार का बशन ६। भोल स॑ठ्या ४२४ से ५६३। इसमें पदद्रम्प के

(७३ )

भेद, भवाणी टस्सर्पियी फे ६-६ भारे, प्रतितेखना के भेद, छः छ्ेश्या, परदेशी राजा के प्ररन, पददरन तथा ६-६ फे फई पोज्ञ | प्रायायाम घात, सात नररक्तों का पर्णन, निहयों फा दशन, नय, सप्तमंगी भादि फई पोल पढ़े ही सरल रंग से लिखे गये हैं

(३ ) घतीय माग- इस में ८से १० तक के पोल हैं। प्रोत्त संझ्प ४६७ से ७६६ तझ है। श्ममें भाचार, प्रमाद, प्रतिक्ररण % मेद दष्टान्त, भाठ रूम पिस्वार सहित, आठ भात्मा, श्र्टिसा मगषती फ्री उपभा, मगबान्‌ महा दोर के शासन में तीर्थड्वर गोष्न धांघने वाले चीएइ ६, मद हरय, स्वप्न क॑ £ निभित्त, नप नियाणें, मगपान्‌ मदहयवीर के १० स्पप्न, एपणा के १० दोप, समापारी १०, प्रग्रम्पा १०, भातोचना कं १० दाप, चित्त समाधि क्र १० स्थान, सम्ार छी सप्रुद्र के साथ १० ठपमा, मलुष्य मत्र छी दुर्समता ४१० रष्टान्त, दस भछेरे, भाषक् फ॑ १० छचणछ, दम भापर, भेखिक राजा की १० राखियां, पशएणा दस, अस ज़रफाय आंवरिद १० भौर भऔदारिझ १०, सम्यक्त्व प्राप्ति के २० घांख, मिख्पात्व १०, सत्य घचन $ १% प्रकार, प्रश्चनय फ्॑समाधिस्थान १०, पदखास १०, पैयावथ १०, संद्ञा १०, संबर १०, असंगर १०, भाद के १० दोप, १० प्रझार के सद स्रीष, भयीष परिसाम् १०, भरूपी घीए क्ले १० भेद, १० प्रकार के फ्रल्पप, मशनद्वियां १०, मन के १० दोप, पचन के १० दोप, फुलकर १०, दान १० झौर सुख १० भादि आदत से बोल ८ैं

(४) घतुथे मांग- पोल संग्रइ ११ से १३ दक्क। पी

(७४ )

संर्या ७७० से ८२१ तक | मगयाद्‌ मशाबीर क्र १३ नाम, दशा काज्षिफ सत्र दूसरा सामएस्ल पुष्णयं नाम अध्ययन की ११ गावाएँ, संसार में ११ भातों की प्राप्ति होना बहुत दुसम है, भारम्म परियत को थोड़े बिना ११ प्रातों की प्राप्ति नहीं हा सफ़ती, गणबर ११, भंग सत्र ११, ठुपांग सन्र श्रदका बर्खन, छत्र के १२ सेद, अननुयोग है२ दृष्टान्त, उत्तरा इएयन २१ यें झ्रष्ययन की जैन साधु फ्रे लिये मार्ग प्रदर्शक १२गाषाएँ, भरिइन्त के १२ गुस, चक्रवर्ती १९, ठपयोग १२, कुम्मिया युद्धि के १२ रष्टान्व, निभय भार स्यबद्दार से आवक साषद्रत १२, भाषक के घाइर शत सेने की संधिप्त टीप, मिकक्‍्खु पडिमा १२, धम्मोग १९, १२ मद्दीनों में पोरिसी का परिमाख, धर्म के १२ विशेषय, कर्म प्रकृतियों के १२ द्वार, मादता १२, दिनय के १३ भेद, क्रियास्थान ११, ब्याहारक भौर झनाहारक के ११ दार, क्रोध भादि को शान्ति के ११३ 6पाय, ठत्तराष्पयन के चोंये भस॑स्‍्कृत नामक भ्रष्पपन फ्री साथाएँ, मसदान्‌ ऋषम देव के १३ मद्र, संम्पकत्त के लिए १३ रषान्त

( ) पांचों माग- इसमें बोश संग्रत १४ से १६ तक। बोध संख्मा ८एश से ६०० तक है) भुतज्ञान के १७ भेद, पूर्व १७, भझान के अ्रदिचार १४, भूतग्राम $ १४ भेद, संप्रप्किस मनृष्पों के उत्पति स्पान १४, स्वप्न १४, मश- स्वप्न १४, भाषवक के १४ नियम, १४ प्रकार का दान, साध के छिये अकश्पनीय २४ बातें, झगिनीत के १४ छकण, सप्रदेशी अभ्देशी के १४द्घार, फ्माफम के १४ ड्ार, अरमाचरम के १४ दार, १४ राजूप्रमाद शोक, मार्मणा स्वान १४, युझस्वान १४ का विवरण, छिद्धों के १६ मेर, मोध के

(४४)

१४ भंग, दीदा देन पाले गुरु के १५ गुण, पिनीत फ्रे १४ रूपस, पैनपिष्टी पुद्धि के १६ इंणान्त, पूज्यदा को बतलान घाली १४ गाषाएँ, भनायता की १४ गायाएँ, फर्म भूमि १४, परमाघामिक १५, फ्रपांदान १५, दशपैक्राशिक पत्र ढितीय चूछ्तिका फ्री १६ गायाएँ, ठत्तराध्यपन पन्द्ववें भध्य

यन समिक्खु फी १६ गायाएँ, प्रहभ्ुत साधु की १६ ठपमाएँ, दीचार्षी के १६ गुण, गवेपशा के १६ दोप, साधु को कृश्प

नीय ग्रामादि १६ स्थान, आाभ्रय भादि के १६ भाँगे, घन्द्रमुप्त शजा के १६ स्वप्म, महावीर क्लरी वसति बिपयक्र १६ गायाएं, सोद सत्तियों फ्री कया, दशपेकालिक विनय समाधि ६वें भध्यपन फ्री १७ गायाएँ, मगवान्‌ मदाबीर फी तफ्थयां विषयक १७ गाथाएँ, मरण १७ प्रकार का, पत्ता ब्रत्र के २१ प्र पद फ्रे शरीर फ्रे १७ द्वार, भाव भावक के १७ छ्चण, संयम के १७ मेद, अरिहिन्त मगवान्‌ में नहीं पाय लाने वासे १८ दोप, गतागत १८ द्वार, साधु के १८ कप, दीक्षा कं झयोग्य १८, पौपध के १८ दोप, १८ पाप- स्पानफ, 'बोर झी प्रधुति १८, उप्तराध्ययन के छट्टे प्ज्नक निर्मन्थीय भध्ययन की १८ गायाएं, दशपैकाछिक प्रथम

चूक्षिका की १८ गायाएं, रायोत्सर्ग के १६ दोप, जाता धर्म फथाह्ञ की १६ रूपाएं भादि |

( ) छठा माग- घोज्त संग्रह २० से ३०॥ धोल सख्या ६०१ से ६६० तक। आनुपूर्वी, आनुप्र्वी कए्ठस्प गुयने की सरल विधि, भुव शान के २० मेद, तीर्यद्टर नाम कर्म घांपने फ्रे २० दोज्ष, विश्मान २०, २० कश्प साधु के, परिहार पिशद्धि चारित्र के ९० द्वार, असमात्रि फे २० द्वार, झाथष के २० भेद, संबर के २० मेद, उचराष्ययन चतुरंगीय सीसरे

(५६ )

भष्ययन की २० गाथाए, धिपाक म्रन्न की २० फ्पाएं, भाषफ के २१ गुल, भावय पानी २१ प्रक्वार का, २! शत दोप, दिधपान पदार्म छी अनुपक्षम्घि छ२१ फारस, पारिशाप्रिकी बुद्धि २१ दृष्टान्त, दशवैकाछिक समिक्यु दसमें भष्ययन की २९ गायाए, उत्तराष्यमन यूत्र भरणयिह्ट नामक ३१वें भ्रष्पन की २१ गायाएं, प्रशनोत्तर २१, साधु घर्म के विशेषण २२, निग्रइस्थान २९, मगधान्‌ मद्गापीर की या जिपसक्क पझ्राषारांग £ दा भ०४० ? क्ली २३ गादाएं, साधु के उतरन पोग्य तथा झ्भ्रोग्य स्घान २३, प्रेप् परिमाख फ्रे २३ भेद, इच्दिय कर प्रिपण २३, गत उत्सर्पियी फ़ २४ टीर्पड्ूर, एरपत देत्र में वर्तमान भ्रदसदिशों & २४ तौयडर, वर्तमान झव सर्दिणी २४ पीर्षइर,रावीस तीर्थ टूूरों का संसा, मरत चेप्र झागमी २४ तीपजूर, ऐरबत चैत्र फे भागामी २४ सीर्षइर, दिनय समाधि दशइंकाशिर अ्रप्ययन £ की २४ गापषाएं, दशक २४, उपाष्पाय के २५ गुस, मद्ठाग्मत फ्री २४ माषनाएं, प्र तछ्ेपना क्र ९५ मठ, क्रिपा २५, छपगशंग प्रप्न ४थं प्रष्पपन क्री २५ गाषाएँ, भार चेत्र सादे फ्स्थीस, २३ बांत्तों की भयादा, बेमानिक दबों फ़ २६ मेद, साधु २७ गुण, श्मगदांग प्रश्न क़ १७ थे भ्रध्पपन की २७ गाभाएँं, घपगदांग एज $ शयें क्रष्पपन कौ २७ गायाएँ, झाकाश २७ नाम, भोत्पातिकी बुद्धि २७ दृष्टान्त, मतिद्ञान के २८ मेद, मोइनीय कर्म को २६ प्रकृठियां, भवुयोग देने पाले के २८ गुण, नघत्र २८, सम्पियों २८, घसगड़ांग प्रन्न के मद्राबौर स्तुति नामक छट्टे श्रध्यपन प्री २६ गाभाएँ, पाप भुत के २६ मदर, अकर्म भूमि $ ३० भेद, परिग्रइ के ३० मेद, मिदापया के ३० भेद, मद्मोइनौय कमे क॑ ३० स्थान]

(७७)

(७) सछरयाँ माग--दोोत शेश से २७ सक। बोल सेस्या ६६१ से १०१२ तक | सिद्ध ममत्रान्‌ के ३१ गुण, साधु की ३१ उपमाएं, सन कृर्ताग छत्र चौथे भष्ययन की ३१ गाषाएं, म्रश्नचर्ष-शीस क्री २२ उपमाएँ, ४९ योग संग्रद, १२ सत्र, ३२ बद्मों फरे नाम, २२भस्पाध्याय, पंदना के ३२ दोप, सामायिक्र क॑ ३२ दोप, प्रिश्यप ३२, उत्तराष्य यन पृत्त के में भ्रफाममरणीय ह्र० फी ३२ गायाएं, ठच्राष्यपन सत्र ११ थें बहुधुत पूजा भण्यपन की १२ गायाएं, सपगढांग सत्र ट्टितीप भष्यपन के द्वितीय उ० फ्री ३२ गाधाएँ, भाशाचना ३३, भ्रनन्तरागत सिद्धों के प्मल्प चहुत्व फ्रे ३३ पोस, तीर्षइर देव ३४ भ्रतिशय, ग्रृवत्य धर्म के ३४ गुण, घयगडांग सत्र नें भ्रप्पयन पी ३६ गापाएं, भाषार्य के ३६ गुण, प्रशोचर २६, उत्तराप्यपन स॒त्र के १० यें द्र्‌मपन्रक भ्रष्पपन की ३७ गाधाएँ, सयग हांग यध्न फे ग्यारइ्षें मा्गाष्ययन फी ४८ गायाएं, समय चेन्र फ॑ ३६ झुस्त पर्वत, सर पादर प्रप्यीफाप ४९ भेद, आदर के दायक्र दोप से दुपित चालीस दाठा, उदौरसा पिना उदय में भाने घा्ती ४१ प्रकृतियां, भाष्टारादि ४२ दोप, नाम कम फी ४२ प्ररृतियां, आभर के ४२ मेट, पृएप प्ररू- हियां ४२, प्रषघ्नन दिपप संग्रइ ४३, स्पायर जीपों को अदगाइना के भस्प प्रदुस्थत फ़ ४४ पोल, उत्तराष्पयन सत्र कै २५ए अप्ययन की ४४ गायाएं, आगम ४४, गणित गए क्राल प्रमाण फे ७६ भेद, भाहार के ४७ दोए, पिस्श फे ४८ मंद, प्पान करे ४८ मेद, भाषक एं प्रत्पात्पास क॑ ४६ मंग, प्रापधिष्र के १० भेद, भाषारांग प्रथम थुदस्पंघ ४१ उर्ेशे, पिनय फ॑ ए२ मंद, झापु ४२ भनाषीय,

(४८)

मोइनौप कस ५३ नाम, ठत्तम पृरुप ४४, दर्शन पिनय के १४ मेद्र, १६ अन्तर द्वीप, संदर के १७ मेट |

(८) आता माग---साव मार्गों का विस्दत विपय कप)

इस में प्ातों मार्गों के बोज्त अनुकृम दिय गय॑ कानसा विपय और कौनसा बोस सात मारगों में सं क्रिस क्रिस स्पान पर ई। ईम झाठदे मांग स॑ स्पष्ट श्रात हो शापगा। दोलों के विपय में पन्नों शरा प्रमाण शिय गये ६। यदि कोई माग भाजूद हो तो मी दिये गमे प्रमायों के द्वारा डी बां्ों का ध्रान भासानी सट्टा सकता ६) भ्रावश्यक्रता- लुसार समी बोशों पर भनेक प्रमाण दिय गय हैं। बोल बिह्ञासु प्रेमियों के किये यश भाग बहुत ठत्तम रहंगा। अतः इसी आाइश्यक्षता अंग सकते यह पग्रन्य बहुत परिक्रम से बनापा गया

सूचना

भी घंटिया सन ग्रंभमासा द्वारा प्रसशित घार्मिक पुस्तक, आजुपूर्षी, बोष्ठ, योकड़, स्तबन, इास, पामापिक, प्रतिक्रमण श्रज्र,मूल् तपा साथ, इिन्दो बात शिक्षा, नैतिक घार्मिछ शिधा आदि की पृम्तक मिछती ई। “भी जन हिवैष्दु भावरू मढल रठत्ताम” की भ्रकाशित पुस्तफ्रं, भीमजनाषार्प पूज्य श्री जाहरप्ताशशी महाराद सा का सीदन चरित्र आर पृज्पभी ऐे स्यारूपानों उदुत जबाइर क्रिशावल्ी की ढिरसें से १८ तक मी मिसती हैं। प्रचीपत्र मंगवाकर देखिये

चार्मिक उपकरण-पहां दोदा संबंधों धर्मोपकरश आपषा,

(७६ ) पू बल, इस, पात्,फ्म्दत उली,भासन,नवकरवाज्ती ( माला ) आदि तथा झद छपे हुए दशसेफाशिक, ठत्तराध्ययन, साधु अतिक्रमण, नदी, सुसधिपक अरदि एवं चीपड़ी, कामी फीता, डोरी, प््न॒ मांघने क॑ पलेंटे, सत्र रखने फ्रे दिस्‍्मे, काठ की भड्डियां, पुद्दे, प्‌ सखी छी राल्टी झादि मी मिल्तते हैं। बिद्या्तम में-घार्मिफ भौर हिन्दी की उच्च शिवा दी बाती हैं। मेट्रिक या इससे अणिछ योग्यवा वाले छात्रों फ्री महाजनी (शराफी) चद्दी खाता का समा श्॒र्च सिखाया जाता है भौर जनरल शब्ञान के किये अंग्रेडी करा स्पापहारिक ज्ञान (पत्र सखन, पत्रों का पहना, अग्रेज्ली में झातचीद झरना आएदि ) मी कराया जाता है। दोचामिल्षापी या श्रभारफ़ बनने सी अमिश्तापा बे आदकू आपषिकाझों की पढ़ाई का मी प्रबन्‍्य किया खाता है

पता-अगरचद मैरोदान सेव्या

चेन पारमार्थिक संस्था, (ग्रन्याछय मदन)

ओोइक्क मरोटियाम छाीछणल छे &. 5 एए बीकानेर ( राजपूताना )

(८१ )

४॥४॥७ ४+एश॥5७ ॥2/६७ ॥५पमप ३७)

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# श्री जन सिद्धान्त पांक्त संग्रा!! नामर ग्रन्थ का प्रथम माग पाठफों सामने रफते हुए मुझे विशप दप हो रहा है। इसे ठप्यार करन में मरा पुसप उश्ेश्य पा झारम संशोघन | इद्धावस्था में यह झार्य पके चित्र शुद्धि, भारम धस्तोप भौर धर्म भ्पान की ओर प्रदत्त करते लिए विशेष सहायक रहा ै। इसी रे भण, मनन भार परिशीलन में ज्ञगे रइना खीवन को विशेष अमिल्लापा £। इसकी पढ़ आंशिर पूर्ति पुझ्के असीम भानन्द द॑ रद्दी,ई। ज्ञान प्रसार ओर पारमार्थिझ उपयोग इतक भालुप॑गिक फल हैं। यदि पाठकों को इसस इछ मी शाम हुझा तो में अपन प्रयास का विशेष सफल समम्गां। प्रस्तुत पुस्तक "मेरे छह्िष्ट प्रयास का कंदत प्ररस्मिक अंश ६॥ इस प्रथम माग में मी एफ स्राष्त का समय झग गया है। इसरा माम भी शीघ्र दी प्रकाशित करने की पमिछापा ६) पाठकों की ध्ुम कामना का बहुत बड़ा बत्त अपने साथ शझर हो मैं इस कार्य' भार को बइन कर रहा हैं। भीफानेर वृत्तन प्रेस धामायिक मदन में इस सद्भिचार का भोगलैश हुआ था शोर वहीं इसे यह रूप प्राप्त इझा हई। उद्देश्य, विषप आर वातावरण की पवित्र छाप पाठकों पर पड़े बिना रहेगी, ऐसा मेरा विश्वास है। ही

संबत्‌ १६७२ तथा १६७६ में 'छत्तीस गोत्त संग्रह नामक बंद के प्रथम माग और हदितीय माग क्रमशः प्रकाशित हुए थे। पाठकों ने उस संप्रशों का पयोक्चित आदर किया। अब मौ शनक़े प्रति सोगों कसी कचि दनी हुई है। संग्इ

]

मैंध मी वर्षों परिश्रम का फल थे भोर अनेक सन्त मनिराजों सुने कर एवं पा्मिक ग्रंथों के भजुशीज्ञन के परचात्‌ संग्र शीत हुए थे और पिशेपत' उनका आधार प्रसिद् स्थानाह् संत्र और समबायाह्ष खत्र थे उक्त सत्र एवं भरम्य ग्रयों फी 'शैल्ी पर रचिट शेन पर भी इम उस संग्रद फा सवाज्ञ पूर्ण नहीं पह संस थे इसरे प्रथम प्रयास ये भौर उनमें भनुमष्र की इतनी गदराइ नथी। परन्तु उस समय | भ्ताल को देखते हुए समय से पूर्व ही कहे जायें तो झोई भ्रत्युक्ति होगी। आज समाघष के श्ञान फ्रा स्तर उस समय फी भपेदा ऊँधा शो गया है। इसी ज्षिए प्रस्तुत प्रंथ शैत्ती आंदि को दृष्टि से, 'छत्तीम पोल संग्रह” का अनुगामी दोते धुए मी कुछ विशेषताओं से सम्पद्ध ई। यहें अन्दर दुछ तो दे हुए 'नुमद फे झाषारं पर हैं, छुछ वर्तमान ससाय की बढ़ती ह्‌ई श्ञान पिपासा को तर्दनुरूप सु करन के छ्षिए भौर छुछ साधनों करी सुविधा पर जो इसे बार सौमाग्ययश पहले से अधिक प्राप्त हो सकी ६।

इस भार जितने मी बाल संग्रशीत हुए ६। प्रायः समी आगम एवं सिद्धान्त ग्रयों भधार पर जिखे गए ई।

ज्ोक्तों आधारभूत ग्रंथों का नामोस्सलल मी यथा स्थान फर दिया गया ६ई। ताकि, भन्पेपणप्रिय पाठकों को सँंदम के लिए इधर उघर सोघन में विशेप परिश्रम करना पढ़े। धोलों साथ शी भाषः्यफ स्याम्या ओर विशेेवन मी छोड़ दिया गया है | इस विस्तार को इमने इस छिए ,उपपागी और महत्वपूर्ण समझा कि पुस्तक सार्पथनिफ भर बिशप उप्योगी हो सक। बोलों कं संग्रह, स्यास्यान

(८६)

आर विवेषन में मप्यस्थ इष्टि काम शिया गया है। साम्प्रदापिकता के छोड़ कर शाद्धीय प्रमासों पर द्वी निर्मेर रइन की मरमहझ कोशिश की गई ६। इसी लिये ऐसे. दोछों और विभेजनों को स्थान नहीं दिया £ डो साम्प्रदागिक भार एक देशीय है। झाशा प्रस्तुत ग्रंप का दृष्टिकोण भौर विपेश्न श॑ंत्ी उदार पाठकों फ्लो समयोपयोगी भौर उचित प्रतीत इंगे |

प्रस्पेछ विषप पर दिए गए प्राषीन शास्त्रों प्रमाश सैनदर्शन फ्रा भसुसन्पान करन पा तथा दूसरे ठ्ष ूषा के विधार्थियों ज्िए भी बिशेष उपयोगी सिद्ध दोगे.! बातों का यह पृदृत संग्रह उनके छिए. मैन विश्वकीप! का कायम देगा साधारण स्छ्ृल ठथा पाटठ्शाक्षाभों के भ्रन्‍्पापद मी दिधार्थियों के किए ठपपोगी तथा प्रामासिक्त विषय घुनन में पर्याप्त छाम ठठा सकेंगे। उनके छ्िए यह ग्रंथ एक मा दर्शक आर रहों के मणदार का काम देगा | सापारण जिश्ञासुभों & लिए तो इसकी ठपयोगिता स्पष्ट शी |

प्रन्प में भाएं इए दिपयों की झच्ी बालों के नम्बर दकूर अक्रारापनुक्रमसिका के अनुसार प्रारम्म में दी गए है। इस से पारकों कये इस्छित बिपय हें इने में सुविधा दोगी।

चूँ के इस पुम्तक की शैती में संरू्पातुक्रम का भनु परश किया गया ६! इस शिए पाठकों का एक ही स्पान पर सरश् एव सक्षम मार तथा विचार के बोछों का संकछम मिस्तगा, परन्तु श्स दशा में यह होना स्वामाविक ही था। इस कठिनाई का इस करन के शिए कटिन बोक्तों पर विशेष रूप से सरल प्॒॑ दिस्तृव ब्याम्याएँ दी मई ई। कठिन भौर

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दुर्षोषन विपयों को सरल एवं सुदोष करने के प्रयत्न में सम्भव है माददों में री पुनरुक्ति प्रतीत हो, परन्तु यह तो खान बूझ ऋर पाठकों फी सुदिषा के छ्षिए ही किया गया है

पे शम्द इसलिये शिस्ते जा रहे हैं दि प्रेमी पाठकों को मेरे प्रयास के मूक्त में रही हुई मावना फा फ्ता छ्ग थाय और वे हान लें कि जहां इसमें आत्मोभ्रति फ्री प्रेरणा है बी शोकोप- कारी प्रवृत्ति मी है। ग्रंथ फे सम्बन्ध मे जो कुछ कहा गया है बइ परुकों को अपने परिभ्रम का आम करा झर प्रमादित करने के छ्लिए नहीं अपितु इस घार्मिफ भजृष्ठान का सम्मुचित झादर करने फे लिए हे। यदि दे मर इस कार्य से फ़िचिन्मात्र भी आाध्यार्मिर स्फूर्ति फ़ा अनुमब फरेंगे सो शोक फत्याश की मादना को श्सस मी सुन्दर झार भाष्यात्मिफ साहित्य पिक्ष सक्रेगा

“श्री जेन सिद्धान्त वात संग्रइ” में 'बोज्त' शप्द साथा- रस पाठफों को एक देशोय प्रदीत होगा, फिन्तु शात्रों में जहाँ स्थान श॒म्द ई, खड़ी बोशी झोर संरफ्तत में था भू था संरूया शम्द दिए जाते हैं, बहा खैन परम्पशा में “बज” शब्द प्रन्‍क्तित ६। प्रात भौर संस्कृत सानने वाले पप्ठक भी इससे हमारा ठष्दिप्ट अ्रमिप्राय सरछता से समझ सके इसी ज्तिण भौर शम्दों की भपेद्ा इसको विशेषता दी गई भौर इस ग्रथ में “बोल” शुम्द का ही प्रयोग किया गपा है।

इस प्रंथ को शुद्ध भौर प्रामाणिक पनान फे लिए मरसक कोशिश की राई ६। फिर मी सानव सुल्तम श्रटियों फा रह ज्ञाना सम्मद है। पदि सदृदय पाटक उन्हें सचित करने की

(पड) कृपा करेगे तो आगामी संस्करण में सुब्रार क्ी जाएँगी

इसे लिए मैं उनका विश भनुगद्वीव रहँगा . -7

पूजन प्रस बीयामर पक औआसापाह साल्य सबत २६६७ मैरादान सेरियां सा० ८यजोज्ञाई १६४० ई० | 20% कब कल: मर है बहा क्र

| नी का डितीया इत्ति के सम्बन्ध में “+ -।,-

श्री जन सिदान्स प्रोत्ञ संग्रह प्रथम मांग क्री, द्ितीपी बृचि पाटकों के कन्र फसलों में पहुँचात हुए इमें अपार श्प का भ्रनुमद हा रहा प्रयमाहत्ति मे भद्तारादि-भवुक्रप्रिव्य में कषश बाज नम्पर दिय॑ गये थ॑ परन्तु डितीयाब्र्ति में पृष्ठ मैंस्पा भार बड़ा हेन पाठकों का सुविधा दागी अ्थमा- ब्रच्चि में प्रमाण ख्प से ठड़ ठप्यों की खबी नहीं एी गा पी अब की घार धड दे टी गई ६। का के हक बतमान समय कागत, छपाई, पन्च्राह एज अन्‍्प सदर सामान क्र भाद बहुत अधिक बड़ जान से दिठीपाधच्ि में फ्लीमत बढ़ानी पड़ी | फिर भी धान प्रधार पी इप्टि इस फ्ा मूश्य सतागत मात्र रखा गया ई- यह मौ फिर पान प्रबार+ में ही छगवा है मा

का 7 हक. पुम्तक मंगान बाज्तों प्राथना कि अपना नाम, पता,

ग्रकाम, पाम्ट झॉफ़िस भार रल्पं स्‍्टशन भाड़ि डिन्‍दी भार अंग्रेसी में साफ माफ लिखने की हुपा करे [ !

इस आाइचि में जो अश्यद्धियाँ रइ गई सन - बडि

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पत्र क्षण दिया £ै। उसके भनुसार पृस्तक बुद्ध करके पढ़ने फी कृपा फरें | पिनीत+--

मैरोदान सेठिया

झामार प्रदशन

सर्य प्रथम मैं मारत भूषण, पणिडस रख, शतावघानी घुनि भ्री रक्तचन्द्रजी मदाराब, चनघर्म दिगरापर, साहित्य रत उपाध्याय श्री भारमारामयी मद्गाराप तथा परम प्रतापी पृज्प श्री दफ्मीचन्द्रजी मद्गाराव फ्री सम्प्रदाप फे भाषास्य पूज्य श्री जपाइरघालथी मष्टाराव रे सुशिप्य पं० प्नि थ्री पन्चाज्ञाक्षमी मद्ागप्न ( ऊंटाशा पास ) इन धर्म गुरुभों फा भामारी हूँ, जिद्वोने कृपा पूपक्ू झपना भमूश्प समय देकर घस प्रथ फी दृप्त लिखित प्रति को भपत्ताकन फरफ उचित आर उपयोगी परामर्श प्रदान फिए ६। इन पूज्य मुनियरों इस दस्त लिखित प्रति प्रा पह आने + याद मुझे इस प्र के पिपप में पिशप घल प्रतोत शान लगा है भार में इतना साहस संवित कर सप्रा हूँ छि भ्रपन इस प्रयास फा निस्सझोच भाव से पारों के सामने रस सदँ भझत एब थदि पाठकों फ्री भोरम मा उक्त मुनिराजों प्रति भागार प्रद(न कर हा मर्पथा उचित ही होगा

हम प्रयय प्रयपन में मे तो ठप्णद्य माय्र है। श्सइ लगन, मंपादन संझलन, भलुशाद, भयलास्न, पिरयन भौर दपएप्पान भादि छाग भपिशोंश अस्पद राय सो उदयपुर निषासी भाइड भीयुत्‌ प॑> रोशनलानडी भपतात, बी प्‌«, श्र

(४०)

न्यायतीय, क्राम्य तीर्थ, सिद्धान्त तौये, विशारद फ्ा क्रिया हुआ | इन इस झार्य में मेरा माग माग प्रदर्शन मर का राष्त है। इस झमृन्प भीर साझोपाकु सहायता कर लिए पदि उन्‍हें धन्यदाद दस की प्रया का अनुसरस गर्से तो बढ उनडले धइयोग करा ठशित पुरस्कार होगा | इस लिए पहाँ मैं क्ेषल उनऊ नाम का पते फरक ही भ्रग्रसर होता हूँ। हसी प्रकार इस ग्रन्थ प्रथम भौर द्वितीय बोक्त के सम्पादन में कानोड़ ( मेदाड़ ) निडासी सुआ्रावक प॑० भीयुत्‌ पूर्ण पन्रजी इक, न्याय ठीर्य का सश्योग मुझे सुतुम रहा ई। उन पिस्दृत शास््रीप ज्ञान और उनकी भनुशीलन प्रिय पिदत्ता फा त्ाम 6ठाने स॒ प्रथ की उपयोगिता पढ़ गई ६। भतः भी प्गेचन्द्रपी को उन के अमूल्य सइपोग दे छिप पन्‍्पभराद दना मेरा कर्च स्प है

पंजाज प्रान्त क्र कोट श्मा-सां निरासी आररू पृ० श्यामलाशमी सैन, पी० ८०, न्याय हीप॑, बिशारद का मी सम्मत्रित सहयोग रद्द ६) भीयुत मीउमचन्द्सी सुराशा घी० ९० मे मी इस कार्य में सहयोग दिया है। धतः दोनों मदाशूयों को मेरर धत्यवाद है /

श्रीमाद्‌ पे० इस्ट्रअन्द्रणी शास्त्री, शासाभार्य, प्रेदान्त दारिषि, न्याय दीर्ष, एम ए०, ने इस अंय की का परिभ्रम पूरक संशोधन किया | उनका भस्पकाछीन सइयोग प्रस्प के उपयोगी, विशद भोर साममरिक बअनान॑ में विशेष पद्याक ई।

उपरोक्त सड्मन संठिपा विद्याक्षप % स्नाहढ हैं! उन छऐे जम दराई का सइयोग पाकर इसे अपार श्प हो रद ६।

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झपने क्षणाये हुए पौधे के फूर्तों की सुगन्‍न्ध से किस माक्ती फ्ो इप नहीं शेता

पुस्तक सरपार होने के हृझ्न दिन पदले “भी जैन पीरा अ्रम स्यावर” के स्नातक भीपुत्‌ पं० पेबरचन्द्रजी पाँढिया 'डीर पुत्र! जैन न्‍्यापवीर्थ, ष्याफ्रण पीर्, जैन सिद्धान्त शार्बी का सहयोग प्राप्त हुआ | उनफ्े प्रयत्न से इस प्रन्थ फ्रा शीघ्र प्रकाशन घुछ्तम हो गया भरत उन्हें मेरा पन्यवाद है

श्रीमान्‌ प॑> संथिदानन्दली शर्म्मा साहिस्य शादी, स्पोतिर्दिंद फ्ा मी में भनुगृद्दीत हूँ। जिन्दोंने इस ग्रन्थ में भाए धुए ज्योतिष सम्पन्धी घोजों का अ्रवतोकन भौर ठपयोगी परामश प्रदान फिया है |

पिरज्लीप जेठमल सेठिया ने मी इस प्रन्प की हस्त छिखित प्रति फा भाधोपान्त अपज्ञोकन फरके जहां सद्दां आवश्पक संशोपन किये |

इसके भतिरिक्त श्स प्रथ के प्रशयन में प्रत्यक्ष या परोच रूप में घ्ुके खिन मिन पिद्दानों की सम्सियों भौर ग्रन्य फाझों दे प्रन्यों मे ज्ञाम हुआ है उनऊे प्रति मैं विनर माप से छतश हूं

झूम प्रेस विष्स्‌ भीफानेर निमैदका-- एाम्पल एए०्णीला एफसऊ भैरोदान सेटिया ऐेजीवागहर छीजशारा

02

डितीयाइति के सख्न्ध में--

इस की दिवीयाहचि में भी मन्मैनायार्य पूज्य भी इस्तीमलजी महारास साइम की सस्मदाय के बशेइद्ध एसि भरी सुवानमछम्री महरात साइबर फे सुशिष्प परणिडस ध्रुनिभी छत्तमी अन्द्रजी महाराज साधय ने अजमेर घाएु्माम में पढ़ परिभम से आपरयकर संशोषन भरी पेमरचन्त्रणी साइब वांटिया को फरमाये-अतः इम उनके झामारी हैं।

शास्रत्ग पनिभ्री पश्माशाकुत्नी मद्रारास्त साइग ने पढ़ परिभ्रम से सव भागों का दुपारा, संशोधन किया भर पच्तय मिरौषय छे साथ उचित परापर्श दिया भता इम आपके झामारी |

घंबरत्‌ २००४ में सिंध (गरांबाद भौर भम्त्रई में रइते हुए भीमाम्‌ दृर्लमजी रूपचन्दवी गांधी और भीमान्‌ सेठ नगौनदास गिरफरप्तास मर्र, श्ैन पिद्धान्त समा, पर्म्या दा््ों ने परिश्रम पूर्वक संशोधन ऋरके हम को परप्तित क्रिया, भतः इम रन्‍्हें पन्यबाद देव हं।

इन मार्गों की उपयोगिता को छक्त्य में लेकर रक्त जैन सिद्धान्त समा बम्भई, इन का गुवराती भनुवाद करवा रही है-- पद प्रसभता का विप्रय है|

आशा पाठक इन भागी से झणिकाधिक क्षाप् टटरंगे निवेदक-- फ' मैरोदान धैठिश

मूमिका

इस अनादि संसार पचक्क में प्रत्येक अरत्मा भपने अपन कर्पो के भजुसार सुद भौर दुःख छा भनुमभप कर रहा ई। किन्तु जो झात्मिक भागन्द हैं, उससे पश्चित शी है। कारण फि आत्मिक भानन्द चायिक भौर चायोपशभिक्त माप पर शो लिर्मर सो कब तक भात्मा ठक्त मा्यों की ओर छक्षय नहीं करता भथात्‌ सम्यक्षयया उक्त भावों में प्रवि९ नहीं दोता रब तक भात्मा फो भात्मिक झामन्द फ्री प्राप्ति मी नहीं हा सकती इसलिये भ्रागर्मों में विधान क्रिया सया कि जप सके आत्मा को धार भगों की प्राप्ति नहीं होती तप्र सर असम मोद की भी प्राप्ति नहीं छूर सझसा ! चैसे फिः--

धत्तारी परमगाशि, दुष्लहाणीइ जन्तुशो। माणुप्तपे सुई सद्धा, सजमम्मि ये थीरियमू १॥ ( उत्तराष्ययन सत्र भष्यपन गाथा ) एस गाया का यह भाव हि प्रस्पेझ भारमा फो भार अंगों फ्री प्राप्ति हाना दुर्ेम म॑ चार भर ईं'--मनु प्यस्व, श्रुति, भरदा, भार संयम में पुरुपार्थ जब ये सम्परू शया प्राप्त शो याय ठप निस्सन्देद उस भीय की प्रुक्ति शो जाती ई। उक्त गाया में मनुप्यत्व के भनन्तर दी भुति शब्द दिया गया ह। इस में प्राय' भात्म विकास का फारण धुत धान दी पुरुप कारण प्रतिपादन किया है |

श्रुत ज्ञान के विपय शासों में पांच धानों में परोपकारो सिक्र भुत ज्ञान को ही प्रतिपादन किया है। इस नन्‍दी सत्र में चतुदश मंद

(प्श्गे

कपन किए गए ह£। दे मेद विश्ञासुझों के सपरप शी द्रब्प हैं| ठपयोग पृथक कपन फरता इआ भुठ कैदी मगबान दी शक्ति फ्र तुन्प हो लाता सदा भुत झान अध्ययन करन से भात्मा स्‍्व-दिकास यार परोपकार करने की शक्ति उत्पन्न कर छत है, इतना शो नहीं किन्तु सम्पगूभुत अध्ययन सम्यग्‌ दर्शन सेमी उत्पस कर पक्का है) « संस कि उत्तराष्ययन यत्न के र८ थे भ्ध्यपन की २१ थीं

था २३६ वीं गाया में बर्णन किया ई---

दथो सुच्तमदिजन्तो, सुएस आंगादई संत

अंग्रेश दाश्रिण गा, सो मुच्तरुद सि नायस्जी २१ | सो हाई भमिगम रई, झुप नांख संण भस्पभो दिल्ले इफारस भंगाई, पहुण्णर्ग दि्विदाओ ये २३

इन गाधाओं का यह माह कि भंग सत्र था ध्ंगपासत सत्र तथा रश्बाद अथवा प्रझ्रोण॑क प्रन्यों $ भप्यपन से पत्र कृषि भौर भ्रमिगम रुचि उत्पप्त रो थाती ६। बा सम्पग्‌ दर्शन $ ही उपमंद हैं।

प्रस्तुत अन्य विपय

मम्पग्‌ दशन की प्राप्ति के लिप ही “भी सन सिद्धान्त बाल मंग्रद! धपात प्रम्तुत ग्रथ निमाथ किया गया [

डारय हि शायों में भार चलुयागों प्र डिस्तार पूहुझ ब्णन दिया सा ऊ्रि दर भारमाभों के छिपे अगरपमंब पटनीप ई। थैम झिस-- घरण इरयालुयोंग, पम्र कपालु धांग, मथिवाजुपोग, द्रस्पानुपोग। इस प्राय में चार चत्ु

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शोगों झा यथा स्पान बड़ों युन्दर रीति से सग्रह फ़िया है रथा प्रस्पेक स्थान भपवी भनुुपत्र उपमा रखता है। जैसे साफ स्थान में ऐस पोलों फा संग्रइ फिया यथा है जो सामान्य रूप से एक ही संस्या पाले ई। जैसे सामान्य रूप से भात्मा पझ है दर्पोकि ठपयोण लचय आस्णा का निल शुरु है। पद सामान्य रूप से प्रत्येक लय में रहता हैं। मिस द्वम्प में उप- योग छचदण नहीं उसी प्रमन्‍्य फो भनात्मा पा झ्रजीद प्रम्प कइते ६। फारस कि प्रस्येक पदार्थ प्रो सिद्धि ठस$ द्रम्प पुर, भौर पर्याय से क्वी जाती ६॥ प्रथप स्थान में पड़ी सुन्दर पक्षी से आरमों से वा प्रागमों के भपिरुद प्रंपों से एक एक पोल का संग्रश किया यया है |

दिवीय झंछ में दो दो बोछों का संग्रइ ६। उसमें सामान्य भौर विशेष बा पथ, प्रतिपद धोशों का संग्रद है। खैसे लीग भौर भ्यीब, पुपप भौर पाप, पन्च भौर सोच इस्पादि | इसी प्रकार देय, शेप भौर ठपादेय से सम्बघ रखने बारे भनेक पोल संग्रह फ्रिये सये हैं। स्पानाकृुछत के द्वितीय स्थान में उपादेय का पझन करते इुए कथन फ्रिया कि दो स्पानों से युक्त भात्मा भादि संसार पक से पार हो जाता जैसे फिड--

दोईि टासेट्ट झणगारे सम्पन्ने भशदिर्ण भ्रणबफरं दौएमहूं घाररंस संसार फंतारं वीविबदेग्या, ध॑ लद्टा विज्ञाए ओेब घरणेण पा ( ड्विठीय स्पान उेश प्रयम घन ६३ )

इस प्रश्न फा यद भाव कि दो स्थानों से युक्त मनगार अनादि संसार चक्र से पार हो आता £ै। सैसे छि फिल्‍्त के

(६६)

और चारित्र सं। यह संत प्रत्पेक मुम्र्ष के सनन करन योग्य है क्पोंकझि इस सत्र से श्रातिवाद ओर हु बाद का सपइन स्वयमेष हो छ्वादा है भ्र्थाद आति और इस से कोई मी संधार चक्र से पार नहीं हो सकता! अब डोगा विद्या भौर चारित्र सं होगा | इस प्रकार प्रस्तुत ग्रद्म में शिक्षाप्रद वा बातभ्य भागमों से ठदूधृत छर संग्रह फ्रिया गया हैँ जो अवरप पठनौय है

सीन तीन के बोस पंग्रहों में बड़े है विसिन्त भौर शिध्षाप्रद बालों छा संग्रह | इस छ्िए ज्ञान संपादन के लिए प्रस्तुत ग्रेप का अबश्प हो स्माष्याप करना चाहए। स्थानाज्ष यज् के ततीय स्‍्पान चतुर्थ उद्देशे २१७ षें पप्र में छिख्रा है कि.

विमिह मगबया पम्म पणणत संघदाः--सु प्रपिन्म्ध्ति सुन्मातित॑ झुतवस्सिते सया सुभणिन्मित॑मवत्ति शदा सुन्मातिय मदहि छया मुम्झाहियं मवति ठदा सुतबस्खियँ मषति | से सुभपिल्मिते सुस्झातिते सुतरसिये सुतक्खातदर्ण ममबपा धम्मे पणल्षत्ते $

( धत्र २१७ )

इस पत्र का यई सा कि भरी मगबान्‌ पर्म तीन प्रकार से बर्शन किया है! ऊँसे कि मछौ प्रकार सं पठन करना, फ़िर ठसमका ध्यान करना, फिर सप करना भ्र्पात आपरक्ष करना | क्योंकि सब मस्ती प्रद्रर स॑ गुरु काडि के समीप परन किया होता हद हो सुष्यान हो सकता ई। सुष्यान इन पर दौ फ़िर मसी प्रचार पं भ्राषरण क्रिया शा सद््या हैं। अतः पहल्त पठन करना फिर मनन करना

(४६०)

आर फिर आघरण फरना | यड्डी तीन प्रड्वार से भी मगवान ने धर्म घन फिपा £। इससे मक्ती माँति सिद्ध शो जाता है कि भरी मगपान्‌ मा प्रथम धर्म भष्ययन फरना ही ६। सो सम्यग्‌ सपनों का भ्रध्यपन फिया हुभा भान्स पिकास - छा प्ररुप ऐतु ोता

गई प्रस्तुत ग्रन्थ पिधार्थियों पे क्षियि उपयोगी बने पर मी विद्वानों फ्रे तिथि मी परमोपयोगी धर इसमें महुत से बोश उपादेय रूप में भी सग्रद्दीत किये गए ईं। जैसे कि आवक फी सीन श्रजुप्रेचाएं स्थानाहु सत्र तृतीय स्थान के घहुर्थ रऐेशे के २१० में पप्न में बर्सित फी गई है। जैसे कि---

वि राणेई समलोबासते मद्ानिज़रे, मद्रापसबसाये भयति। तंजद्या--(१) ऋूपाखसहमप्पं धा पदुयं था परिग्गई परिचश्स्सामि (२) क्रया श॑ अं मुद्दे मवित्ता आगाराशों अशगारित॑पस्पश्स्सामि (३) फया श॑झइईं अरपस्छिम मार खंठिय॑स॑क्तेशणा भूसझा मूठिसे मक्तपाश पढ़ियातिक्‍्खते पाभोषगते फाल॑ भ्रसबकखभासणे विदरिस्सामि। एव मशसा पयसा क्ापप्ता पागड़मा्स (जागरमा्स) समणोपासते महासखि- झरे मद्गापअवसाणें भबति (सत्र २१०)

इस पाठ झा मावार्य यह कि आाषक तीन अलुप्रेधाओों द्वारा कर्मों की निञ॑रा करके संसार चक्र से पार दो लाता है भैसे छिः--

आवक्ष सन, घचनन ओर फाया द्वारा निम्नक्तिलित सीन

भवृप्रेधाएं सदेद फरता रहे भर्थात्‌ दीन मनोरपों की सदेय

(६६)

फा है। बैसे स्पानाइु पत्र फ्रे कतर्य स्थान के प्रथम ठशेशे में लिखा दे फ़ि बस्तर चार प्रफार फे होते हैं| लैसे किः--

घशारि वत्था पएणते संजदा, (१) सुद्े जाम एगे सुद्रे (२) छुद्दे शाम एगे भसुद्दे (३) असुद्े शाम एगे सुदझे (४) असुद्दे खार्म एंगे झसुद्धे (५) एयामेव चचसारि पृरिस खाता पणशवे त॑नद्दा'-सुदे खाम॑ पे सुद्धे चड मो ४। एवं परिणय तरूबे परपा सपडिपक्खा | चत्तारि पुरिस खाता पण्थते सबद्या --मुद्दे खाम एगे सुद्मणे चउ मझो ४। एवं संकप्पे जात परकमे | ( बत्र २३६ )

इस पाठ फा यइ मात्र कि यख्र चार प्रझ्ार फ॑ दोसे ६। (१) शुद्ध नाम पाते एक छद्ध दस्र हैं। (२) झद भशुद्ध (३) भद्दद छाद (४) भशद् अष्ठुद्ध | इसी प्रकार पुरुषों के बिपय में मी सानना चाहिये | बिसक्रा ताना माना छुद्ध हो आर घोममय दख्र हो, पश पहले मी छुद भर्पाव्‌ उसकी उत्पधि मी शुद्ध भौर यस्ध मी छुद्ध ६। इसी प्रफार झन्‍्प मह्लों के विषय में मी जानना चाहिये | इस ्तु्मज्री में पस्तों हारा पुरुषों फ्रे विपय में झत्पन्त सुन्दर शैंसी वर्णन किया है | अ्रद्टिमक पुरुषों के ज्िण बख्र॒ फा प्रथम भक्ञ ठपादेय ई। दाष्टान्विक में प्रथम मज्त पाता पुरुष घगत्‌ में परोपफारी हो सकता भर्धाद जो घाति झुस्तादि से सुसंस्क्ृव और फिर ज्ञानारि मी भलंकूत दो रद्दा ६, वही पुरुष संसार में परो पहार ऋरता हुआ मोचापिकारी दो खाता ६।

प्रस्तुत प्रथ में बड़ी ही याग्यवा रर साथ मदृती पठनीय सतुर्मझीयों का संग्रह क्चिया गया ई। बे अ्तुर्म्टियाँ श्रमक दृष्टि कोश सं मद रख्पी हं। थो मम्नष्तु खनों रू लिए

(१०० )

अत्पन्ध उपादय हैं भार झ्ात्म पिकास # छिये एक इुद्धी फ्रस्मानई |

प्रस्तुत प्रन्थ के पाँचव बाल संप्रद में पांच पंच बातों का संप्रद झ्िया गया | यदि उनका भलुप्रेदा पूत्रंक पा जाय तो जिक्षासुभों को भत्पन्त शाम हो सझता पपोंक्रि उपयोग पूवक 'भ्रध्ययन फ्रिया हुआ थ्रुत भात्म बिफ्रास का मुहुप कारण होता ६। जैस कि स्थानाड़् प्र्॒न पांचर्ने स्थान % हतीय उद्देशे में क्षिख्ा ई। संस कि'---

घम्म भरमायणस्स प॑ष शिम्मा ठाथा पएथत तंबहा--- छक्फ्राए, गये, राया, मिश्वती, सरौर। (सत्र ४४७) परु्च शिद्टी पण्थत तंगइा--

पृथतिशी मिचनिषह्टी सिप्पनिशी पथरी पश्मणिदी।

(बदन ४४८ सोए पभ्च विद पएथत तंयहा ---

पृरषि सीत, भा सात, तड़ सात, मं सोत, बम सोत

(पत्र ७४६)

इस छश्न में यह बयन किया छि बिए भास्मा ने घर्म

प्रशश दिया हैं उसक पात्र भाछम्मन स्पान इांव | दस...

हक काया, गण, राजा, गृ्पति, शार शरीर पद ये पांचों ही टीक होंग तब ही निर्मिमता पूषक घमं शो सझगा |

पांच निषि ( कोप ) एशस्बों डा होही ६। (१) पृष

निधि (२) मित्र निधि (३) शिल्प निभि (४) घन घान्म निधि] निषि (९)

(१०१)

पाँच प्रकार का शौच होता हैं | जेंसः-प्ृध्वी शौच, जल शा, तेन' शीच, मन्त्र शौच और प्रश् शी जिस में प्रथम चार शांच बाप हैं और प्श्रशोच भन्‍्तरज्ञ हे | इन ; सत्रों फ़ी ज्पाल्पा दृ्चिकार न॑ बढ़े विस्वार से की हईजो निन्ञासुभझो लिये रएज्य

प्रस्तुत ग्रन्थ संग्रह में पा पांच घोछों का सप्रइ पड़ी उद्घापोई डरा किया गया है। प्रस्येक योज पड़े मदस्प का हूँ और भनेक इपं फोण से पिचारने योग्य हैं। अत' यई संप्रह अत्यन्त परिभ्रम हारा किया गया ई। इस से भत्यन्त ही छाप होने फ्री संभाषना फी खा सफ्सी ई। मेरे विचार से यह प्र-थ प्रत्यक्ष स्पक्ति के लिये ठपयोगी यदि पाठ्शाक्षाओं में इसको स्थान मित्त जाय तो पिधार्थियों फो भ्रस्पन्त शाम होगा

श्रीमान्‌ सेठ मैरोदानजी फो भस्पन्त घन्‍्यपाद है छि के पृद्धाबस्था दोन पर भी श्रुत ध्वान के श्रघार में शषगे हुए ६।

अ्रुत् प्ञान का प्रधार ही आरम विकास का पृस्ध्य देलु हैं। इसी से भास्मा भपना कल्पाश कर सकता क्योंकि उच्तराष्पपन सत्र २६ वें अध्ययन के २४ थें स्॒प्त में लिखा डे

मसुपस्स आराइणयाए ख॑ मनन्‍्त छलीयें कि जणयह३ १। सुयस्‍्म आराइययाए अप्मार्ण सबेइ ले संकिशिम्सइ ॥२४॥

श्स पाठ का यह भाप कि मगवान्‌ थी गौतम ली मदाराज़ अ्मण मगवान्‌ श्री मधशायीर स्पाम्ी पूछते हैं. दि

(्‌ ह्बर )

है मगदन्‌ ! विधि पर्षक भुत के भाराधना फ्रन से जीव दो फ्रिप फले ही प्राप्ति होती ६! इस प्रश्न के ठत्तर में भी मगबान्‌ फरमाते है, छि गौतम सम्पक््या भुत फ्री भारा प्ना करन से अद्षान भार कलश का नाश हों साताई बपरण कि कलश भण्ठान पूर्रक ही दोता ६ई। मर भजानतवा का नाश इुभा तप्र क्लरा साथ ही नष्ट डा बचाता भता सिद्ध हुमा भव झाराघना फ् शिए स्वाप्पाय पगरंय करना शाहिए क्योंकि स्पाध्याय फ़रन से क्वानाबरणीय फर्म देय हो साता ई। फिर पारमा ज्ञान स्॒रूप में छीन शा जाता बस फि झागम में कपन फिपा छिः---

सन्‍्काएश मन्य खीदे छि वर्येर [ नाथाररशिर्ज कम्म॑ सत्रह |! १८

अत” स्दाध्याय भदररप झरना दाहिए ) स्वाध्याप फ़रने प्र दी फिर भारमा का आय धारित्र भुख की प्राप्ति डो जाती भा वह देश भारित्र हां या सर्व शारित्र | घयगडांग सूत्र

प्रधम शुतस्कन्घ के डिठतीयथ अध्याय के तृतीय रऐशं फ्री १३ थीं गाज में छिया ६-..

शोर पिस झाषस नर, अस्युपुसु पार्खाई सजए समता सच्दस्थ सुष्दते, दंबार् गध्छ से छोगप ॥१४॥

माजाध॑---ओ पुरुष शृहृदास में निशास करता हुआ मी फ्रमशा भावक घ्मं का शआराप्त करझे ग्राखियों की हिंसा से

मिद्रत्त शोता ठथा मद्श्न सममाद रुपता बह सुए्त पृरुष दंबतामों शोर में लाता |

(१०३)

अ्छुत प्रथ से अध्ययन फ़रने वाले विद्यार्थियों को पुससे अस्पन्त खाप्त हो सकता है। क्योंफि यह ग्रथ बड़ी उत्तम शैली से निर्माण फिया गया ६। भस्तः प्रत्यक झप्चु आरमा को इसका स्वान्याप करना चाहिए खिससे बद

हा ऋमशः निर्षास पद की प्राप्ति ऋर सके |

ंबत १६४६० आपाड़ ) अपाष्पाय झैन मुनि आत्माराम (पम्जावी) रुक्झ्का चन्दबार सझुधियाना

(बन)

मगपन्‌ ! विधि पूर्पझ भुत की भाराघना फरन जीद को किस फल फ्री प्राप्ति दोती ६१ इस प्रश्न के ठत्तर में भी मगबान्‌ फरमात ६, क्रिइ गौतम सम्पक्तया भ्रुत की भारा पना करन से झजान भर फ्लश का नाश शो जाताई छारण कि कलश भन्तान पूर्वेफ ही द्वावा ६। जब भन्नानता का नाश हुआ उप्र कलश साथ ही नष्ट हो जाता है] भतः सिद इआ भुठ भाराथना फें लिए स्व्राष्याय भवश्प करना आहिए क्योंकि स्पराप्याप ऋरन से क्ानापरक्चीय कर्म छय हो छाता फिर भाश्मा ज्ञान स्परूप में लीन हा खाता मैस कि भागम में कबन क्रिया कि--

सन्‍्माएणं मन्ते जीपे कि जणेर नालापरणिर् कम्म॑ सपह १८॥

अठा स्वाध्याय अप्रश्प झरना बाहिए स्वाध्याय फ्रने प॑ ही फिर भाग्मा का प्राय भारित्र गुस फ्री प्राप्ति हो जाती चाह बह देश चारिष दो था सर्च भातित्र | छयगडांग पत्र प्रथम अभ्ुतस्कन्ध छू ड्वितीय अष्पाय के तृतीय उर्देशे की १३ थीं गाया में सिखा ---

गांर पिस भाजस नर, ध्प्ठुपृर्ध्म पा संज्प्‌। समता सम्बरथ सुष्वर्त, दब्ार्स गष्छ छू छोगय ॥१६॥)

माजार्थ--आं पुरुप ग्रइदास में निषास॒ कर्ता हुआ भी क्रमश! आजइक छर्म % प्राप्त ऋरक प्राणियों की हिंसा

निश्च दाता तथा सबंध सम्माद रखताई बह सुधत पुष्प इश्ताझों छोफ़ में जाता ६।

अकारायनुक्रमणिका

चोक स॑०. विफ्प १६ भज्ञ बाह्य भ्रत १६ अडह्ड प्रबिष्ठ भत ३३० भअज्जार दोप ११८ अंगुल के तीस मंद ६४५४ धकशद्ूयक ७१ अकममृमिय ३०१ अकमाश २६६४ अकपाय २६.० अकस्माइण्ड 2३१ अकाम मरण ३३१० भकारय्य ३९६ अह्सा १६१ अकियावारी ६० अगार घर्म ०७ अपाएी कर्म १६६ अचह्तु दर्शन ३७० अचरम समय सिमस्च ] अजित्त योनि

प्र्प श्३ है३ ३१६ दे ३७३ श्र पर ए्द+

मछ०

चोक मं०._ बिपय प्र्प् ४१६ अचिक्त बायु पाँच भ्श्८ २६६ अचौस्पे श्५३

३०१ अचोर्य्याणुप्रत (स्पूल अवष्तादाम

विस्मण प्रठ) के पांच

अहिभार श्ध्ष ३७१ अध्यशति इ्८१ २० अशीबाधिकरण ए्घ ३५४ अज्ञात चरक ३६७ १६१ अप्तानवादी श्ष्४ ३०० अजाद़़त पांच फ्प्प २४४ भतिक्रम श्ण्१ ए४४ अठिचार र्श्१ ४७३ अधिभि वनीपक श्पप ३१२ अतिदि संबिसाग घत के पाँच अधिचार ३१३

१८६ अतिथि संबिमाग रिक्षाप्रत १४१ ३७१ अधिसार २३१ १२० अठिध्याप्ति | प्र

६*१

बोश न॑०. विपय ष््छ ३१६ अदक्तादान बिरमस मइात्रत३२१ ३१६ अइश्शादाग दिस्मणा रूप दृतीय

मद्दाव्रद्ठ की पांच साबनाएँ १२६ १०८ अद्भा पल्पोपम उ्र्‌ १०६ 'झद्भा सागरोपम जप २७६ अपर्मासितिकाय श्श्३ २७७ भअपर्मास्तिकाय पांच

प्रकार ग्श्श

2० अपिकरण की स्पाकदा और

इसके सव्‌ पु

३०६ भणो दिशा प्रमाशातिक््म१०३

६५ अषोकोक 2 2९९ अपोष॑दिका ३१६ अनह छौड़ा २६६

२० अगगार पर्म श्र १२१ अलभ्पसाब ३] ४१७ भन्स्तक पांच श्र ४९८ अमस्वक पांच श्र

७० अनम्त ड्रीबिक ड०

प्रतन्‍्थ संसारी १४८ अनस्तानुजस्थी ३१८ ३६ झरज इशड श० अमर्थ दण्ड अर

शब्द अर्थ इश्ड विर्मया प्रत के पांच अआतिचार

शोक नं+. विपय प्र्प

हृन्८ (क) अमये इश्ड विस्मण अठ घर

२६५ अनबर्षाक्षा प्रस्पपा ण्षा

अरुघस्थित सामासिक करण ३१ २४४ अनाभार १५१

६२ भनास्ममूत कक्तस है ११४ अनानुपूर्बी घर २छ८ 'अलाभिप्रदिक सिप्पात्व २३७

०६४५ अम्गमोग प्रस्यया २८१ ३६८ अनामोग वुश ३८३१ श्यप अनामारग मिप्यात्थ २६७ भअनाह्ाएक हु »८ अनिदृशिकरण , ०८३» अतुकस्पा १९४ १४०७ अलनुकम्पा दान १श७

४३४ अनुश्पप्त उपकरणोत्गदम बिमय आर प्रकार

२१६ ३२८ भनुपाकना शुद्ध ३३७५ श्८१ अमुप्रक्षा श्ध्८ 2२४७ झनुसाण बख्प ग्श्र इश८ अनुमापणा घुद्ध ३६७ ०६ इसपर श्घ्र अनुमान प्रमाण १६ अशुयोग चार द्वार हपह

२१११ अनुयोग के चार सेद्र १६०

(६४)

जोक न॑ं०... बिप्रम। प्रष्ठ | बोह नं. विपय पृष्ठ २०४७ अलुयोग ढार सूत्र का ३११ अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेष्ठित संक्षिप्त परिचय श्ञः उचार प्रस्बणय मूसि ३१२ / २१४ अस्लक्रियाएं चार शए७ | ३११ अमप्रस्युपेक्षिठ दुष्परत्युपेक्षित

१ए४ए अस्वचरक ३६७ शप्या संस्तारक ३११ ७१ अम्ठरदीपिक 2९ | ३७० अप्रयम समय निर्भन्य १८५ १२४ अम्वदरात्मा छ8 | ३३० अप्रमाण ३३३ इप८ अम्तराब कर्म के पांच संत ९१० | ०६६ अप्रमाद श्प

३४५६ अन्वाहार ३७१ | ३११ अप्रमार्ित दुष्प्रभा्शित ४३४५३ अप इश्लाय चरक झ्षृ८ रुबार प्रस्वय मूमि ३१२

हज्ट (कक) अमस्य प्रकार से मप ३११ अप्रमार्डित दुष्ममार्जित के चार मेद श्श्६ शप्या संस्तारक ३१२ ३०७ अपबचौपधि भक्षप ३०६ | ६४६ अप्रापतक ३७३ ३०४ भपरिगृह्दीदागमन २४८ | १६७ अमयदान श्श्७ २६६ अपरिप्रद न्प््स | अमष स्िद्धिक ] ३७१ अपरिश्राबी ८७ | ४०० अभिधर्भित संबस्सर. ४९६ अपर्थाप्त | १३४७ अमिपेक समा ०१ ४० 'अपचाद श४ | २४६ मसमसपा श्प७ ३१३ अपश्यिम मारखान्तिक २६६४ अमैपुर श्पऊ संल्लखना के पांच अतिचार ११४ | २६६ अयोग श्पक २२० अपाब विचय २०२ | १२६ अरसाइार ३७१ १६६ (छ)अपादापणम अठिशय ४५ | २०४ अरिइन्त र्श्र्‌

5८ अपूबष करण श्३्‌ १० अपीद्गक्षिक समकित. है० ऐश अप्रस्यास्पान श्र

ए६३ अभ्रप्रपास्यानिक्री क्रिया रे

१०६ (स) अरिइन्स सगबास्‌ के चार मूकादिशय पद ६० अरूपी थाई हर ६०» अर्थ कमा ६६

[शत]

जोख ल० दिपय

घर

३६ अथ दुशढह ष्३्‌ २४. अजब बरह २७० ८४ अजंधर पुरुष दर १९४४ अथ पुरुषाणे श्श्१ १६ पर्भ रूप अत धर्म श्र ८३ अथ गम ६० २७ अर्भान्दर म्‌ड्‌० अर्थाबप्रइ ३५८ भप पयह्टा ह्ज्र

३६७ अक्द्टार सभा घर १०४ अलूप आमु के तीस कारण ७४ ॥४ अकशोकाकाश

आए अब के दो मद अबपइ श्श्प ३७४५ अबपि काम १६१

६६ अबभिक्तान की स्वाक्‍्पा

और सब ३७५ अबदिस्तान पा अचणिक्षामी के पक्षित दोने के पांच बाक३१२

७४ अबबिश्ञानीडिन डे इ०प अदबपधि क्ानावशशीय देश्ड १६६ अचष्ि दर्शन श्श्रर ३४७ अबर्नीब साथु पांच ३४७ ३५० अब मसस्न झ्श्८

३३ अबसर्पिशो श्र

पोड ने बिपय फ् 2४ शध्यवाम्तर सामास्य श्

२१०० अबाझ शग

श्८६ अधिरति २६८ -

इए१ अड्यक्त स्थप्त दशल इधह अब्यवद्दार राशि घ् १२० अम्पाप्ति परे ३७१ अशबद झ८ई ७० असंसूपात जीविक ] असंझी १५० असंभष पड ६६ असंबती |] २६० अस॑ग्रम पांच श्प्र३ ३६७ असंदत बकुश इ्८१ २६६ असस्प मापा २४६ २७० प्रसत्प बचन के चार प्रकार २४६ ९६६ असस्पामपा सापा ( स्वषह्दार भापा ) २४४ २०० असइमाबोइभाषम २४५० श१ असाठा बेदनीय ०२ असि कम श्ष ७६ अश्तिकाब थम श्र २७७ अध्तिकाय के ५च्र पांच सेद ९४) ६१ भझछ स्पर्शी दा

२४३ अर्दिता पद

0

शोज़ से०... बिपय घ्र््ठ ३०१ ध्य्टिसामुप्रव (स्पृज्ष प्राणा ठिपात विरमण अत) के पाँच अतिचार २३० सेल ऊ5 भा ४५ अष्ाश श्र २७६ झाकाशास्वि काय ण्श् २०७ 'आकाशास्ति काय के पांच संद श्श्४ ४१३ झाक्ास्त धायु

१५४ झाशेपणी कथा की स्या- सपा और भेद

११२ ३७३. 'झ्रागम ३४६ ८३ आगम की ष्यार्पा और मेद ३० २०३ आगम प्रमाण १६१ ३६१ आागम ध्यवद्दार इ्ज्र ३५५ अआचाम्किक ३७३ ३२४ आचार पाँष श१२ ४२४ आचार प्रकल्प के पति प्रकार ३३३ २३० आचार दिनप भार प्रकार श्र २७४ आयपाय श्ह्र

३४३ झआाचाय उपाध्यास के गए

घोक़ ने»... बिपय॑

पूछ से लिककने पाँच ऋारस ३४४ ३४२ आधार रुपाध्याय के शेप साधुभो की अपेक्षा पाँच अतिशय श्श्व्‌ १०२ आाभाय्य की अद्धि के होल भेद ज्‌ १०३ आच्ाय्प के तीन मेद. ७२ ३४१ आधार के पाँच प्रकार ३५२ ३७२ आशीबक झ८७ २६५ अआाक्नापनिका शरण २२० आशा विजय भमेष्यात २०१ ३६३ झाह्डा स्पवद्दार ३७३ ३५४ आवापक हज ६२ भआास्ममृत क्र ४३ १४२ आात्मदादी १४६ २४३ आस्मसंपेदनीय वपसर्ग के आर प्रकार ३२० ११८ आरमांगुल दा आस्सा १२४५ आारमा हीन १८५ आइश समान भाषफ १३६ ३२३ आवाममंडमादनिफदेत्या समिदठि ३३१ ४०० आदिस्प स॑पस्सर इरक

४८ आाषार कप

[शव]

बोक ले० दिपय

प्र्प ३६ अब इशड ग्३्‌ २४६० क्रण दपड र्फ> ८४ अअशंघर पुरुष ६२ १४४ अब पुरुषाये श्र १६ अर्थ रूप भव घसम श्र ८३ अर्थोगम ३० २७० अब/ख्तर २५० श८ भर्पावप्रई ३४८ भर पयड्टा ३७२९ ३४७ भकह्ार समा घ२२ १०४ अप आयु के तीस कारण ३४ अकोकाकाश श्३ृ 2५८ अवप्रह के दो मेद अबप्रइ श्श्८ १७४ अचपि शान ३5१ १५६ अबभिक्ाम की स्वास्पा और भत््‌ श१ ३७० 'भबधिध्ठास या अषधिकश्ञानी के अक्लित होने के पांच ७४ अबषिएछामी जिस ३७८ धषपि झानावरशीवय ३१४ १६६ अबधि इशन श्श्प श४० अबन्दबीब साथु पांच. शेश७ पघे७ अबसस्त श्ध्ड ४५ अचसर्पिश्ो | 3

बोकस॑ं० विषय पर 2६ श्मवास्वर सामान्य शा २१०० झजाय 0 २८४ अधिरति २६० ४२१ अस्यक्त स्थप्त दशन... शा अ्रम्पधद्दार राशि १२ अश्बाप्ति पी ३६०! अरबषब्ष ह८६ ७० असंस्पात जीविक ] असंझ्ली | १३ असंमद प्र ६६ असंग्रती ह्‌ २६७ अस॑ग्रम पांच ८३ ६६७ अ्सवृत बकुश ह८१ २६६ झठत्म साया २४१ २७० प्रसस्त्र बचन के भार प्रकार २४३ २६६ असत्थामृपा मापा ( स्क्‍्चहार मापा ) श्र १७० असवूमाषोगुभागन १५० 2१ भसाता बेवनीय ३० ७२ असि कर्म श्र ७६ अस्तिकाप पघसे श्र २७७ अश्विकाय के पांच सेद २४४ ३६१ भए स्पर्शा डर (२६६ अर्दिधा

फेप+

[७]

बोल न॑ं०. विपय ३२३ इर्या समिधि ३३१ १८१ इयो समिति चार कार ११५ ३०९ हरदा श्श्प ] डक छठ

३५३ रषचार प्रस्रव श्छषप्स

हुक्म परिस्वापनिका घर्सिति१११

३५७ इस्कटुकासनिक ड्फर इशए९ सत्तिप्त भरक श्र 2४ रत्तर गुझख डर २०५४ राक्षराष्ययन सूत्र की व्यारूुप्ा और हत्तीस अध्ययनों के नाम

तथा उनका संक्िप्ठ भाद १६३

००१ छत्पाविया वृद्धि श्शर ३४ रात्पाद श्र ४० उत्सगे ग्श ३३ एस्सर्विणी ०9 ११८ सससेषांगुल प्प्श्‌ २५३ ररय श्ह्ज ऐ८० उदाहरण 42] १४४६ इदीरजा र्३७ २४६ इदीरखा एपक्रम र्इ्ए ३४१ इरेशाबास्प श्श्र १०८ द्घधार पत््योपम हि १४६ प्रद्धार सागरोपम भ्प

डोल नं०.. बिपय घर ४०६ इस्मार्ग देशता + २४ उपकरण दृस्मन्द्रिय १७ २०८ छपधच्म श्द्रे

२४६ उपक्रम छी ब्याक्पा और मेद शइ४ ३८० छपनय ३३६७ $६ रुपपात ३६७ चपपात समा डर १२८ ($) उपमोग परिमोग पर्रिमाण गुणब्रतत ११

३०७ उपभोग परिमोग परिमाण

अत के पांच अतिचार है०श ३०८ उपभोग परिमोगातिरिक्त ३१०८

इप्ए डपमोगान्तराप र११ २५२ डपमान प्रमाण श्श्े २०३ रूपमा संस्पा की श्पास्पा और मद १६१ ११ उपभोग १० ४४ पपबोग भाबन्द्रिय श्र 2४६ इपशमना प्रपक्रम श्ड्र २६ रुपशम भेखी ३३ २८२ छपशम समकित 3, १4 २३६ दुपसर्ग चार फ्ह८ ३५ रुपादान कारण _/ श्र शऊ्ट दपाष्पाय श्श्३

65)

बोह न॑० दिपय प्र २६३ आविकरस्िकी क्रिया २०४ १० झआांघिगमिक समकित १० ४८ भाषेय ३१७ आनयञ प्रयोग ३१० पर आनुगमिक स्यूबसाय २८८ शआामिप्रहिक मिप्यास्त ६६७ ११ आमिनिधोषिक ह्ान है९ ७४ अगभिरिषोषिक ज्ञान ३६

श८५ अआमिनिबशिक मिस्पात्थ २६७

१४१ आभिषोगिकी साथना १०४ ४०४ अमिबोगी साबना के

पाँच प्रकार श२१ ३६८ झामोग बहुश श्५३

३४१ अआाम्नापाये बाचकाचार् १५२ ३. आयु की ब्यार्या और मेहर

४४ आरस्म २६ 3४ आरस्स रथ ६४६४ अरस्मिक्ी क्रिया स्ड्८ ८५ आराफ्ना तीम श्र ३४५४ भारोपणा ३१०

॥२६ आरोपणा पांच सेव ३३४ २४४ (एप) आरोपण)/ प्राश्रश्नित्त २१३ इश४ आशेच हा २१५ आत्तेभ्दास श्घ्ष 72१६ भातध्याश चार प्रकार १६६

बचोत म॑ं० विपय पर २१७ श्ाश॑स्पाव चार लिड्ठ

$ड्े आडिसांद १२ ३२९४ आम्रबड्वार प्रतिक्ममण शौ८

१४१ आसुरी माबना ह०्शः आसुरो मादमा के पांच मे ३३१ रप३ आ्विक्ष्य श्र आदइारक ५३ ३६० आइारक बस्पम नाम कम श१९ ३८६ आहारक शरीर शाप १४२ आदर संह्ा श्ग्र १४३ शााद्दार संक्षा चार कारों फत्पसन दोती ईै रण र्‌ ल्‍ः इच्छा परिमाणय २६ इत्बरिका परियृद्दीता गमस २४८ ३५७ इंद्र स्थान की पांच सभाएँ ४२१ ६३ इम्द्रिय को ब्थास्या और भेद ३०

३१३ इदक़ोकाशंसा प्रपोग अर

२६६ ईर्बापणिदी क्रिया

यु

[७]

गज नं०... विपय |

(२४६ ईर्यो समिति ३३१

८१ इयों समिदि के चार कार १३४

१५५ ईहा श्श्प हि.

३२३ शच्चार प्रस्नभण रसेप्स

खक्ञ परिस्थापनिका सर्भिति३३१

३४७ एस्क्टुकासमिक ३७१ ३५२ शरिक्षप्व चरक ३६७ २४ इच्तर गुण श्र २०४ रुष्षाराष्ययन सूत्र की भ्पा््पा और छत्तीस अध्पयनों के लाम

तथा उनका संक्षिप्त माब १६४

२०१ रत्पाठिया बुद्धि श्श््‌ ६४ छत्पार श्श चर्स्सर्ग ग्र्‌ ३३ रुस्सविंणी श्श ११८ इस्सेषांगुक सा३्‌ २४१३ छरय ३७ एउद्दाइरण ३६७ १४५४ बरीरणा शक २४४ रुद्दीर॒णा सपकृम श्र ३५१ पर्ेशाबाप्पें शहर १०८ एद्घार पश्योपम है] १९४ दद्धार सागरोपस ञप

चोल नै० बिपय प्र्पछठ ४०६ उन्मास देशना इश३ २४ ठपकरण दृ्यस्द्रिय जे २०८ रुपक्रम श्प्श २४४६ उपक्रम की व्यास्या और मेद्‌ श्श्् हैए० रूपनमम हघ्ज ६६ रुपपाठत ३६४७ उपपात समा ४२१ रृश८ ($) इपमोग परिमोग पर्रिमाण गुणवव घ्! ३०७ प्रपमोग परिमोग परिमाण व्रत के पांच अतिचार दे०श ३०८ उपभोग परिमभागाविरिक्त र«८ इ८प उपभोगास्वराप छ११ २०२ उपमान प्रमाण १६१

२०३ रुपमा संस्या फी ब्याकत्या

और मेद श्र

ह३ उपयोग. १० २४ छपबोग माषसिद्रय हैप २४६ इपशमना तपकूस श्व्ष 3६ रुपशम श्रेणी ३३ ए८९ इपशम समकित रह २३६ दुपसग चार र्ह८ 8३५ इुपावान कारण २३ २७४ बपाषप्पाय 44

(८)

बोक न» विपय पृष्ठ | बोल न॑ दिपय भ्र्छ ४०६ शरपरिप्तप ४३१६ झञी ६७ इप्ण योनि ४८ | श८७ ओऔदसिक श्त्ड खो के नर ३३० ओदारिक बश्पन सामकम४१ ३८४ ओऔदारिक शरीर ४१२ उम्वेह्ा सामास्य ४१ | १५१ औवारिक संपात सामकम४१७ डप्ण दिशा प्रसायातिकम३०३ | ऐैश४ औपनिधिक ३१६४ इ५ उप्य खोक ए३ | ८० ओऔपशमिक श्घ ३९२ हष्च बेदिका ३३७ | १८७ औपशमिक झण्७ २११ झलोइरौ की स्पाण्णा और मन भेद १६ कक बेतिया १८५ कश्टष के समात शावक १३३ श्पू ४०७ कषा तीन 8६ १४ ऋजुमहि सनापय करार १२ | २१२ कंप्प कास्ब ऋतु प्रमाण संचस्सर ४२६ | ३०८ कम्पर्प ३३४७ ६६ ऋद्धि के ठीत मेद ७० | ४०१ कन्दर्प भर ६८ आदि गारब ७७ | १४१ कल्प साथता श्४ड +-०-- कम्बपे भावना के पांच ए्‌ प्रकार श्य्प 2४५ पकठोबेबिका ३३ श८४ कप्पचरइंसिया ४०१ ए्१८ पुकत अन्ख्वक शश२ | २०१ काम्सिपा श०४ परकत्थवितक शुक्कृप्पान २१० | ७८ करण कौ स्यास्या और २८१ एकेसिड्रव ए३० सेद्‌ श्र ६३ एपणा छी अपाक्या और _| १४ करस क॑ तीन मेद ६७ सद ६६ ! ६७ कर्म को स्यास्या और भेद १८

३१३ पपदासमिति ३३१ | २४३ के को चार अषत्वाएं २३७

2

किन॑०. विपय 3२ कर्म तीन ७१ कस मूमिय ३१०» कस्पातीत ४७ प्पोपपस्न ८६ कपाय १२९ फ्पाय 3३ (%) कपाय का पर

(६)

प्रूछ | चोत् नं०. विषय अर | ८० कारक समकित २१ | ४३ फारण

४० | ३४ कारण के दो भेद ४० | २४६ कारुए्य मावगा

२६६ | ३६० कार्माण पन्‍्थन तागकम

२5३ | श८६ फार्माण शरीर २५१ | ४३ फाप्य

६६ कपाय की ऐेदिक झानियों १२५ | २१० छाल

॥८ कपाय की प्याप्पा। भौर

भ्‌ ६० कपाय शीदन के यार चपाय (१६ कपाय प्रहिब्मण [ २६ कपाय माइमीय रेष्श बांणा ०७ काम झुशा १६६ दाम पुरुशर्प ३०४ ऋाममोग दीप्राभिब्राप ३१३ फाममांगाशंसा प्रयोग १०२८ (ए) छापगुति ३५६ दाप दुष्प्रशिपान | ३५ काप थोग ३१ काय रिपति २६४ कादिढी

३२ काक्ष के मद और ११७ स्यारूपा ३३ काक्षपक $ दो भेद १०२ | ९१२ फाक्षातिकम झश५८ २१० दास्य धार भर २३० | १४१ किल्विपिफी भायना ४०३ दिल्पिपिट्ी मापना पाँप भरका८

ब्रज

३१३ १६० $40॥

४३%

१४२ | (६३ किस गति में झिस कपाय

नर बरी अधिकवा एजी - ३१५ | है पय प्रमाणातिश्न्म प्ए | एम एस्म थी बौमड्री १६६ इग्म पी दपमा चार 0 एप | ३७३ बृजील २१ | ३६६ दृशीक्ष ४७३ | ३६६ बुणीन पाँच भर

१२३ ३७२

०४

श्म्ष ३६% श्८१ पर

( १० )

बोरूस॑०.. दिपय पूष्ठ | बोह् मं०. विपय प्र 8०१ दूटरूक्षा कूटमान २६७ | रै६४ काघ भार प्रकाश ३०९ कूट लखकरणा २६६ | १६४ क्रोष की उत्पत्ति चार २४५ (क) इृत्प प्रायश्र्ति. २९३ समान ११ ३२६ इस्ला ३३५ | १५६ क्ोप के भार भेद और , ३०३ कृपया क्नीपक श्म्प उनकी इपसार्प हर ७२ कि करे 2२ | 2६ क्पक भ्रसी ३६ कृष्ण पश्ची | १६३ पमाशार श्र ३४४ कफेपज़ क्षान ३६१ | १३ कग्ोपशम प्रत्यप अबधि केश्रताक्ानी सझिन क्वाम ११ ३७८ केबरू श्ासागप्लीप._ ३६४५ | ३५० क्ास्ति शहर १६६ फेबर दर्शन १श८ | १८७ कआाजिक झ्क्द ३६२ अऋंबक़ी के परिषद हपसगे ८७ क्ायिक समकित 8 सहने के पांच स्वान. रेएेगे | रेपश क्ाबिढ़ समकित श्श३ ३५७६ केबल्ली के पांच अमुर्तर ३६१ | १८७ क्षाबोपरामिक शभ्ए कौतुक ४३१ | ८० हामोपरामिक समक्तित ४२६ ३०८ फकौत्कुम्च | ग्पर झाम्रोपश सिक समक्ित ग११ ४०२ कोत्कुस्त ४२६ | कृत्र १८६ 2६९ क्रिया की ब्याक्पा और क्षेत्र पश्थोपम लत इसके मद २०७६ | 'कष बारतु प्रमायातिक्रम ३६३ क्रिया पांच २७७ | ३०६ क्षत्र बद्धि हर #३४ क़िसा के पांच प्रकार दईऐेजए १०७३ क्ंत्र सागरोपस ब् ३६४ क्रिया के पांच सेत्‌ म्प* है २६६ किया के पात्र मेष ९८१ | (८५ खबर १४५१ क्रिबादारी कई आप तिल श्र पर बोध ११७ | ४०४ ऐेचर |

ह१३

(६१)

बोल म॑ं० बिपस ३४४ गष्छ में आधार्स्प डपा

ध्याय के पांच कक स्थान ऐेशश

प्र्छ

४१७ गणना अ्रमस्वक डर २११ गणिवानुयोग (१० २६७ गणिम सायह २४६ १३१ गति की स्पास्पा सह शजु८ गति पांच शक ४१६ गठि प्रतिपाद ४४० २१२ गध काम्प १६०

६६ गमे ] २०७० गई ब्ट्०

६३ गषप्सैपसा ६७

६६ गारइ ( गौरब ) फी स्पाप्पा और भर

श्श गुस ष्ड शश गुण के दो प्रकार दो भेद ३२ २५६ गुण प्रकाश चार स्पाम रे४४ शेश्८ गुण लोप चार रारण क्‍ शृए८ (७) गुण पव को स्यास्या और भर

२८ गृष्ति श्र ११६ (ल) गुप्ति की ब्याम्पा और भद्‌ घे

६३ गुर तस्व श्र

चोलनत० विपय ष्र्ष् ३६४ गृहपति अबप्रह 054 २॥२ गेय कास्य श्ह्न ३७२ गैरुद पर ३५४८ गोनिपधिका इफर इ८ गौय श्षट २३ प्रइस्यैष्या ६७ ४३ प्रासैपणा ६०

३३० प्रामैपश्ा (माइल्ला) पाँच दोष

३३०

घ्‌ २७ घाधी कम १६ ३६२ प्रास्सन्द्रिय ४९८

9-5

च्च ३६० बच्चुरिम्द्रिय शर्म १४६ 'बष्ठ इशोन शश७ ४८१ चतुरिम्द्रिय २६०

२७१ चलुष्पद तियड्मा पतन्‍्चर्द्रिय के

चार मेद्‌ २१० ६१ चतुः स्पर्शी डर ४५० प्रम्द्र संबत्सर इगू७ २११ परण करणानुबोग १६० ३७० परम समय निर्पस्ध ८५

१४७ चार गधि में चार संज्ञा का

अप बहुत्द १०७

(१)

पघोक मं७«... बिपय ष्र्प् १६४६ (क) बार मंगल रूप ध्छ १०७४६ भार प्रकार का संयम जे श३्छ १८० चार मह्ाप्रत श्भ्र २८३ बार कारणों से साध्वी आह्वाप संज्ाप करता हुआ धाघु निमन्‍्थाचार का झति

कमस सही कराता १३७ ३०४ भार मूक सूत्र १६३ ३१३ आर गुम भौर चार भशुम

गण श्घ१

२१९ चार इन्द्रियोँ प्राप्पका री हैं १६३

३२६ चार विमप प्रतिपत्ति.

२४३ चार माबना र्र४

२४८ चार बर्श्यों का स्वरूप सम झाने के लिये भोरक (ढूडढ़) का च्रास्ठ ३१२

२४०७ चार स्गात से दास्प की दस्परि

३१६ भार प्रकार छा लरक का आदर श्श्ए

३३१ चार प्रकार का तियज् का आइांर

२६२ आर प्रकोर का मनुष्प का आदार

२६४ चार भाश्ह (परश्य बस्तु) २४३

२४३

श्ब्श | / ३२५ चौमासी अनुदूधातिक ३३७

बोज स॑ं०. विपय ष्र्प्र २६५ चार स्वाधि रह २६६ चार युदूयत्ञ परियास रे४*

२६७ बार प्रकार से शोक दी स्मचस्पा है

२६८ चार कारणों से शीब और पुरगष क्षोक के बाइर आन

२४५,-

में असमर्ष हैं र्ज्+ २३५ आारित्र श्र ३६६ चारित कुशीश श्पश रृ८ चारित्र धर्म श्र २७ आरिज्र घर्म के दो से. १४ 2१५ चारित्र की त्याक्ता और मंद है(श ३६७ चारित्र पुकाक ३८१ शश४८ क) चारित्र प्रयरिषक्‍्षा २२३ ८१ बारिज में राग | र८ 'चारिश्र मोइनीम २४ चारित्र मोइनीय के यो मेद 9 झ७ 'चबारित्र बिरापना र] झ९४ चारित्राचार ह्३ृए ८ई चारिज्ञाराणना री ू६ए चारिवरेस इ्३ ४२१ चिन्ता स्वप्त इशन प्ररर ३२४ चौमासी ररुपाविड_ ३३४

(१३ ]

जोक न०. विषय घ्र्छ ३३७ चौमासं के पिछुके सर्वर दिनों में बिहार करमे के पाँच कारण इ्छ्ऊ 3१६ चौमासे प्रार॑म के पचास दिलों में विहार करे के पाँच कार ३४७ द्ध ३०१ छधिच्लेद श्घश्‌ २०४५ छेद सूत्र बार श्प०

३१४ छेव्रोपस्पापनिक चारित्र ११७

३३१ छदुमस्प परिपह रुपसर्ग सहने के पाँच स्पान ३४०

३८६ लझ्मस्थ पाँच बोश साक्षात्‌

नही रानता ४०६ की न्टक ६६ शूम्स की स्जास्पा और सेद ४३ अम्बू द्वीप २७४ अम्बू द्वीप में मरू पंत पर चार वन हैं। रश्रे ४४४ जक्षचर श्र इ७४ रझाहुमिऋ है > श८१ डादि की सब्यातवा और मेद्‌ श्शघ

बोक्ष न॑० बिपय पृष्ठ ऊछ४ समिन तीन श्र ३६३ शीत व्यवहार ३७५ (सर) सीब 2 १०६ जीव की 'श्यम दीर्पासु के हीन कारण १०७ जीष की शुभ दीपासु के

सीन कारण जज

$६ जीब के तीन भेद ६4 इप०७ जीव के पाँच साव ४०७ २० सीवाधिकरण ३० २७६ ज्ीवास्तिकाय श्श् २७५ जीवास्तिकाय पाँच मेव्‌ २४६ ३१३ खीबिताशंसा प्रयोग... श्र ३६४ ज्ञान कुशीक इ८७ ३६७२ क्वान पाँच मेद्‌ ३६० १९ ज्ञात के वो मेद्‌ १० ६० हझान गर्मित बैराग्य पु १६७ ज्ञान बाल श्श् 2६७० ज्ञान पुलाक झ्एर२ २४४ ज्ञान प्रायश्रित्त र्श्व्‌ ८० ज्ञान विराधमा ६३ १२४ (ख) शानातिशय घ्७ ३०४ ज्ञानाचार ३३२९

ए८ई क्षानारापना

( १४)

शाह नें» दिपस घरछ ३७८ जञासाब रणीय की ध्पाप्म्पा ओर उसऊे पांच मेहद. रैध्दे धर ज्ञानन्द्र ३] ३३६ समोहिपौ देबों के पंच मेद्‌ श्र कस

३४५३ शाब्ाह संसट फल्पिक शेप ६६ तस्द की स्पास्पा और मद ढे४ ३५३ दत्पतिरुपक ढयबदार २६७ १४८ तस्काता उत्पस्न दृषता चार कारसों से इम्छा करमे पर भी ममुप्य कोक में लई आा सकता। १३६ दरकाक उत्पस्न बेदठा सलू प्य कोक में भझाने की इचक्ा करता दुह्ला चार बोलों आग में समर्थ शोठा दै। श्ब्ए ३४. हल्काक रुत्पन हुझा मैर जिक मनुष्प शोक में आन थी इच्का करता है किल्तु आर बो्ों छे भान असमर्प दे। पाए शबुमझघर पुरुष . ५३ तदुमबागम

श्ण्१ श्र ६१

बोल ने बिफ्व प्र्प्त १६३ तप श्र १६६ तप शेर भश१ हप कि 2२४ सप आचार ३६ १६३ ठप शार शहर ३०६ तऊ श्ध्ष्‌ ३६०१ हाएस ] ३७० तिरीह पड हु ४४ विरोमाद घ्फ तिबंक दिशा प्रमाणाति कम ३०४ ६४५ ठियक क्षोद ४६ 2६ दिवक्‌ सामास्य श्र है! शम२ तिशक बदिका ३३० १७३ ठिर्मंघ्च्ष आयु घख्थ के चार कारप्त ॥३ ४०४ ठियेऋच पस्चेर्द्रिय पाँच भेद श्र

२४९६ दियमेध्च सम्बन्धी उपसग के

अर प्रकार २१६

१७७ तीर्ण की ब्यागबा और उसके सह १३०

तुष्द्यौपधि मकण ३०६

३६० सैजस बन्पन नाम कम ४१६ ३८४ लैडस शरीर

( एश)

गोक़् सं०.. दिपय पृष्ठ | बोक मं० बिपय भ््् १४५१ स्याग ३६६ क्‍ इशंनाचार ३३२ श्रस 2४। 58 दशनारापना ४३ २८१ श्रीम्द्रिय २६० | ६२ इशमेम्द्र ह६ . ७३ सीन भच्छेश ५३ | २०४ दशपैकाशिक सूत्र की स्याख्या १०४ तीन का प्रस्मुपकार दुष्श ओर दश अघ्यमर्नों के सलाम च्पहै। 8 सथा इमक तिपय का संक्षिप्त १५६ शोन भय योनि_ ६० परिजद बधर द्‌ ००४ दशा भ्रुतस्ऊम्ध का संक्तिप्त ३८५ दग्भाक्षर पांच ४०६ बिपय परिचय १८० व्पिक * | (६६ दान श्श्४ १९. ६२१६ डर १४७ दास के चार प्रकार १५३ ३६ दण्ड के दो मर १३ | १६६ दान शूर श् रो दी मे ब्याक्या और ८८ बानास्ठराय ४१० ३३० द्‌एइ की स्पाक्या और | *है! दिगाचराय ३शर सेद २६३६ | ३०६ दिशा परिमास्ख ग्रत पाँच ४४६ बश्डापतिक ह७३ अठिचार ३०३ ११ दशन २० | १९८ (%)दिशा परिमाण णुए प्रद ६९ १४५ दर्शन १४३ | ५० दीपक समक्तित श्८ ३६६ इशन कुपीक् इ८४ | २० दुस्प गर्मित बैराम्प श्र ७७ इशान क॑ तीन भर 2५ | रेशर युशाशप्या घार म२० ३६०७ इशन पुलाक श्र | ४०२ शुग्शीकता २३ २४५ दृशान प्रायशिचित्त २०३ | ५श गु'स॑ज्ञाप्प हीन श्र रूप इर्शन मोइनीष २०। शु्कम चोयि हर एछ० इशन बिरापना ६३ | २८६ दुश्म बोधि पाँच कारखप २६६ १६६ इशन 5 चार मद १४+ | ३६७ दुष्प्रकदौपयि मत्तरण ३६६

( १३ )

बोस म॑ं०.. विपय पृष्ठ | बोर नं? विपय प््प

2९४ दुष्प्स्वास्बान ३१ | श४८ देवों की पांच परिचारयां एश२े ३४४ सुए हामिक ३६४ | १४१ देशा कया चार १०६ १६४ दृश्िया क्रिया २०६ | 2२ देश बस्प ३०

२६० दृष्टि विपर्पांस दरड._ २७० | १६० देश बिरति सामाग्रिक १४४) ८१ वेबगुरु दी बेयाइस्न | ४१८ रेरा बिस्तार अनन्तक ए४२

६३ बेब ततक्त्न ४४ | ३१० बेशाबकाशिक शिक्षा त़त १०० देवता की ऋद्धि दी के पाँच अतिषार ३१० सेद्‌ ७० | १८६ देशाबकाशिक शिक्षा त्रव १४० ११६ देवताओं % चार मे३ /१०१ | र४४ दोप चार श्श््‌ १११ देबता की तीन अमिक्तापाएं ८० | २३३ दोप निर्मातन बिनत्र क॑ १३७ देवताओं की पहचान आर प्रकार २१६ चार बोर १०१ | ४६ द्रष्प हा] २६३ देषठा का चार प्रकार का ण्श्द्स्य १८६ _ आाद्वार ६४६ | ४१७ ब्रल्प अनम्तक पर ११३ इचता के अगदत काम के २१ ब्रष्य उमोइरी १६ तीन बोल ८१ १० द्रस्प हो भेव श्र 2७ देबठा के दो भेप्‌ ४+ [२ इम्म मिक्षप रृछ० ११२ देवता क॑ पत्माचाप के तीन १५ दस्प्र समकिश पे बोर ८० | ११६ डम्बालुपूर्षी के तीन मह ८४ 2१२ बच पाँच इश१ | १७ दस्मार्थिक नप श्र इंद सम्दस्भी चार इपसग ०१६ | २११ इम्पानुगांग १६ ४२९ इंबाषिरेष धश३ ) २३ इस्‍्येखिय हज १३७ दच आयु धम्प के चार 2४ गन्‍्पम्द्रिय के दो सद १७ कारस १०० | श१८ द्विपा अमस्दक भ्रषरे

३६४ इबस्द्राबपइ ३४४ १२२ हिघा बबिका 8६०

( १०)

बोल मं०. विषय ह.0:। २८१ ह्वीम्द्रिय र्६०

३०४ द्विपद्‌ अतुप्सद प्रमाणा विक्रम झण्रे 2२६६ हेप प्रस्यया श्दर २६ द्वेप बन्चन श्प

जा अर घर

६०४ पन-धाष्य-प्रसाणापिष्र्म २६४ घरिस किरियाणा २४३ १८ धरम वी अ्याक्या झौर उसके

भेद्‌

श्र ६७ घम कया श्घ ६८१ घर्म फपा श्ध्प

१४३ परम कथा की स्पातपा और

भेद्‌ ११२ २११ धर्म कथामुयोग १६० १६६ धम % बार प्रकार च्च

<६ परम % तीन सद्‌ श्र ६३ घम दक्त्च ह.3:॥ ४२० पमदेद झ्र् २१५ घम प्यान श्ध्ष २२३ पर्म प्पान की पार शाब नए र्‌ब्+

+ धम ध्यान रूपी प्रासादर पर चड़से पार आलम्दद ०६

२२१ धरम स्यान के चार किन्न २०५ २२० घस भ्यान के बार प्रकार २०१ २२४ घरमे प्यान के चार मेद्‌ रे०्८

१६४ घर्म पुरुषाय श्श्र्‌ १४४ घर्माचार का प्रत्युपकार दुष्शाक्प है प्न्प २७६ धर्मास्विकाय रश्र २७७ घर्मास्विकाय % पांच सेत्‌ २५५ १६४७ -घर्मोकरर् दान द्श्ज ४०८ धाय (घाज़ी) पांच १४ २०० घारणा १२६ ३६३ घारणा व्ययद्धार ३७६ ३३३ पार्मिक पुरुष पांप आशकम्बन स्वान १४१ ३६० धूम ३४० ४१३ ध्माद वायु श्श्८ ४२१४ ध्यान को स्पासया भौर भेद 3 ६४ प्रौष्प ॥+] 54४:

२५४ मम्दीसूत्र का विपय परिचय १७८

४०० महतत संइत्सर डर एप नपु मद बह डर ३७ मय श्छु

२०८ मय

श८६

( १८)

डोज सम्बर बिपय प्रृष्ठ

१७ नग्र के दो भा 4 १३२ सरक आयु अम्ध के भार

कारण घ्ध

इ१२ नररेष श्र

नद प्रकार से संसारी ड्रीव

दो दो मेव्‌ हा

११ प्रथीन रुट्पसन देववगा के मनुष्प

क्ोक में आने के तौम कार छ्घ

४१७ नाम अरूस्तक श्र

२०६ नाम निक्षेप श्प्क

२४५९ मिंकादित की स्यास्या और

मेद १६६ 3४२ निशिप्त चरक ३९७ २०८ मिक्षंप १६१२ 9 निदेप चार श्पइ ३८७ निगमस ३४७ निगोइ १४ निदाम शस्प जड़ ३६१ निद्रा र्डर ४१६ भिद्रा भ्ण्‌ ४१६ लिद्रा निद्रा न] ४९७ निद्रा से खग़ने के पाचि कारस रा?

२४१ निपरा की ब्वावबा और

मत क्‍

शोज़ नं७... बिपय पृष् ४०४ निमिरश ४११ 2 मिमित्त कथन डर ३४ निभिक्त कारण 53 ४०४ निरनुकस्पढा ह्श्र ३८४ निरयाबक्लिया सूत्र क॑ पोच बर्ग ३६६ 8 भिश्पक्रम भायु 3 २७ निदपक्रम कम 7. है६ ३०२ निप्रस्य ३प७ ३७४० निप्रम्थ पाँच सत्र. शस्र ३६४ निर्मेस्थ पाँच चऊ. ३५४ शिर्चिकृतक ३३० २४ निर्र॑रि द्स्पेस्द्रिय श८३ निर्नंद २६४ १५० मिर्षेदसी कया की स्पाक्या और श्र श्र मिदत्ति श्प २०४ निशीब सूत्र का संत्तिप्त दिपय्र परिचय ह्ए ३६ मिरुचय २५ मित्वब समकित ईश८ मिफ्या के पांच मेद. ३७४२ ४५५ मिप्कृपता श्ध्र ६५७ नेपपिक झ७९

१० मैसर्गिड समकित

(१३ )

बोल न॑ं०.. दिपय २६५ नेछप्ठिकी (नेसत्पिया) ए८० २६ नोकृपाय सोशनीय ए्१

प्‌

२७४ पश्च परमेप्ती श्श्ए ०७४ पड़ा कस्पायक ५३ श८१ पश्नन्द्रिय म६० २७२ पत्ती चार न्‍ २५१ १८५ पठाका के समान भाषक १३१ २९४ पदस्थ घर्भप्पान ३०८ 2१२ पश्य काश्प १६० >८श पर पाष॑दी प्रशंसा 5 24 ०८४ पर पाबंढी संस्तव 4५ 8 परमाणु हु शर२४ परमारमा ६० ३१३ परकोकाशसा प्रयोग. ३१४ ३०३४ पर बिदाइ करण श्घ्ष ४०५ पर विस्मयोरपाइम ४११ ३१२ पर व्यपदेश ३१३

३८ परारयानुमास के पांच अड्ढ २६६

२४२५ (प्रोपरिकुछना प्रायश्मिक्ता १२३

१४६ परिप्रइ 3 ६०५ परिप्रइ परिमाण ध्रत के

पाँख अतिचार ३००

३१६ परिप्रइ बिर्मण महद्दप्रत शष्ट

पृष्ठ |, दोहन न०

विपय ४२१ परिप्रद् विश्मस रूप पचरम सद्दाश दी पा साधनाएं ३९६

प्र्प

१४२ परिम्इ संक्ा श्व्श्‌ १४६ परिप्रह संशा चार कारयों

से रुस्पन्न वी है। ह्०ए २६४ परिच्छेष रसिरिपासा, १४६ ३६२ परिक्षा पांच जड़

परिशामिया ( प्रिणा

मिक्की ) श्द०

परिक्त संसारी ' ] ३५५ परिमित पिदड पातिक ३७० ३८१ परिव्धेना श्ष्प ३१५ परिद्वार बिदुद्धि चारित्र ३१८

१९ परोक्ष श्१ १५ परोक्ष ज्ञान के बो मेवे १२ ३७४ परोत प्रमाण के पांच भेद ३६४५

इश८ पयेह्टा

हाई

प्र पर्याप्त ६4

४७ पर्याय |, श्द

१७ पर्यायार्थिक नय श्र १८ पल्‍्ष्योपम की ब्याम्या

और भेद ज्र्‌

११६ पश्मानुपूर्णषी पर

२८० पांच निर्याल माग म्श्ध

२८६ पांच आज्छब श्ष्८

(६२०)

बोक मं० विपय भ्र्छ ३२८ पांच प्रस्पाल्यान श्श्द २७६ पति अत्विकाय स्श्श १२६६४ पाँच संबर न्प्श ३२३ पाँच समिति की स्पास्या और उसके मेद 3] ६२७ पांच शौच श्श्र इर८ पांच प्रकार का प्रस्पा क्पान ३१६ ३०६ पांच प्रतिकमस ३३७ ३५३४ पंच ऋषपमह इ्ष्ट ३३५ पांच मशानदियों को एक मास में दो अपबा तीस बार पार करते के प|ंच कारणय। ३४६ ३४७ पांच अबस्दुनीय साधु हैश७ ३६०२ पांच परिक्षा श्फर ६६१ पचि स्थबइार इ्भ्र ३६४ पांच प्रकार के मुणझ ३७८ २६४ पांच निमस्य इज

३७२ पांच प्रकार के भ्रमण शेपक ३८६ पांच थोक छदूसत्व

साधात्‌ रही सास्ता ४६ ३६२ पांचि इम्द्रियाँ ड्श८ ३६३ पांच शम्द्रियों छंस्दाव ४१६ 2६४ पांच इन्द्रियों का बिबब

बोल नं»... विपस प्र परिमाण भर

३४४ पांच कामगुस घर

३६६ पांच अनुत्तर बिमान. ४२० _

४०० पांच स॑वस्सर डरे४ ४०१ पांच अदश्युम साबता ४म्८ ४०८ पांच घाय (घात्री). ४३४ ४१२ पांच स्पाषर काय डे ४१६ पांच प्रकार की अधिक

बायु र्ज १८ इ१४ पांच बण श्श्घ ४१४५ पांच रस घ१३ ४६६ पांच प्रतिपात घ४ ४९७ पांच अनम्तक. एश ४१८ पांच अनम्तक अभ्र ४१६ पांच निद्रा श्र ४९९ पांच देव घर ३४६ पारम्चि्ठ प्रागश्निर्त के

पाँच बोक ३५६ २६३ पारिप्रदिकी बेफ८ ३८० पारिशणामिक प्र्घ ३१६२ पारिवापसिकी शड७ ३४७ पाप्तत्था मुझ औै४८ पा॑े् जाकर थल्दृना के

पांच असमय ३६३

३४६२ पास आकर थम्दना स्रोम्व

(२१)

दोक त॑ं०... पिपय ष्र्प् प्मय के पांच थोक... ६६४ ए२४ पिण्शस्थ घम प्पान रब्८

पिता के दीन जज ८७ ४१६ पीड़ित वायु डश २६६ पुदुर्शक्ष परिणाम चआरं॑ २४७ *<६ पुदूगकास्तिकाय ज्श्2 २७७ पुदूगकास्तिकाय के पांच

मेर २२३ ३८४ पुष्फ चबूक्षिया 8९१ इ८४ पुष्फिया | ४०१ ८४ पुरुष के दीन प्रकार श्र ६८ पुरुष बेद्‌ ४६ १६४ पुरुपाय के बार सेद.._ १४९ ३६६ पुकाक जिया ३६७ पुतला (प्रति सेबा पुक्ठाक) के पांच सेद ३८९ १२४ (ख्र) पृथादिशय घ्ज ११६ पूर्बानुपूर्यी पे ३४५ पूर्षार्धिक झड० ॥इ८१ प्ृषछता ३६० * २२४ प्रकरण विक शुकख ध्यान २०8 ११६ प्रप्यो देशठ घूठने के

दीन घोक करे ६१५ प्ृथ्दी दोन दखयों से '

बोक नं? दिपय

प्रप्त बलपित है हि शश्४8 पृष् तासिक ३६६ २४४ प्रष्टिडा ( पुट्टिया )ए।.. रब ३७४ पोसछ 7. १८६ १० पौदूगकिक समकित १० ३११ पौपधोपबास का सम्पक अपाकन हा औशर १८६ पौपषधोपषास शिक्षाप्रत १८ १४७ प्रकृति बस ** “११ ४१३. भ्रचत्ा ३४३ ४१४ प्रचत्ना प्रचता शे४३ ४२१ प्रतान स्वप्न दर्रान... ४४२ १८० प्रदिद्षा ३६४६ ३११ प्रतिपू् (परिपूर्ण) पौपघ जद के पांच भ्रदिचार ३११ ३५७ प्रतिमा स्थायी १७०

२४५ (स्रप्रतिसेबना प्राबश्धिर्त २२६ १२७ प्रदीदि १+ प्रत्यक्ष

१३

प्रस्पक्ष प्रसाण १६० परे प्रस्पधत स्यषपाय हर

३७६ प्रस्यभिज्ञाम श्ध्र डे४ प्रस्पाए्यान के हो मंद. ३१

३७७ प्रथम समय सिप्रेश्य._ ३८४ प्रदेश

(२३१ ) +

बोस म॑ं०. दिपय चृष्च ४१०७ प्रदेश अनम्तक श्श श४७ प्रदेश बन्न रइ्र $७ प्रमाण ह्३ृ ४०२ प्रमाए। चार २३७ ४०० प्रमाण संदरघर - शरश ११८ प्रमाणांगुज २८६ प्रमाह र्इ्८ २६१ प्रमाद पांच श्छ० ४४६ प्रमोत साचता श्श३ 2३६ प्रारोगिकी किपा रदर श२ प्रधचन माता 4 डर प्रदक्ति प्रमन्मा प्राप्त पुरुणें के चार प्रकार | १३० ू१ प्रभ्रश्पा स्पनिर ३६ ३४१ म्रशाजकाबार्प्य श्शग श०४ प्रश्त इ११ प्ररनाप्श्त श्शः ३२५६ प्रस्वापिदा श्श्ष २६२ भाग्याहिपादिक्ी क्रिया २०७३

३१० मायाठिपाद बिरससे रूप प्रपम मद्दाजद दी पांच माषहाएं

श्ग्ड २६४ प्रातीस्पिष्य ज्डघ ८+ परात्पमिढ अ्पश्रसाय श्र

बोष में० विपय रः श् १४४ प्रादेषिकी ह्छ+ देश? प्रास्त चरंक_+ ३६९ इश३ पभास्ठाइार है शएर (ढक) प्रायश्रित भार रे२

शए्टर (का) प्रायश्मिशा के अत्प

प्रकार से चार मद जड़े २४६ प्रेम प्रत्यया ऋ. रैफरे ३१ प्रेष्पप्रयाग ३१ >> बसा फृ १०० फूक के चार प्रकार १२३

१७१ फूल की उपसा से पुरुष

चार प्रकार १२७_ ही 23] ब््‌ ३०१ बस्प रह 2२ अस्प के दो भेद 4

२६ बन्ब बी स्पाएपा और भद॒रै८

3६६ बहुया मैघ० ३६८ बकुश के पाँच सेद्‌ श्घ३ 22३ बम्प ३३७ ए४०५ बन्प करे स्मास्या और मेद २३१ ३६७ बस्बन सासकर्म के पांच

भेद श्र ४१६ बस्यन प्रतिषात इर० २४३ बब्पनोपकम र्श्४

(२३ )

चोद लं*०

बिपय पृष्ठ | बोश नं०. विपय प्र्पत

४१६ घल दीस्य पुरुषाकार परा १६ मबप्रत्यय अबषि शाम रै१

ऋत प्रतिषाल ४४१। सदसिद्धिक

३१० बहद्दि' पुरृणलष प्रचंप ४६११ ६१ मषस्थिति श्र

40१४ बहिरिसमा ८६ | ४२२ अम्य द्रष्य देष इएश

पं घादर 2 | ३७४ साड्रिक प्‌

४०१ बुद्धि फे चार भेद १५६ | ९६४ साण्ड चार रबर

ए८१ बेइस्थरिय १६० | श्८४ भाई के समान आबक रौैश्८ ६४१ हऋुझाअर्प्य ३६६ | २४८ भार प्रस्पषरोइणता जिनप के

३७४५ जाझण बसीपक श्प्प चार मेद्‌ घ्श्८

455 १६६ भाष श्श्र

२१० माव 4०

मे ४९२ साथ इन्द्र के ठीन मेद.. १३३६

१४० मक्त कथा भार श्ण्प ११ भाष हलोगरी र्३

३०१ मक्तपान स्मबच्छेद्‌ शत गा कुक एस डकार

३६६४ से ३७१ भगदाम्‌ मदयाधीर हि 39

से रुपबिए्ट एवं अनुमद ४२९ भाव देब ४8४६

१४१ साबनाचार श्ब्रे

पांच बोर १४० से १४७ सके | २०६ भाष निश्ेप श्पप

३५६ मगवान्‌ मद्दावौर से इप- ३९६ साब प्रतिकमण शब्द

<) दिए एवं अनुसत पांच

स्वान इ्ज३ . १४४ मय छंत्ा बार कारणों से

इस्पनप्त होती है ह्ण्द

१४२ भव संका श्र १९४ भर्चो (सेठ) का प्रस्युपकार

शुणाक्‍प है प्स्र

१४८ भाष प्राझ्य की स्यास्पा और

मेद्‌ | शेड ३२८ भाष शुद्ध ११७ १० साव छम्कित छ्

२५ साजेम्द्रिय के दो सेद १७ २६४६ मापा के चार भेद श्श्८ ३९६ मापा समिति ३३९

(२४)

बोहन बिफ्य प्र्ष ३४४ मिस्न पियड पातिक ३७७ ४०६ भुझ परिसप ४२३ ४०४ मूति कम है १४५६ सर ३० ४१६ भोग प्रह्चिघाह ड४३ ३८८ मौगास्तराय श्र हलक ४१० मच्छ के पत्र प्रकार ४९९

४१६१ रषछ की रुपसा से मिक्ष छेन

बाज भिश्ञक $ पांच प्रकार ४१७

१४ मतिद्वांग (झामिनिदोगिक ज्ञान) हर < मपिद्ठान के चार भद ११८ श८८ मतिशानाबरफ्ीय श्घ्र ११२ मध्सरता (मात्सस्प) ३१३ २3१ भद्य म्ज्रे

७९ मलुप्य शीम मेह डर २४१ मनुष्य सम्बस्पी उपसर्ग सौ

चार प्रकार २१६ १३४ मनुप्प भायु पर के चार कार्य १४ (एप (स्य। मनोगुप्ति हर ममोदुप्मशियान ड््ध मेड मसोबोग इ८

योक नं? विपय प्रप्न ३७४५ सन पेय क्षान शत श४ सतः पयेय ज्ञाम कौ स्मास्या और मेद १२ ७४ ससः पर्यंय ज्ञानी जिन ३७८ सत' प्यय क्ासावस्णोम श६४

श४ मरण के दो भेद श् ३११ मरणाशंसाप्रयाग १4 ७० मसि कमे श्र ३६० भद्टानिञरा और सशापबंधसाम

के पांच बोक ह्ण2 १६१ मदहदानिजरा और महापम-

बसान के पांच बोड १७४ ३१६ मद्दाप्रत की स्पास्पा भौर सेइ ३९१- 2६ महासासास्य हू ११५३ माता तीन भन्ष पर

११४ भावा पिता का परस्पुपकार चु-शाकप दे ते १८४ माषापिठा के समाम भाषक १८

२४६ साष्यस्थ मादमा श्श्८ १शए माय श्ष्द १६० सास के छार मा और

इनकी इपमाएं १२१ हृश८ सादा श्श्रा १६१ साया भार मेद्र और

उनकी ह॒पसाएं हर

२६३ साया प्रस्यया रस्ज्प

( श्श )

श्रोज़ नं० विषय प़्ष् १०४ माया शल्प जे ४०६ सागे दूपण है३३ ४०६ मा विप्रदिपक्ति ३३३ ३४० सादंब ड्ध्ह्‌ १९१५ मासिक उद्घातिक. देए४ ३२५ सासिक अनुद्षघातिक देईे४ एछछ४ मित्र के समान भवक . १४८ २८३ सिध्यात्त श्ष्प श८प मिध्यात्व पांच २६७ ३२६ मिध्यास्व प्रतिक्रमण . पै४८

७७ मिध्या श्र २६३ भिध्या इशनप्रस्पया ण्ज्प १०४ मिभ्याइशेन शल्य छ्छ

७७ सिभ्र ६२ श्र २६६ पिन्नमापा म्छ्श ३४० मुक्ति ३६५

हे मुझ्य रड

शर मूक गुझ * श्र

२०४ मूक सूर चार १३३

३१६ मृपादाद विरमण महाज़त ३२९ ३१८ झूपाथाइ बिरसण रूप द्वितीय

मद्दात्र॒द की पांच माबजाएं ३२३७ ४०४ सृपोपदेश श्ध्श १७५ मेप क्री रपमा से चार

दासी पुरुष श्र १७३ मंघ की रुपसा स॑ पुझुष

के चार प्रकार श्र ९७२ मप चार श्र्ज १७४ (%) मेप के अर्प चार

प्रकार श्न्द

बोल नं०_ बिपय प्र्छ २६४ मय किरियाणा र्भ्६ २४६ मेत्री माषना रेश्थ

११६ मैथुन बिर्मण मदात्र॒त ६६४ ३२० मैचुन दिग्मण रूप चसुथ

महाह्न्त दी पाँच सावनाएं ११७

१४२ मैथुम संज्ञा श्च्ड १४५ मैसुन संज्ञा चार कारयों

से सल्पन्न दोती है १०६

१६४ मोक्ष पुरुषार्थ श्श्र

२७६ मोक्ष प्राप्ति के पांच कारस रेश७

१६४ सोक्ष मार्ग के भार भेद १५३

७६ मोझ् सागे के तीन सेद

श्ज

४०६ मोइ छह

६० मोहणर्मित बैराम्य हर

४०६ सोइखनन हश्३ ए८ मोइमीय कर्म की स्पाक्या

और भर १६

३०८ मौरूप्य है०७

३५३ मौल चरक श्षप

३१४ यवाफ्यात चारित्र / पेन्र

३४७ यवाइद्ुस्त ३६३

४०१ यजातघ्य स्वप्न तशन ४४४

अप श्रजाप्रदृत्ति करय श्र ३६६ ययासूह्रम कुशीज ३८४ ३६७ यपासूक्ष्म पुलाक ३८२ २६८ यथा सृश्म बकुश ३८३ ३७० बज सूहम निमंस्प ३५६ युग सबस्सर नह १६ बुद्ध शर श्श१्‌

बोढ़ न॑० श्पघ पोग ६५ बोग की स्वास्थ भर भेद ३२६ बोग प्रतिकमय ३७ थोमि छो स्पाकया और भेद

विषय

से

र्‌

४८ रस गारब

१६१ रसने दस ४१४ रस दांच

३०२ रहोउम्पराश्पा७

३६ राग बस्पम

१४३ शाजकजा चार

श्गु रा दी कऋत्धि के तोम

व्‌

(२६ )

श्प् २६६

ड्श८ ४३२६ ञ्ह्ड

श्द्ट ११०

हाई

३१८ शज्ा के भ्म्वपुर में साधु

के प्रदेश करने के पाँच कारय ३३४ राजापम्द (क) राशि कौ अयास्या ११७ इंणि पर४ रूपरध धर्म ध्यान ३२४ रूपातौत धर्म ध्दयाव 3१० हूबानुपाव ६७ रूपी ६१ रूपी के दो मेर ८७ रोषक समढ़ित २११५ रौद प्याम

३४८ श्श्र

मेद क्‍ * शक्षझ संवस्सर

बोक्ष “०. विपय पड ११८ रौद स्पान के बार प्रकार १४८ ३१६ शौद प्याय के भार प्रकार (४६ २११६ रौड़ प्पान के चार कक्षश २९०

शत ३२ लक्षण की स्मास्या और हर १२० क्षद्रपामास की स्वाक्या

और मेव पड ३४६ अगश्डरापी | ३७ क्षणिए मापेम्त्रिय शक ३५ आपनब ३६१ शप्ए क्षामास्तराव श्र ३६४६ शिड़ छझरीश श्प४ ३६७ लिट्ठो पुत्ताक श्फ्र १४२ घूड़् चरक ३४७० ३५६ छत्ताशार ३७१ ६£ कोक की स्पास्या भौर मेष १६२ कोकपारी १४६ ३४ सोझकारा २३

२६८ क्षोकास्‍्ठ से बाइर ओष

भौर पुदुगर्त फेम जा सकते के चार कारण. २४७ शैषद शोम १९८

१६२ क्षोम के चार भेर और इनडौ ढपमाएं श्श्२

८७३८ द्च

(र८ (ल्‍) बचर शुत्त हर

( २७ )

बोक नं०. धिपय पृछ रचज यो ६८ ३८४ बखिदद्सा छ्ण्श ३२०१ बंध श्घ्रे ...+० बनश्पति के हीन भेद २० ३७३ थसीपक की ध्यास्पा और मेद श्प्ज ६१ बय' स्थबिर ३५ ३४७ बर्पाबास अर्जात्‌ चौमासे के पिछले ७० दिनों में विद्वार करमे के पाचि कारण ३४७ २३७ दर्ख सल्दकसठा बिनय के चर प्रकार ए१७ ३७४ धक्ष के पाँच सेद झ८४ - ९१० दस्तु के स्व-पर चहुए्य के चार सेद श्प्र ४०३ दा हुष्प्रसितरयाल १२६ (कल) बागतिशय हा] ऐै८१ घाचना श्श्प २८७ थाचता के आर अपात्र ऐैप्श २०६ यारा भार पात्र रैपश

३८ए दाचना दमसे फे पांच बोश १६८

१६१ बारी के बार मेद श्श्श १४५ दादी चार १४६ # ५६१ विकपषा र<३

शह८ दिकया की ब्याक्या और भेद्‌ हब २३२ दिश्षपणा दिनय के आर

प्रदार रशब

बोक्षनं०.. बिपय प्र्ष्ठ

१५४ विदेषयी कथा कौ ब्यास्मा और भेर ११३

श्८श विविडिस्सा र६५

२०१ बदिशीसा (बेनयिद्रो)बुद्धि १५६ २६४ दिसय प्रतिपत्ति के चार

प्रकाश श्१्द्‌ १६१ बिनयथादी श्र ३ए८ विनय शुद्ध ३३७५ २४६ विपरिणाममा रुपाहम २१४ ४२१ विपरीत स्वप्न दर्शन एशश २४० विपाक दिचय रण

१४ दिपुक्मति सत्र पर्यम शाम १६ १२१ बिपयंय छ३्‌ ११४ विमार्गों के दीस भाषार पहे २६४ छिरति शेपक ३५६ दिरसाइार ३७९ ८७ बिरापना ६३ ३०३ जिरुद्ध राम्यातिकरम रे६७

६७ भिषृत्त घोसि श्प

४१ बिरोप १८० बिशभ्ाम चार श्र१्‌ ४६१ छिपय शडर्‌ ३५० बोरासमिक ३२४ बीयांचार ३४ इ८८ वौयोन्दराय भर

२०५ बृहप्कस्प सूत्र का स॑श्षिप्त

दिपय परिद्षय 44

( मद )

बोझ ते विपप घर्ष्ठ २८२ अंदक समकित ९६२

६८ बेद की स्पास्त्रा और मेद पु

2१ बेइलौस कस दो मंत्र है ३२३ बदिका प्रतिस्तेज़ता के

बा पाँच सद्द ३१३० १६० वैक्िस घल्फपन नाम कम | ४१६ ३८४६ बेक़िम शरीए ४१६ २६५ बैदारिसी श्र

२५ बैमाबिक गुझ ३३ बेराग्य थी स्याक्या और

इसक मद श्र

श्र स्वआनाअप्रह २५

२४४ भपतिकस श्ण्ह

६३४ स्थय

प्फू ब्यबंसाप की स्पास्या

और मंद दर

३६७ ब्चच्षमापघ सभा हर२

३३ अ्क्‍्चइार श्श्‌ २०४ म्थत्रद्मार धूज का संक्तिपत

दिपग्र परिचषय री]

३६३ ध्यथ्टार पाँच $

२६६ अुवबदार भापा छा

अयषड्टार शशि पा

ब्यधद्टार समकित १०

+४४ (क) स्यक्त इस्प प्रावश्चित्त १२३

शंका भ्ष्र

४९ शनेरचर संबस्सर ड्र८

१६ राइए रूप श्ुत घम हर

योज लें». विफ्य हट ३१० शब्दानुपात ३१० शेप) शाम श्११ ३८४ शरीर की ब्याक्ष्या और इसके भेद श्र ४१३ शारीरानुगत बासु श्श्प १०४ शल्प तीम रे ३७० शाक्य ३००५ ४(८ शासश्बत अलस्तक भ्र४र ४२३ शिक्षा प्राप्ति में बाघक पांच कारण ॥40। १८६ शिक्षात्रत चार १४० ६७ शीदयोनि भ्ंप ६७ शीतोप्ण (मिप्र) मोनि. शेप १६६ शील श्र र१२ शुरू प्यान १४३ ६०६ शुरू ध्यान को बार साबताएं ग्ह्र २०७ शुक्र ध्यान के भार अह़म्बन ग्श्‌ २०६ गुक्ल ध्याम के चार लिह रे २२४ पुक्ख् प्लान के चार भेद २०६ शझुफल परी हि] ३४४ दुस्तपशिक ३६४. १६३ शूर पुरुष चार प्रकार १४ १५७ श्रद्धा ६० ३९१८ प्रद्धान शुद्ध ३१६ (८ अमझस ( समय समन ) की चार ब्याव्यापं १११ झप भ्रमग्योपासक ( भ्रादक )

हे तीन ममारण

( २६ )

जोड़ त॑*» विषय ३७४ भ्रमण बनीपक शैप६ १८४ झाषक के चार प्रकार रैशे८ ८२ प्राबक के अस्य चर

प्रकार १३६

रैप्प आष$ के चार विश्राम १४२

३१४ श्राचक के पांच अमिगम शे१५

३०१ सं ३१९ तक कावक के थारह ज्र्ों के अतिचार २६ से ३१४

३७५ भ्रतज्ञान ३६० १४ प्रहज्ञाम १३ १६ अतकज्ञान के दो मेव १३

३७८ अतक्षामावरणोप इ६७ १८ भ्रव धर्म श्र १६ भरत घर के दो मेद श्श्‌ ८! भरत परम में राप ३०

०३१ अ्रत विनय के चार प्रकार २१५

३६३ अ्रत ठपथशार ३७२

१६० अत सामापिक १४७

2६ प्रेसी के दो मे १३

३६२ प्रोत्रेम्द्रिष ड्श्८

३७३ ग्वाबमीपक इ्ष्प सर

२४० सं॑क्रम ( संकमणय ) की ड्याओ्या और इसक भेद २३५ *० संस्वात जीविक बसस्पदि ५०

३४४ समा बत्तिक ३६६ ३४१ संपात सास करे के पांच सेद 0]

बोर न० दिपय प्र्प्च १४२ संक्षा की स्पाक्मा और मे १०्र संज्ली दृ क्‍ १श८ सम्दक्ष्म ११६ १४५ संभोगी साथुझो को अक्षर करने के पांच बोल ड्श्दू सम्मोद्टी भावना के पांच प्रकार १२ ६४ संब्रतासंयती 2० ६६ स॑यठी २० ३५१ संवम १६६ २४६८ संयम पांच स्पा ३०८ सयुक्ताधिकरण ह्‌०्७ ३३० संगयोखमा ३३६

२४२ (ख) संयोसना प्रायश्प्त्ि २१३ ३४ संरस्म श्र ३१४ संत्ररूमभाके पांचअतिचार ३१४ ४०० सबस्सर पांच श्र ३६८ संबृत्त घकुशा श्ष३्‌ ३७ सृत्त योनि श्फ ६७ संदृत्त बिवृत्त (मिश्र) बोनि ४८ २८३ संबंग

ग्इ्ए १५६ सबेगनी कथा की स्पाश्पा और मेद्‌ १९११ संशब प्र ३७१ संशुद्ध क्षाम इशन पाशी अरिइम्त शिन केबतती. १८६ ३४० संसक्त ३६२ ४०५ संसक्त तप

श्३२

( ४० )

बोद मे०. विषय प्र्घ्च (ख) संसारी डे संसारी के दो मेद है १३० संसारी के चार प्रकार ३७ ३५३ संस्ए्र ककिपक ३६८ ए१२ सस्थास विन शब्छ 2३ सकाम भरण ३१ ३१२ सचित्त सिक्षप ३११ ३१२ सचित्त विधान ३१३ ३७ सवित्त प्रतिषद्धाइर १०४ ६७ पत्रित्त योजि ध्प

६७ सबविक्सतित्त (भिन्न) पोनिश्८

३०७ सचविधाहवार हट १४३ सत्ता श्३्७ ६४ सत्ता का स्वरूप 2 शघ१ सत्य श्घ्र २६३ कसम भापा श्श३ सत्माणुत्रव (श्थृज्ञ सुपाचाद बिरमण्ष त्र८) के पांच अदधिचार शध४

३६६ सस्याप्रपा (मिन्र) मापा २४२६

2 स्दा विभइ शीलता. शश्रे

र८४ सदइणा श्श्र

३७० भ्षद्भाब प्रतिपेष ए्2० छम्तकित

८२ समकित थौ तीन शुद्धिपों ८+ समकिय के दो प्रकार से हीन मद बप पर समकित के वीन किक्व. 2६ इ८४ समकित के पोच्ष ध्यतिययार २१३४५

बोश नं? विपप प्र रप४ समकिश के पांच मूपण २६४ रुएरे समकित के पांच भेद. रेह! २८४ छम्रकित के पाँच झक्षण २३३ १० सम्पक्त्व के चार प्रकार से _]

दो दो भेद शश्म समपावयुवा बेर ७३ समय (३ ३६४ समररस्म १२१ समारोप का छक्षस भौर भेद ८४ रर्सी वि १६ ६०६ समिटि पांच ३३० ६२५ समुशिशुमस्न किया अप्रतिपाती २१० २४६ समुदाम क्रिया श्घरे ३४१ समुरेशाचार्प्प श्र £६ सम्मूर्धिम ३७ - ४१३ पम्मूर्दिम बाजु 3१६ १६ सम्पकत्थ समाएंक (४४ २६६ सम्यक्त्व एप ७३ पम्यस्क्षाण श्र ७६ सध्यप्वशेम क्र ७६ फम्परचारित्र डक ७७ सम्यन्दशन श्र ४2१ समंधन्प ३० १६ सबबिरति १४४ ८४ सब॑ विरति साधु क॑ होम ममोरण डर

इ९म सच विस्तार अमम्तक इशए२ सइसाम्पास्याव १३४ ११६ संट्यायता दिमय के बार

प्रकार ११५

( ३१ )

चोक मं०» बिपय शपए सारायिक मिध्यात्य ४०७ सांसारिक निभि पांच मेद ४३६ > १०४६ सागरोपम के हीन भेद. छप “३२ सागरोपम

घ्छ श्द्ज

श्र ३६४ सागारी (शब्यादावा) अदवप्रइ श्षश इुप् साता गारव है] ४१ साताबेइनीय ३० ३९४ सापर्थिक अबप्रइ ३४१ २०४ साधु १५३ ३४० साधु के द्वारा साम्वी को प्रहण करने या सद्दारा देने के पार वोह ३५१ ३३९ साथु साध्वी फे एकत्र स्पान शय्या तिपधा के पांच बोक ३४४ ४२ साम्प री] ३७४ छानक ३८४ १९६ साम २१६४ सामस्तोपनिपातिकी क्रिया२७६ ४१ सामास्य रश्६ २६ सामास्प के दो प्रकार सं दो भेद छठ ३१४५ पसामासिक चारित्र ३१६

- १६० सामामिक की स्यास्पा और असऊ सेइ ३०२ सामायिक शत पांच अशिचार १८६ सतामाग्रिक शिक्षा प्रत

३०४६ २०

जोक नं०.._ दिपय षघ

३०६ सामायिक स्पृस्पकरस ३०४६

११७ घारी प्रष्णी घुजने के सीन चोल

प्र श८२ सास्दादन समकित | २६१ (ख्) सिद्ध | श७४ सिद्ध श्श्र २४६ मुस श्पा बार जहर ३६७ मलु्घर्मा समा डर श४ मुप्रस्याक्ष्यान श्र मुकम षोधि २८७ सुकम थोधि के पांच घोता २६६ सूश्म ड्‌ २२५ सृइ्रम शिया अनिषर्ता शुक्ल ध्यान २१०

2 सूश्म सम्पराय बारित्र शेरे० ३८२ सूत्र की बाचना देने

पाँच घोल क्ह्८

१६ सूत्र भुत धर्म श्र

३८३ सूत्र सीखने क॑ पांच स्पान ३६६

६१ सूज स्पणिर

ष्३्‌

८३ सूत्रागम ६० ३० सोपरूम आयु रद ०७ सोपकूम कर्म १३ १८४ सौद के समान भाषक १४८ ३०३ स्तेलप्रयोग श्ह्ज ३०३ स्वेनाहव श३७ ४१६ स्लकरनगृद्धि डए१ १४४ श्री कया के चार सेद._ १८७

६८ स्त्री येद डे

( श्र )

बोरू स०.. विफस पृष्ठ १८२ स्वशिडित के चार मांग ऐश ४६६ स्वक्षचर 4१३ ३४५७ स्थानावहिंग ३०१

६! स्वबिर तीम १३

रैपश स्वाशु के समान शभ्रादक (१४8

४१७ स्थापना अनस्तक श्र्शो २०६ स्थापना निष्षप हम 2०६ स्पाविदा श्श्श ४१२ स्थाथर का पांच १७

३१ स्थिति की स्माक्या भौर

संत 2“ 3९६ स्थिति प्रतिष्त.. | ४४० २४७ स्पिति बल्प र१र ३०० स्थृक्ष अदृत्ता दान का

श्पाग या

2०० स्वृक्न सृषाबाई का त्माग रै८०

३६६ ल्मात्तक ३०७१ स्वातद पांच मर शेप३ ३४२ स्परनिश्ि झ्र्ण २३४ श्पृष्निजा दिया मजा ३०६ श्पस्पस्त्घोत भ्ष्ट

बोड़ मं०

विपय षृह् ३०४ श्वदार मंत्र मे श्ध् ३०० श्वद्गार सम्तोष श्षध १४ स्‍स्वदार सम्दोग भव के | पांष अतिषार दम #५१ श्वप्त इशेम के पाप मेर शा २६४ स्वदस्तिक्ी पघ९ ह८। स्त्राध्याय की व्याव्या और मेर श््८ शदाभादिक शुझ श्ह्‌ हक ित द्ट ३४८ इरिवशुगिडका ब्ण्र ३२६ ६ाद्ाइका श्र २००७ दास्व की दत्पसि के चार स्थान १५४१ ४०२ द्वास्वोत्पादन श्प्ग २६ टथिंसा इश्क २४० ३५५ हिस्श्थ सुर प्रमाप्पाति- क्रम प्र दंत श्ज ३८० इईंतु श्ध्क

( हेरे )

झुद्धि-पत्र श्री जन सिद्धान्त पोल संग्रा प्रथम माग

पृष्ठ पंक्ति भशुद ?७ अधिकार ? २१ दुंड़ि

२३ मावर्थ

आपकझ

है सप्ठद्धाठ १० २४ पद र८ २४ परिष्छेद २४ परिच्छेद् २७ रहता।

३० भ्रध्याप ६८ २१ २० प्राय

३२ प्राल

३३ भष्य० २२ ३१ प्रात्म विकाश ३३ ११ आस्म बिकाश 3४ १६ सिद्धान्तानुमान ३६ १३ भाग

३६ १८ पशात्म पिकाश ए८ ११ रीपद

३६ १७ श्रेय

४० भूमिका

रह

४१ सियह्रसामान्य

नशा

युद॒ अधिकार है गा हे हूँति सावांय श्युवक घर्म सप्ुद्घाव पह २६ परिच्छेद १४ परिच्छद रइता। (रब्रा परि २२ ११) अध्याय पृ श्र सब प्राख प्त् प्राण अष्य० १२ आत्म विकास आत्म विकास सिद्धान्तानुसार माग गा० ध्यास्पा आस्म पिकाम खीघ॑ंद च्य गा० ब्यास्या श्र वियेक्सामान्प

( 8२ )

शा पंक्ति अशुद् यद

४२ परिष्छेद परिष्केद शस टीका ४२ ११ ४थाँ ४बाँएू ३-४

४२ १६ उरेशा उएशा ४४०

४४ १२ प्रकरश प्रकाश

४४ १८२१,२२,२३ की टीका २१, २२, की टीका ३१ ४४ १६ प्रकश्स प्रकाश

४२ २३ हेशा उद्देशा मनुप्पाणिकार ११ १४ १६६ १६४

५६ २० में से

१६ शा० जछोछ

८शे १८ कोप क्ोस

८४ जीबास्थिकाप श्रीवास्विद्ाय पुदुगलाम्तिकाय ८४ १० भनामुपूर्थी पूवानुपूर्दी

८४ ११ पूदालुपूर्दी अनाजुपूर्दा

८७ ९७ परेरे ही सबेरे सबेरे शी सभेरे

११४ चर दृष्टि को ११८ १६ चार चार चार १४१ धरम शर्म १६७ २१ कश्तमद्र बक्षमद्र १७० २३ सं समय हछ१ रे स्पाग स्पामन १७७ उद्देशक रपेशक १८ई १६ उपशमन उपशमाना १६४ भाव झार्चा

२०२ रे (4

पृष्ठ पंक्ति भछ्ठठ २०२ १३ खैसे-कि २०३ १७ दुखों २२६ बविकाश दूं रपट याते २२४ स्थित्ति २४४ विधमान्‌ २४४ १० विद्यमान २४६ ११ राज़ २४८ १० स्खे २६८ १७ (योग) रश१ ११ ठशना ३५७ २२ या पामस्प ३७० १६ दुुड़े ३६६ रे उपग्रह

( श्थ )

26 जैसे कि- युखों विकास खायें स्थिति विधमान विद्यमान सराजू स््खे योग झरना या पाशस्प उड़े ठपग्रद

शुद्धि-पत्र आभार प्रदर्शन भौर भूमिका में भण्युद्धियाँ रई गई हैं, उनका

प्रष्ठ पंक्ति भब्रशुद ६१ १४ किप्रे €१ १६ बिश्क्स्‌ ६२ १० परापशं 5१३ १२ चच्तारी ६४ & मुझ्य &० १० वाश्रिय ४६४ १० पुत्तरूर ६४ ११ मांख

चुद

किय॑ हैं एिल्शिजस्‌ परामर्श अच्तारि

चुएथ बाहिरेए झऊुचरूर भप्ये

(३5 )

श्ठ पक्ति ब्रद्द शुदद १८ गश्ाढि अनादि ६८ पादोपगमन पादपोपगमन €८८ है! उससे उन्लेस १०० १४ मीत मो शुद्धि-पत्र अफ्लारादधनुफ्रमसखिक्का फ्रा प्रष्ट पंक्ति बाल नम्बर अग्युद शुद्ध के रेर श्श६ पृष्ठ 4] १३७ ३६७ २६८ ( बार ) शृ षः २७७ २५४ २५४ प्रष् 8 गे८. ३०४ तीप्रामिलाप तीआमिल्तापना रह ३३ ३38० ३४० ३१६ ( प्रष्ठ ) १५ ३३ २६४ श्६४ १६५६ बाश ) ._ १३ 2४... ३३० ३१३० २६० ( बाए ) 2४ १७ २१४६ २५६ ३५४८ ( बोल ) १७ २६ १२१२ घर्माचार ध्ाक्षायं रण ४३. ३६८ २८३. ३८१ पृष्ठ श्८ श्भ्र १७० * ह& प्प्ठ रप शेछ.. 3७० र२े७ ३८७ प्रष्ठ शे६£ १४५ १४५. ३४४ बाल ३8० ३६ % >् रछर (ण) समाधि के चार मंद २४ गे१ह १२० ३२४० २५१ ३५१ षृष्ठ श्र 3 >द हर ४४ बोल हैए

३२०६ श्र शेड पष्ठ

के शी वद्धंमान स्वामिने नम की

श्री जेन सिद्धान्त बील संयह

मंगलाचरण

जयइ जग सीव नोवी जियाशप्रों, रग युरु ऋायदो | खगशादहो नगबन्ध सयइ लगप्पियामहों भपव जयद सुझार पसवों, वित्मपराण अपब्दिमों जयह ! जपइ गुरु शोगार्थ झयह महृ्पा महावीरों ! २॥

( भरी मम्दी सूत्र ) मावाव --सम्पूर्थ संसार और जऔषषों उत्पत्ति क्रे स्थान का जानने बाले तीयेकर घदा विजयवंतर रहं। तीयफ्र मंगवात

जगत्‌ कर. गुरु, जगत को आध्यात्मिक भानन्द देने गले, चग्त हे नाप, ज्मत्‌ के बधु तथा अग्त प्वामर +

द्ादशाज् रुप पाणी कर प्रकट करने बाल, सोर्थक्रों में अंतिम पीकर, तिदोझ के शुरु धया महात्मा मगशन महजीर स्वामी घद्ा बिजयव॒त रहें

जी सेठिया झेन प्रम्ममाहा

पहला बोल ( बोल सस्या ? से तक )

झ्ास्मा--थो निरतर ब्ानादि पर्यायों फ्लो प्राप्त झोता है बह झ्रात्मा है। सर दीबों का उपयोग या घतन्य रूप छक्य एढ़ है भत एक ही भारमा फट गया है !

(ठायांग , धइ २) २--समकित--सर्षज्ञ डारों प्रस्षफत पारमार्थिक स्लीबादि पदार्थों का अद्धान फ्ररना समकिशि है | समफ्तित के ढ़ई प्रकार पे भेद किये गये है शखस-- एंगपिह दृषिह तिविई, चउद्दा पधविन् इसबिह समम्म। दस्बाई कारगाई, उदसम भेएह बा सम्म॥ १॥

( प्रबचन प्लाऐद्वारदार १४६६४९ बौ गाबा ) भर्वात---समक्षित के द्रष्य, माव, ठपशम झादि के मेद से पक्क दा तीन भार पांच तथा दस मद होते है ( इनका प्रिस्तार झ्माग के भोलों में किया शापगा )

( हक्त्याथ सूत्र पबरम अध्याय ) ( पैचाशऊ अधिकार १) ३--दुयड'--विससे वर्षों दी हिंसा होती है| उसे दपढ ढइये हैं (दण्ड दो प्रहार के ईं--2>स्प श्यौर भाव | शड़ड़ी, शस्त्र भादि द्रष्प इयद हैं। भर दुष्प्रयक्त मन भादि माद इण्ड हैं। )

न्‍्ण

(ठायांग छू ३) ४--अम्वृद्वीप---िर्यक शोर & अर्सस्पात दीप कौर धक्कों के मन्य में स्थित झोर सप से छोटा, क्मभृहत्त से ठप-

श्री प्लेन सिद्धास्त धोद संप्रह प्रभम माग ट्ै

शघ्ित और मच्य में मह फत से सुशोमित जम्पू डीप | इसमें मरत, ऐरापव और मद्दाब्िदेह ये तीन फर्म ि और ट्रैमपत, देरण्यचत, इरिपर्ष, रम्यक्रमप, देषपहरु भोर ठत्तर कर, ये छः भक़म भूमि देष | इसफ्री परिधि तीन शास्त्र साह्द इजार दो सौ सचाईस याजन तीन फ्रोस एक सौ भ्रड्माइंस घनुप हथा साइ तेरइ अंगुछ्त से कुछ झपिफ़ है | ( अणांग सूत्र 2२ ) ( स्माष्य ठ््यायसूत अभ्याय सूत्र ६) ४-मदेश --स्घ्न्घ या देश में मिल हुए द्रब्य क़ भ्रति दुद्म ( जिसका दूसरा इिस्सा मं हो सके ) विमाग को प्रदेश कहते ( ठाशांग रै सूच ४४ ) ६--परमाएणु -रक्रघ या देश से झ्त्तग हुए पृवृगल भति पुप्म निरश मांग को परमाणु फद़ते हैं (ठायांग सूप ४१)

है. भी सेठिया झैन प्रस्यमाक्य

दूसरा वोल (बोल संख्या से ६२ ठऊ ) (%) राशि फ्वी प्पाझपा राशि --मस्तु समृह का राशि कश्त है गशि के हो भद)-- (१ ) चीम्र राशि (२ ) झणीज राशि ( समबायांग १४६ ) (प्र) भीब --आ भेतनायुकु हो सया ह्रभ्य झोर मात्र प्राद वार्ता द्वा ठम जीव पते | स्येष दा मेद (१) संप्तारी (२) छिद सप्रारी--फऋर्मो फ़ 'पक्र में फंस कर था थीब चौपीस दयडफ झौर भार गतियों में परिभ्रमण ए्रग्था है उस संधाती फर्त है, सिद्धू--सर्ब कर्मों क्रा क्षय फ़रक आा नम मरश रूप ससार से मुक्त हो जुकु उ्ें सिद्ध फ़रहते इ। सिद्धों में कबत्त माय प्राय दोते | (ठाग्बांग २९ ४घृत्र ११) ( दक्त्याब सूर भष्याब रे घूउ १० ) ८--नब् प्रख्मर ससागी झीब के दो दा सद्‌*--

व्ेस ह्पावर पस्‍्म आदर

पर्याप्त ह्रफ्पांप् सन्नी झ्मंत्री

परित्त | ब्रल्‍्प ) संसाराी प्नंत्र संसारी सुछम बाबि दुछम भाधि

मी सैन खिद्धास्त बोस संप्रद प्रमम माग

छझृप्सपधी गुक्रपद्ी भपस्िद्धिर अमबसिद्धिक आदारक झनताहारफ

श्रत्त --श्रस नामफर्म के उदय खल्तने फ़िरन बाल खोष का श्रस ऋदते ६। भ्रग्िनि और 4।यु, गठि फ्री अ्रपेषा श्रस माने गये स्पावबर --स्पादर नाम कम उदय खो जीय पृथ्वी, पानी भ्रादि एफन्द्रिय में बन्‍म लते इ। उन्हें स्थापर कइते है (ठाझ्ांग ब. सत्र १०१) घूम --संत्तप नाम कम क् ठय बिन जीवों का शरीर अत्यत घृष्म भर्वात्‌ चर्मचरन्ठु का झ्रविपप हो उन्हें परम कहते है पादर'--जादर नाम क्रम कू उदय से बादर भर्थात्‌ स्पृल् शरीर याष्त जीय बादर कइसाते दे ( राणांग रु सुत्र ७३ ) पर्याप्क.--मजिस जीप में खितनी पर्याप्तियाँ सम्भप है | यह लव उतनी पर्याप्तियाँ पूरी कर लेता है तथ उमे पर्याप्तक फड़ते ह। एकन्द्रिय स्रीय स्त्रपाग्य पार्रा पयाप्तियां ( भ्राइर, शरीर, इन्ठि प, दर रवासा्दुभाय) पूरी करने पर, डीन्दरिय, शरीख्िय, चतुरिल्रिप झोर असझी पंचेन्द्रिम, उपधुक्त चार ओर पांच मापा पेयाप्ति पूरी करने पर तथा संज्ी पंचे

न्द्रिय उपयु क्र पांच और छूटी मन पर्याप्ति पूरी फरने पर पयाप्तक फद्दे साते है

| श्री सेटिया श्ैम भरपमा़ा

अपर्याप्फ:--श्सि छीज झरी पर्याप्तियों पूरी हों गह अपर्यापक्र करा जाता सीमर तीन पर्पाप्तियां पूरा करके भोषी के झघूरी रन पर ही मरत है पहले नहीं , क्‍्पोंकि भागामी भव की प्राय पांघ कर हो सत्य प्राप्त करते भ्रोर भायु का बच ठया ओऔर्षों झा होता सिन्‍्दोंने भादर, शरोर झोर इन्डिय ये तीन पर्पाप्तियों पूर्थ करली ( ठायांग ? सूत्र ५६) संह्ी।--जिम जीमों मन हा सभी असम --सिन सीबों 6 मन नहीं शा वे भी है | (ठाणांग रे सृत्र ७६ ) परित्त समारी --छिन जीवों मंत्र परिमित दा गये ई। बे परित्त संसासी ई। भर्पात्‌ प्रधिक ह्रणिक झद्ध पूतूगत पराश्दन ढास्त फू अऋदर ओो अ्रभस्प मांद में धारेंगे वे परित्त (भल्‍्प) ममारी है ( झातुर प्रत्पाक्परान पबसना रप ४३ ) झनत ससारी --मझा जीव प्रनत क्राप्त हफ़ ससार में परिभ्रमण करते रहेंगे ्रपात्‌ सन जीर्षों मरत्रों परी संस्या सीमित नहीं इुई है झनंत मसारी | पया।-- जे पुथ गुरुपद्िसीया पहुमोद्दा, ससपका इसीलाय असप्राहिया मरति उठ, ते हि अझ्रणत सप्तारी ॥१॥ ( प्मातुर प्रत्याक्पाल पयन्‍ला गा ४१) माबथ!--गरुरु झू अशशवाद झादि कद कर प्रदेकृत झ्राचरण करने वाल, बहुत माद बाल, शर्त दाप बाएं, इंशीशिये कौर असमाघ मरण से मरन बात्त ओब झवनेत सतारी इते है ( ठाझ्यांग रे ढ. सुत्र ऊ+ )

प्री ज्ञेन घिद्धान्त बोह संध्इ प्रयम भाग रे

सुक्षम धोधि --परेमव में जिन खीयों का घिन पधमे की प्राप्ति मुत्षम हो ठर9ं सुश्म बोधि ढइते है |

दुर्लभ बोधघि --जिन दीर्षों को खिनधर्म दृष्प्राप्प हो उन्हें दुसम ग्ोषि कइते ( ठासखांग रे रु० सूत्र ७६ )

कृष्ण पादिफ'--मिल जीों फ॑ शरद पुद्गत्त पराजतैन फ्ाल से अधिक फ्राक्न तफ़ संसार में परिभ्रमण करना थाक्री है ) दे हृप्शपाधिफ के जाते ६।

शुक्त पाधिक --जिन जीवों का सार परिभ्रमण फ्ाल भर्दधा पुवृगत्ञ परावर्तन या उससे फरम भ्राक्की रह गया है थे शुक्ल पाधिक कई जाते हैं |

( ठाणांग छ० सूज ७६ ) ( मगवठी शहऊ १३ एह्शा सूत्र ४७० )

मंबप्रिद्धित:--घिंद जीवों में मोच प्राप्त करने की योग्पता होती है दे मवसिदिष्ठ छशलाते है

अमव सिद्धिक -मिन जीबों में मोक्ष प्राप्ति को शोम्पता नहीं है मे झ्रमत्र सिद्धिक अ्रमम्प) कहलाते | ( ठाणाग ₹० घृत्र ४६ ) ( भ्रावक प्रक्षप्त गाएा ६६-६७ ) प्राहरक --ओ सीय सचित्त, ह्रचिच ओर मिभ्र श्रथवा भाज, शाम और प्रणेप भाशर में सं फ़िसो मो प्रकार का झड़ार कर्ता है | बह भादारक लीव है। प्रनादारक'--जा जीव किसी मी ग्रकार का आहार नहीं करता वह झ्नाहारक है बिग्रइ गति में रद्या हुआ, कपली सपम्नद्धात करने बात्ता, चौद॒इवें गुरत्पानबर्ती और सिद्ध ये चारों झनाहारक है।

द्ट का संख्या उन प्न्यमाश्

कर्ण मयृद्ात कर भाट सम्यों में तोमर, बाय और पचे समय में छात्र अ्रनाशरद रखना है

( शर्माग २९ + सूत्र ७६) वनिगाट+-साभास्ग नाम हूप रू खप से एड ही शरीर छय आशित फ्रस्फ जा भनत जब रास निगार डहलात है| निया” $ आय एक ही साथ भाहर ग्रहय फर्ते है

रिझ साय व्यासाब्सबास शत £

निषादफ दा मद ई-(?) स्यमहर राशि (२) भम्पषद्ार राशि स्यवदार रद --जिन जार्वा ने एड बार भा निगोद भवस्पा बाड़ फ्रर दूसरी नगद जन्म लिया है बे स्यव्डार गशिद।

अभ्रप्पप्रदार सशि --झिन जीवों फ्रम्मा मा निगाई अवस्था नई धाड़ी जा भनादि पाल मे निगाद में डी पढ़े इुए हैं भव्यपदार गरि

( भागमप्वार ) #व्गस्पक्ट्प भार प्रफ़ार स॒ दा दा मद | इस्प सम्पदत्य भाग पम्पदरय निश्वप मम्पक्त्य स्पबंढ्ार सम्पक्रस्थ

नंसर्गिक् मम्पकत्य झाजिगमिफ सम्पक्षत्व पीद्गश्िर पम्पक्प भ्रपोद्गल्धिद्र सम्पकत्व द्रष्य सम्पकस्व/--विशुवूघ छिप हुए मिध्यात्व झ् पूषृगों का द्रत्प राम्यबस्प कहते दे भावसम्पबस्प/--जैस उपनत्र (परम) हारा आंखें पदाज्ों को सष्ट सप देख सनी ठमी तरई विश्वव॒पर किये हुए

भरी जैन सिद्धान्द बोल संमह, प्रथम भाग पु

पुदग्॒ों के ढएरा आएसा को फंदली प्ररूपित सस्यों में जो रूसि (अढा) होती वह मायसम्यक्ल है!

(प्रदअन सारोद्धार द्वार १४६ गाया ६४९ टीका)

निभ्रय सम्पक्ख --भात्मा का यह परिणाम जिसके होने पे झान विश्युद्ध होता उसे निभ्रय सम्पकस्व फहते हं। भणवा अपनी भात्मा फ्रो ही देव, गुरु और धर्म समझना निम्मय सम्पफ्छ है!

स्पग्रहार सम्यकस्प --सुदेष, सुगुरु भोर सुघर्म एर विश्वास करना व्यवहार सम्पक्ल

प्रवचन सारोद्धार द्वार १४६ गाथा ६४२ फी टीका में निश्चय सम्पकल भौर व्यवद्दार सम्पक्त्य क्री न्‍्यास्या पों दी

१--देश, फाल भौर सहनन पे अनुसार यथाशक्ति शास्प्रोत्त संयम पाक्षन रूप घुनिमाष निम्नय सम्यकष् है

२--उपशमादे स्िक्न पदिचाना जान पाला शुम झास्म परिश्ाम स्पयद्दार सम्यक्स | इसी प्रफ़ार सम्प्कश्व क्रारस भी स्यवहार सम्पक्श्य ही ( कमप्रस्थ पाख़ा गाधा (५ थी ) नसर्गिक़ सम्यक्ख --पूर्व धयोपशम के फ़ारण, पिना गुरु फेस के स्थमाव दी जिनरएट ( फेवत्ती मगबान्‌ के दख हुए ) भार्दों को द्रस्य, देंएर, फापत, मद भोर नाप आदि नि््चेपा को अपंचास जान लगना, भद्धा करना निस्रग समकित है। जैस मस्तेवी मामा की समकित | अछसा झबना।. +

$ श्री सठिया डैने प्रश्षमात्ा

आापिगमिक सम्पक्श - मुठ भादि के ठपदेश से भगषा अर उवांग भादि के झ्रष्पमन से जीबादि तत्तों पर रुचि-भड़ा इंना भ्राणिगमिक ( ्रमिगम ) सम्पक्ल £ | (टार्शाग २5 ? सूत्र +२) (पम्मत्र्या पहला पर सू> १० ) (तस्बाव सूत्र प्रघम अध्याय सृ० ) पीदृगशिक सम्परकतत ---वायोपशमिक सम्पकक्त फ्ो पीद्गलिक सम्पकध कहते क्‍योंकि दायोपशमिक सम्पकष्प में धम- कित माहनीय के पृदगलों का पेदन दोता £ | अपदूगक्तिफ सम्पक्ल --धापिरू भीर भौपशमिक समझित का अपंदुगक्तिक पम्पक्तद कहते ६। क्योंकि इनमें सम्ित मोइनीय का सदया नाश झ्रददा उपशम ही जाता बेदन नहीं होता ६। ( प्रदम सारोद्धार ड्वार १४६ गावा ६१२ टीका ) ११-ठपयोग/---सामान्प या बिशृप्र रूप से बस्तु फो जानता उपयोग ढपपोग के दो मेद ह। (१) घान।(०) दर्शन धान --अऔ उपयोग पद्ार्षों करे विशेष पर्मी झा साति, ग्रुस क्रिया आाटि का ग्राइक बह ज्ञान कड़ा जाता है ) ज्ञान का साकार उपयोग कहते £। + इशन'--औ उपयोग पढ़ा के सामान्य भमे प्रा झ्रथाव्‌ सचा का ग्राइक द। उसे दर्शन इडते है। दर्शन को निराकार उपयाग कडये ६)

(पन्ना पह श८ सू ३१० ) *२-आन $ दो मेद+--१) प्रत्यक्ष (२) परोछ

श्री जैन सिद्धान्त घोष्ल संप्रद, प्रथम माग १४

प्रत्पध१--इन्द्रिय भार मन री सद्दायता फे पिना साधाव्‌ भात्मा में जो ज्ञान हो बद अत्यघ धान || जैसे अ्रवधित्ान, मन पर्यप धान भौर फेयल ज्ञान | ( श्री नस्दीसृत्र खू० ) यह स्पारूपा निभप दृष्टि से £ै। स्यावद्ारिक दृष्टि से ता इन्द्रिय और मन मे द्वान घाल त्ान छा मी प्रयच कहने हैं। फाछचान--दन्द्रिप भौर मन की महद्यपता से जा ध्रान हो बड़ पराष धान है। ज॑से मतित्ञान भार श्रुतम्तान अयवा हो पान भर्प्ट शो ( विशद हो )। उस परोद्द शान कडत॑ हैं। जम म्मरग, प्रत्यमियान भादि। (ठाषांय पहेशा सत्र १) (नस्ती सूत्र २) १३ - भवपितान फ्री स्पाग्न्पा भार मं” -- इन्द्रिप और सन की मद्रायता के बिना ट्रस्य, चेत्र, फाल और भाव फी भषचा से मयादा प्रंफ जा शान रूपी पटा्षों का जानता (। ठस झवधितान झद्धम ६! अदृधिप्रान फू दो मंद --(१) मव प्रस्पय (२) दयापराम प्रत्यय महदप्रस्पप भवश्थिन --विम भझदपिप्रान होने में मगर हो कारत दा उन मदद प्रस्पप भवपि ध्षान रूत हैं| जम॑-- नाएशी और दववाप्ों को जन्म मे मरस सके रहने बाला ही भषषिष्ञान इला €। पाप भ्रस्पप अदृपितान --प्रान, गए झाटि कारणों मनुण्य आर विपृम्षों को जा भइधितान हांता £ टस

श्र श्री सठिया जैन प्रम्ममाजा

चयापशम प्रस्पप अभषिज्ञान कट्दत हैं] यटी धान सुख अल्पप या शम्धि प्रस्पय मी कद बाता £ | (डायांग पहेशा सत्र छा ) १४-सनपर्युप ज्ञान--दर्द्रिप भरीर मन की सहायता के बिना _, द्रस्य, धेत्र, फाल और माद फ्री भपंधा से मयादा पूर्वक जा ध्ान-संक्षी जीवों फ़्र मन में रह द्ए माषों को जानता हैं उस मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं।

मन पर्यय ज्ञान के दो भेदः--(१) श्यज़्मति (२) विधुलमति

अऋतुमति मनःपर्यय क्षान--हुसरे के सन में सोच इुए मार्तरों का सामान्य रूप से सानना अयजमति मन'पर्यय श्ान | जैसे अप्तुक स्यक्ति मे पड़ा लाने फ्ा विभार जिया |

विपृत्रमति सनः पर्यय ज्ञान ---दूसरे के मन में सोचे हुए पदार्थ कक दिपय में विशेष रूप सम जानना पिपुलमति सनन्‍पर्यप ज्ञान है। जैसे अप्यक ने बिस पड को लाने का विचार किपा है वह पड़ा अ्रसु$ रह का, भ्रमुक झाफार बाता, भीर अप्लुक समय में बना £ हस्पादि विशेष पयागों-अपस्थाों बे जानना [| ( ठालगि त्द्शा शृसुन्न ७१) १५-परोच ज्ञान के दो मेद)-- (१) भामिनिोधिक श्ञान ( मतिश्ञान ) (२) भुवज्ञान | अगमिनिवोधिक श्ानः-पांचों इन्द्रियों भोर मन के हारा पोग्य देश में रे डुए पद्मार्य श्य लो ज्ञान होता बइ आमिनिधोषिक

भ्री जन सिद्धास्व बोश संप्रह प्रथम भाग

ज्ञान या ममिधान कहलाता है। (पप्नत्णा पद २६ सू> दैरै ) (राणांग पहशा सत्र ७१) अरमान --शाख्रों छो सुनन भार पढ़ने से इन्त्रिय भर सन प्‌ हार जो ज्ञान हो यह भ्रुतप्तान (मगदसी शतक उहशा सूत्र ३१८) अथवा मतिम्नान घाट में घने वाल एव श॒प्द तथा भर्थ का पिषार करने वाले क्षान को अभ्रसह्ञान फश्से 5 | मैसे “घर! शप्द सुनने पर ठमफे बनाने घासे का उसके रह भर आफार भारि फा परिचार करना ! ( छस्दी सृत्र )

(ठाशांग उछदशा श्सृश्र ७२) ( झूम धन्य प्रथम भाग गा० ४)

१६-भुतभ्ान दा मंद+-- (१) भक्नमविष्ट भ्रुरज्नान | (२) भंग पाप्त भ्रुतश्ञान

भगप्नविष्ट शुसश्ञान--जिन भागमों में गणपरों ने वीर्यह्टर मग- प्रानू के उफ्रेश फो प्रपित किया ६। उन भागों को अड्ढप्रपिष्ट भुतवान कहते ईै आाघाराह़ झादि बरद भञ्नों क्वा धान भट्ड मपिष्ठ अतज्ञान £।

अह्रपाय भ्रुवध्तान --डादणशांगी झे घाइर का शास्त्र ज्ञान भ़ प्राप्त भुरश्ञान फडलाता £। जम दशवैसालिक, उचरा- अपयन झारि

( मन्दी सूड ४४ ) ( टार्णाय + उच्या है सूत्र 3१)

श्ष्ट भी सरिया सैंन अस्थमाह्षा

१७- नय दो मंद---- (१) दृष्पापिक नय (२) पयायार्दिक नय | उस्पाधिक नय ---आ पर्यायों का गास मान कर ह्रस्प को ही

पर्पतया ग्रइस करे उसे ह्स्पार्थिक नय कहते हैं ! सं पयायार्थिफ नय/--झो हरम्प को गौश मान कर पर्मायों का ही : मुख्यतया प्रहस करे ठस॑ पर्यायाथिक नय कहते हैं ( प्रमाणनयतश्याक्षाकालड्वार परिकछुर ७) १८--अमं की स्पार्या भार उसछ मेद---

(१) दूर्गति में गिरव हुए भ्राली को घारण कर भर सुगति में पहुँचाव टस घमे के हैं

(दराबैकालिक भग्यमत *१ गाया ! थी टौका ) अथवा---

(२) झागम के भमुसार इस शोक भोर परलोकरू के सुर के लिए इसे दो छोड़ने भार ठपादय झा ग्रहण करन की जीष की प्रवृत्ति को धर्म कइत ई।

( ममसंप्रश अधि शेगाश्श्टी ) अथवा--

(३) बर्थ धाद्वों धम्मा, खन्‍्वी पम्नद्दों दूसपरिद्यां धम्मा

जीजासें रस्थश॑ धम्मो, रपणतर्य नर धम्मा (१) बस्तु स्व॒माद को घर्म ऋरते ६। (२) थमा, निर्तों मता आदि दस छ्दय रूप धर्म ६। (३) जीरो की रदा करता-बचाता यह मी धर्म ह। (४) सम्पग्‌ श्वान, सम्पक- दशेन ओर सम्पगुचारित्र रूप रबत्रय को भी परम कइत है।

भी जैन सिद्धान्त चोद स॑प्रइ, प्रथम माग $

माराश--जिस अनुष्ठान या करे से नि श्रेयस्‌-क्पाण छी प्राप्ति हो बद्ौ धर्म | धर्म पे ढो मेंद हैं। (१) शरुतपम (२) चारिषर घर्म पं भरुतपर्म--मंग और उपाँग रूप पाणी को थ्रुतपर्म कइत £। घाघना, पृच्छना, झादि स्वाप्याय के भेद भी अत पघर्म फदलाते है चापिश्र घ८मे --फर्मो रू नाश करने कली खेप्टा घरारित्र धर्म | अभ्रचषवा।--- मूल गुण झौर उतर शुदों के समृष्ट को चारित्र घ्म फडत है। अपात्‌ फ्रिया रुप धर्म डी भारित्र पर्म ६। ( ठाणांग रहेशा सूत्र ७२ ) १० -भुव॒घ्म दो मंद --(१) बह्रभुनपर्म (२) भर्य अत घर्म। सत्र थरुवर्म--(शम्द रूप भुवपर्ण) डादशांगी भार उपांग आदि के मृक्तपाठ को मत्रमुतवम फइवे हैं। अर्पश्रुत पर्म--इादशांगो और उपांग झादि के झपे को भर्प- भ्रुद् धर्म रश्स हैं! ( राणांग रहेशा सृत्र «२ ) -घारिष्र धर्म के दा मद -- (१) अगार धारित्र धर्म (२) झनगार भारित्र प्र अगार घारित्र पम। - झगारी (भावक) देश पिरति घर्म को अगार घारिद धम झछटवते | अनगाए चारिग्र पमं।--भनगार (साथ) कर सर्प बिरति धम को भनगार चारिय्र घम कड़ते हैं। सर्व घिरति रूप धर्म में-नीन करण मीन योग से म्पाग शोता ६। ( टार्पाग + बहशा सूत्र )

अर सठिया जैम सस्वमाला

२३१-झनोदरी सी स्पारूपा भौर भैद'--मोजन भादि के परि माश झौर क्राघ आरि के भागंग को फ़म करता ऊनो- द्री ६। ऊनोदरी हो मेट (१) द्रव्य ऊनो”री (२) माव ऊनोद्री हि जम्प उल्तोदरी!--मंद उपकरण झौर आइर पानी झा शात्र में यो परिमाण घतज्ञाया गया है उसमें कमी फ्ररना द्रम्प ठ्मोदरी है| भ्रविसरस और पौष्टिक भाइर ऊनोदरी में अबनीय £।

( सगइती शतक २५ उशशा सू ८५२ ) मा ऊनोद्री --कांघ, मान, माया भौर साम में कमी करना, अल्प शब्द बोलना, झोब फं पश होकर मापण ने करना तथा हृदय में रह हुए क्रोध फ़रो शान्त करना आदि भाव ऊनीदरी ६। ( मगबती शक २४ उश्शा सू पण्रो २१-प्रबचनन माताः--पांच समिति, तीन शुप्ति को प्रबचन माता कहते है। ढादशांग रूप बाली ( अव्नन ) शास्त्र को जन्म दोषी हान से मादा के समान पह भाता है। इन्ही आठ प्रषधन माता के अन्दर सार॑ शाख समा जाते है। प्रबघन माता के दो मेद--(१) छमिति (२) गृप्ति समिति।--आयातिएत से निदच् शोने के लिए पतना पूर्वक मन, इचन, छ्यया की प्रवृत्ति को समिति कइत हू | गुप्तिः--मन, बचने, काया के कुम और अशुम व्यापार का रोझना या भाते हुए नगीन कर्मों को रीफ़ना थ्रुप्ति ६ै।

( इत्तरास्ययल अध्ययन रेछ शा १२)

मी जैन सिद्धास्त बोल संमइ, श्रथम भाग

२३-नन्द्रिय की स्यास्पा भौर मेद!--झन्‍्द्र भर्थात्‌ भात्मा जिससे पहचाना बाय उसे इन्द्रिय फ़डते हैं जेसे एफ्रेन्द्रि श्ीव स्परनेन्द्रिय से पश्चाना नाता है। ( इन्द्रिफ फे दो मेद*--€ १) इृस्येन्द्रिय ( ) माेन्द्रिय हस्पेन्द्रिप/--/पछ्ु भादि इन्द्रियों के पाक्त भौर,भाम्यन्तर पौद- रलिक भाझार ( रचना ) फो हस्पेन्द्रिय कइते हैं मावेन्द्रि--आत्मा शी मापेन्द्रिय ६! माप्रेन्द्रिय लम्बि भौर उपयोग रूप होती है! ( पश्नदणा पंइ ११ सू० १६१ टी० ) ( दसष्ष्पार्ष सूत्र अष्याय छू० १६ ) २४-इम्पेन्द्रिय फ्रे दो मेद*--

(१) निशचि दस्येन्द्रिप ( )उपकरण हन्पेन्द्रिय। निई चि हस्पेन्द्रियः--न्द्रियों फे झाकार पिशेष को निई चि हृस्येन्द्रिय कइते #।

छपकरस द्रब्पेन्द्रिप:--दर्पण फे समान भरस्यन्त स्वच्छ पुषुगत्तों की रचना विशेष को उपररस इस्पेटद्रिय फते हैं। उप करण द्रस्पेन्द्रिय के म्ट है भाने पर भात्मा पिपय फ्री नहीं जान सफता ( हत्त्याओं सूत्र अभ्याय सूत्र १७) + २५४ >मावेन्द्रिप के दो मेदः--( १) क्षम्धि ( २) उपपोग | ्तम्पि मापेन्द्रिस्‍ः--भ्नापरणीय भादि कर्मों के दपोपशस होने पर पदार्थों के (बिपे के) आानने फी शक्ति को छत्पि- माबेन्द्रिय फहते हैं।

श्र अ्री संठिप्रा लेन प्रश्यमाजा

डुपयोण मावेन्द्रिस'--छानापरझीय झादि फर्मों के दयोपशम होने फर पदार्थों के छानने रूप झास्मा फ्रे स्‍्यापार को उपयोग भायेन्द्रिय कइते ६। | चैंसे - फ्रोई साधू ध्वनिराज दरस्पानुयोग, चरितानुयोग, गशिता- लुपोग, धर्म कषानुयोग रूप चारों भरजुयोगों फे भाता हैं पर थे मिंप्त समय हस्पाजुपोग का स्पाल्‍्पान झर रहे हैं। उस समय उन में द्रस्पानुपोग उपयोग रूप से विधमान है एवं शेप झनुयोग छम्पि रूप से विधमान | ( हत्त्वाये सूत्र अध्याय सूत्र १८ ) २६-इन्ध फ्री स्पारुपा भौर मेदः--जिसके द्वारा कर्म भौर भारमा दौर नौर की तरह एक रूप नाते हैं ठसे बघ वे हैं) बंघ के दो भेद --(१) राग ब१ (२) हेप गण एग प्रैंघ -जिंसस जीप भनुरक्त-आसक्त देता ठप्त राग- अब हैं। राग से होने वाले बंध क्रो राग पैथ

द्रेप धघ--देप से होन दाला मप्र ठेपबंध कइलाए है (ठार्थांग इदेशा सूत्र ६६ ) २७-कर्म क्री स्पाक््या और मेदः--थीप फ्रे हारा मिष्यात्य, कपाय भादि हेतु छे जो फ्रामेय बरगेणा ग्रश्य की जादी है उठे रूम ऋइते ६। यह फ्रा्मश दगझ्ा एफ पकार की अत्पन्त सर्रम रत यानि पृदुगत स्कन्ध होती ६। जिसे इन्द्रिपाँ द्पमदर्शक यभ्र (भाइक्रोस) फोर्प के हारा मी नहीं जान सझती ईं। सर्वश्ञ या परम झदक्िज्षानी ही उत खान सऊ़ते हैं।. (कर्म भ्ंज माग गा» की स्यास्या )

शी जैन सिद्धास्त बोक सप्रह, प्रथम माग

फपे फ्रे दो मेद -(१) घाती कम (२) अपघाती कर्म (१) सोपक्रम कर्म (२) निरुपक्रम फमे घाठी फर्म'-जो कमे भात्मा के स्वामाणिऋ गुण्यों फा घात करे पह पाती कर्म है। झानावरणीय, दर्शनावरणीय, सोइनीय और भन्तराय ये चार घासी कम हैं। इनके नाश हुए दिना केवज्ञ शान नहीं हो सकता | ( इरिमद्रीयाप्टछ ३० श्क्ोक है ) अपाती फर्म -धो फर्म झात्मा फ्रे स्वामापिक गुशों का पात नहीं करते दे अपाती कर्म हैं। भपाती फर्मा' का भसर शारमा की वैमाषिफ प्रकृति, शरीर, इन्द्रिय, भायु भादि पर होता है | अपाती फर्म फेवलप्मान में शवफ नहीं दोते। खघ तक शरीर है सब तक भ्रपादी फर्म सी जीप करे साथ ही रहते हैं। पेदनीय, भायु, नाम और गोम्न से चारों भपाती कमे हैं।

( कम्मपयड़ि था टीका पृछठ १० ) सोपक्रम फर्म।-जिस झमे का फल उपदेश भादि से शान्त हो आय ये सोपफम रूम है। निरूपक्रम फमा-जो फर्म पंघ के अनुमार ही फत्त देता है बह निरुपक्रम कर्म ई। लेसे निकाचित फर्म | हे ( दिपाक सूत्र भ्रप्पयन सू० २० टीका ) श८-भोइनीय फर्म छी स्याख्या भौर मेद।-जो फर्म भात्मा की दित और झ्रद्तित पदिचानने भौर तदनुसार आर्य फरने >ी पृद्धि फ्रो माहित (नष्ट) फर देता द। उसे

३० श्री संठिषा जैन प्रस्वमाका

मोइनीय फर्म फइते ६। दैसे मदिरा मनुष्य फे सदू असह बिपेक फो नप्ट फर देती है |

माइनीप ऋमे फे डो मेद्‌)- (१) दर्शन मोइनीय (२) भारित्र मोइनीय !

दर्शन भोइनीय -जो पदार्प स्ैसा उसे उस्ती रूप में समझना सह इर्शन है अ्रवात्‌ तत्वार्थ भद्धान फ़ो इशंन कहते हैं। पह प्ात्मा का गुय है इस गुख फे मोहित (पाठ) करने बाल रूम को द्शन मोइनीय कइते ६। सामान्य उपयोग हम दर्शन से पह दर्शन मिप्र

आारिप्र मोइनीय'-जिसफ्रे डारा आरमा अपने अससी स्वरूप को दाता उसे भारित्र कहते हैं। यह मी आरमा का गुण है। इसको 5 (पाठ) करने बाले कर्म को भारित्र भोइनीय ऋइते हैं|

( ठाणांग बदशा घृत्र १०४ )

( ढकमप्रस्ण पडा गाथा १३ ) १६-चारित्र मीहनीय के दो मेदइ/-

(१) कपाय सोइनीय (२) नोकूपाप मोइनीय | छपाप मोइनीय/-झप झ्र्थात्‌ रन्म मरस रूप संसार की प्राप्ति सिस्फ्रे हारा दो बह कपाय ६। ( कमप्रस्थ पहछा गा। १७ ) झपवा आरमा के शुद्ध स्वमाद को जो मस्तिन कशता है एसे कपाय ऋडते हैं। कपांय दी कपाय मोइनीय है| पस्नवस्या पद १४ टीका )

भी जैन सिद्धान्त दोक्ञ संघ, थम माग रु

नोकपाय भोइनीय*-कृपायों फ्रे ददप फे साथ बिनरा ठदय पीता है पे नोरूपाय हैं। अथबा--फपायों फो ठमाड़ने वाले ( उचेजित करने पाले ) हास्पादि नवक की नोफकपाय मोइनीय फहते ६।

( कमंप्रम्थ पहुक्ता गाया १७ ) ३०-झयू फी स्पास्या और मेद!-जिसके कारण जीव मव पिशेष में नियत श्रीर में नियत फ्त्त तक रुफा रहे उसे भाषु फहते हैं आयु फे दो मेदः-(१) सोपफ्रम भापु (२) निरुपक्रम झायु सोपक्रम आायु)-ओो झायु पूरी मोगे दिना कारण विशेष ( साप्त फारण ) से भक्कात में टूट जाय घद सोपकरम भायु है। निरयक्म भायु"-थो भायु बंध के भनुसार प्री मोगी आदी है। पीष में नहीं टूटसी वद निरुपफ़म भायु है। सेसे पीेश्टर, देव, नारझ भादि की भायु। ( समाष्य तक्तायाधिगम भ्रप्वाय घू० ५२ ) ( मगषती रादक २० इह्टेशा १० घू० ६६५) ३१-स्पिति की स्यास्पा भौर मेद'--- ! फ्ात्त मर्यादा झो स्थिति फदते £। स्पिति के दो मेद*--(१) फायस्यिति (२) मवस्थिति | छाय स्पितिः--फिम्ती एक थी काप ( निकाय ) में मर फरपुना ठगी में यन्म ग्ररण झरने शी स्थिति को कायस्यिति झूइते हैं। देते -प॒प्पी भादि के घीवों का प्प्वी काय से 'घय कर घुन' धसस्पाद प्यात्त रझ् एथ्यी दी में छपनन ऐोना

मर श्री सहिया डैन प्रस्यमाला,

मदस्थिति --जिस मद में लीइ उत्पन्न दोता उसके ठठसी मर दी स्थिति को मदस्थिति झइते ( ठा्ांग कशेशा सूउ ८५ )

३२-फाश के मेंद और व्यार॒पा --पदार्भों फू बदलने में थो निमित्त हो उसे काल ऋइसे हैं। भपवा ---समय के समूह को फाल झइते £।

कार ढी दो उपमार्ये--(१) पश्योपम (२) सागरोपम

पश्पोपम --पल्य भर्मात्‌ छूप फ्री ठपमा से मिना जान॑ बाला फास पस्पोपम फलाता £। सागरोपम'---दूस छोड़ा शेड़ी फ्ल्पोपम को सागरोपम फते ई। ( ठाणांग रइशा सुज ६६ ) ३३-काल 'चह फे दो मेदः--(१) उत्सपिंयी (२) अपस्दिणी। रस्पर्पिणी।---जिस फा््त में आयू, शरीर, दस भादि री उत्तरो- चर बृद्धि होती जाय इइ उस्सदिणी ६। पह इस फोड़ाकोड़ी सागरोपम का शोठा है। अधदसर्पिणी --जिस छाश में भायु, बल, शरीर भादि मात्र तत्त- रोक्तर घटते जाय बइ झदसर्दिणी है। यह मी दस फोड़ा कोड़ी सागरोपम का शोता है ( ठाणांग रुशा घृत्र ७३४ ) ३४-भाफ़ाश'--थो छीब और पुदृण्ढों को रइने कै क्तिए प्पान दे बइ आकाश है। आकाश के दो मेइ।:--(१) छोकाझाश (२) अह्तोझ्ाकाश

श्री जैन सिद्धान्त चोक संप्रह, ___ थीजैनमिदान्ठ पोक एम परम माग रहे भाग २३

लोकाफाशः --सहां घर्मास्तिकाय भादि द्रन्‍्प हों पह सोफा- / काश है।

अलोकफाझाश --जहां भाफाश फे सिव्राय भौर कोई प्रष्प हो बह अज्ोकाकाश है।

( ठाखांग रद्देशा सूत्र ए४ )

३४-फारण के दो मेद्‌ -- (१) ठपादान फारण (२) निमिच फारण |

उपादान फारण।--(समवायी) सो फारण स्वय॑ कार्य्प रूप में परिखत होता है उसे उपादान फारण फहते हैं। जेंसे मिट्टी, पढ़े का उपादान फारण है भपवा दूघ, दद्दी का उपादान कारस है।

निमिष फारण --जो फारण फार्य्प के होने में सदायफ हो भौर कार्य के हो जाने पर भत्तग शो जाय उसे निमिच फारण कहते हैं। जैसे पड़े के निभिस फारण चक्र (घाक), दणढ भादि है।

( विशेपावरयक सांप्प साया २०३६ ) ३६-दंड फे दो मेंद--(१) भये दुणड (२) झनर्य दुए्ठ। भगेदणएह --अपन भर दूसरे फे लिए प्रस और स्थायर आऔीर्षों

की यो एिसा द्वोती उसे भर्थदणड फटते £। अनर्थदएद)--पिना छिसी प्रयोजन फे जीव दिसा रूप कार्स्य करना झनर्थ दएड ई। (६ ठास्यांग कशेशा है सूत्र ६६ ) ३७-प्रमाण!--भप॑ना भौर दूसरे झा नियय फरने पाले सच्चे शान को प्रमाय कहते हैं। प्रमाण शान बस्तु की सब

( श्री सठिया लैब प्रस्यमाता

इृष्टि-बिन्दुझों से नानता है भ्रयात्‌ गस्तु के सदर अंशों को सानने पाले हान को प्रमाय श्ञान फइते हैं| ( प्रमासनयतक््यातोकावह्टार परिऋर १) नपा--प्रमाण फे दाग जानी हुई अ्रनन्त-पर्मास्मक वस्तु क॑ फिसी एक अंश या गुण फ्ो सुरूप करके जानने बाते झ्ञान को नय कहते हैं। नपज्ञान में वस्तु के भ्न्य भ्रंश पा गुणों की झोर उपेधा या गौयता रहती ई। ( प्रमाजनयवक्त्यालोकाक्वार परिच्जेद ) इ८-पुक््प'--पदाम के अनेक घर्मो में से जिस समय जिस घर्म थी दिवदा होती ६। उस समय बही घर्म प्रथान माना जाता ६। इसी तरए भनेफ़ गस्तुभों में विदधित बस्तु प्रभान होती | प्रघान को, ही पुस्प फहते हैं।

मौणा--प्रुरुप धर्म फे सिब्राय समी अभिवदित धर्म गौस रश्शाते हैं। इसी तरइ अनेऊ बस्तुभों में से अ्रषिवदित वस्तु मौ गौस कइशाती है। सेस'--भास्मा में क्षान, दर्शन, 'भारित्र झादि झनन्त पर्म ६। उनमें से झिस समय क्षान की पिषणा होदी है! उप्त समय ज्ञान मरुप है भौर बाकी पर्म भीख हो जाते हैं।

अपबा “सुम्रप॑ गोपम | मा पमायए” भर्थाद- हे गौतम ! समय मात्र मी प्रमाद करो। पह उपदेश मगधान्‌ मद्या्रीर स्वामी ने गौतम स्वामी को घम्बोधित करते हुए फरमाया है। यह उफ्देश प्ररूप रूज

श्री जैन सिद्धास्द बोल संप्रइ, प्रभभ गे र्श्‌

से गौतम स्वामी क्रो है किन्तु गौण रूप पतुर्धषिष भीसंघ फो ६। इसलिए यहां गौतम स्वामी प्रुरुप है और पतुर्थिष श्रीसप गौय

(तस्तवार्थ सूत्र वां अभ्याम सत्र ११ )

३६-निमप --वस्तु के शुद्ध, मृत्त भौर घास्तविक स्वरूप को निमय फ्ते ई। अर्थात्‌ वस्तु का निमी स्पमाव जो सदा रहता पह निभ्य ई। लेसे निभ्रय में फोयल फा शरीर पाँचों परे बाला है क्योंकि पाँच बर्णो रे युवृगलों से बना हुआ ह। भात्मा सिद्ध स्वरूप है।

स्पपद्दार/---इस्तु फा लोफसम्मत स्वरूप व्यवद्दार है। जेंसे कोपल फाली है। भास्मा मनुष्य, तिर्यश्ष रूप है| निभय में ज्ञान प्रघान रहता और छ्यवद्वार में क्रियाओं फ्री प्रधानता रहती ई। निम्रय और स्यबद्वार परस्पर एक दूसरे के सदा यक (पूरक) हैं

( बिशेपावश्पक गाथा ३ेश८8 ) ( इश्प्रामुपोग तकछझा भष्याय जोक ) ४०-ठस्सग --सामान्य नियम फ्लो उस्सर्ग फहृवत हैं सेस साधु को तीन करण भौर सीन “योग से प्राणियों फी हिंसा नं फरनी चाहिए हे ( इृदत कल्प दृत्ति समाप्प भू नि गाथा ११६ ) अपवाद!--मूल नियम की रदधा के इतु भ्ापति भाने पर अन्प मार्ग ग्रदण करना अपवाद जैस साधु का नदो पार बरना भादि।

( जुइत्‌ कम्प निपक्ति गा ३१६, स्वाहाद कारिका ११ टी० )

प्री सठिया जैन प्रन्थमाका

१-सामान्य --अस्तु के जिस धर्म के झारख बहुत से पदार्ष शक ही परीले माक्तम पढ़े रुपए एफ ही शुम्द से कूदे साय ठर्स सामान्य ऋइते

विशेष*--सजातीप भौर विज्ातीय पदार्थों मिझ्रता झामाघ करने बाला “धर्म शिशेप कद माता

जैमे।--मनुप्प, नरक, ठिर्यसनव भादि सभी स्रीव रूप से एक से हैं और एक शी सीद श॒म्द से कई या सकते हैं | इसलिए मदत्द सामान्य | पही जीगत्य दब द्ुस्प को दूसरे हभ्यों पे मिप्र करता ६। इसलिए पिशेष मी घरस्व समी भटों में भौर गात्द समी गौझों में एकला फ्रा शोध कराता है इसलिए प॑ दोनों सामान्य ई। “यह पट!” इसमें एप पघटत्य सपादीय दूसरे पटों से और दिज्ञातीय पदादि पदार्ओों पे भेद ऋरासा | इसलिए पह विशप इसी दरइ “चित ऋघरी” गाय में चितरूषरापन समातीय इसरो लाख, पीली आदि गौशों से भौर विजञासीय भ्रश्वादि म॑ मंद फराता है। इसलिए पद जिशेष ई।

बास्तब में समी घर्म सामान्य और दिशेप दोनों कहे जा सकते है। अपने से अ्रषिक पार्पों में रइने बाले पर्म दी भपेधा प्रत्पक धर्म विश्येप हैं। न्यून बस्‍्ठुओों में रहने दाते की भपेधा धामान्प | घरस्व पृवृगतत्व की भझप॑दा पिशेष भौर रुप्स घटस्व की भपेचा सामान्य |

( स्पाशाइमघ्जरी कारिका ) (प्रमाणनपशस्थाक्षोकाशहार परिष्तर $ खू० १)

श्री जैन सिद्धास्त बोल संप्रह, प्रथम भाग मऊ

४२-ऐतु--जो साप्य छ़ले शिना रहें ठसे इेतु कहते हैं। जैसे अप्रि का हेतु पूम | घूम, षिना भगिन के फमी नहीं रहता

साध्य'--ओ सिद्ध किया जाय वह सांध्य है। साध्य वादी का इृष्ट, प्रत्पधाडि प्रमाशों से भबाधित भौर असिद्ध होना चाहिए | जैसे पतत में भग्नि है क्पोंड्धि ब्शं पझमाँ है | पहां भम्नि साध्य है। अग्नि वादी फो ध्रमिमत है। प्रस्पष भादि प्रमायों से भ्भाष्वित है भौर पर्वत में झमी तफ़ सिद्ध नहीं की गई है। झत भ्रसिद् भी है। ( रासनाकराबदारिका परिघ्छेद सूत्र ४)

ह-फा्ये)---सम्पूर्य कारणों का संयोग शोने पर उनके व्यापार ( फ्रिया ) के झनन्तर जो पह्रमश्य दोता | उसे कार्य कहते हैं।

.. कारस---जो नियत रूपसे फार्य्य के पहले रहता हो और कर्य्य्य में सापक हो। अ्पपा/*-विछक़े ने होने पर कार्य्य हो उसे कारण फहते हैं| जैसे इम्मकार, दण्ड, 'पक, चीपर भौर मिट्टी झादि घट के कारस हैं ( म्वायकोप )

४४-आपिमाय'--फदार्थ का अमिस्पक्त ( प्रझ्ट ) होना भाषिर्माव

विरोमावः--यद्ार्ष का अप्रझूट रूप में रइना मा दोना विरोमाव है ऊँ पास में घृठ विरोमाष रूप से विधमान है डिन्तु मक्‍पन के भन्‍्दर पृत का भानिर्माष भथपा सम्पर्दष्ट

र्प प्री सेठिया सैन प्रश्यमाक्ा

* में क्षेबल क्रान का विरोमाब है | किन्तु सीर्पक्र मगवान्‌ * में केवल शान छा झाविमाष है | ( स्थाजअकोप ) ४४-अइृत्ति--मन, बचन, काया को शमाशुम कार्य्य (स्यापार) में छगाना प्रइत्ति है निूच्तिफ---मन, वचन, कापा को क्प्प से इटा सतना निहृत्ति है। ४६-द्भरम्प--जिसमें शुश् और पयाय हों बह ह्रम्प

गुय --ओ द्रस्य के आाभित रहता बह गुल | गुण सदेव डम्प के 'भन्दर ही रहता | इसफा स्वसन्त्र कोई स्थान नहीं | ला, ( दत्तराध्ण्यन भष्बयस ऐपगा ६)

( ठस्‍्वबाय सूत्र अरध्याय सूत्र ४) ४७-पर्पापा--अम्प भार यरुशों में रइने बाली भगस्थाझों को पर्याय छइते हैं। जैसे सोने के शार को तुड़षा कर कहें

/ बनवाय॑ शये | सोना दभ्प इन दोनों झ्रबस्थाओों में कायम रद्दा किन्तु उसकी दास्तत बदल गई | दाक्तत को ही पर्याय दड़ते हैं। पयाय, गुख भौर हरस्य दोनों में दी रम्ती £।

( इत्तराप्यबम अध्यपन न्प्सू ६) ४८-मभाषारः--ओ बस्तु को झाभय देपे बह झाघार ६। संस घड़ा पी का झाषर है। आधेप/--भाषघार द्याभप में जा दस्तु रहती वड़ भाषेय ६। ऊँस पड़े में पृत पशं पड़ा भाषार और पुत (पी) आाषप | ( बिशेराबर॒पक साप्य गाबा १४१४ )

भरी मैन मिद्धान्त भोकत स॑प्रषट प्रथम माग ग्ह

४६-आरम्म --दिसादिक सावय कार्य झ्रारम्म £ | परिग्रह “मृदा ( ममता) झा परिय्रद कहते £ै। घमे साधन के मत्ए रफ़य हुए उपर्रण को छोड़ पर ममी पन घाव आदि ममता फारण शोन से पीग्र४् £ | यष्टी झारण £ फि धन धान्पादि प्राय परिग्रह मान गय£ भर मूर्शा ( ममत्व एट्वि माद ) भाम्पन्तर परिग्रद मानी गई हू ( टाखांग + बहशा सत्र १०) भारम्म परिग्र हों झा तपरिया से जाने कर प्रया स्पान प्रिया में स्पाग ने करने से लौय झवली प्ररपित

धर्म सुनने एवं घोषि प्राम फरने में, गृ््पारास छोड कर सापू इन में, प्रधपष्प पालन फरन में, पिशुद्ध संपम सा मदर प्राम छमन में शुद्ध मति, भुति, भय, मन पयय आर एवन तन्ान प्राप्त करन में झरममर्य इंता £। ््ल्तु

आरम्म परिप्र् का प्र प्रिषा से आन फ़र प्रस्पास्थान

परिया थे स्पमन डाला जीप उपयूबत ११ डान प्राप् इन में समर्थ दता ६।

( थाटांप + जछ है घृष्० ६४९७) ४०-भपिराग ही फास््पा ध्यर टमर. मंद --

रूम इए $ मापन टप्दा् या शम्प को झषि- हुगएा भरत है | अषिइशत हो रद -

4 ) बीशपिदय (६ ) ए्रशीरारिदरल

भरी सठिया जैन प्रस्चमाजा

सीजापिकर् --फर्म बन्ध के साथन लीव था जीगगव फपायादि चीयाषिसरण हैं। अजीदाधिकरस ---कर्म बन्ध में निमिच जड़ पुरृग्त भज्नीवाि- करण हैं। जैसे शस्ध भादि ( तस्थां सूत्र अष्पाय ६८) १-पेदनीय फर्म के दा मेदः--- (१) साता घेदनीय ( ) भ्रसावा बेदनीय साठा बेदनीय' -जिस फर्म के ठद्य से भारमा को अनुकूल पिपयों झी प्राप्ति हो दया शारीरिक भर मानसिक सुय का अनुभद हो उसे साता पेदनीय कइत हैं। असाता पंदनीय/--जिस कर्म उदय झात्मा को अनुझत प्रिपयों झी भअप्राप्ति पे भर प्रतिकृस दिपयों की प्राप्ति दुःख फ्ा भ्रमुमब होता ठस भसाता वेदनीप कइते हैं। (पहक्तसा पर २१५सू २६३ ) ( कर्मप्रश्थ पशरा भाग गा9 १२ ) ५२-इन्च क॑ दो मेद;--( १) सब बन्घ ( २) देश बन्च सबंधन्ध--जो शरीर नय॑ रुत्पभ्न होते हैं उनके आरम्म दक्ष में आत्मा को सब बन्‍्ब दोता है। भपात्‌ नय॑ शरीर का झात्मा के साथ बम्ध ोने को सब बन फहते है| अंदारिक, देकिपक भौर झाहारक शरीर का टस्पत्ति के समय सर्द बज होता | यह इन्ध एक समय तक होठा ई। देशइन्च)---टस्पत्ति क॑ बाद में जब तक शरीर स्पिर रहते हैं तब तक होने बाला बन्न देशबन्ध है। सैमस झौर ऋार्मश शरीर की नदौन उस्पश्ि नह इंडी। झसः उनमें सदा देशइन्घ

भरी जैंन सिद्धान्त पोल संग्रड, प्रथम मांय ध्१

ही होता ई। भौदारिर, पैक्रियक भौर आड़ारक शरीर में दोनों प्रफार का बनन्‍्च होता है ( कमसनन्‍्ध पहला सामा ३५ स्याक्त्पा ) ४३-मरस के दो मेद'-- (१ ) सकास मरस (५ २) भक्ताम मरझ सरूम सरस ---विपय मोगों से निशतत्त दोफर घारित्र में अलजु- रक्त रइने भा्ती आस्मा की 'भाइलता रहित एवं म॑सेखना करने से, पासतियों की हिंसा रहित जो सृत्यु होती £ बह सकायम मरख है ! उक्त जीवों के लिए मृत्यु मय्प्रद होकर उस्सवरूप होती है। सक्मममरण फ्रो पण्रिसमरण मी कहते है !

अक्वाम मरणः---परिप्य मोगों में शुद्ध रइने वाले भर्मानी जीवों की 'बाइदे हुए मी भनिस्दापूर्यक लो भृत्यू होती ई। सुइ अकाप मरण है। इसी को बाल सरस मी झइते हैं

( उत्तराध्यभन सूत्र अ्प्ययन » गा० २)

१४-अध्पारुपान छे दो मेद:--- ( ) दुष्प्रत्यस्पान (२ ) सुप्रस्यास्यान

दृष्पस्पास्यान;---अस्पारूपान भर उसफे पिपय छा पूरा स्वरूप छाने बिना किए जान याता ग्रत्यल्यान दुष्प्रयास्यान है जैसे फोई कड्े क्लि मैंने प्रास ( गिकल्तेन्द्रिय ) भूत ( वनस्पति ) जीव ( पंचेन्द्रिय ) सक्त ( प्ृथ्वीक्षायादि आर स्पावर ) की इसा फ्रा प्रत्यास्यान किया | पर उसे सीद, अमीष, भ्रस स्पाबर भादि का क्षान नहीं वो सके प्रत्पारू्पान बी घात कइना भधत्य ६। एवं वह उक्त

श्र सठिया जैन मन्यमाक्षा |

जीप हिसासे निइत्त नहीं भरत एब उसका प्रत्याक््यान दुष्प्रत्पाख्पान मुप्रस्पाज़्यान --अस्पारुपान भौर उसके जिपय का पूरा स्वरूप लानने बाते का प्रत्यास्पान सुप्रत्यास्पान है। जैसे उप- राक्त रीति पे प्राण, मृत,खीब, सच्त की हिंसा का प्रस्प- स्थान करने बाला पुरुप यदि जीब, प्रस, स्पापर भादि के स्वरूप का पूरा लानफार दो उसके प्रस्पारूपान की बात कइदना सत्प५९ ओर बह प्रत्याख्यान करने बासा जीबों फी ईसा से निषुत्त होता ई। भरत एवं ठसका प्रस्पाप्प्पान सुप्रत्पाक्पान है। ( मगंबती शतक रहेशा 5 सूत्र >) १४-गुल के दो प्रकार से दो मेद -- (१)भूल गुश (२) उत्तर गुण ( १) स्वामाविक गुण ( ) बेमापिक गुल | मूक्तमुण'---चारित्र रूपी वृष के मूल (सड़) के समान ना हों थे मूल गुण हैं। साधु के छिए पांच महाह़॒त और भाक के लिए पांच भजवत मूल गुर हैं। उत्तर गुझ--मूत् गुर की रचा फे छिए भारित्र रूपी इच की शाखा, प्रशाखादद दो थुर हैं दे उत्त गुम है जेस साधु सिए फ्पिडबिशद्धि, समिति, माना, तप, प्रतिमा, अमिप्रइ झादि | और भाषक के लिए दिशावत झादि |

( सूबगडझंग सुज अध्फ्यन १४ नियु कि गा० १९६ ) ( पंचाहाक बिबरस » गा० हीकका )

और जैन सिद्धान्त बोल संपह/ प्रथम माग झ्३

स्वामाविफ गुण्/--पदार्थों फे निम्र मुर्णो को स्थामाषिक गुण + झहते हैं। सेसे भात्मा के क्षान, दर्शन भादि गुथ पैमापिछ गुण!--भन्प द्रष्यों के सम्भन्ध से चो गुण हों भौर स्वामादिक हों थे ग्रेमापिक गुस हैं| खैसे भात्मा के राग, ऐप भादि | ( इस्पा० तकणा अध्य० ०२ श्लो० ८) ४३६-भेणी फ्रे दो मेदः--(१) ठपशम श्रेणी (२) चपक भ्रेयी। अ्ेसी!---मोइ फे ठपशम और दय दारा आत्मविकाश फो भार आगे बदने घाले जीवों फ्रे मोइ-फ़मे के उपशम तथा क्षय फरने के क्रम को श्रेणी फइते हैं। प्रेंणी के दो मेद ६। (१) ठपशम भ्रेश्वी (२) ध्पफ श्रेणी उपशम अंशी/--आत्मविफाश स_यी शोर भग्रगामी खरीम्रों के मोह उपशम फरने के क्रम फो, ठपशम भ्रेणी कहते हैं| उपशम भ्रेणी फा भारम्म इस प्रकार होता हैः-- ठपशम भेणी को भ्ंगीफ़ार करने बाख्ता झीव प्रशस्त भरभ्पणसायों में रहा हुआ पढले एक साथ भन्तर्मुहर्य प्रमाण काल में प्रनन्ता झुबन्धी कपायों फ़ो उपशान्त करता | इसफ्रे बाद भन्त- पु र्श में एक साथ दर्शन मोह की तीनों प्रकृतियों का उपशम करता | इसफ़े बाद छठे भौर सातय गुणस्थान में कई बार आने साने के घाद वह लीबर आठवें गुलस्पान में आता है) झाठवें गुणस्पान में पहुँच ऋर श्रेसी फ्रा ्रारम्मफ़ यदि पुरुष हो तो अमुदीर्य नपु सक पेद का उपशम झरता है भौीर फ़िर स्म्री वेद को दबाठा है! इसफ़ बाद दास्मादि कृपायों कर उपशम कर पुरुप बेद फ्रा उपशम करता है |

इरर्‌ प्री सेठिया जैस पन्यमाला

जीब हिसाप निहृत्त नहीं | भत एप उसका प्रत्यात््पान दुष्प्र्पाख्पान | मुप्रस्थाज़्पान --अत्पारूपान भार उसके बिपय फा पूरा स्वरूप जानने पात्ते का प्रत्याल्पान सुप्रत्यास्पान ६। जैसे उप- रोक्त रैति प्राथ यूत,जीव, सक् की ईसा का प्रत्पा- रपान करने बाला पुरुष पदि लीष, अस, स्थावर भादि के स्वरूप का पूरा जानकार तो उसफे प्रस्यास्यान की बात कइना पत्प७६ ओर वह प्रत्यास्यान करने बाछा जीजों फी एिमा से निषृत्त होता £ भत एप उसका प्रत्पाग्प्पान मुप्रत्पास्यान है।... ( मंगबठी शतक रहेशा सूत्र ५७१ ) ॥४-शुण के दो प्रकार से दो मेद'-- (१) मूठ गुख (२) उत्तर गुण | (१) स्वासाविक गुण ( ) देमाविक गुश | मूृक्तगुण/ः--भारित्र रूपी इच् के मूख (लड़) के समान झो हों थे मूल गुस हैं। साधु के स्िए पांच मझाद़त भीर भावरू के सिए पांच भग्ुत्रत मूत गुल है। छत्तर गुझ--मृक्त गुण की रचा के लिए घारित्र रुपी इष की शाया, प्रशायाइत्‌ घो शुद्ध हैं ब॑ उत्तर गुण हैं जैस साधु के छिए प्पिडदिशुद्धि, समिति, माषना, तप, प्रतिमा, अभिग्रइ भादि | भीर भाषक के किए दिशाजद आठि।

( घूबगदंग सुज् अध्ययन १९ नियुक्ति गा* ११६ ) ( पद्चाशक बिबरगा श्सा २टीका )

श्री जैन सिद्धास्त बोल संप्रइ/ प्रथम सांग ड्हृ

स्थामाणिक सुण --पदार्थों करे निज गुणों फो स्वामाविक गुण + एड्ते हैं। सैसे भात्मा के द्वान, दर्शन आदि गुण | बैमाविक गुथः- झन्य द्रष्पों के सम्पन्ध से लो युस हों भौर स्वामाविफ होंये वैमाविक गुण हैं। जैसे भात्मा के राग, ह्प भादि | (दम्पा० तकखा अष्य० २२ इलो० ८) ५६-श्रेश्थी के दो मेदः--(१) उपशम भ्रेडी (२) पक भेणी। ओजी/--भोह के उपशम्त और क्षय द्वारा आस्मणिकाश फी आर आगे पढ़ने वाले जीवों फ्रे मोह-कमे के उपपशम सभा दय करने के फ्रम फ़ो भेसी कइते हैं। भेणी फ्रे दो मेद हैं। (१) उपशम श्रेणी (२) चफ्क़ भ्रेजी उपशम शभ्रेखीः--भात्मपिकाश फ्री भोर भ्रग्रगामी जीवों फ्रे मोइ उपशमभ करने फ्रे क्रम को, उपशम श्रेणी छइे हैं। उपशम अली फ्य भारम्म इस अकार होता हैः-- ठपशम भेजी को अंगीरार करने बाक्ता जीव प्रशस्त भ्रभ्यवसायों में रहा हुआ पहले एफ साथ धन्तमुंहर्य प्रमाथ फाल में अनन्ता- लुबन्धी फपायों को उपशान्त करता है। इसके बाद भन्त पं हर्ष में एक साथ दर्शन मोह की दीनों प्रकृतियों का उपशम करता | इसके भाद छठे झौर सातपें मुखस्थान में कई बार आने छाने फ्रे पद पइ सीब प्ाठवें थुणस्थान में झ्रावा ह। भाठवें युणस्पान में पहुँच फर भेणी का झारम्मक यदि पुरुष दो ठो भानुदीय नपु सक पेद का उपशम फ़रता है पीर फिर स्वी पेद को दबाता है | इसके बाद दास्पादि कूपायों प्र उपशम कर पृरुप पेद फ्रा उपशम करता |

श्री सेठिया झैन प्रन्चमाक़ा

! यदि उपशम श्रेणी करने वासी स्त्री हो सो वह ऋमशाः नपु सक वेद, पुरुषधेद , इत्यादि छः एवं स्परीमेद का उपशम करती है। ठपशम भेशी करने धासा यदि नपु सक हो हो बह क्रमश! स्त्रीपेद, पुरुपमेद, दास्यादि छः और नपु सक वेद क्या उपशम करता है। इसके बाद अप्रत्याख्यान भौर प्रत्यास्यानावरण फ्रोष फा एक साथ उपशम कर झात्मा संज्वक्षन क्रोध का उपशम करता है। फिर एक साथ बह पप्रत्यारुपान और प्रत्पास््यानापरश सान का ठपशम फ़र सन्दक्षन मान का ठपशम करता है। इसी प्रफार जीब भ्रप्रत्पास्यान माया झौर भ्रस्पारूपानावरश माया बा उपशस कर संज्वज़न माया फ्रा उपपशम करता है तथा अप्रस्पास्पान एवं ग्रत्यास्पानावरल क्ोम का उपश्म कर झन्त में संज्वलन ज्तोम का उपशम शुरू फरता है! स॑ज्वलन छोम के उपशम फा क्रम यह है --पहले झास्मा संज्वत्तन लोम के दीन माग करता है। उनमें दो मागोंक्य एफ साथ उपर कर खौद तीसरे माग के पुन संख्यात खंड फरता है भौर उनका पृथक प्रयक रूप से मिन्न काल में उपशम करता है| संख्यात खंढों में से जब झनन्तिम उंड रइ जाता है दब भास्मा उस फिर भ्रसस्यात संडों में विभाजित करता भौर क्रमशः एक एक समय में एक

एक संड का उपशस करता है। इस प्रकार वह आत्मा

मोह की समी प्रकृतियों का उपशम कर दंता है। अनम्तातुबन्भी कप्ाप भौर दर्शन मोह फ्री सात

अकुतिशें का उपशम झरने पर घी अपूर्द करण

मी जैन सिद्धान्त बोज् संपद, प्रथम माण ञ्श्‌

(निशच्ि बादर) नामफ भाठवें गरुशस्थान पाक्ा होता है। आठवें गुरझेस्थान से ल्ीव भनिशृत्ति बादर नामक नहवें ग्रुणस्पान में आता हैं। वहां रहा इभा जीप सज्वत्न लोम के सीसरे भाग के भन्विम संख्यात्म खण्ड के सिपाय मोह की शेप धमी प्रकृतियों फ़ा उपशम फरता है भौर दसवें सक्म सम्पराय ग्रुखस्‍्पान में आता है | इस गृणस्थान में थीय उक्त संज्यक्षन के लोग के भग्तिम संख्यातर्ये खयड के असस्यात खेड कर उनको; उपशान्त कर देता है भौर मोइ फ्री समी प्रकृतियों का उपशम कर ग्यारइवें उपशान्त मोइ गु् स्पान में पहुंच जाता है। उक्त प्रफृतियों का उपशम काल स्षेध भन्तप हुवे है एवं सारी भेणी का काश परिमाण मी भन्तए्‌ इर्स ही है। ग्यारइयें मुणस्थान की स्थिति अपन्य एक समय भोर उत्कृष्ट भन्तप्तु इच परिमाण पूरी कर जीप उपशान्त मोह गुणस्पान से बापिस नीचे के मुसस्थानों में अता है | सिद्धान्ताजुमान उपशमभ भ्ेखी की समाप्ति कर बापिस पीट हुभा खीव भ्रप्रमत पा प्रमच गुसस्थान में रहता है। पर कर्मग्रन्य फ्रे मतानुसार उक्त जीव लौटता हुआ मिध्यादृष्टि युरस्यान सक्क मी पहुँच जाता ई। यदि जीप ओखी में रहा हा ही काल करे तो अलुत्तर विमान में आझविरत सम्पग्रष्टि देषता होता है उपशम श्रेणी का भारम्म कौन करता ६! इस दिपय में सतमेद है। कई झाचायों का फपन कि भप्र मच संयत उपशम भेसी का भारम्म करता है तो फई

श्री सठियां जैस प्रश्वमाका

भापार्यों का यह फडना कि अविरत, देशविरत, प्रमत्त साधु, भौर अप्रमत्त साधु, इनमें से छोई मी इस भेखी को कर सफ़्ता ई।

फर्मप्रन्य क्र मत से भारमा एफ मब में उत्कृष्ट दो बार ठपशम भ्रेयी करता और सब मर्तों में उत्कृष्ट चार बार | फर्मप्रन्च का यह मी मत क्लि एक बार जिस ली ने उपशम प्रेसी की | बह सीव उसी जन्म में चपकरभेंसी कर मुक्त हो सफ़ता डिन्तु जिसने एक भष में दो बार उपशम भ्रेशी क्री है वइ उसी मत में चपकभेसी नहीं कर सहता | उिद्धान्द मद से तो जीब एक जन्म में एक दी प्रेसी करता | इसलिए जिसने एक बार उपशम भेसी

की बह उसी मब में दपक भेणी नहीं रर सकता

(कर्मप्रख्य दूसरा माग ) ( विशपादश्यक माप्य भाषा १२८४ ) (इम्प लोक प्रकाश तीसरा सग ११६४ से १११५)

( झाषर्जक मक्षयगिरि साया ११६ से १९ ) ( अद्धे मागपी कोप बूसरा साग )

दपक भेसीः--भात्मविफ्ाश की भोर पश्रग्रगामी थीथों के

सर्बंधा मोइ को निर्मल करने ऋमविशप पे चपकभेणी कइत हैं। दपरूधेणी में मोहदय का क्रम यह --.

सई प्रथम झास्सा अनन्तानुधन्ची कपाय-अतुष्टप का एफ साथ दय छरता इसके बाद भनन्तानुभन्नी कपाय के ग्रवशि्ट अनन्तदें माग को मिध्यात्प में डाल कर दोनों का एक छाप चय करठा है! इसी तरइ सम्पग्‌ मिख्पात्व

कर

श्री दैन सिद्धान्द दोक स॑मइ, प्रथम आग डक

और दाद में सम्पक्त्थ मोहनीय का चय करता है। जिस औीव ने भायु परांघ रखी है। बह पदि इस श्रेणी को स्वीकार करता है तो अपना अनन्तमोँ माग मिध्यात्य में छोड़ फर अनन्ताजुपंघी का दय फरफे रुक नाता है। जब कमी मिध्यास्व फ्ा उदय होने पर वह अनन्तालुपन्‍्बी फपाय को बांघता है। बयोंकि भ्रमी उसके घीम रूप मिध्पात्व का नाश नहीं हुआ है। यदि सिध्यात्य का मी घ्य कर चुका दो तो बह अनंतानुभंधी कपाय को नहीं दांघता झनन्तानुपन्‍्दी फपाय के चीण होने पर शम परिशामसे गिरे बिनाई वह छ्रीव मर जाय शो देव छोफ़ में चाता है | इसी प्रकार दशन सप्तक ( भनन्तालुपन्‍्धी कपाय-चतुष्टप भौर दशेन मोइनीय की तीन प्रकृतियाँ) के चौण होने पर बह देवर्तोक में दाता है। यदि परिणाम गिर आय और उसके पाद वह मीव फाक्ष करे तो परिश्ामानुसार झा शुम गति में जाता सिस जीप ने झायु पाँघ रखी है बद सीव अनन्तानुषन्धी का घय फर दर्शन सोइनीय की प्रकृतियों फा मी दय फ़र दे तो इसके बाद वह अपश्य पिभाम लेता और रह की भायु बांघ रखी बह्दां उत्पन्न होता है जिस जीव ने आयु नहीं घ्रांघ रसी है एश इस प्रेणी फो आरम्म करे सो पह इसे समाप्त किये पिना विश्राम नहीं लेता | दशैन सप्तक फ्ो चय फरने बाद जीब नरक, विस और देव आयु का छय करता हैं इसके बाद भग्रस्पास्पान भोर प्रत्याख्यानावरण क्पाय फ्री भाों प्रकृतियों स्य एक साथ द्य फरना शुरू फरता है। इन अप छत पूरी सरइ से कप ऋरने नहीं पाता कि बह १५ प्रकृतियों का चप करता ६। सोलइ प्ररृतियाँ पे हैं --

0]

कि

श्री सठिया जैन म्रस्थमाला

(१) नरफासुप्‌र्णी (२) तियंज्ञानुपूर्वी (३) नरफ़ गति ( ) विर्यम्च्व गवि (५) एड़ेन्द्रिय जाति (६ ) डीन्द्रिप जाति ( ७) प्रीन्द्रिय जाति (८) फ्तु रिन्द्रिय याति ( £ ) भावप ( १० ) उप ( ११) स्मामर ( १२) साधारण ( १३ ) छद्म ( १४ ) निद्रा निद्रा ( १४ ) प्रचत्ाप्रचघला ( १६ ) स्त्पानशद्धि निद्रा

इन सोलह प्रकृतियों का चय फर ली अप्रस्पा रूपान और प्रत्पास्पानावरस क्पाय. ही झाठों प्रृतियों के झब्शिए भंश का उस करता ई। इसके बाद कपक भेशी फ्रा कत्ता यदि पुरुष हुआ ता बह क्रमश! नपु सक पेद, खौपेद, इसस्पादि पदूफ का ध्य करता इस के बाद पृष्प बेद के तीन खयड फ़रता | इन तीन स॒णडों में से प्रपम दो खयडों का एफ साथ क्षय करता भौर तीसरे खण्ड को छल्रणन फ्रोध में डाल देता | नपु सक या स्त्री पदि भेणी करने बाले हों तो भ॑ झपने अपने बेद का चय तो झन्त में करठे हैं भोर शेप दो पेदों में से अपषम वेद को प्रथम भौर दूसरे को ठपक बाद धय फरते हैं। धैसा कि उफ्शम भेशी में दताया जा घुका | इक बाद भास्मा स॑ज्वसतन, क्रीष, मान, साया झौर क्षोम में से प्रस्पेक ब्य प्रयकू प्रवकू दय करता ६। पुरुष बेद की सरहद इनके मी प्रस्पेक कू तीन तीन सपद किये साते भौर दीपरा खण्ड भागे बाली प्रहृतियों फ्रे खयडों में मित्लापा श्लाता जे फ्रोष का तीसरा खुप्ड मान में, मान छा

भरी जैन सिद्धान्त बोक्ष संप्रह, प्रसव माग पु

तीसरा खण्ड माया, में और माया छा तीसरा खयढ लोम में मिलाया खाता है। सोम के तीसरे खण्ड के संख्याव खगद परफे एक एफ को भ्रेसीयर्ती लीव मिन्न फाक्त में ध्वय छरसा है। इन सर्यात सणडों में से भन्तिम खयह फे ख्रीव पुन भ्सरुषात क्यद फरता है भोर प्रति समय एफ एक का दय करता है

यथा पर सर्वत्र प्रकृतियों का दपणकाल भन्तप हर्ष जानना धाडिये | सारी भ्रेद्ी क्य काज्ञ परिमास मी भर सुयात छघु भन्तपु इर्च परिमाथ एक बड़ा झन्तस हर्ष लानना चाहिये

इस भेणी फा भार॑म करते वाक्ता नीब उत्तम सइनन शाज्ता होता है ठया ठसक्री भगस्पा झ्ाठ दर्प से भषिऋ होती है। अविरित, देशविरत, प्रमत्त, झग्रमत्त, युजस्थान दर्ती जीवों में से झ्लई मी विद्दद परिजाम वाक्ता जीव इस प्रेसी को कर पकसा है | पृवंधर, अ्रप्रमादी और शुक्छ ध्यान से पृर्रत होकर इस भेसी को शुरू करते ईं |

दर्शन 'सप्तक का श्रेय फर सीप भाठवे गुण ध्यान में आता है। इसके दाद संन्वतन स्तोम के संख्यातवें संद तफ़ का चय जीव नये भुखस्थान में करता £ और इसके पाद झस॑स्यात खेड का श्य दसवें गुशस्पान में करवा £ै। दसई गुणस्पान के अंत में सोह छी २८ प्ररुदियों का चय छझर ग्यारह गुणज््मान झा प्रतिकमश (उन्प्तंपन)

झ० मी सेठिया देन प्रस्थमात्षा

करता हुआ लीग बारें दीसख मोइ गुसस्थान में पहुंचता ! ( दिशेपाचरश्यक गाया 38, (ईएम्पलोक प्रकाश तीसरा शोर १२१८ से १२३४ सक ) ( कर्म प्रस्प दूसरा सांग, भूमिका ) ( झ्ाबरसक् मक्ृयगिरि गाणा ११६ से १२३ ) ( अर मागभी कोप भाग बूसरा ( खबर ) ५७।-देवता फे दो मेद - (१) फ्ण्पोपपञ (२) कल्पातीत कल्पोपपन्न -जिन देबों में छोटे बढ़े का मेद हो | ४॑ कल्पांपपन्‍न देश कइलाद £ | मदनपति से लेकर बारइणें दवतोक तफ के देव झइल्पोपपन्‍न कन्पातीतः--जिन देबों में छोरे बड़े छा मेद हो | जो समी “ग्रइमिन्द्र' कल्पादीत है। जैसे नजर प्रगेषफ भौर अलुत्तर विमानवासी देव | ( हवा सृत्र भभ्याय ४) ५८८-भपप्रद द्षे दो मेद - (१) भगांवग्रइ (२) स्पश्जनापग्रइ | अयावग्रपः--पदार्थ भम्पक्त ह्वान फ्रो भ्रधागग्रद कहते ईं। अथाइप्रह में पदाय गण, गभ भादि का धान होता ६। इसकी स्थिति एक समय की | स्यण्जनात्रप्रए --भयादग्रइ से पहल दोने बात्ता भत्पन्त ध्रस्पक्त ज्ञान स्पण्जनाबग्रइ तात्पर्य्य पहई दि इन्द्रियों का पदार्थ साथ मम्बन्प दोता तब “उिमपीदम्‌” (पह इछ ६)। णैसा भ्रम्पष्ट धान होता ६। यही प्रान भ्पविप्रइ £। दपसे पत्ते होने बला अत्पन्त सत्पर जान प्यम्गनाएहप्रद

हर मी सेठिया जैल पश्चमाता

माल्ला झादि। एक ही सोने की क्मिक अरयस्‍्तदाभों में रहने वाला सुवर्शत्य | (प्रमाणमबतस्वाश्षेकाकदवार परिच्छेत » वा ) ६०--.्रब्प फ॑ दो मेदः--(१) रूपी (२) भरूपी ) हूुपी।--वर्ख, गन्भ, रस भौर स्पर्श जिसमें पाये जाते हों भौर णो . मूर्स हो उसे रूपी द्रस्प कहते हैं। पुदुगल द्रष्य डी रूपी होता है। भ्रूपीः--जिसमें दर्स, गन्ध, एस, भौर स्पशे पायें जाते हों तथा दो झमूर्च हो ठसे भरूपी कहते हैं | पुतृगल के प्रति रिक्त समी धस्य झरूपी हैं। ( तरदाण सुत्र अध्याय था ) ६१--रूपी के दो मेद*--(१) भ्रष्टस्पर्शी (२) भतु ःस्पर्शी अरष्ट स्पर्शीः---पर्णे, गन्‍्ब, रस, तथा सल्पान के साथ जिसमें इनका, भारी भादि भाठों स्पर्श पाये जाते हों | उसे भ्रष्ट स्पर्शी पा भठफरसी %इते ६।

चतृःस्पर्शीः--र्ण, गन्ध, रस तथा शीत ठप्थ, रूच भौर स्निर्प ये चार स्व मिसमें पाये जाते हों उसे चतुः स्प्शी या चौफरसी कश्त ई।

( मगवतो शतक १४ रऐ शा ५)

६२--शधश की स्पारुपा झौर मंदइ--बहुत से मिले हुए पदार्थों

में से फिसी एक पदार्थ के खुदा करने बाले को सदश कइत हैं

सचश दा मेद --(१) भास्म भूव (२) झतात्म-मूत

श्री जैन सिद्धास्व चोक संप्रह, प्रझस माग श्३ृ

आस्म-भूव लघश ---भो लघस पस्तु के स्वरूप में मिश्ता हुआ हो उसे आस्ममूत शषण फहते हैं। जेसे भम्नि का लपण उप्णता / जीव फा छघय पेंतन्प |

अनात्म-भूत क्चण --जो लदश वस्तु फ॑ स्वरूप में मिला हुभा दो उसे भनात्ममूत लदण फइते लैस दयडी पुरुष फ्ाा लघण दयढ़ | यहाँ दयर, पुरुष से प्रतग [ फ्रि भी बट दयढी फ्रा भन्प पुरुषों से मत्तग कर उसक्री पहिचान

फरा ही देता (स्पास दीपिका प्रकाश )

प्र भी सठिया जैन प्रन्यमाजा

तीसरा वोल

( दोज संक्पा $३ से १४८ तक ) 9 ६३ तत्द की व्यास्या और मेदः-परमार्प को सख्य इडते | तस्‍्त तीन हैं -(१) देग, (२) गुरु, (३) घर्म दँवः-कर्म शत्रु का नाश फरने वाल, भठ्यरद्द दोप रहित, सर्वञ्न, वीवराग, दिहोपदेशफ भरिइन्द मगगाद्‌ देग ( योगशात्त्र प्रकाश रक्षोक से ११) मुरु -निर्प्रन्य (परिप्रह रशित) कनक, कामिनी स्पागी,पंचर महा हत क॑ घारफ, पांच समिति, तीन गुप्ति युक्त, पटकाय के वीषों के रचक, साईस गुणों सं सूपित भर बीवशग की आजा झुसार विचरने बाल, धर्मोफ्रेशक घाधु मद्दास्मा गुरु है। ( भ्ांगशास्त्र प्रकरण श्कोक ) धर्मः-सर्वक्ष मापित, दयामय, विनयमूल्क, भारमा और कर्म का सेदपान कराने बासा, मोद्र शत्त का प्ररूपक शास्त्र पर्म तत्म है। तोट।--निम्रप में झात्मा देब | श्रान ही गुरु भौर उपयोग दी घमे है | ( इस स॑भ्ट अधिकार शक्तांक २१ २० २६, कसी रीका ) ( बोग शास्त्र प्रकरण रक्ोक से ११ तक ) ६9:-सचा फ़ा स्वरूमः-धच्ता अर्थात्‌ बस्तु का स्वरूप उत्पाद, स्पप आर धौम्प रूप है। भावश्यक मसप गिरि द्वितीय संड में सचा के सचय में - +उच्पफ्शेइ बा विगमेश वा घुबेइ वा!” कड़ा ज।

भी जैन सिद्धान्त वोक्ष ्रर

उस्पाड१-नपीन पर्याय छी उत्पत्ति शोना उत्पाद ई। स्यय (विनाश) -विधमान पर्याय का नाश हो जाना स्पय $ | प्रौर्प)-द्रब्यत्प रुप शाश्वत अंश का समी पर्यायों में अ्रमुशत्ति

रूप से रइना प्रीन्‍्य है।

उत्पाद, ध्यय और भौश्य का मिन्‍न स्वरूप होते हुए मी ये परस्पर सापेच ईं | श्सीलिए वस्तु द्र्य रूप से नित्प और पर्याय स्प से भनिस्प मानी गई है।

( रुस्‍््याय सूत्र अध्याय वों स्‌ू० २६)

६४-छतोफ़ फी सख्यारूपा भौर मेद/--घमास्तिफाय और अपमा-

स्पिकाय से व्याप्त सम्पूर्य द्रम्पों फ्रे प्राधार रूप चौदइ राजू परिमाण आकाश सण्ड फ्ो सोक कहते हैं छोक का आकार जामा पहन फर फमर पर दोनों हाथ रस कर चारों भओोए घूमते हुए पुरुष खैसा ई। पैर से फ़मर तक का माग अधोलतोक | उसमें सास नरक हं। नामि फी जगह मध्य तो उसमें ढ्ीप स्द्र ई। मनुप्प भार तियेम्घों की सती | नाभि के उपर फा माग ठ्मक्तोफ ६। उसमें गरदन से मीसे के भाग में बारइ दपलोक ६। गरदन फ्े भाग में नय॒ ग्रैदयफ हं | पद कफ माग में पांच अलुत्तर पिमान है. भार मस्त के भाग में सिद्ध शिला है

छोक फ्रा पिस्‍्तार मूल में सात राजू ऊपर फ्रम से पसते हुए सात राजू फ्री ऊँचाई पर पिम्तार एक राजू हैं। फिर क्रम से घर छर साढ़े नो साड़े दस राम फी ऊँघाई पर पिस्तार पांच राज ६। फिर क्रम सघर कर मूल से चौदई

श्र मरी सठिया जैन धन्यमाजा

राजू की ऊंचाए पर एक राजू का विस्तार ६ै। ऊष्दे भार झघो दिशा में ऊचाह चादह राजू ६)

तांझ के तीन भेद) -- (१) ऊप्जेलोझ, ( २) अपोक्षोक, ( ३) तिर्यक्लोक!

र््पोरू --मेरु पर्षत के समतस्त भूमि माग फ्रे नौ सौ योजन उपर ज्पोतिष 'बक्र के ऊपर का सम्पूर्ये श्षोफ ऊप्यक्ताफ़ है। इसका भाऊ़ार मृर्दग जैसा ६। यह कुछ रूम सात शजू परिमास ६।

अपोछ्ोक/---मेरु पर्वत छे समतत्त भूमि माग फ्रे नौ स्तौ योजन नीचे का शोक भपोक्तोफ़ ६) श्सफ़ा आकार उल्टा किपे हुए शराब ( सफ़ोरे ) जेस ६। यह इछ भण्छ सात शाजू परिमाण है|

तिर्षक्लोकः--उप्पशोक भ्रीर भ्रपोत्तोफ फ्रे शीत में झठारइ

धो योजन परिमाथ ठिघा रश हुभा छोर तिपंकलोफ ई। इसका भाफार राछर या पूर्ण अन्द्रमा खैसा ६।

( क्ोक प्रकाश साग सग १५) ( अमिषान राजस्कोप माग $ पप्ठ ३६५७ )

( भगबती शतक ११ ७छ श्न्यू डर) ६६-यन्म की ब्याक्‍्या और मेदा--र्प मदर का स्पूल शरीर छोड़ कर सीष वेवस भौर कार्मस शरीर के धाथ जिग्रह गति डाश भपने नव्रीन उत्पत्ति स्थान में लाता | बहां नबीन मद पोग्य स्थृछ शरीर फ्रे छिए पहले पह्त भाइर

ग्रहथ करना चन्‍्म कश्शात |

श्री जैन मिद्धास्व मोल संप्रह, प्रथम माग पक बन्म फे तीन भेद --- ( ) सम्मूद्धिम, ( २) गर्म, ( ) उपपात | सम्मूदिम जन्‍म --माता पिता के सयोग के पिना उत्पत्ति स्थान में रद्दे ुए भौदारिक पुदुगल्ों फ़रो शरीर के लिए प्रदण फरना सम्पूर्थिम अन्‍्म फइलाता है गर्मजन्म --उत्पत्ति स्पान में रद्दे हुए पुरुष के शुक्र भौर स्त्री फे शोखित के पुदुगलों फो शरीर फ़े लिए प्रहय फरना गर्मबन्म ई। भर्था३ माठा पिता के संयोग ने पर जिसफा शरीर बने ठसके जन्म फो गम अन्म कहते ई। गर्म से होने याले स्रीव तीन प्रफार होते हैं। (१) भणएढदज ( २) पोठज ( ) जरायुब। उपपात जन्म --ओ जीष देवों की उपपात शय्या सथा नारफ़ियों फ्े ठत्पचि (इुम्मी ) स्थान में पहुँचते ही भन्तय इर्ख में पैकिय पदूगलों को प्रदण करके युवावस्था को पहुँच लाय उसफे जन्म को उपपात जन्म कहते ह। दस्थाप सूत्र अप्याय शसूत्र ३९ ) ६७-पोनि की स्णस्या भौर मेद --उत्पत्ति स्पान भयात्‌ जिस म्पान में जीव अफ्ते फार्मेण शरीर को भ्रौद्धारिकादि स्पूल शरीर लिए प्रइण किये हुए पृदुगों कु साथ एक- मंक पर देता है। उसे यानि ऋश्त है योनि के भेद इस प्रकार ईै-- (१) सभितच्त._ (२) भ्चित्त_ (३) सबित्तायि् (१) शीव (२) उप्ख (३) शीतोप्स (१) संदत्त (२) विद (३) संवृच्चविष्तत्त !

श्द सठिशा जैन मल्ममाला

सचिच योनिः--जा योनि जीव प्रदेशों से स्पाप्त हो ठसे सचित्त यानि कहते भपित्त यानिः--जा योनि जीव प्रदेशों से स्याप्त हो उते भ्रणित्त यानि कहते ई। सचिशाधितत योनिः--जो योनि किसी माग में सीबपुक्त हो भौर छिसी भाग में जीव रद्धित हो उस सपभ्रिच्ाचित्त गोनि कहते देश भार नारकियों की मतिच यानि होती है। गर्म जीवों की मिभ्र योनि (स्चित्तायित्त योनि) भौर शेष सीर्षों की तीनों प्रकार की योनियाँ होती ६। शौत पोनिः--मिस उत्पत्ति स्पान में शीत स्पश दा ठसे शीत योनि कइत हैं। उप्य योनि।--जिस उस्पत्ति स्थान में उप्स स्पर्श हो बह उप्ध योनि ६। शीवाप्ण योनि --विस उत्पत्ति स्थान में कुछ शीत भौर इछ उप्प स्पर्श हो उस शौवाप्ण यानि परत £। दंदता झार गर्मज जीवों के शीताप्ण योनि, देव- स्फाय के उप्ण योति, नारटीय जौजों के शीत भौर उप्ल यानि तघा शप जीयों के तीनों प्रकार की यानियाँ दोती ई। मंहृत योनि ---भो उस्पत्ति स्पान इका हुआ या दवा दशा हो उसे मेंइच यानि ऋइत £। विश्त यानि --3ी उस्पत्ति स्थान सुला हृभा हा उस विद्च योनि पडव है सशत्तरिशत पानि --आ उत्पत्ति स्थान इंथ इस हुथा झौर

श्री ज्रेम सिद्धान्त बोज संमइ, प्रमम भाग ह्ध

इुछ खुला हुआ हो उसे संवृत्त पिह्ृत योनि कहते हैं मारफ, देव और एकेन्द्रिय जीवों के सह, गर्म जौबों के सब पित्त और शेप लीयों फे विशृष् योनि होती है।

( ठायांग है हदेशा ! सूत्र १४० ) ( दस्त्वाय घूत्र अध्याय सूत्र ३8 )

दै८--वेद फ्री ब्यात्या और उसके मेदः--मैथुन फरने री अमित्षापा फो पेद ( माव पेद ) कहते | यह नोकपाय मोइनीय कर्म के उदय से शोता है |

“स्त्री पुरुष आदि के याह्म चिन्द्र द्रस्पवेद हैं) ये नाम कर्म के उदय से प्रकट होते

पेद के तीन मेद---(१) स्त्री पेद (२) पुरुषपेद (३) नपु सफ बेद |

. स्त्री पेद--जैसे पिच के बश से मपुर पदार्थ की रुचि होती उसी प्रकार जिस फम फे उदय से स्त्री को पुरुप ऐे साथ रमथ करने फौ इच्धा होती है | उसे स्री पेंद कहते |

पुरुष भेद---जैस कफ ये वश से सं पदार्थ फ्री रुचि होती इं। पैसे दी जिस क्रम के उदय पुरुष को स्त्री के साथ रमण करने झी इच्छा दोती उसे पुरुष वेद कहते है|

$ नपृ तक पेद--जैस पिच भौर फफ के वश मय मे प्रति

रुचि द्ोती ६। उसी तरइ जिस फर्म उदय से नपु सर को स्त्री भर पुरुष दोनों के साथ रमय करन छगी भमिलापा होती उसे नपु घर पेद कदते £ै।

हा अ्री सठिया जैन पस्बमाजा

नोट--दन तीनों, स्वरीबेद, पृरुपमेद भौर नपु सफेद फ्रा सवहूप समझान फ्े छ्िए क्रमशः करीपामि ( छाणे की आग) एसाएि भौर नगएदाह के दृष्टान्त दिये चाते ईं।

( अभिषान राजन्द कोप मांग पृष्ठ १४२०)

(ृएठकक्प प्देशा ४) ( कमप्रस्य पहला मांग गाधा मेरे ६६-जीब के सीन मेद-- (१) प्रयत (२ ) असंयत ( ) संयधासंयत | घंयत--जो सर्व साबध् ध्यापार से निषष्त हो गया | येसे से चीददवें मुशस्थानवर्ती, भौर सामापिक भादि संयम बार साधू की संयत कहते ) असेयत--पहले गुणस्पान से सेफर चौये भुदस्थान बाले भवि (दि सीज को झ्रसयत कहते हैं ! संयतासंयतत--जो छुछ अंशों में तो विरति का सेबन फरता भौर इट्टू भंशों में नहीं करता ऐसे देशबिरति को भर्या पश्चम गुणम्पानबर्ती भावफ फो सयवासंयत कइते हैं| ( संगबऱी शतड़ झहेशा सूत्र २३० ) ७०--शनस्पदि के तीन मेद-- ( १) घंख्याद जीविक (२) असंस्यात लीविक ( ) झनन्त लीविक | सरूपात जीगिक--शिंस बनस्पति में संरुपात शौष हों

सरूपात सीधिक बनस्पति फइते हैं। बेसे नाति से छः हुआ पृत्त |

श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, प्रथम माग १4

अरसंस्यात दीविछ --जिंस पनस्पसि में भसस्यात जीव हों उसे असस्यात जीविफ वनस्पति फइते ६4 जेसे निम्म, भाग आदि फे मूल, ऋन्द, स्कन्घ, छाल, शाखा, भंडुर पगैरइ। | झनन्द लीविफ ---बिस वनस्पति में अनन्त जीष हों उसे भमन्त सीपिक वनस्पति छडते हैं। मेप्ते लमीझंद-शभ्रालू भादि। ( ठार्यांग र० सूत्र १४१ ) ७१-मनुष्प के छीन भेद-- (१) कर्म भूमिज (२) झरकर्म मूमिज (३) भ्न्वर द्वीपिक कर्म भूमिज ---कूपि (सतेसी), पाझिल्प, सप, संयम, अरलुष्ठान पगैरइ फर्म प्रघान भूमि फो कर्म भूमि रुइते हैं! पांच भरत पांच ऐशवत पांच मददाविदेह चेत्र पे १४ थेत्न फर्म भूमि हैं। कर्म भूमि में उत्पन्न मजुष्प कम-मूमिल कइलाते ई। ये भ्रसि, सत्ति भौर कृषि इन सीन फ्र्मों द्वारा निर्वाद फरते हैं।

अकर्म भूमिज--कपि (खेती), वाशिन्प, तप, धमम, भनुष्ठान बगेरइ कर्म जड्मां नहीं होते उसे भक्तर्म भूमि कहते ई। पांच हैमबत, पांच देरणयदत, पांच इरिवर्ष, पांच रम्पकप, पांच देवकुठु और पांच उत्तरइरु ये तीस,पेत्र भकरम मूमि हैं। इन घत्रों में उत्पन्न मनुष्य अफ़र्म-मूमिन कहताते हैं। यहां भसति, मसि झौर कृपि छू स्यापार नहीं होता इन छेषों में दस प्रकार फ्रे कल्पृष होते हैं। इन्दी पे भरकमे-मूमिज भलुष्प निर्षाद फरते हैं। कम करने से एमं र्पएचों द्वारा मोग प्राप्त होने से इन धेत्रों को मोग-मुमि भोर यहां के मनुष्पों को भोग-मूमिय कहते हैं। यहां स्त्री पुरुष

डरे शी सठिया जैन मन्‍्यसाबा

मोड़ जन्म लेते £। इसलिये इन्हें छुगलिपा माँ कहते ६।

अन्तर ड्रीपिक---खबय सप्दर में बच्चा श्मिपत्त पर्वत के पूरे और पत्मिम में दो दो दाह हैं। इसी प्रकार शिववरी परत के भी पूर्व भौर बस्चिम में दो दो दाई ह। एफ एक दाग _ पर साख सात दीप हैं। इस प्रकार दोनों पर्यतों की भाठ दाड़ों पर ऋष्पन द्वीप ईैं। छप्रथ सप्नद्र के बीच में होने ऐे अपवा परस्पर दीपों में भन्वर इोन ते इन्हें भ्रन्वरीए कहते है। भरकम मृमि छझी हरइ इन भन्तर ट्टीपों में मी कृषि, वाशिन्प भादि किसी मी दरद कर्म नई होते। सह्वां पर मी कल्पइद दोत ईं | भन्तर दीपों में रहने पाले मनुष्य भ्न्तरद्वीपिफ कशाते £। ये मी छुगलिमा ई।

( ठासांग इहेशा सृत्र ११० ) ( पभ्मच्रय्या प्रथम पत्‌ खू० ३७ ) ( औषामिगम सूत्र प्रति० सूए ऐै०७ )

७२--कमे तीना-- (१) भत्ति (२) मप्ति (१) छूपि अमिकर्म/---तरुपार आदि शस्त्र घारस कर टससे अरीबिका फरना भ्रसिकर्म ६। सैध सेना की नौएरी मस्तिफ्म --संखन दारा घरावीषिक्म करना मसिफर्स है। इृपिकर्म--ऐती द्वारा भ्राजीविका करना कृपिकर्म

( अमिषान राज॑स्द्र क्रेप भाग पृ ६४६ ) (,वीदरामिसस प्रशिपत्ति श्लेशा 2 सघू १११) (उख्युल बयाली पपभा सु० १४-१४ प्र० )

अभी डैन सिद्धान्त वो संपह, प्रथम मांग श्३े

७३-तीन भच्छेप -- (१) समय (२) प्रदेश (३) परमाणु

समय/--काछ के अत्यन्त म्र॒दम भंश फो, बिसफ़रा पिमाग हो सके, समय ऋइते हैं

प्रदेश --घसमास्तिकाय, अ्रघर्मास्तिकाय, 'भाकाशास्तिकाय, जीपास्विकाय और पुद्गलास्तिकाय फ्रे स्कन्ब या देश से मिले हुए भतिपत्तम निरवयध अश को प्रदेश कहते हैं।

परमाशुः--सकन्घ या देश से झक्तग हुए निरंश पृद॒गत्त फो परमाणु कहते हैं

इन तीनों का छेदन, मेदन, दश्न, ग्रहण नहीं हो सकता | दो विभाग हो सफ़मने से ये भविमागी हैं। सौन बिमाग हो सकने से ये मध्य रहित हैं। ये निरवयष हैं। इस सिए इनका विभाग मी समय नहीं है

( ठाणांग रुह्देशा सूज १६६ ) ७४-जिन वीन।--

( ) अभ्वषि ज्ञानी जिन ( ) मनः!पर्यय ज्ञानी जिन ( ) फेबल क्ानी जिन

राग ऐप (मोह) फो चीतने वाले विन फहलाते ईं। फ्ेब्श झ्ञानी तो सर्बभा राग ऐेप को लीतने वाले एवं पूर्ण निश्नय प्रत्यध् ड्वानशाली शेने से साधात्‌ (उपचार रशित) जिन हैं। अवधि ज्ञानी मौर सनः पर्यय ध्ानी निम्रय-प्रस्प ज्ञान बाले होते हैं इस लिए पे मी जिन सरीख्ते ने से

श्दृ भी छठिया सैन प्रम्भमादा

(१) ययाप्रद्चिकरण ( २) अपूर्रकरय (३ ) भनिदृत्तिरूण यशाप्रर्तिकरण ---झस्यु फमं सिवाय शेप साप्त कर्मों में प्रत्यक्ष की स्थिति को भन्‍्त कोटाकोरि सागरोपम परिमाण रख कर बाह्टी स्थिति को च्य फर देने बाले समक्तित के अनुऋस भात्मा के प्रध्यवसप्प विशेष फो कहते हं। अन्त “फोड़ा कोड़ी (कोटा कोरि) का भ्ाशय एफ कीड़ा कोड़ी में पन्‍्योपम के भर्सस्पातवें माग न्यून स्पिदि से ै। अनादि फप्लीन मिध्यात्दी जीब फर्मों पी स्थिति को इस करण में ठसी कार पटाता जिस पप्रार नदी में पड़ा हुआ पत्थर घिसते पिसते गोछ शो साता £ भषगा धुणादर न्याय से यानि धृण कीट से इंतराते हृतराव जिए प्रकार काठ में भधर गन खाते है। पथाप्रवचि करण करने वात्ता वीद प्रीयिदेश-राग ट्रेष की तीअवम गोठ के निर्ट भा माता पर उत्र गाँठ का मेद नहीं कर सक्ता। अमष्य जीब मी पथाप्रइृत्ति करण कर सकते अपूर्त फरश:--मह्य जीव यमभापरचि करण से भषिक गिशृद परिमास पा सता भर शुद्ध परिणामों में रागग्रेप की सीजदप गठि का दिल्‍न मिन्‍न पर सकता ६ै। लिप्त परि शाम विशपर से मम्प जीव राग द्वेष फ्री दुर्भत्र प्रौभ फ्री लाभ साठ ई-नष्ट कर दता ६ै। उस परिशाम ऐप अपूर्व फरण करत | ( विराप्राबरपक साप्य गामा १२०२ स॑ का नोट--औ पमद के छाल $ दविपय में मतमंद | छाई हो झपूर्व करय में प्रीअमेद मानते है ऋऔर हाई

सैन सिद्धान्त बोक संप्रह, प्रथम भाग श्र

अनिषृत्तिफरस में | भौर यह मी मन्तस्म हूँ कि अ्रपूष करस में प्रन्धि मेद भारम्म शोता है भौर भनिद्ृषिकरण में पूर्स होता है | भपूर्ष करण दुघारा होता है पा नहीं, इस पिपय में भी द्दोमतहे। अनिईचिझरण+---भपूर्षफरण परिणाम से जब राग देप की गांठ टूट जाती है। तद तो भौर मी भ्रधिफ पिशुद्ध परिझ्याम ता है। इस बिशुद्‌ परिणाम फ्लो भनिश्सिस्तस कइते हैं| अनिदृवत्तिकरण फरने वाला खीब समकित फो श्वरय प्राप्त फर छेता दै। ( ऋषश्यक मकबगिरि गाया १०६ १०७ टीका ) ( विशेपाबश्यक सांप्य घाबा १२०१ १२१८) (्‌ प्रबचभसारोद्धार डार २२४ गांभा ११०२ टीका ) ( करे प्रस्प वूखरा मांग साया टीका )

( झागमसार ) ७६--भोद मार्ग फ्रे तीन मेद -- (१) स्म्पगृदशेन (२) सम्पग॒ज्ञान (१) सम्पक चारिय सम्यगदधन/--पश्वार्थ भद्धान फो सम्पगृदशन झइये हैं। मोह- नीय फर्म के चरम, उपशम या दयोपरशम से यह उत्पन्न दोता है! सम्पगृजान -ग्रमाझ् भीर नय से होने वाला जीयादि धस्‍्तों का पययार्य ज्ञान सम्पगन्नान ई। वीयान्दराय क्रम छे साथ झ्ानावरशीय कूमे फे ध्य या चगोपशम दोने से यह उस्पभ्न होता है। प्रम्पगूजारित्रः-सघार की फ्ार्थभूत ई्सादि क्रियामों फ्म त्याग करना भोर सोच की झारणभूत सामामिक भादि

श्छ और सेठिया सै प्रस्थमात्ा

जिन कहखाते हैं ये दोनों उपचार से लिन हैं और निमय प्रत्यक्ष ह्ञान ही उपचार का ब्यूरथ है ( ठाणांग रुइशा सूत्र २२० ) | ७५-दुःसंक्षाप्प तीना--वो दुःख पूर्वफ कठिनता से समम्पये जाते हैं। थे दृःसंज्ाप्प कइलाते हैं ;॒ दु्सज्ञाप्प तीन:--( ) द्विट (२ )मूड़ ( ) स्युदृ ग्राहित हिएा--उच्च पाष्यास्याता के प्रति होने से धो खीब उपदेश अज्ञीफार नहीं करता बद दिए है | इस शिए बह दू'संप्नवाप्य होता है मूइः--गुझ दोप काया झजान, ध्रविवेकी, मूढ़ पुरुष स्याक्याता के टीक उपदेश का अनुसरण पथाथ्व रूप से नहीं करता | इस शिए बह दु'संक्ाप्य होता है ब्युव्‌ ग्राइित।--झस्पास्याता के ठफ्लेश से विपरीत घारया जिसमें जड़ फकड़ गई हो उसे समम्यना मी कठिन है | इस लिए घ्युवृ ग्रादित मी इ्सकज्षाप्प होता है। ( ठायांग इंऐशा सूत्र २०३ ) ७६-घर्म के तीन मेद-- (१) भुत घ्म (२ ) चारित्र घर्म (३) भस्तिस्यय धर्म नोट--भौत्त नम्बर १८ में भतघर्म भौर,चारित्र धर्म की ध्यासू्पा दी जा घुझी है | अस्तिझाय घर्म-घर्मास्तिस्थय झाादि को भस्सिकाय घर्म कइते हैं। ( ठाझ्मांग इ७ सूय ६८८ )

भी जैस सिद्धान्त वोज़ संप्रइ, प्रयम माग श्र

(१) सुअधघीत, (२) झुष्याद भर (३) सुतप के मेद से मी घमे दीन प्रकार का है -- (१)-सुभघीत --- फाज् विनय आदि फी आाराघना पूर्षफ गुरु के पास से सत्र रूप से पढ़ा हुआ ज्ञान सुभघीत कइलाता है। (२)-मुष्यात --- गुरु के पास से उन्हीं सत्तों का अर्थ सुन कर हृदय में घारण करना सुष्यात फश्लाता ६। (३)-पझुठप)-- इइसोकादि क्री आशंका से रहित तप सुत्प (सुठपस्यित) अल क। रह (ठा० ए० है सूत्र २१७ ) ७७ दर्शन फ॑ शीन भेद - (१) मिथ्या दर्शन (२) सम्पग्‌ दर्शन (३) मिश्र दर्शन (ठाणांग सूत्र १८४) मिष्या दर्शन-मिष्यात्य भोइनीय कर्म फ़े ठदय से भदेय में देवपुद्धि भौर भघम में घर्मेयद्धि भादि रूप भात्मा के पिपरीस भरद्धान फो मिथ्या दर्शन पड़ते है। ( मगजती शतक स्ऐशा २) सम्पगू दर्शन-मिध्योस्थ मोइनीय फर्म फ्रे दय उपशम या चयोपशम से झार्मा में जो परिणाम शोवा उसे स्म्पग्‌ दर्शन कइते £ैं। सम्पग्‌ दर्शन शो जान पर मति आदि अप्नान मी सम्पग्‌ ज्ञान रूप में परिणव हो जाते £। मप्र दर्शन >-मिश्र मोइनीय कर्म फे उदय स॑ भात्मा में कुछ अयथार्थ दष्त्त थ्रद्धान शोने पो मिश्र दर्शन कहते £। (सण्शा० ८० २सूप्र १९०)... (ठा० ३३९ श्सूध १८४) ७८-करप फी प्पाग्या भौर मेद--भात्मा फे परिणाम विज्लेप फो फरण फदते हैं। बरण फे तीन भेद:

रद शी सेठिया प्रस्यमाला

(१) यथ्राप्रदत्तिकरण (२) अपूर्वसरश (३) अ्रनिवृत्तिकरस [

पथाप्रवूतिकरस -आयू कर्म क्र सिबराय शेप सात फर्मो में प्रस्यक्ष की स्थिति फो अन्त झोटाकोटि सागरोपम प्रिमाय रख कर बाकी स्थिति को दय कर देने बारे समक्तित के सजहन आारमा के श्रप्यवसाय पिशेष की यथाप्रहनचिकरस कहते ६।

अन्य फोड़ा को डी (कोट फ्लेटि) का भाशय एक फोड़ा कोड़ी में पश्योपम के धर्सस्यातवें भाग न्यून स्पिति पे है|

अनादि कालीन मिध्यात्वी सीद फर्मो फौ स्थिति को इस फरण में उसी प्रकार घटाता जिस प्रकार नदी में पड़ा हुआ परपर घिसते मिसते गोख हो खाता अथवा घुणादर न्याय से पानि घुश रीट से इृतरावे झुतराव शिस प्रकर काट में झच्दर बन जाते है। यपाप्रइृत्ति रूरझ फरने बाशा नीव ग्रन्थिदेश-रांग

ट्वेप को सीजदम गांठ के निकट भा नाता पर ठस गांठ का भेद्ध नहीं कर सकता | भ्रमख्य जीब मी यथपाप्ररि करस कर सकते

अपूर्ष फरणु“-मह्य जीययपाप्रतचि करस से प्रभिक विद्धद परिमाण पा सकठा और शुद्ध परिणामों में रागडेप की सीघ्रठम साठ को छिलन मिन्‍न कर सफ़्ता ६। जिस परि शाम बिराप स॑ मस्प जीव शाग द्वेप फी दुर्भप्र प्रत्यि को

शांप श्रादा ई-नष्ट झर देता है| उस परिसाम फो अपूर्ण करण बरत है |

( विशपानरमक भाष्प गाया १९०१ से दे नोट>-म मिमेद फाज्त गिपय में मतमेर | काए हो शपूद् फर्स में प्रन्पिमेंद मानते हैं भर कोई

श्री जैन सिद्धास्त वो संम्रह, प्रथम माग ड्छ

अनिह्ृसिफरश में | और मी मन्तम्प है कि भपूरय फरस

में प्रन्थि मेद आरम्म होता है भौर भनिवृत्तिकरय में पूर्ण होता है। भपूर्ध करण दुयारा होता है या नहीं, इस पिपय में मी दो मत है।

अनिषृवविफरणः--भपूर्स करण परिणाम पे जम राग डेप फी गांठ

टूर जाती है। तर सो भौर मी भधिफ बिशुद्ध परिणाम होता है। एस विशुद परियाम फो भनिद्तिररस फदते ईं। अनिद्वचिफरस करने माज्ञा जीप समक्तित फो भवरय प्राप्त कर छेता है।

( झावश्बक मकृयगिरि गाथा १०६-१०७ टीका )

( बिरोपादश्यक सांष्य गाया १२०२ से १४१८)

(्‌ प्रबचससायेद्धार द्वार २९४ गाया १३०९ टीका )

( कर्म प्रन्थ दूसरा साग गाया रै टीका )

( झ्ागमसार ) ७६--मोष मार्ग के तीन मेद।--- (१) सम्पगदर्शन (२) सम्पगन्ञान (३) पम्यक्त्‌ चरित्र ! सम्पगदधनन/--तश्वार्थ भद्धान छो सम्पगृदशन फइये हैं। मोइ- नीय फर्म फे चय, उपशम था च्ययोपशम से यह उत्पन्न शोढा है। सम्पगृज्ञान -प्रमाण और नय से होने वाला जीवादि तस्तों का ययाथे शथ्वान सम्पगृज्ञान ह। वीयान्तराय फर्म के साथ ज्ानावरसीय कम के चय या झ्ययोपशम दोने से पह उत्पन्न होता है सम्पगघारित्र/-संसार की कारणमूत इहिसादि क्रियाभों झा स्पाग करना भौर मोत् फ्री फारसभूव सामायिफ भादि

श्ष श्री सेटिया डैन प्रस्थमात्रा

क्रियामों का पान फरना सम्पगयारित्र ईं ! चारित मोदनीय के धय, उपशम या क्योपशम से यह उत्पन्न होता हूं ( इत्तरास्पयन अष्ययन रेप गाया $ ) ( ठस्बार्व सूत्र अष्याय सूत्र १)

८०-समकिस के दो प्रकार से दीम मेद---

(१) झारफ (२) रोचफ (३) दीपक। (१) औौपरशमिक (२) धापिक (३) चायोपशमिदक |

कारक समकिता-जिस समफ्रित के शोने पर सीब सदनुष्टान में अद्भा करता है। स्वपं सदनुप्ठान का झाचरस करता तथा इसरों से करदादा है बह फ्रारक्ध समक्ित है। पहन पप्रध्तित दिशुद्ध भारित्र बाल के समसनी चाहिए।

रोचक समकितः-झिस समक्रित के होने पर शीम सइनुप्टान में छिफ रुचि रखता परन्तु सदचुष्टान का झाचरश महीं कर पाता बह रोचक समकित पह समक्तित चोपे भुबस्पान- बर्ती घीष के जननी चाहिए | प्लेसे भ्रीकप्णजी, भ्रेशिक महाराब झादि।

डीपफ समकित--भो मिध्या दृष्टि स्तर्य तत्भद्धान से शून्‍्प होते हुए दूसरों में उपदेशादि द्वारा दक्य के प्रति भद्धा उस्पन्न : करता उसकी समकित दीपक समकिश बरसाती ६। दीपक समफ्ितघारी मिप्पाद्टे शीब उपदेश झावि रूप परिसाम हारा दसरों में समक्षिद उत्पन्न होने से हसझे

श्री जेन सिद्धास्व बोल स॑प्रह, प्रथम माग श्३

परिणाम झसरों क्री समकित में कारण रूप हैं। समकित फे कारस में कार्य का उपचार झर भाशाय्यों ने इसे समक्तित कई है | इस लिए मिध्या रष्टि में उक्त समकित इोने के सम्बन्ध में कोई शंका का स्थान नहीं है ( विशेपाबश्यक माप्म गाया २३०५ पर १०१४ ) ( द्रस्प क्रोक प्रकाश तीसरा सर्ग ३६८ से ६७० ) ( घमम संप्द अधिकार शक्नो? 7२ टी० प० १६ ) भ्राषक प्रक्मप्ति गा० ४६-५० ) झपशमिक समकितः--दशेन मोइनीप को तीनों भौर भनता- नुष॑धी की पारों प्रकृषियों के उपेशम से दोने बाज़ा भात्मा का परिणाम झौपशमिक समकित है। भौपशमिक समकित सर्वप्रथम समकित पाने बाले तथा उपशम श्रेणी में रहे हुए जीबों क्र शोता है। चायिक पमकित।--अनन्तानुब घी घार फ्रपायों के भौर दर्शन मोइनीय की तीनों प्रकृतियों के तय होने पर भरी परिणाम पिशेष होता है बह चायिक समक्िति है चायोपशमिक समकितः--उदय प्राप्त मिध्यास्व के क्षय से भौर अनुदय प्राप्त मिध्यास्वर के उपशम से तथा समक्षित मोइनीय के उदय से होने वाक्षा भात्मा का परिशाम दायोपशमिक सम्पक्त्व है | (६ भ्रमिषान साड्म्द्र कोप साग पृष्ठ इ६१ ) ( प्रबचन सारोद्धार द्वार १४६ गाया ६४१ से ३४४ ) ८१-समकित के तीन लिंग! - प्रन्थ पशल्ला साग ग्राघा १४ )

(१) भुत धर्म में राग (२) चारित्र धर्म में राग ( ) देव गुरु को देयाबच्च का नियम |

श्द प्रौ सठिया मैन प्रन्यमाका

क्रियाशों झ्वा पातन करना सम्यगुभारित्र हे | भारितर मोइनीय छे धय, ठपशम या दयोपशम से यह उत्पन्न होता दे ( इत्तराप्पपन भभ्बयन २८ गाथा ३० ) ( ठस्वाय सूत्र अपष्पाम सत्र १) ८८०-समफ़ित के दो प्रकयर से तीन मेद----

(१) कारर (२) रोचफ. (३) दीफ | (१) भीपशमिक (२) द्ायिक (३) धायोपशमिक।

कारक समकितः-जिस समकरित के होने पर खीग सदनुष्ठान में अद्भा करता है। स्वयं सइनुप्यन का भाचरल करता हपा रसरों से कराता है | ब६इ कारक समदित है। पह समकिस विद्युद चारित्र बाते के समस्नी चाहिए। का

रोपक समक्िता-जिस समझ्रित के दोने पर णीव सइनुप्टान में सिर रुचि रखता है। परन्तु सदनुष्टान का झ्राचरल नहीं कर पाता बह रोचक समक्तित है | पह समकित चौथे भुसस्पान भर्ती दीब फ्रे घाननी पराहिए। सेसे भ्ीरृष्णणी,-भेशिक मशरात्र भ्रादि |

दीपक समकित--दो मिथ्या इष्टि स्वयं तच्यभद्धान से शत्प होते हुए दसरों में उपदेशादि द्वारा सन्त छे प्रति भद्धा उत्पन्न करता उसकी समकित दीपक समकद्तित बदशाती ६। दीपक धमक्ितधारी मिस्पाइष्टि श्लीग के उफ्ेश आदि रूप परिणाम दास इसरों में समक्रिस उत्पन्न होने से उसके

ओऔ जैम सिद्धास्व घोल संप्रह, प्रथम भाग ड्घ

परिश्याम दूसरों की समकित में कारण रूप हैं। समक्तित फ्रे कारश में कार्य फरा उपचार कर भाबाय्यों ने इसे समकित कहा है। इस सिए मिध्या दृष्टि में उक्त समकित होने के सम्बन्ध में कोई शका का स्थान नहीं है। ( विशेषपाबश्यक साप्य गाथा २६०५ पृष्ठ १०६४ ) ( द्रष्य क्ोक प्रकाश तीसरा सर्ग ६६८ से ६७० ) ( धर्म संभइ अधिकार श्को० रेएे ढी० ए० १६ ) ( श्राषक प्रज्ञप्ति शा० ४६-५० ) आपशमिक समकित --दर्शन मोइनीय की हौनों भौर भनंता- चुबंधी फी भघारों प्रकृतियों के उपेशम से होने बाला प्मात्मा का परिणाम भौपशमिछ समझ्ति है। भौपशमिफ्र समकित सर्वप्रथम प्रमकित पाने वाले तथा उपशम भ्रेसी में रहे हुए जीजों करे होता है | चापिक समक्रित--अनन्तानुबन्धी चार कपायों के भौर दर्शन मोइलीय की तीनों प्रकृतियों के दय शोने पर थो परिशाम विशेष होता है बह चायिक समकित है कायोपशमिक समकितः---ठदय प्राप्त मिध्यास्त् के क्षय से भौर अलुदय प्राप्त मिध्पात्व के उपशम से तथा समक्ित मोइनीय के ठदय से होने वाक्ता भास्मा का परिणाम भायोपशमिक सम्पक्त्व है | ( अ्रमिघाम राज्स्द्र क्ोेप माग प्र. ६६४१ ) ( मदन पदार हर १४६ गाभा ४४३ से ४४४५ ) मा के सीन लिन प्रग्य पहला भाग गाया १५ )

(१) भुद घर्म में राग (२) घारित्र फर्म में राग ( १) देद गुरु को बेयाइ*अ का नियम

६० भरी संठिया जैन प्रन्थमाद्ा

भुठ धरम में राग --जिस प्रकार तरुण पुरुष रह राग में झतरकू रददा उससे मी प्रभिक शास्त्र-भरस में भ्रनुरक्त रहना |

चरित्र धर्म में रागः--सिस प्रसार तीन दिन का मूखा मठ॒प्प छोर भादि छा भा्टार रुचि पूर्षफ करना चाहता है उससे भी अ्रषिफ घारित्र धर्म पात्तने की इप्दा रखना ! | देघगुरु की वैयावव्न का नियम!--देव भौर गुरु में पूल्प माव रखना भौर उनका झादर सस्फ़ार रूप दैयापष्च का नियम फरना। ( प्रबूषम सारोद्धार ड्रार १५८ गाया ६२६ ) ८२-पमक्वित की तीन शुद्धियाँ:--मिनेरवर देव, ब्िनेश्बर देव हारा प्रतिपादित धर्म और मिनेरबर देव की भाज्ञानुसार विघरने बाले साधु | ये पीनों दी विश्व में सारमूत ई। ऐसा विचार करना समकित की तीन शुद्धिपों हैं ( प्रबचन सारोद्भधार हाट (४८ गाबा ६३२ ) ८४-भागम की बस्यारुपा और मेरः--राग-रुेष रहित, पद, छिठोपदेशक महपुरुप फ्रे बचनों से होने बाला भर्मह्ान

आगम ढइर्तादा है | उपचार पे झ्राप्त बचन मी हयागम कदा घाता है

( प्रसास्यममठस्‍्ष्याजौकाफड्टार परिष्केद ) आगम के तीन मेद+---

(१) छागम.. (२) भर्यागम (३) वदुमयागम। सज्ञागमा-मूल रूप झ्रागम को धजागम करते हैं। अपागम'-छत्र-शास्त्र के भर्ष रूप झ्ागम का अर्भागम

फाउे हैं

भी जैन पसिद्धान्व धोल संपइ, प्रथम माग 8१

धदुमसागम।--स्रप्त और अर्थ दोनों रूप झागम फ्लो सदुमयागम

कहते ( अमुमोगद्वार सूच १४४ )

आभागम के तीन और भी भेद हैं।-- (१) आारमागम (२) अनन्तरागम (३) परम्परागम |

आरात्मागमा।--गुरु फे उपदेश पिना स्थयमेष झआगम ज्ञान होना आात्मागम | जैसेः--तीर्यड्रों फ्रे झिए भगांगम भात्मा गम रूप है भीर गणपघरों के ल्षिए सप्मागम भारमागमत रुप है |

अनन्तरागमः---स्वय भात्मागम धारी पृरुय से प्राप्त होने पाला आगमझ्ञान भननन्‍्तरागम ६। गणषरों क्ले लिए भर्थागम अनन्तरागम रूप | तथा अम्पूस्पामी भादि गसपरों के शिषप्पों फ॒ क्षिए स्प्तागम भनन्तरागम रूप है

परम्परागम/--सावात्‌ आस्मागम घारी पुरुष से प्राप्त होकर रो झागम ज्ञान उनके शिष्य प्रशिप्पादि फ्री परम्परा से भ्ावा बह परम्परागम ६ई। जप अम्पूस्पामी भ्रादि गयघर- शिष्यों के लिए भथागम परम्परागम रुप तथा इनफ्रे परघाद्‌ के समी के लिए य॒ग्न एवं भर्थ रूप दोनों प्रफार का झ्ागम परम्परागम |

( अ्रमुपोगद्वार प्रमासाधिद्वार सूत्र १४४ ) ८४-पुरुष के तीन प्रकार/--

(१) सत्रघर (२) प्र्थघर (३) सदुभयघर मप्नघर --नप्ष्र को घारथ फरन बाले शास्त्र पाठक पुरुष फो धन घर पुरुष छदते !

श्र श्री सेठिया जैन प्रस्थमासा

प्रभपर -- शास्त्र के भर्थ को घारण फरन बाले अर्थद्ेत्ता पुरुष को अर्थघर पुरुष कहते हैं

तदुमयधर - सत्र और अर्थ दोनों को घारस करने बाले शास्त्रा

संदेत्ता पुरुप को तदुमयघर पुरुष कइते हैं ( ठाझांग इहेशा सत्र १६३६ )

८४-अ्पब्साय की स्पारूपा भर मेद---वस्तु स्वरूप के निरचय को स्पत्साप फहते हैं !

व्यवसाय फे सीन भेद:-- (१) प्रस्पच् (२) श्रास्पसिक् (३) भानुगमिक (झनुमान)।

प्रत्पद स्पब््साय --भषपिन्ञान, मन-पर्यय ज्ञान भौर केवश ज्ञान को प्रस्पथ स्पबसाय कइते हैं अ्रंमगा बस्तु फ्रे स्वरूप को स्वय॑ सानना प्रस्यध् स्पद्रसाय है।

प्रास्पमिक ब्यबसाय --दन्द्रिय एबं मन रूप निमित्त से होने बाह्ता बस्तुस्दरूप का निर्खय प्रास्पयिर स्यवसाय कइझाता है। भपत्रा भाप (बीतराग) के दचन द्वारा होने बाशा बस्तु स्वरूप का निशय प्रास्पय्कि स्एदसाय £।

आलुगमिक स्यवस्ाप/--साक्य का झनुसरण करने बाशा एवं सराष्य के बिना शोने बाला हतु झनुगामी कशाता है| उस देतु से होने दास्‍्ता बस्तु स्वरूप कय निर्ुष आजुगमिक स्पद्साय है |

( ठाखांप रह्ेेशा सूज एप )

८६-भाराधना तीनः---भविद्यार छ्गाते हुए शुद भाचार का पात्तन करना भाराषना है।

आराधना के तीन मेद--

श्री जैन सिद्धान्त पोज ंप्रइ, प्रथम भाग ६३

(१) ज्ञानाराघना २) दर्शनाराघना (३) चारिध्रारापना धानाराघनाः-ब्वान के फ्राज्त, पिनय, बहुमान भादि झाठ भाषारों

का निर्दोप रीति से पान फरना हानाराघना | दर्शनाराषना।-शंका, रचा भादि समकित के भतियारों को _ छगते इुए निःशंफित झादि समकित फे भाषारों का दरद्धवा पूर्वक पालन करना दर्शनाराधना |

आरिव्राराघना -सामायिक झादि चारित्र में झतिचार क्षगाते हुए निर्मक्तता पृषंफ उसका पालन करना भारितारा- भना है। ( ठाणांग रुइशा सूत्र १६५ ) ८७-विशघना'--क्ञानादि का सम्यक्‌ रीति से भ्राराघन करना उनका खंडन करना, भौर उन में दोप क्षणाना पिराघना है। वि्रिषना के तीन मंद)-- (३) प्ञान बिराभना (२) दर्शन बिराघना (३) चारित्र विराफ्ना। * छान विराघना --श्ञान एवं प्वानी की ग्रशादना, भपक्ञाप भादि इरा श्ञान की खपडना करना धान विरापना | दर्शनविराधनाः--जिन बचनों में शंका करने, झादम्भर दंख कर झन्पमत की इच्छा करने, सम्पक्रत्व घारी पुरुष की निन्‍्दा करने, मिप्यात्थी की प्रशंसा फरने भादि से समकित छी विराधना छरना दर्शन पिराषना भारिष्र पिरापना ---सामायिफ झादि चारित्र की विराघना करना चारिष विरापना ! ( समदाबांग सूत्र )

६४ श्री सेटिया सैन प्रम्थमादा

८ए८-अमशणोपासक-भावक फे तीन मनोरथ --

१-पहले मनोरथ में भावकजों यह मायना मार्दे कि कब पर. घुम समय प्राप्त दोगा। चब मैं श््प या भषिक परिग्रइ फ्रा स्पाग करू गा | +

२-दसरे मनोरथ में भावकजी पह जिन्सन फरें कि रूम वह घुम प्मय प्राप्त शोगा। सब मैं गृहस्थायास फो छोड़ फर पृद्धित होझर प्रश्नन्या भंगीरार करूंगा

३-तौसरे मनोरप में भावफली यह पिचार फरें कि कश बह छम अदसर प्राप्त ोगा | सब मैं भन्‍त समय में पंस्तेखना स्वीकार फर, झाशर पानी का स्मांग कर, पादोपगमन मरण भंगीकार कर घीरन-मरण की इच्छा करता हुआ रहूँगा इन दीन मनोरदों रा मन, बचन, काया से फिन्दन झरता इभा अमणोपासक ( आवक ) महानिजंरा एवं महपर्यबसान ( प्रशस्त भ्रन्त ) दा्षा दोता है| ( ठायांग कददेशा सुत्र २१० ) ८४-सर्ब विरति साधु के तीन मनोरणः-- (१) पहल्ते मनोरष में साधुजी यह दिचार फ़रें कि कब इइ शुम समय झावेगा। शिस समय मैं थोड़ा पा प्रणघिक शास्त्र ज्ञान सीसू गा | (२ ) दूसरे मनोरय में साधुजी यह विचार करें कि कूद बह शुम समय आवेगा जब मैं एक बिद्यार की मिन्चु प्रतिमा ( मिक्सु पढ़िमा ) अज्जीकार कर विच्षरुगा

श्री सैम सिद्धान्त वोक सप्रह, प्रथम साग ६५

( ) तीसरे मनोरध में साथुजी यह घिन्सवन फरें फ्रि कम यह शुम समय झावेगा सब में अन्त समय में सलखना स्वीकार फर, भार पानी झा त्याग कर, पादोपगमन मरण भड़ीफार फर, जीवन मरश फ्री इच्छा परता हुभा पिघरूुगा।

इन तीन मनोरथों फ्री मन, घचन, काया विन्तपना आदि फ्रता हुआ साधु मशानिर्भरा एपं भष्पपंदमान ( प्रशस्‍्त्त भ्रन्व ) वाला दोता है।

पे , (ठाणांग 2 ढरटेशा घुत्र २१० ) ६०-पराम्प बी ब्यास्पा भौर उसक मैद।--

पाँच इन्द्रियों के विषय मो्गों उदास्सीन--विरक्त ने फो दैधग्प झहतें हैं। पैराग्य वीन मंद्‌ --- ( ) दुःणगर्मित पैराग्प (२) मोइगर्मित पैराग्प ( ) चानगर्मित दैराग्य दु सगर्भित बैराग्यः-- किसी प्रफार का संकट आने पर विरक्त दोफ़र जो कुंडुम्य भादि फा त्पाग किया जाता ह। बह दु सगर्मित बराग्प यह बपन्प वैराग्य ईै। भोदगर्मित पैराग्प--डु्ट जन झ। मर जान परमोइयश सो पुनि प्र घारणण किया जाता ई। येद माहगर्मित यैंराग्प ह। यट्ट मध्यम यराग्य ६। भानगर्मित पैराग्प'--पूव संस्कार भयब्रा गुरु के उपदेश से आत्म-सान शान पर इस झसार संसार छा स्पाग फरना जानगर्णित पैराग्प | यह वराग्य उन्हृ्ट ह।

(्‌ रुचम्य फरौमुरी दूसरा मास पृष्ठ >«-जा रखोक ११८४ ११४ बेराग्य प्रकरण दितीय परिष्दद )

श्छ श्री सेटिया जैम प्रस्यमाका

८८-अंमसोपासफ-भावऊझ के तीन मनोरथ -- १-पहले मनोरथ में भ्रायफुजी यह मायना मार्दे कि कर वह झुम समय प्राप्त दोगा। जब मैं भस्प या भषिफ परिग्रह फ्रा स्थाग करू गा | गे

२-ञूमरे मनोरध में भावकजी पह जिन्तन फ्रें कि कब बह धुम समय प्राप्त शोगा। सब में एहस्थावास को छोड़ कर प्ुदित दोकर प्रतन्पा भंगीकार झरूगा !

३-वीसरे मनोरद में मावफ़जी यह पिचार करें कि कब बह छम प्रवसर प्राप्त होगा सदर मैं झन्त समय में संलेखना स्पीकर कर, झादार पानी फा स्थाग कर, पादोपगसमन मरख भंगीकार कर जीपन-मरख की इच्छा ने करता इभा रहूँगा इन तीन मनोरणों का मन, पचन, फ्ाया से चिन्दन फ़रवा हुआ अमसोपासक ( भाषक ) महानिर्शरा एवं मद्दपर्यबसान (प्रशस्त भन्‍त ) बास्ता होता है ( ठाणांग रुद्देशा सूत्र २१० ) ८६-सर्व विरति साधु के तीन मनोरध'-- (१) पहले मनोरध में साधुनी पह विधार करें कि फ़द धइ शुम छमप भारंगा। जिस समय मैं थोड़ा पा भषिक शास्त्र श्ञान सीखू गा | ( २) इसरे मनोरध में साधुश्री यइ विचार करें फ्रि कब बइ शुभ समय झायंगा सदर मैं एदझश बिहार की मि्तु प्रतिमा ( मिकसु पड़िमा ) अक्लीडार रर विचरूगा |

भी जैन सिद्धास्त धोड संमह, प्रथम माय इज

पाठ, पाठक्षा ) इन सीनों बस्तुझों फे शोपने में, अइण करने में, अथपा उपभोग करने में, संपम भमे पूर्षफ़ समाक्त रखना, इस एपशासमिति फहते हैं ! , एपसासमिति के तीन मेद्‌--- -... (!) गषेपणैपणा (२) ग्रशयेषणा (३) ग्रासैपसा गर्भेपणैपशाः-सोक्द उद्गम दोप, सोछ्तह उत्पादना दोप, इन बचीस दोपों को ठा्फर शुद्ध भाद्रादि फ्री खोम फरना गपेपसैपसा है ग्रइजैपया -एपला के शकित भादि दस दोपों को टाल कर शुद्ध अशनादि ग्रश् फरना प्रहसेपणा ६। ग्रासैपणा -सवेपस्ैपया भौर ग्रहशपणा दारा मास शुद भाद्रादि फ्ो खाते समय सादे फ्े पांच दोप टासकर ठपमोग फरना प्रासैषसा है ( एत्तराष्पयन सूत्र अभ्ययन २४ गा० ११-१२ ) ६४-करण फ्रे सीन मेद)--- (१) झारम्म (२) सरम्म (३) धमारम्म ( ठायांग सूत्र १२४ ) आरम्म -प्ृध्वी फाय भादि लीं फी हिंसा करना भारम्म कह- तज्तावा है। प॑रम्म:-एप्वी काप भादि जीवों की ईसा विपयद्ध मन में संक्रि्ट परिणामों का लाना सरम्भ फहछाता है। प्रमारम्म/--एप्दी स्थय आदि सौबों सो सन्‍्दाप देना समारम्म कहलाता ६। ( टाणांग एऐशा घत्र १९४ )

६६ भी सठिया जैन मम्यमाला

६१-स्पविर तीन।--- ( १) इप्थबिर ( ) छत्रस्थपिर ( ) प्रवस्पा स्थबिर )

बयःस्पविर ( छवाति स्पत्रिर ) साठ वर्ष छी अषस्था के साथ प्य“स्पषिर कइछाते हैं |

पज़॒रपविर/--भी स्पानांग (टाणांग) भौर समवायांग प्रश्न के शत साधु घत्रस्पणिर कहते हैं।

प्रतल्प/स्थबिर/-- बीस बर्प की दीधापयाय बाले साधू प्रतनन्या स्थबिर कश्शाते है|

( राशांग रऐशा ये सूत्र १५४ )

६२-भाद इन्द्र करे तीन मेर---- (१) पइज्लेन्द्र ( ) दर्शनेन्द्र ( ) घारिन्द।

झनेन्द्रः--भतिशयशाज्ञी, भुव झ्रादि ज्ञानों में से फिसी ज्ञान द्वारा बस्तु तस्त का विवेशन करने बासे, अभवा केबस झञानी को प्ानेन्द्र कहते हैं।

दर्शनेम्द्र--दामिक सम्पगूरर्शन बाते पुरुष को इरनिन्त्र फहते ६।

घारिभेन्द्रर-पमास्याव चारिप्र बात नि को पारिभेन्द फइत

हैं। बास्‍्ठविक-आाष्पात्मिक ऐश्वयं सम्पन्न होन से थे तीनों मार्ेन्द्र कइलताव

(ठायांग रह्ेशा सूत्र ११६ )

&३-एपसा की भ्पास्या भौर मेद >भाइर, झपिफरय (बस्तर,

पात्र झादि साथ में रखन दी बस्तुएं ) शप्पा (स्थानक,

श्री सैन सिद्धास्व बोल संग्रइ, प्रथथ माग छ्घ

&६-दुपढ की स्यासख्या भौर मेदः-लो घारित्र रूपी भाष्या- स्मिक ऐशबर्य फा अपइरण कर आत्मा को भप्तार कर देता है। वह दयद है।

( समबायग $ ) अथवा --- प्राणियों फो जिससे दुःख पहुँचता उसे दृएट ऋइते ह। ( आचारांग भुतस्कत्य अष्ययम उद्देशा सूत्र १२६ टी? ) अ्रपवा ---

मन, बचन, छाया क्री भश्ठम प्रशसि फो दण्ड कहते ई। ( इरराष्पयन अध्प० १६) दएड के तीन मेद्‌ --

(१) मनदुएंड (२) घचनदूयह (३) कायादएट | ( समषायांग ) ( ठाणांग एएंशा सत्र ध३६ ) ६७ -कपा तीन।--- (१) भर्थकूथा (२) घ्कपा (३) काम कंषा अर्थरुपा --अर्थ का स्वरूप एयं उपार्यन के उपायों फो प्रतलान बाली बाकप पद्धति भर्थ फया है जैसे फामन्दकादि शास्त्र) घ्रमकझृषा --धम फा स्परूप एवं उपायों को बतखाने बात्ती पाक्प- पदवि धर्म रूपा ६। छेसे उत्तराध्यपन सन्त आदि कामकया -“-क्राम एपं उस फ्ले उपायों का बर्णन करने बाली

वाक़व पद्धति काम फपा ई। संसे वात्स्पायन फामसत्र रगैरद !

राणांग ४० सूत्र १८६ )

रू

द्च्द अी संठिया सैस प्रस्थभाद्ा

&५-योग फ्री स्पास्पा भौर मेद -- बीयान्तराय फर्म चयोपशम पा दय ोन पर मन, भ्रचन, फाया फ़र निमित्त में झास्मप्रदेशों फ्रे बचत्त होने को थोग झदइत ह। अगया!--- बीयान्तराय कर्म के दय या दयोपशम से ठत्पस शक्ति पिशेष मे ने पाले सामिप्राय भात्मा के पराक्रम का थोग कहते |

योग फे सीन मेद-- (१) मनोयोग (२) वचनपोग (३) राययोग। भनोपोग'--नोइन्द्रिय मतिह्तानाबरस के चयोपशम स्वरूप आ्तरिझर समनोलम्धि ने पर मनोवर्गणा के झात्तम्भन से भन फ्ले परिणाम की भोर ऊुके हुए आत्मप्रदेशों का शो स्पापार होठा उसे मनोपोग फइते हैं! इचनयोग/--सठि झानावरण, झधर भुठ शानावरण झादि कर्म के धयोपशम से झ्रान्तरिक बागूहम्पि उस्पन्न होने पर बचने मर्गणा के भासम्बन से मापापरिणाम की झोर अ्मिझुत प्रास्मप्रदू्शणो का लो स्यापार होता है। उसे बचनगांग फहते हैं। | कापयोग --भौदारिक आदि शरीर दर्गणाक पुदुगझों आएम्पन से दोन बाले आत्मप्रदुशों के स्पापार फ्लो काय- योग कइद है

( ठार्थांग सूत्र १२४ रीका )

( ठायांग शेड सूत्र १०४)

( वक्त्याब सूत्र अप्पाप इस!)

श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, प्रथम माय पु

६६-दणड की स्याल्या और मंद।-जो भारित्र रूपी भाष्या- त्मिक ऐश्वर्य का भपदरण फर आत्मा फ्ो असार कर देता हैं। पद दणड |। ( समबाजाँग ) अथवा +- प्राणियों को जिससे दुःख पहुँचता उसे दए्ट फइते ह। ( आाषारांग भुतस्कस्य अष्ययम एदेशा सूत्र १२६ टी ) अथवा --

मन, पंचन, काया फी भझध्ुम प्रश्षचि फो दुएट फहते ई। ( रुत्तराष्ययन भअ्रध्य० १६)

दुणर के तीन भेद -- (१) मनदएद (२) बचनदणद (३) कायादणद | ( समषायांग ) ( ठाखांग रह्शा सूत्र ६१६ ) &७ -क्पा तीनत)--

(१) भर्यक्षा (२) घमरषा (३) काम फपा। अर्थफपा --भथ का स्वरूप एयं उपार्थन उपायों फो पतलान पाली बाकप पद्धति भर्ष फ़या है खैस फामन्द्फारि शास्प। घमकपा --धम झा स्परूप एब उपायों फो दतलान पाली पाक्य- पदति पर्म फ़पा £। जैस उत्तराष्पपन यप्र भादि | फामकपा --फ्ाम एचं उस के ठपायों था पयन फरन बाली

बाउर पद्धति काम कृपा ६। संस वा स्पायन झामयत्र पगरद |

( टायोंग इ० सूत्र १८६ )

है

श्री सठिया चैन प्रत्ममाला

&६८-गारव (गँरव) झी स्पास्या भर मेद्‌ -- दन्प और मात मंद गौरप दा प्रफार का ई। वम्मादि की गृस्ता द्रम्य गीरप ई। भमिमान एवं सोम से होने वाला भात्मा फ्ा अध्युम माव मारे गौरव (माप गारय) है। यह छप्तार घक्क में परिभ्रमण फराने वात्ते फर्मो का कारण ह। गारव (गौरव) फ्े तीन मेद्‌ -- (१) आद्धि गौरव (२) (सगौरभ (३) साता गौरब | ऋदि गौरब:--गया मदाराघाझों से पूज्य भातार्म्पता भादि फ्री अद्धि फ्ा प्रभिमान करना एजं उनकी प्राप्ति को इच्छा करना कद़ि गीरव है। रपगीरव/--रसना इन्द्रिय के विपय मधुर झादि रसों की प्राप्ति से झमिसान बनना पा उनकी ईष्छा करना रसमौरष है। साह्रगौरषश-साता-स्वस्पवा भादि शारीरिक सुर की प्राप्ति होने से भमिमान करना पा ठनक्ी इस्द्ा करना सातागौरप है।

( ढार्यांग ३४० सूत्र १६२) ६६-कद्धि के तीन मेद।---

(१) देवता की क्रद्धि (२) राजा की ऋद्धि (१) भाचार्य की अद्ि |

ढार्झांग ३5० सूत्र २१४ ) १० -देवता झी ऋद्धि कू तीन मेद!--

(१) बिमानों छी ऋद्धि._ (२) विकिया करने की ऋद्धि (१) परिचाएणा ( कामसेबन ) की ऋद्धि

भी सैन सिद्धान्य चोल संप्र, प्रथम माग ७१

अग्रपा ---

(१) घचित्त ध्यद्धि -अग्रमदिपी झ्रादि सचिच ग्रस्तुभों प्रो सम्पत्ति )

(२) अ्धिच अद्वि'-बत्य भाभूषण फी ऋदि |

(३) मिश्र 'श्द्धि -वस्थामूपणों से भ्रलकृत देशी भादि की

दि ( ठाय्यांग थ४ सूत्र २१४ ) १०१-राजा फ्री ऋद्धि फे ढीन मेदः-

(१) भवति यान ध्यद्धि -नगर प्रवेश में सोरण घ्रायार भादि फ्री शोमा, छोगों झी मीड़ भादि रूप ध्कद्धि भर्थात्‌ नगर प्रपेश मद्गात्सब की शोमा।

(२) निर्याण श्यद्धि --नगर से बाहर लाने में इाभियों करी समाषट, सामनन्‍्त भादि फी ऋषद्धि

(३) शाला फ्रे सैन्प, वाइन, छघाना भौर कोटार फ्री ध्यद्धि।

अयपा)--

(१) सभिच ऋद्धि-- प?रानी भादि भरन्तःपुर |

(२) भविच ऋद्धि--इस्प, भ्रायूपण भादे |

(३) पिभ्र ऋद्वि-चस्तामूपसों से भक्त पटरानी आदि।

( ठाणांग क्ष० घूत्र २१४ ) १०२-आएणाय्प ढी पद्धि, तीन मेद्‌'--

(!) श्ानशदि (२) दर्रनश्द्धि (३) भारित्रसदि

(!) धान पद्धिः--पिशिष्ट भुतत री सम्पदा

(२) दशान ऋदि --भागम में शंक्र झादि रहित होना तथा प्रवचन की प्रमावना करन पाते शास्थों का झान

डर प्री सठिया जैन मस्यमाला

(३) चारित्र कद्धि --भतिचार रहित शुद्ध, उत्कुए भारित का पालन करना अयपधा-- सचित, अखित्त आर मिभ्र फ्रे मद मी झाषार्स्प की क्द्धि सीन प्रफार की दें (१) पच्िचिशद्धि -शिप्प पगैरद (२) भचित्तशद्धि'-अस्त्र गगेरइ (३) मिश्रशद्धि --अस्य पहने हुए शिष्प्‌ वर्गर्‌इ (ठार्क्षय ३5 ४सूृत्र २१४) १०३-आाचास्प के तीन मेद!ः-- (१) शिम्पाचार्य्य (२) कशाचार्स्प (३) घमाचार्प्प | शिश्पाास्पेः-शुद्दार, सनार, शिक्षाबट, सुधार, चितेरा इस्प्रादि के हुन्नर को शिक््प फइटत है। इन शिल्मों में प्रयोथ शिपक शिल्पाचार्य फ़इलाते [ अस्ताचरार्य्य/---फ्ाम्य, नाटप, संगीठ, चित्रलिपि इत्पादि पुरुष की ७२ भर स्थियों की ६४ करा को सीयाने बात्त अन्यापऊ कलाचार्य कइलाते हैं। र्माधार्प्प -भुत भारित्र रूप भर का स्वय पात्तन करन बाल, दूसरों को ठसरा ठपदेश दंन बासे, गघ्छ क्र नायक, साधु पुनिश्त घमाचार्थ्य फइसाते है शिल्पाषार्य भारफ़्ताशस्प की सबा इशलाफिक दि कऋू लिए भर धमाचार््य झी संद्रा पारसतौकिक दित निजरा आदि के निए की जाती ह।

भी ऊन सिद्धान्त घोल सप्रइ, प्रपम माय ज्श

शिल्पाजार्य भौर फ्ताचार्य फ्री पिनय मक्ति धर्मा आार्य फ्री पिनय मक्ति से मिम्न प्रकार की शिष्पाभार््य भर फत्ताघाय्ये को स्नान आदि फ़राना, ठनक्ले लिए पृष्प श्ाना, उनका सएडन फरना, उन्हें मोजन फराना, विधुत्त आसीषिफा पोग्य प्रीविदान देना और उनके पृत्र पृत्रियों झा पालन पोपश करना, पह उनकी बिनिय-मक्ति का प्रकार है! धर्माषार््प प्म्रे देखते ही उन्हें बन्दना, नमस्कार करना, उन्हें सत्कार सन्‍्मान देना, याबत्‌ उनकी उपासना फरना, प्रायुक, एपशीय भाद्ार पानी छा भ्रतित्ताम देना, पूथ॒पीड़, फहग, शब्या, संघारे झे शिए निमन्त्रण देना, यह धर्माघाय्पे की बिनय मक्ति फ् प्रकार | ( रागप्रश्नीय सत्र ७० प्रप्ठ १४९ ) ( अमिषान राखेस्र कोप माग प्रर्ठ ३०३ ) १०४-शक््प तीन! --बिससे बाधा (पीड़ा) हो उसे शब्प फइते हैं। रांटा, माता बगेरइ द्रस्प शल्य ई। मादशश्प फ्ले सीन मेदा-- (१) माया शल्य (२) निदान ( नियाणा ) शक्प (३) मिष्पा दर्शन शल्य [ माया शुक्य'---हकृूपट भाव रखना माया शक््प ई। अतिचार खगा कर माया से उसकी भालोघना करना अथवा मुरु के सम ,भन्य रूप से निषेदन करना, भगवा दूसरे पर मूठा भारोप छगाना मापा शब्प है| ( भर पंप्रद अध्याव प्रूष्ठ आ. रक्षो* २० )

जप श्री सेठिया मैन प्रस्थमाञा

निदान शब्पः---रामा, देवता भादि फ्री ऋ्रद्धि को देस कर गा सुन फर मन में यह अष्यवसाय फरना फ़ि मरे दारा झाघरश, फिये हुए ब्रक्नचर्य, तप भादि भजुष्यनों के फततसरूप इमे मी ये क्रद्वियां प्राप्त हों | यह निदान (नियाणा) शस्प है। मिध्या दर्शन शश्य+--विपरीत भ्रद्धा छा होना मिध्या दर्शन शस्य है ( पमे* अधि० 7५ ७३ रक्षो० २७०) ( समवायांग ३) | ( ठाणांग रु७ सूत्र १९२) १०४-भस्प भायु फ्रे तीन कारण'---

तीन कारणों से रीव भल्‍्पायु फल्त शासे कर्म बांधते हैं| (१) प्रासियों की हिंसा फरने बाला (२ ) झूठ बोलने वास

( ) तथारुप ( साधु के झ्रनुरुप क्रिया और पेश झादि से युक्त द्वान के पात्र ) अमस, माइल ( भावक ) की भप्रायुक, भकल्‍्पनीय, भशन, पौन, खादिम, स्वादिम देने पाला धीव झ्रम्पायु फल बाला कर्म बांपता है।

( ठाणांग इ० सूत्र १९९)

भगचती शतक 2 रुहेशा घ्‌ू २०४) १०६-नीब की अद्टुम दीर्पाय्‌ छीन कारणः--सीन ब्यरयों

* धीद भद्यम दीर्पाय्‌ भर्यात्‌ नरफ भायु बापते ह। ( १) प्राणियों की हिंसा करने बाता | (२) मूठ बोलने बात्ता। ( ) दयारूप अ्मय माहल दी धाति प्रकाश द्वारा झवदेसना करने बाला, मन में निन्‍्दा करने बाता, लोगों

भी जैन सिद्धास्व बोल सप्रह, प्रथम माय ण्र्‌

के सामने निन्‍दा और गईया करने वाला, अपमान फरने वाला ठथा अप्रीति पूपेक अमनोझ्ध भ्रशनादि बदराने वाला सीष अथुम दीर्पापु फल पाला कर्म बॉघता ई। ( ठार्याग सूत्र १९४ ) १०७ जीव की शुम दीपोयु के तीन फारय'--तीन फारणों से जीप धुम दीपायु पांपता हैं। (१) प्रासियों फ्री हिंसा करने बाला (२) झूठ बोलने वाला | ( ) तथारूप भ्रमण, माइण को पन्दना नमस्कार पायत्‌ उनकी छपासना करके उन्हें रिस्री प्रफ्यर के मनोत्न प॒व॑ प्रीतिकारक भशनादिक का प्रतित्ञाम देने वाला भर्थात्‌ पघदराने पाज्ा जीप शुम दीप बांघता ६। ( मगदवी शतक 2 परेशा सूध्र २००) ( ठाणांग उ० सूध १२०५ ) १०८-पन्‍्योपम फ्री स्‍्पास्पा भौर मेद)--एक गोनन शम्से एक पोशन घोड़े भौर एक पोमन गइर गोक्ताफार रूप की ठपमा से जो फात्त गिना नाप ठसे पस्योपम कहते पन्योपम के तीन मेद'-- (१) उद्धार फ्ल्योपम (२ ) भद्दा पन्‍्योपम (३) घेत्र पन्‍्योपम | ठद्धार पम्योपम--उस्से्पांगुल्त परिमाण से एछ योजन सम्परा, भाड़ भौर गहरा कुभा एरू दो तीन पादत सात दिन दाल देवडृुरु उ्तरइुरु सुगत्तियां बात्त ( कद ) के झग्र- मार्गों सदूमदू सझुर इस प्रझर मरा बाप फ्रि बात्ाग्र

उड़ श्री सेठिया बैल प्रम्थमाका

हवा से उड़ सके और आग से शश्ठ सह उनमेंस प्रस्पेक को एक एक समय में निकाक्तते हुए जितने काछ में बह हुआ सबंथा खाप्ती हो माय उस काह परिमास का ठद्धार फ्ल्योपम कहते ईं। यह पल्योपम संह्यात समय परिमाश दोसा है। ही उद्धार पश्योपम ध्वर्म भौर स्पदद्वारिक के मेद से दो प्रकार का है- उपरोक्त भर्णन स्पवह्ारिक्त उद्धार पल्योपम का £ै। उक्त धाताप्र के भसंख्यात अदृश्य खंड किये षांय थो कि विश्युद्ध छोचन बाते ऊपस्य पुरुष के रश्टिगोचर होने बाल प्रचम पुतगख दरस्प के अ्रसर्यातनें माग एवं सत्तम पनक (नीक्तथ-फुप्तण) शरीर के भस्तरु्पात गुणा शो उन घत्तम दाशाग्र खप्ड़ों से बद भा टू दू फ़रमरा खाय भीर उनमें से प्रति-समय एक एक बालाप्र प़यद निफ्मत्ता थाय। इस प्रकार निकालते निकालते बितने काल में बह इझ्ा पर्षवा खाली हो नाय ठसे यम उद्धार पस्योपम कहते हं। छतम उद्धार फ्ल्योपम में सस्यात बर्ष कोरि परिमाल कापत दोता है। अद्भा पश्योपम:---उपरीक्त रीति से मरे हुए हपरोक्त परिमाश के रुप में से शक एक दाशाग्र सौ सौ वर्ष में निकाला जाय इस प्रकार निकासते निश्यछत जितने बाय में बहह्ुआ सर्वया खाछी हो श्लाप उस झा परिमाश को झरद्धा पल्यो- परम कइते है यह सत्यात बर्ष कोटि परिमाश होता £ | इसके मी प्चम भीर प्यपशार दो मेद ६| छक्त सरखप स्पषह्दर झद्धा पल्योपम का ६। थरि यही झूप उपरोक्त

मी लैन सिद्धास्य घोक् संप्रइ, प्रधम माग जे

सथस दबए्शाग्र सणडों पे मर हो एवं उनमें से पस्येक पासाग खयड़ सौ सौ दर्ष में निकाक्ता जाय इस प्रफ्र निकालते निराछये पद छुझा जितने काल में खाली हो थाय वह घबम अदा पल्योपम है। ख्रदम भद्धा पत्योपम में अस- स्पात बर्ष कोटि परिमाद कात्त दोता है।

छैंत्र पल्योपम --उपरोक्त परिमाण का रूप उपरोक्त रीति से घालाप्रों से मरा हो। उन बाताग्रों से ये। भाराश प्रदेश छुए हुए हैं। उन छुए हुए झाफाश प्रदेशों में से प्रत्येक को प्रदि सत्य निकाश्ला जाय इस प्रकार समी भाकाश प्रदेशों रो निकालने में जिदना समय सगे बह श्रेत्र-पन्पोपम है। यह कास भसंरूपात उस्सपिंशी अवसर्पियी परिमाथ शोता है। यह मी छुदम और स्पपइ्टार के मेद से दो प्रफार का है। ठपरोक्त स्वरूप स्यवड़ार धेत्र पल्योपम फा हुमा

यदि पट्टी कु भा धाछाग्र के घचम खण्डों से दूस दूस ऋर मरा हो। उन पालाग्र सण्डों से यो भाकाश प्रदेश छुए हुए भीरणो नहीं छुए हुए ६! उन धुए हुए भौर नहीं हुए इए सभी भाकाश प्रदेशों में से प्रस्पेक फो एफ एक समय में निकाझते दुए सभी को निकाष्तने में जितना काल लगे बह सरम येत पम्पोपम है| पद भी असंस्यात टस्सर्षिणी अजसर्पिणी परिमाथ होता है। स्पबदार देश पश्योपम से भ्रसंस्पात गुणा यह काल खानना चाहिए | ( भनुयोगद्वार सूच ११८ से १४९

पृष्ठ १०६ ध्याग्मोर॒य समिति ) ( प्रथचत सारोद्धार ड्वार १श८ थाघा १०१८ से १०२६ तढ़ )

जप औ्री संठिया जैन भ्रस्थमाका

१०६--सागरोपम के सीन मेद)-- (१) ठद्घधार सागरोपम (२) भद्धा सागरोपम | (३) देत्र सागरोपम उद्धार सागरोपमः--5द्धार सामरोपम के दो मेद)-पत्तम भीर स्पवद्दार | दस कोड़ा कड़ी स्यवद्वार उद्धार पस्योपस का एक स्पबडार उद्धार सागरोपम होता है दस इजार कोड़ा कोड़ी घचम उद्धार पल्योपम का एक एप्म उद्धार सागरोपम होता है| डाई पद्म उद्धार सागरोपम पा पन्‍्चीस करोड़ कड़ी परचम उद्धार फ्ल्योपम में जितने घमय होते हैं। उतने ही क्तोक में न्‍रीप भौर सप्तद्र हैं। अद्भा सागरोपमा--भद्ा सागरोपम मी छत्म ओर स्यगह्वार के भेद से दो प्रकार का ६। दस कोड़ा कोड़ी स्पवद्दार भद्धा पश्योपम का एढू स्पद्यार अद्धा सागरोपम शोता है। इस कोड़ाकोड़ी परम अद्धा फ्ल्पोपम का पक प्रचम भद्धा सागरोपम होता है| जीडों की कर्मस्थिति, कायस्थिति और मबस्पिति ख़जम झझा पल्योपम और छत्तम अदा सागरोपम से मापी पाती है। चेश्र सागरोपमा-घेंत्र सागरोपम मी छज्म भौर स्पवशार मदद सं दो प्रकार का है। दस कोड़ा कोड़ी ध्यवह्दार छेज पल्योपस एक स्पषद्वार पेज सायरोपम शोता है। जीपमुरका

श्री डैन सिद्धास्त बोल संप्रह प्रथम भाग जे

हस फोड़ा कोड़ी धर्म चेतन पन्‍्योपम का एफ श्रप्म चेतन सागरोपम होठा है। प्रयम घेंत्र फ्ल्पोपम भौर घदम देश सागरोपम से इृष्टिवाद में द्रष्य मापे याते हैं। घ्म चेत्र सागरोपम से प्रप्सी, पानी, अरिनि, पायू, वनस्पति और त्रस लीपों फो गिनती की याती है। अनुयोगदार सू० १५८ से १४० प्रष्ठ रैश- आगमोबय समिति )

प्रबंध सारोद्धार वार १४६ गाया १०२७ से १८३२)

११०---नंबीन ठत्पन्न देश्ता के मनुष्य छीरू में भाने फे तीन कारए'-- देवशोछ में नपीन उत्पन्न हुभा देषता वीन कारणों से दिभ्य फ्ाम मोगों में मूर्षा, शद्धि एवं आसक्ति फरता हुमा शोप् मनुष्य लोफ में झान॑ को शप्छा करता है भौर था सकता है।

(१) वह देवता यह सोचता कि मनुप्प मध में मेरे भाषाय्प, उपाष्पाय, प्रवर्शक, स्पत्रि, गयी, गएघर एव गशापन्‍्लशेटफ हैं। शिनफ़े प्रमाष से यह दिस्प देव शऋद्धि, दिम्प देव घुति भोर दिभ्य देव शक्ति पम्के इस मय में प्राप्त हुई है। इसलिए में मनुप्प छोक में जाऊं और उन पून्‍्य भादार्ग्पादि छो पन्दना ममस्झार ररू , सत्कार सन्‍्मान दू एवं कल्याथ दमा सगल रूप यावत्त उनफ्री उपासना

(२) नवीन उत्पन्न देषता यह सोचता झि सिंद की शुष्य में फायोत्सग फ़रना दुष्कर कार्य्य है। फिन्त एव उपध्ुऊ, अलुरक्त सथा प्रार्थना करनेवात्ती बैरपा के मन्दिर में रहकर मप्तर्प्य शत का पातन करना उससे भी भति दुष्कर

प्र

प्री सठिया जैन प्रत्यमाक्ता

१०६--सागरोपम छ्ले सीन मेद।--

(१) झुद्घार सागरोपम (२) भद्धा सागरोपम (३) चेंत्र सागरोपम

उदार सागरीपम/--उद्घार सागरोपम फ्रे दो मेद'-छच्म झौर

स्पबह्दार | दस फ्रोड़ा फ्रोड़ी स्पमशार उद्धार पश्योफ्म का एक व्यवहार उद्धार सागरोपम होता | दस इथार फोड़ा कोड़ी घचम उद्धार पल्योपम का एक ग्रघम उद्धार सागरोपम होता ६।

ड्राई प्रदम उद्धार साग्रोपम या पर्चीस कोड़ा दोड़ी उत्तम उद्धार पस्योपम में जितने समय इसे हैं। उतने ही स्लोफ में हरीप भौर सद्त् हैं।

अद्भा सागरोपमा--मद्भा खागरोपम मी छत्म और स्पधदार के

भेद ऐे दो प्रकार का ६।

इस कोड़ा कोड़ी स्पवह्दार भद्धा पल्योपम का एक स्पवह्दार भद्धा सागरोपम दोता है।

दस क्रोड़ाकोड़ी ध्रवम प्रद्धा फ्स्पोपम का एक प्रक्म झद्धा सागरोपम शोता ६।

धीरों फ्री कमेस्पिति, कायस्पिति और मबस्थिति दा नर पल्योपम भौर घत्तम भरद्धा सागरोपम से मापी घी ६!

चंत्र सागरोपमः--क्षेत्र सागरोपम मी छत्म भौर स्यवद्ार फे मेद

स॒ दो प्रकार ऋ्य है। दस छोड़ा कोड़ी स्पषइार थेत्र पश्योपम का एक स्पर्टार चेद्र सागरोपम होता है।

श्री सैम सिद्धास्व योल संप्रद प्रथम माग

दस कोड़ा कोड़ी धृष्ष्म देत्र पत्योपम का एक सुच्म चेत्र सागरोपम होता | मक्म देध पल्योपम और छदम छेत्र सागरोपम से दृष्टिपाद में द्रष्य भापे जाते हैं। धद्म चेत्र सागरोपम से एथ्पी, पानी, अग्नि, यायू, वनस्पति भौर श्रस॒ घी्षो फी गिनती फ्री चाती ९ै।

( अनुयोगढ्वार खू० १३८ से १४० प्रप्ठ १२५६ आगमोदय समिति )

( प्रदबन सारोद्धार द्वार १२६४ धासा १०२७ स॑ १०३२ )

११०--मपीन उत्पन्न देषता मनुष्य छोक में झाने फे सीन फारणः---दैए्लोक में नपीन उत्पन्न हुमा देषता तीन कारणों से दिव्य फाम मोगों में मू्ा, एद्धि एवं भासक्ति करता एम शी मनुष्य लोक में आन फ्री इप्दा करता है भौर भा समझता !

(१) वह देवता यश सोचता कि मनुष्प मष में मेरे भाषास्प, उपाष्पाय, प्रवंधक, स्पषिर, गणी, गणघर एव गयाषष्टेदक हैं। जिनके प्रमाष से यदद दिम्प देव ऋद्ि, दिम्प देव चुति भार दिन्प देव शक्ति मुझे इस मब में प्राप्त हुई ६। इसलिए में मनुप्प छोक में जाऊं भौर उन पूज्य शाषार्प्यादि फ़ो बन्दना नमस्फार करू, सत्कार सन्भान हूं एवं रस्याथ दया मगल रूप यावत्‌ उनफी उपाग्नता कर |

(२) नरीन उत्पन्न देगा यह घोषता £ हि सिंध फ्री गुफा में कायोन्सग ढरना दुष्फर कार्य्य है। स्र्न्ति पते उपयुक्त, अनुरक सपा प्रार्ना करनेदाती बैरपा फ्रे मन्दिर में रइकर हष्नपप्पे मठ छा पालन करना उससे भी भति दृष्झर

अभी सठिया जैन प्रम्थमाता

हास्य है| स्पूत्तमद् ध्वनि को तरइ ऐसी कठिन से कठिन किया फरने बाले झ्ञानी, तपस्तरी, मनुप्प-सोछ में दिखाई पड़ते ई। इसलिये मं मनुष्य लोक में जाओ भौर हन पूल सुनीसपर को बन्दना नमए्कार करू याज़त उनकी ठपासना करू |

(३) बह देषता मइ सोचता है कि मनुप्प भष में मेरे माता पिता, माह, बहिन, स्‍त्री, पत्र, पृत्री, पुत्रबपू आदि | || मं वां जाझ भौर उनके सुस प्रकट दोझ वे मरी हस्त दिल्प देव सम्बन्धी क्रद्धि, युति भार शक्ति को देलें

(ठाणांग इ्देशा सूज १४०)

१११-देबता को तीन अमिणापाएें:--

(१) मनुष्प भव (२) भाय्प॑ छेत्र (३) ठचम कुछ में सन्‍्म। ( ठाणांग तहेशा सूज १४८)

११२-दबता के परचात्ताप के सीन बोह'---

(१) में बक्त बीर्प, पुरुपाफार, पराक्रम से युक्त चा। इसे पंठनोपपोगी सुकार प्राप्त पा कोइ ठपदद मील बा। शास्त्र श्ञान के दाता भाचार्य, उपाष्पाय महाराय विधमान थे मेरा शरौर मी नीरोग था| इस प्रकार समी सामग्री कै प्राप्त देते हुए भी धकेलेद है कि मेने बहुत शास्त्र नहीं पड़े

(२) छेद है कि परसोक से गिएल दोषर ऐेडिक पु्तों में आपक्त हो, दिपय पिपास्तु बन मैंने बिरकाश तक अ्रमझ ( साधु ) पर्याय का पाप्तन महीं दिया |

(३) छेद हि मैंने फ्द्धि, एप झौर साता गारव (भौरष) का

जैन सिद्धान्त चाक्ष संप्ड, प्रथम भाग. # एहँ

।. अमिमान फिया। भाप्त माग सामग्रीमें मूछित रहा एय अप्राप्त मोग सामग्री की इष्दा सरता रद्द | इस प्रकार में शुद्ध चरित्र का पालन ने कर सका।

उपरोक्त तीन पोलों का भ्िचार फरवा हुमा देवता पय्राचाप करता है ( ठाखांग उ० सू० १७८)

' इ-देवता के प्यवन-धान के सीन श्ोल'-- *

(१) विमान के झआामृपणों की फान्ति फो फीकी देसफर (२) फस्पषृष यो द्रमाते हुए देख फ़र। (३) तेज भर्थात्‌ भपने शरीर की फान्ति फो घटते हुए देखफर देषता फा भपन स्यर्न (मरस) पे फात का झान दावाता £ै। ( ठाणांग अऐेशा सृत्र ७४ ) ११४-भिमानों के तीन भाषार--

(१) पनोदणि (२) पनवाय (३) भाषाश

इन तीन भाघार से विमान रद हुए ६। प्रथम फल्प--सीधमे और शशान दंबसोफ में बिमान पनोदधि पर रह दुए ईं। समत्कुमार, माइन्द्र भौर प्रसलाफ में ब्रिमान पनवाय पर रे हुए हैं। झान्तव, शुक्र भौर सहसार दंवशाक में बिमान पनीदधि भर पन बाय दानों पर रद हुए ६। इन रू उपर के आाणत, प्राणव झारय, शप्युत, नव ग्रयपक भर अनुचर विमान में विमान भाजाय पर म्पित है

( राणांग सूत्र १८९ ) १११-एप्वी जीन पलों दलपित | एक्क एड पृथ्वी पारों

तरफ दिया पिलिशामों में मीन बसयों से पिरी हइ

पर मरी सठिश जेम प्रत्यमाला

(१) घनोदधि वक्तय (२) घनवात दल्म (३) तनुवात बतप।! ( ठाखांग ४० सूत्र १२४)

११६-एम्ब्री के देशवः पूसने के तीन बोज---तौन कारशों

प्रथ्वी का एक माग प्रिचल्तित हो लाता !

(१) एसनप्रमा पृथ्वी के नीये बादर पुद्गर्तों कास्शामातिक

कोर से अक्तम होना या दूछरे पुदुगों प्रा भाकत जोर से «

टफ़राना, एश्दी को देशव विधल्ित कर दवा है

(२) मशाश्यद्धिशाल्ी यावत्‌ महेश नामबात्ता मद्दोरग भाति

कला स्पस्तर दर्पो मच होकर उछ छूट मचाता दुआ ए्ष्जी

को देशवा विचसित फर देता

(३) नाग इमार और सुपर्य हमार जाति मद्रनपति

देदताझों फे परस्पर संग्राम ने पर पृथ्वी का एक देश

बित्तित हो माता

( ठाणांग बर्ेशा छृत्र १६४८)

११७ सारी ए्थ्वी पूजने के सीन भोल/--तीन कारणों से पूरी

प्रभ्मी पिचस्तित शोती है !

(१) रस्नप्रभा पृथ्वी के नौपे चप्र पनवाय हुम्ध हो जाती

है उब उसस पनोदणि फ्रम्पित शांता है झौर उससे

सारी प्रृप्णी विभलित हो जाती है (

(२) महासद्वि सम्पन्न याप्रत्‌ महांशक्तिशाक्षी मंश नाम

बाला देव तथारूप फ्रे भमय माइस को भपनी श्यद्धि,

घुवि, पश, षल्त, पीय्य, पुरुषाकार, पराकम दिखल्ावा इझा

सारी प्ृप्वी को विचलित कर देता !

(३) दंधों भीर भयुरों में संग्राम होने पर सारी प्रष्वी

भक्तित द्ोती

( ठाणांग एईशा घृत्र १६४८ )

भी जैन सिद्धान्त बोर संग्रह, प्रभभ माण प्‌

११८--अंयुर के सीन मेद'--- (?) भात्मांगु्त (२) उत्सेघांयुल (३) प्रमाझ्ांगुत्त |

आास्मांगुर'>-जिस काल में लो मनुष्प होत॑ हैं उनके भ्रपने अंग्रुक्त को आत्मांगुल फइते हैं। फाक्त के भेद्‌ से मजुर्प्पो की अवगाइना में न्‍्यूनाधिकता ोने से इस भंगुल्त का परिमाण मी परिबर्तित होता रहता है। खिस समय जो मनुष्य होते उनके नगर, फानन, उधान, गन, छड़ाग, कप, मकान भादि रन्‍्हीं फे भंगुल से भर्थात्‌ भात्मांगुक्त से नापे जाते हैं 9

उत्सेघोगुछ्ध --भाठ यवमष्य का एक ठत्सेधांगुक् होता है। उस्सेघांगुप्त से नरक, विर्यम्च, मनुष्य भार देवों की भव गाइना नापी जाती है।

अमाखांगुज्ञा---पह पअंगुस्त सभसे बड़ा होता है। इस लिए इसे प्रमाणायुज्त पड़ते हैं। उस्सेघांगुत्त से इसार गुजा प्रमा्था गुत्त घ्वानना चाहिये | इस भ्रंगुल से रस्नप्रमादिक नरक, मवनपतियों के मदन, कल्प, बर्षघर पंत, दीप भादि की शम्पाई, चौड़ाई, ऊंचाई, गदराई, भीर परिधि नापी जाती है। शारवत बस्तुओं के नापने के लिए बार हजार कोप का योजन साना लाता है! इसका कारण मही है फ्ि शाश्मत वस्तुओं के नापने का योजन प्रमा्ांगुल से लिया घाता है। प्रमाणांयुल उस्सेषांगुल से इनार गुखा अधिक शोता है। इसस्तिए इस भ्रपेषा से प्रमाणांगुल का ग्रोबन उस्सेघोंगुस के योघन से इजार यशुणा घड़ा होता दै | ( अनुमोगड्ार सू» १३४ इन १५७ से १७३ आागमोइप समिति )

दर श्री संठिया जैन प्रस्बमावा

११६---#म्पाजुपूर्वी के तीन मेद'--- (?) पूर्बानुपर्डी (२) पमाजुपर्वी (३) भवालुपूर्वी

--जिंस ऋग में पहस स॑ भारम्म होकर हमर गजना की जाती है वह पूर्शवुप्‌्वी है। लैसे+-पर्मास्तिफाप, भभर्मा- स्विकाय, प्राक्शास्विकाय, जीवास्थिफराय भौर फाल |

पश्ानुपूर्ती--छिस क्रम में भन्‍्त से भारम्म कर उतरे क्रम से गणना की जाती है उसे पमालपूर्वी कइत मैसे।-फालत, पृवृगललास्तिकाय, कीबास्तिकाय, भाकाशास्तिकाय, प्रधर्मा- स्विझाप और '्र्मास्तिकाय

अनालुपूर्वीः---जिस में भनानुपूर्षों भौर पश्चानुपूर्तों के सिगराय भ्रन्प फ्रम होता है वइ पूर्वालूए्जी है। से एक, दो, तीन, चार, पांच और छः इन छट् भंकों को परस्पर गुखा करन पें जो ७२० संख्या भाती है। उतने ही छह द्रम्पों फ़ भंग बनते ६। इन ७२० भर्गों में पहल्ता मंग पूर्वालुपूर्जी का, अन्तिम मंग परचालुपूर्यी फ्रा शौर शंप ७१८ मंग भनाजु- पूर्वी है।

(अनुषोगग्ार स्‌० ४६ से ४८ भागमोद्म समिति टीका (ए्त ०१ से ७») १५०-शदणामास की स्पात्या और मंदा--सदोप स़क्षश को झपशामास कदते ६) सपजामास के तीन मेद'--- (१) भम्पाप्ति (२) भतिम्पाद्ति ( ३) भ्रसम्मब अध्पात्ति---सक्य ( जिसका लद्॒य फ्िपा याय ) के एफ देश

श्री मैन सिद्धान्त षोल् संप्रह, प्रथम माग पड

में लण के रइने को भम्पात्ति दोप कहते हैं। जेसे'- पशु का सदझ सींग | ;' अथया जीव फा लघस पयेन्द्रियपन | अत्तिष्पाप्ति--लक््य और झसक्‍य दोनों में लघस फे रहने, फो अतिम्याप्ति दोप कहते हैं। जैसे - गौ फा स्घय सींग असम्मम+--धक्त्य में क्षण के सम्मय डोने को प्रसम्भव दाप कहते हैं। थैसे - अग्नि का क्तस शीतलता ( न्याय दीपिका प्रकाश ) १२१ समारोप फा खघण भौर उसके मंद'--जओो पदार्थ जिस स्परूप पाक्षा नही उसे उस स्थरुप घाला जानना समा- रोप ई। इसी फो प्रमाणामास फहते हैं। समाराप फे सीन मेद'-- ( १) सशय (२) पिपयंय ( ३३) भनध्ययसाय संशय'--विरोधी अझनंफ पर्धों फ्े अ्रनिश्नयात्मक शान फ्रो संशय ऋड्टत हैं। जेंसे - रस्सी में “यह रस्सी या सांप!” भयपा सीप में “यह सीप या चांदी” ऐसा ज्ञान दोना | संशय छा मू्त यदी कि चानने बाते को भनेक प्चों फे सामान्प धर्म का धाम तो रहता परन्तु विशप धर्मो का ज्ञान नहीं रहता !

उपरोक्त दोनों च््टान्सों में ज्ञाठा को सांप भीर रस्सी काय शम्पापन एए सीप और चांदी की श्येदता, घमफ भादि सामान्य घर्म का हो धान परन्तु दोनों फो प्रथफ् झरने

भी सेठिया जैन पत्षमाज्ञा.. * हि

बाले विशेष घम्मो का ज्ञान होने से उसका ज्ञान दोनों ओर मु रहा है | यह तो निश्चित है कि एक धरस्त दीनों रूप घो हो नहीं सकती वह छोई एक ही भीज होगी इसी प्रफार सब इम दो पा दो से अधिऋ विरोधी बातें सुनते हैं। तब ही संशय होता है। जैसे - किसी से कश- चीष नित्य है दूसरे ने कषा-अीव प्मनिस्य है। दोनों विरोधी बातें सन कर सीसरे को सन्देह हो जाता है|

महुतसी बस्तुएं नित्य हैं भौर बहुत सी अनित्म। चीज मी वस्तु होने से नित्य या भनिस्य दोनों दो सकता है। इस प्रड्रार अब दोनों छोटियों में संदेह होता है तमी संशय होता है हृस्पत्व की भ्रपेदा प्रस्पेक दस्तु नित्प है. और फर्याम की झपेधा अनिस्प | इस प्रकार मिस भ्रपेषराों सें दोनों धर्मों के भस्तित्व फ़ा नि््य दोने फर संशप नहीं कड़ा या सकता |

पिपंम!--विपरीत पत्र के निश्रय करने बाले श्वान फ़ो दिप्पस

कहते हैं। जैसे!- सांप को रस्सी समझना, सीप क्री भांदी घमझना

अनध्यवसापा---पह कया है” ऐसे अस्प्ट ज्ञान को अनष्य-

बसाप कहते हैं बेतेः- मार्ग में फतते हुए पुरुष को तृख, इकर भादि का स्परों होने पर “यह क्‍श है २! ऐसा अस्पष्ट ज्ञान होता है बस्तु करा स्पष्ट और निधिव रूप से क्षान दने से हो यह शान प्रमासामास माना गया है|

( स्माकशाबतारिद्ाा परिघ्छेव ! सू० से १४) ( स्वाथ प्रदीप अब )

अभी औैन सिद्धास्त बोल संप्रइ प्रथम माग प्७

“२२२ किला के बी मंग--सन्दान में पिता के वीन संग होते. £ भर्थात ये सीन भंग आयः पिता फ्े झुक्त (वी्य्य)के परियाम स्वरूप द्वोते ई।

(१) भ्रस्पि ( इड्डी है

(२) भस्पि के झन्दर का रस,

(३) पिर, दाढ़ी, मूं ६, नख भीर इषि भादि के पाल,

( ठाणांग $ सूत्र २०४६ )

१२३- माता के तीन अंग---सन्तान में साता के सीन भंग होते हं। अपात्‌ ये सीन मंग आय माता फ्रे रमर के परिणाम स्वरूप होते हैं।

(१) मांस (२) रक्त (३) मस्तुलिज्र ( मस्तिष्क )

( ठाण्ाँय सूत्र १०४ ) १५४--सीन का प्रत्युपकार दुषशक्य है --

(१) माता पिदा (२) मता (स्वामी) (१) धमाचास्य इन धीनों का प्रस्‍्युपकार अर्थात्‌ उपकार फ्रा गरदक्ता घुफ्ाना दुशक्प है।

भावा पिवा --फोइ इत्तीन पुरुप सभेरे दी सबेरे शतपाक, सइस् पाक लेसे -सैक्त से माता फ्ति शरीर फी मालिश करे |

मात्तिश करके सुगन्घित दल्प फा-उमटन फरे एसं इस के

पाद सुगधी, उप्य भर शीतल तीन अदार छे सल्त से स्नान कराये | सत्पश्रात्‌ समी अछकारों उन शरीर को भूपित फ़रे वस्त्र, झामूषणों से भर्तकूत कर मनोहष, अठारद प्रार के व्यम्मनों सदित भोजन कराये भर इसके बाद उन्हें भपने झन्‍्धों पर उठा फर ऐिरे यावस्जीव एमा

प्री सेठित्रा जैत प्रत्षमाशा

करने पर मी वह पुरुष माता पिता भह्ान्‌ उपकार से उफ्रस नहीं हो सकता परन्तु यदि वह केयल्ली प्ररूपित घर्म कइ फ़र, उस का बोध देफर माता पिता फो उक्त धर्म में स्थापित कर दे दो वह माता पिता परम उपफ़ार का इदणा भूरा सकता

भतां (श््रामी) --फोई समय॑ घनिक पुरुष, दृ खास्था में पढ़

हुए किसी असमर्थ दीन पुरुष के घनदान आदि से उप्तठ फर दे वह दीन पुरुष भ्पने उपक्ारी क्री सद्दायता से बंद कर उस के सन्धरुप पा परोष्त में विपुल्त मोग सामग्री सगे छपमोग करता हुआ दिचरे। इसक माद यदि किसी समर में ज्ञामान्तराय कर्म के ठदय से बह मर्ता ( उपझारी ) पुरुष निषेन हो साथ भौर वइ सहायता की भाशा से उस पुरुष पाम ( जिस को कि उसने भपनी सम्पन्न झगस्‍्मा में घन भादि क्री सहायता से बढ़ाया था ) छाय | मद मी इपने भर्तों ( उपकारी ) $ महइतदुपकार का स्मरस कर अपना सबस्द उसे सप्पित कर दे परन्तु इतना फ्रर्क मी बइ पुरुष भपने ठपकारी फ्रिये हुए उपकार से उस नहीं हो सड़ता। परन्तु पदि बह उसे फ्रेवली मापित धर्म कई कर एवं पूरी तरइ से उसका दोघ दकर पर्म में स्थापित कर दे तो बद पुरुष ठस के ठपऊयर से क्रय हो सस्ता ६।

धम्ाणार्स्पः--क्यई पृद्य घमाजास्य कू समीप पाप कर्म से

इटान बाला एक मी धार्मिक सुबतन सुन कर डृद्य में

भरी जैन सिद्धान्त चोद संप्रइ, प्रथम माग घट

घारख कर से एवं इस फे बाद, ययासमय काक्ष फरक देषलोफ में उत्पन्न हो यह देवता धर्माचाय्य फ्रे उपकार छा रुपाह करफे भावश्यफ्ता पढ़ने पर उन धर्माचार्य्य को दूर्भिच वाले देश से दूसरे देश में पहुँचा देवे। निर्यन, मीपण भटदी में से उन झा उद्धार करे। एवं दी्ष फालफ कुप्टादि शोग एप शज्ञादि भाठक् से उनकी रचा फरे। इतने पर मी वह देषता अपने परमोपफारौ धमांचार्य्प के छपकार का बदक्ता नहीं चुका सकता। ढछिन्‍्तु यदि मोह कर्म के उदय से बह पर्माचार्म्प स्वय फ्रेवली मरूपित धर्म से अष्ट हो चाय भौर वह देवता उन्हें केयल्ती प्ररूपित घर्म फ्या स्परूप पता फर, धोध देकर उन्हें पुन घर्म में स्थिर फर तो षइ देवता घर्माचार्म्प के ऋय से धरक्त हो सकता ६।

( ठाखांग सूत्र १३४ ) १२५-झआारमसा तीन"*---

(१) धह्टरात्मा (२) भन्तरास्मा (३) परमात्मा |

इश्रिस्मा --जिस जीप को सम्पगध्षान के ने दोने स॑ सोहपश शरीरादि बाप पदार्थों में भार्मयुद्धि शो कि “यद में दी हूँ, इन से मिन्‍न नहीं हैँ।”” इस प्रकार भारमा को देह फू साथ जोड़न बात्ता भ्रतानी भात्मा बश्रिस्मा ई।

इन्दरास्माश--ओ पुरुष बाप मार्दों झा प्रथझू झर शरीर मिन्‍न, शुद्ध द्ान-स्यरूप झामा में दी भात्मा फा निश्चय करता ६ै। पद भात्म-श्ानी एरुप भन्तरात्मा £ |

६० शी सेठिया सैन प्रस्थमाल्ा

परमात्माः--सफ् कर्मो का नाश कर मिस झास्मा ने भपना छंद ज्ञान सररूप प्राप्त रर लिपा ई। जो बीतराम भौर इतकस्य ऐसी दाद्धात्मा परमात्मा है। ( परमास्म प्रकाश गाजा १३, ४, (१)

११६-तीन भर्प योनि ---राश्सक्मी भादि की प्राप्ति के उपाय अथ योनि है। थे उपाय सीन है!-- (१) स्राम (२) इएड (१) मेद।

प्ाम*--एक दूसरे के उपझार को दिखाना, गृस कीयेन करना, सम्बप का कहना, मजिष्प कली भारा देना, मीठे बचनों से “मैं तुस्दारा ही हूँ ।”” इस्पादि कश्कर आत्मा फ्य भ्र्पश करना, इस अफ्रार के प्रयोग धाम रइछाते £।

इपड'--अप, क्तेश, धन इरथ भादि हारा शत्रु को बश करना दुयड कहलाता !

मेद --जिस शत्रु छो जीवना ई, ठप्त के प्र के सीगों रा उस से स्नेह इटाकर उन में कशइ पैदा कर देना तथा मय दिखा कर फूट करा देना-मेद है।

( ठायांग सूत्र १८८९ कौ टीका )

१२७-भड़ा, प्रतीति, रुचि, भद्धा --थहां वर्क का प्रवेश हो ऐस पर्मास्तिक्मय झादि पर स्पाक्याता के कपन से विश्वास कर लेना-भदा की

प्रवीविः---म्पार्पाता से मुक्तियों हवएए ( पृष्यपाप भादि) पघममम कर विश्वास करना-प्रतीति है।

मरी मैन सिद्धास्त बोल संपई, प्रथम माग घ्ह्‌

इचि!---स्यारूयाता हररा ठपदिए्ट श्रिषय में अद्धा फरफे उसके अलुसार तप, भारित्र झादि सेवन फ्री इ॑डा फरना रुचि है। ( भगषठी शतक ! रशेशा सूत्र 3७ ) १२८ (के) ग्रुखत्रत झी भ्याख्या भौर मेद -भणुशत के पाष्तन में गुणकारी यानि उपक्वारक गु्सों फ़रो पृष्ट करने बाले परत गुणजत कइलाते ई। गुथ्ध कत तीन हैं।-- (१) दिशिपरिमाश् द्रद (२) उपभोग परिमोग परिमाशश॒त (३) झनथंदएड गिरमय वत | दिशिपरिमाण घत ---पूब, पश्चिम, उत्तर, इपिण, उसपर, नीये इन छुइ दिशाओं छी मर्यादा करना एवं नियमित दिशा से झागे झाभब सेदन का स्थाग फरना दिशिपरिमाथ व्रत कहलाता है उपभोग परिमोग परिमाथ वृत)--मोवन भादि श्री एक बार मोगले में झादे ईं पे ठपोग हैं और बारबार भोगे माने बाले वस्त्र, शय्या झादि परिसोग हैं। उपमोग परिमोग योग्य बस्तुझों का परिमाय फरना, एम्मीस बोलों फी मर्पादा करना एवं मर्यादा रू ठपरान्त उपभोग परिभोग योम्प बस्तुझों के मोमोपमोग का त्पाग फ़रता उपभोग परिमोग परिमाण मत है। अनर्दण्ड विएमश जत"--अपध्यान भर्थात्‌ झार्चंध्यान, रौद्र ध्यान करना, प्रमाद पूवेक प्रवृत्ति करना, दिसाकारी शस्य देता एप पाप कर्म का उपदेश देना ये सभी छाप्य भनर्भ इयड ई। क्योंकि इनसे नि्रयोजन हिंसा दोती £।

रु] » प्री सठिया मैन प्रम्भमाज़ा

अनर्प-दुपह के इन क्ार्य्पों का त्पाण झरना अभनर्मृदणड पिरिमण बत ( इर्मिद्रीपावश्पक भष्याय पूछ ८६९६--८२६ ) १२८ (ण) गुप्ति फी ब्यास्या भौर मेदः--भद्दम योग से निषृत्त होकर शुभयोग में प्रवृत्ति करना मुप्ति | भय -- मोकामित्तापी भास्मा फरा झात्म रचा फे शिए भधुम पोगों का रोकना गुप्ति ६ै। अपवा)-- भाने बाले फर्म रूपी कपरे फ़ो रोकना गुप्ति ६। गुप्ति के तीन मेद -- (१) मनोगुप्ति (२) बचनगुप्ति (३) फ्रायगृतति। मनोगुप्तिः--भआार्चभ्पान, रौद्गष्पान, संरम्म, समारम्म भार आरम्म सम्पन्धी संकल्प विकल्प फरना, परलोफ़ में हितकारी धर्म स्पान सम्पधी चिन्सपना फरना, मध्यस्त माद रखना, हम भशुम योगों को रोफ फर योग निरोष अबस्था में होने बाली अन्तरार्मा फ्री झ्रवस्था को प्राप्त करना मनोमुप्ति ६। बचनगुप्तिः--बघन के अशुभ भ्यापार, शर्थात्‌ संरम्म समारम्म और आरम्म सम्धघी प्रचन का स्थाग फरना, पिरूपा करना, मौन रइना, भचन गुप्ति है। कायगुप्ति --एड़ा दोना, बठना, उठना, सोना, शाँपना, सीषा अरना, इन्द्रिपों को अपने अपने दिपयों में झगानां, धंृरम्म, समारम्म आरम्म में प्रति करना, इत्पादि कापिर

भी डैन सिद्धान्त बाक्ष संपइ, प्रथम माग घ३्‌

ध्यापाएं में प्रति झरना अर्थात्‌ इन ब्यापारों से निह्च होना फायगुप्ति ६। भयतना का परिद्ार कर यतनाएूर्यक फ्रामा से स्पापार फरना एवं अशुम स्यापारों फा स्पाग फरना फागगुत्ति ।. ( ढच्त० ऋ० २५ गा० २०-१४ ) ( ठा०३ 3० है सूत्र १९२६ )

चौथा बोल ( बोश संप्या १२६ से २७३ हक ) १२६-मांध मार्ग पोत्त--(१) सम्पणान (२) सम्पम्द्शन (३) सम्परू भारिय भौर (४) तप | ये मोद् को प्राप्ति फे उपाय हैं। (एधराप्ययन अध्ययन २८) १२६- (म)--पर्म भार प्रसार फा ह-- (१) दान (२) थीस (३) ठप (४) मादना | सम्रति शतम्यात प्र० गा* १६ ) १२६ (भा)--भार प्र्ार बीर्ों क्री दपा-- (१) प्राण (२) भून (३) जीए भौर (४) छत्प, इनझा इनन ने झरना, इन पर भनुशासन झरना, इन्हें एरिताए ने देना भौर ॥र प्रार्गों मे पिपुद ने रूना ( चावषाराद्र ्रध्यपन पर | सू० ११७ ) $३+ (६) पतना घार गृगौ--( १) ८ठना परम छो

उननी (मांगा) है। (२) ज्लना पर्म शी रदा झरने बानी ६। (३) पाना से हप दी (ृद्धि

ग्र शी सेठिया जैन प्रत्थमाहा

हे ६१।(४) पतना एड्ान्त रूप से सुख देने वात्तौ (प्रतिमा शतक ) १२६ (क)--चाए मंगछ रूप ६, लोक में उत्तम हैं तबा आर रूप ईं-- (१)-भरिदन्त, (२) पद, (३) साए, (४) छंपली प्ररूषित घर्म,

अरिइन्त--'घार घासी फर्म रूप शत्रुझों का नाश करने दात्ते, देमेन्द्र छत भ्रष्ट मद्दा प्रातिशार्यादि रूप पूछा को प्राप्त, सिद्धिगठि फ्रे पोग्प, फेज शान एवं केपत्त दर्शन से जिफ्ाल एवं छोरू प्रय को छानने भौर देखने वासे, शितो- पदेशरू, सबंश् मगबान्‌ भरिहन्त फइशाते है। भरिहन्त भगषान्‌ के झाठ महाप्रातिदाप भौर भार मृलातिशप रूप बारह पुस हैं।

पिड़ --पुफ्श स्यान द्वारा झाठ फ्मों का नाश करने बा्ते, पिड्शित्षा के उपर छोकाग्र में रिशबभान, कृत इृस्प, प्रक्तास्‍्मा सिद्ध कद खाते हैं| धाठ कमे का नाश होने से इन में भाठ गुल प्रगट शेते है नोट'-पिद्ध मगदास्‌ के झाठ गु्शों का बर्णन भराठवें बोल में दिया घापगा |

साधु।--पम्पग्‌ ज्ञान, सम्पग्‌ इर्शन, भौर सम्पग्‌ भारित्र हारा मोद्मार्ग की आराघना करने बाते, प्राशी मात्र पर सम्रमाव रखने बस्से, पटकाया के रक्षक, झाठ प्रबचन

श्री जैन सिद्धास्व घोश सेप्रड, प्रथम भाग श्र

कमल ८4029 00: 77: '/ 5202 #+ ५40 दी तल मादा के झारापक, पंच महप्रतपारी एनि साधु रूइत्ाते हैं।

आधार , उपाष्याप का भी इन्हीं में समावेश छिपा गया है| फेपली प्ररूफति घम---पर्ण धान सम्पम्म फ़ेषली मगयान से प्ररूपित भुत चारिष्र रुप धर्म केबली प्ररूफित धर्म !

ये चारों द्वित भौर सुख फ्री प्राप्ति में फारण रूप हैं। अठ एव मंगल रूप है। मंघल रूप शोने से पे शोक में उत्तम £।

इरिमद्रीयाबर्मफ में भारों की ज्तोझ़ोचमता इस प्रकार बतलाई ६+--

भौदपिक भादि माय मावत्तोरु रूप | भरिदन्त मगपान्‌ इन मा्षों फी भपेधा लोकोचम हैं। ऋईन्तापस्था में भाष! भपाठी कर्मा की श्युम प्रकृदियों का रुदय रहता है इस लिये भादपिफ माद ठत्तम दोता ६। चारों घाती कर्मो के दुय इने से चायिर मा मी इन में सर्योचम होता है। आपशमिफ एपं दायोपशमिफ्र माव भरिदन्त में दोते ही नहीं ै। चामिफ एगें भौदपिक के संयोग से दोन पाला सापक्‍्रिपातिझ मार मी भरिइन्त में उचम दोता कयोंहि दापिफ भौर भौदषिक मा दोनों है उम ऊपर बताय॑ जा घुफ़े ईै। इस प्रकार भरिदन्त मगदान माद की भ्रपेषा लोफोचम हैं। सिद्ध मगयान्‌ चायिझ माब ही भपेषा सोडोचम हैं। इसी प्रडार शोझ में सर्दोद स्सात वा विराजन भें सच बी शरपेशा पी के फरोहोज़ाप |

भी संठिया जैम भ्स्थमाका

साधु मद्दात्माः--झ्ञान दर्शम चारित्र रूप मा्वों की ठस्कृश्ता

की अपेदा शोकोचम ६--भौपशमिर, दरपोपशमिक, और चायिक इन माों की भ्रपेषा केपछी प्ररूपित धर्म भी लोकोत्तम ई।

सांसारिक्ष दुःसों से ध्रास पाने फ्रे लिए समी झ्ास्मा रक्त चारों का झाभप लेते £।इस लिए वे शरण रूपई। यथा --

“प्ररिएंते सरयं पवन्ञामि, सिद्धे सरस॑ फन्वामि। साह सरण॑ पत्रृज्जामि, पेषलिपएसर्त पम्म सरण॑ फाज्जामि।

बौद्ध साहिस्प में बुद्ध पर्म भर संघ शरस रूप मान गये ६। ' यया)-- हु

चुद सार्थ॑ गस्द्वामि, धम्म॑सरण॑॑ गन्छामि, संप सरण॑ गब्छामि।

( इरिमद्रौयादर॒प॥क पदिकरमसणाप्पयम प्रप.् १६६)

१२५६-(स) भरिदन्त मग॒पान्‌ के भार मूच्ातिशप--

(१) अपायापगमातिशय (२) ब्ानातिशय | (३) पूजानिशय | (४) परागठिशय

अपायापगमातविशप--भपाय अ्रयात्‌ भठारद दोप एगे वि

बाधामों सईंधा नाश हो जाना रपायापगभातिशप दै।

भी सैद सिद्धास्व गोक्ष संप्रह, प्रघम मार मे

नोट --१८ दोपों का वर्शेन भठारइवें घोल में दिया जायगा

जानातिशय --आ्ञानावरशीय कर्म के क्षय से उत्पन्न प्रिकाज्ष एव ब्रिलोक के समस्त दब एवं फ्योयों क्रो इस्तामशफबत्‌ जानना, सपूर्ण, भग्यावाण, भप्रतिपाती हवन का घएण करना ज्ञानातिशय है।

पूरापिशप--भरिशन्त धौन छोड़ फ्री समस्त भात्माभों रू लिए पूज्य हैं तथर इन्द्रृत अष्ट मद्दा प्रातिदर्यादि रूप पूजासे पूलित हं। जिलोक पूज्पता एवं इन्द्रादिक्ृत पूजा ही पूजाविशय है|

भगवान्‌ फे चौंठीस अतिशय, झ्रपायापयभातिशय एवं पूजातिशप रूप ही हैं। ्ू बागविशप--भरिहन्त मगवान्‌ रागद्ेष से परे दोते हैं, एपं प्वान फे घारक दोते | ईसलिए उनके बचने धत्य एवं परस्पर बाधा रहित होते है| बाशी की २८ विशेषता ही बचनातिशप है। मगघान्‌ फ्री दासी के पेंतीस भतिशय वागतिशप रूप ही हु ( श्पाष्टाइमण्डसे कारिका टीका ) १३०-मंसारी के चार प्रकार/-- (१) प्राण (२) भूद (३) चीव-(४७) सच ||» प्राख/--विरलेन्द्रिय भथांत्‌ शीन्द्रिय, औौर््रिय, भतुरिन्द्रिम जीवों को प्रास कहते

प्प और सेठिया सैन प्रश्यमाला

शत ---नस्पति काय को सूत कहते हैं |

जीव --पस्घ॑न्द्रिय प्रालियों को जीव कहते हैं सख्य/---पृष्वी कप, अपकयय, वेउश्थय भौर बापुर्यय इन भार स्थाषर जीवों को सत्य छहते हैं (ठाजांग उर्ेशा घृत्र ४३७ ) थी मगदती छत्र शतक उद्देशा ! ध्त्र ८८ में जीब प्राण, भूत, जद, सत्त भादि छः नाम मिलन मिन्‍न धर्मो' की गिगधा से दिये हैं। विल्न भौर बेद ये दो नाम भष्टां भरपिक है | सैेसे कि-- _ प्रा --आख्वाय्‌ को खींचने और बाइर निराश भर्मात्‌ श्रामोच्झरात छेने के कारण धीग ढ़ो प्राथ कहा जाता है गा कासों में विधमान होने से जीव को मृत कश जाता है। जीव' --मरीवा हैं अपोत्‌ प्राश भारण करता है और झा कर्म राजा थीषत्त का भनुभष करता श्सछ्तिए यह सीप है। भच -(सक्त, शक, भयवा मच्त) जीम शुमाशुम को के घाब सम्बद्ध है। भ्रप्छे और ब्रे फाम झरने में समर्थ है या सत्ता दाला इसलिए इसे सच ( क्रश'-सफत, शषत, 0व ) बडा जाता है। विश्:--कड़पे, अपैसे, सह, मीठे रसों को घानता है इसलिए जीव विश्ञ कइताता है ) बैद --जीव सुख दु“ों का भोग ऋरता है इसस्तिए बइ बेद कइसाता | संगयदी शहऊ कह़ेशा ! सूत ८८)

हबर्‌ सठिया जेन भ्स्यमाला

(३) बह तस्त्फ्स उत्पन्न देवता “में मनुप्प छोक में साउऊँ, श्रमी बाद” पेसा सोचते हुए विशम्ब कर देता ईं। क्पोंकि वह देव कार्य्यों फराधीन हो वाता है और मनुष्य सम्पन्धी कार्यो से स्वतन्ध्र हो जाता इसी मीच उसके पूर्व मम के प्रत्प आायु बसे स्वजन, परिशर झादि के मनुष्प अपनी भायू पूरी कर देते हैं।

(४) देवता को मनुष्प क्लोक की गन्‍्ब प्रतिकृतत भर अत्यन्त भ्रमनोश्ष माखूम होती ६। बह गन्‍्प इस सूमि स, पहल दूसर आरे में चार सौ योखन भर शेष आरों में पांच धी योजन तक उपर जाती (ठाजांग सूत्र ३०३ ) १३६-तस्काल उस्पन्न देवता मनुष्य शोफ़ में भाने की ईपछा करता इझा भार बोछों से श्रान में समर्थ शोत £।

नोट/--एसके पहल के तीन बोल तो बोज्त नम्पर

११० में दिय सा घुफ्टे /

(४) दी मित्रों पा सम्पन्धियों ने मरन पहल फ्रम्फर प्रतिया बरी फ्रि इममें सं जा देवलाक पहल घअमगा। बूसरा उसकी सहायता करगा | इस ग्कार दी प्रतिता में बढ डोकर स्वर्ग से 'सबकर मनुष्य मर में उस्प्म हुए अपन धीची की सहायता करन के लिए वह दमता मनुष्य खांक में झान में समर्ष होता |

(टार्शाग शव सूरउ ३०३)

भ्री जैन सिद्धान्त बोल मप्रहट, प्रथम माय १७३

१४०-शत्फाल उस्पन्न हुआ नैरपिछ मनुप्प लोफ में भान री ह््ला करता डिन्‍्तु चार दोलों से भाने में अममर्य £ै | (१) नवीन उत्तन्न हुआ नरपिर नरफ में प्रबल वंदना का अतुमय झरता दुआ मनुष्य खो में शी भानें की इप्टा करता ई। पर भाने में भसमय £

(२) नथीन उपन्‍न नैरपिय नरक में परमाघामी दवताथों से मसवाया हुमा मनुष्य लाए में वी ही भाना घातता ६। परन्तु आन में अममर्ष ६। (३) हन्झान उत्पन्त नैरपिए नरर याग्प अशुभ नाप कप, भमाता एंदनीय झारि कर्मों की स्थिति चय हुए बिना, परिपाझू मोग बिना भौर ठक्त झूम प्रदशों आरमा से भलग द्ृण रिना ही मनुप्प लोरु में भान ही इप्ला अगरता £ परन्तु निराचित कर्म रूपी जजीरों बधा घोन कारश भान में अममर्प (४) नरीन उसपन्न नरपरिझ् नरक झायू ऋम की स्थिति पूरी धृण शिना हिप्रार मांग दिना घर भापु कम प्रशशों भाग्मा से एप हुए दिना दी मनुष्प शाप में गाना चाग़ठा ६) प्र नरझ झापृ कप के खत हुए झान में भगमर्ष शा ( राग के श्धूच सए३ ) १४१-मारना चार -- (2) घर मारता ,,(३) छोविदयिदी माइवा (२) दिशिरिए राएर" ६६८ श्री माइना

१०० शी प्ठठिया जैन प्रस्थमाश्षा

(१) माया।--पर्थाद्‌ इटिल परिसामों वाला-जिसके मन में इठ हो और बाइर इद्ध हो | विपरदधम्म-पयोग्रु् की शरड़ झूपर से मीठा हो, दिस से अनिट चाइने बाला हो

(२) निरूचि बान्ताः--दोंग ऋरके दूसरों को ठगने की घट करने बाला |

(३) मूठ बोलने बाशा !

(9) भूठे वोत् झूठे माप बाता भधांत्‌ खरीदन के लिए बड़े भोर भेचने फे लिए छोटे तोल भौर माप रखने बाला जरीब्र ति्यभ्च गति पोम्प फर्म बरान्मता ई।

(ठाद्बांग तर्देशा सूत्र ३७३ ) १३४-मनुष्प भायु पन्‍्षर के भार कारश!-- (१) भद्र प्रकृति वाला (२) स्वमाव से बिनीत (२) दया और भ्नुकम्पा के परियामों बाल्ता (४) मस्सर झर्थात्‌ ईर्पा-दाइ करने बाखा जीव मनुष्य भ्रापु योग्य कम बोंघता है | -ल ( ठाशांग दशेशा सूत्र ३५३ ) १३५- दब झायु दन्‍्ध के चार कारण --- (१) प्राग सयम बाक्ता | (२) देश पिरति भाषकपना।

(३) प्रक्मम निर्जरा क्रयाद भनिष्ठा पूर्णक पराघीनता आदि फ्रारशों कर्मो की सिर्मरा करने बाला |

भरी मैन सिद्धान्त पोख संग्रह, प्रयम भाग श्र

(४) बालमाव से पिवेफ के बिना अक्ञान पूर्यफ फाया कसेश भादि तप फरने पाला जीप देधायु क्े योग्य फ्मे घाँघता है |

(ठाशांय ए्टेशा सूत्र १७३ ) १३६-देदताओं के चार मेदः--

(१) मवनपति (२) व्पन्दर (३) ज्योतिष (४) मैम/निफ।

(रत्तराष्ययत्न अध्ययन १६ शाथा १०२) १३७-देयताधों फी पद्तिघान फ्रे घार मोत्त:-

(१) देजताभों की पुप्पमाज्ायें नही इम्दसाती

(२) देवता नेत्र निर्निमेष होते हैं। भ्रपात्‌ उन पदक

नहीं गिरते

(३) देववा फ्रा शरीर नीरज भ्रथात्‌ निमल डांवा ६।

(२) देवदा भूमि चार भंगुस्त ऊपर रहता है। बढ़ सूमि का स्पर्श नहीं फरता। ( स्यपाद्ार साप्य ए० रे गो ६०४ ) (अमियान राजन्द्र कोप माग पृष्ठ २३१०) १३८-सत्काक्ठ उत्पन्न दवता चार कारणों इच्धा करने पर मौ मनुष्य लाफ में नहीं भा समता | (१) तत्झाम उरपन्‍न देपता दिख्यस्यम मोगों में भर्यधिक मोहित भर गृद दो सादा ६) इस स्तिए मनुष्प सम्पन्धी फ्रम भागों सै उसझा भोद छूट याता भौर बद उनही चाह नहीं फरता | (२) बह दएता दिम्प श्यम भोगों में इतना मोदित भौर सद्ध वाता कि उपर भनुष्द धम्प-धी प्रेम टपता सम्द पी प्रेम में एरियठ शो घाता |।

श्र श्री सठिया जैन प्रम्भमाला

(३) बह पत्कक्स उत्पन्न देगता “में सलुम्य जोड़ में का, अमी जाए” ऐसा सोचते हुए विलम्ब कर देता है। क्पोंकि वह देव कार्य्यों के पराघीन ड्रो वाता और भलुष्प सम्बन्धी कार्यों से स्वहन्श्र हो जाठा है। इसो घीचर उसके पूर्व सत्र के अल्प प्रायु बाले | स्वणन, परिवार भादि के मनुष्य भपनी भायू पूरी कर देते €।

(४) देषदा को मनुष्य छोर की गन्ध प्रतिदृस भार अत्पन्त झमनोजञ्ञ मालूम होती है। बह गन्घ इस भूमि सं, पहले दूसरे झारे में चार सौं योजन झौर शेर अआरों में पाँच सौ योजन सके उसर जाती है।

(ठाखांग सूत्र शर३ ) १३६-व्काल्त उत्पन्न देवता ममृष्प लोक में भाने की इन्‍्हा करता हुआ भार बोलों से झाने में समर्भ होता है।

नोट।---इसक पहल पे तीन बोल तो बोल नम्पर ११० में दिये पा घुक्के हैं। पु (२) दो मित्रों पा सम्बन्धियों ने मरने से पहल परस्पर प्रतिज्ञा की क्लि इसमें से यो देवलांक से पहले भपेगा। इसरा उसकी सशयता करंगा। इस प्रकार की प्रतिज्ञा में बद्ध होकर स्वर्ग से शगकर मनुप्य भव में उत्पस्त हुए अपने सीजी की सहायता करन के सिए बह देवता मजुष्प झ्षांक में झाने में समर होता ई। (टार्वाग 9 सुज् ३२३)

श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रहद, प्रभभ भाग १०३

१४०-तस्फाज्ष उत्पन्न दुआ नैरयिक मनुष्य कोर में आते फी इच्छा करता डिन्‍्तु चार घोलों से झानें में असम £ै। (१) नवीन उत्पन्न हुआ नेरयिक नरक में श्दरल वेदना का अनुभव करता हुआ भनुष्प कोर में शीम्र भाने री इच्छा करता ई। पर भाने में असम £ ! (२) नवीन उत्पन्न नेरसिक नर# में परमाधामी देवता्ों सताया हुआ मनुष्य शोक में शौधर शी आना घाइता परन्तु आन में असमर्थ ६।

(३) तम्काल उत्पन्न मैरपिफ़ मरक योग्य भशुम नाम फर्म, असाता बेदनीय झाटि कर्मों की स्पिति दय हुए पिना, विपराक्त भोगे बिना भौर उक्त क्र्म प्रदर्शों भास्मा से भ्लग हुए बिना ही मलुप्य छोक में भान की इच्छा फरता £ परन्तु निफाबित कर्म रूपी लजीरों से बंधा शोन झारण श्ान में असमर्थ है | (४) नबीन उत्पन्न नरमरिफ़ नरक भायू फर्म फ्री स्थिति पूरी हुए एिना, विपाद भोग पिना भौर आयु कर्म रे प्रशशों के भात्मा मे प्रयरू हुए पिना दी मनुष्य क्ोब में भाना चाइता ६।पर नरफ आयु कर्म के रहते हुए बड़ भान में असम ह। (्‌ डायागए बे है घूत्र गए४) १४१-मावना घार -- (१) इन्दर्ष मायना /(२) भामियागिडी माइना ! (३) सिन्पिप्रिझ माषता _(४) भासुरी माइना

१०2 प्री सठिय्रा मैस पन्‍्थमाबा

इन्दप मावना'--कन्दर्प करना भ्र्यात्‌ अटाइृद्ास करना, घोर से इात सीत करना, काम कषा करना, काम का उपदेश देना ओर उ्तकी प्रशता करना, कौस्कृष्य ऋरना ( शरीर भौर वन से दूसरे को इंसाने फी चे्टा करना ) विस्मयोत्यादक शीरा स्‍्वमाव रखना, द्वास्प तथा पिविषर विकारों पे इसरों को पिस्मित करना फन्‍्दर्प मावना है।

भामियोगिक्ली भावनाः--सुख्त, मघुरादि रस भर ठपफरश भादि की फ्रदि के ज्िए बशीकरणादि मंत्र झ्रपषरा पंत्र मंत्र (गंढा, ताबीज) फ्रना, रद्षा क़ किए भस्म, मिट्टी भव छत से वसति झादि का परिभेप्टन रूप भूति कर्म करना भआमियोगिक्ी माषना ६।

किम्बिपिक्ी भावना/--दान, फेवल झ्ार्नी पूरुप, भर्माचार्य्प संप भीर साधुओं का भवर्शवाद बोलना ठजा माया करना किल्चिपिकौ मावना है|

आसुरी माना -निरंतर क्रोध में मरे रहना, पुष्ट कारण के बिना

भूव, मबिष्पत्‌ और बर्तमान काक्तीन निमित्त बदाना भासुरी माबना |

इन भार मादनांभों से लीब उस उस प्रकार फ्े देबों में उत्पन्न कराने बाले कर्म बांघता है | अ्रधांत्‌ इन माबनामों बाला जीब यदि प्रद्ाचित्‌ देवगठि प्राप्त करे तो दीन क्रोटि का देव होता है।

( उत्तराष्बयम सूत्र अध्यद १६ गाया २६१! २६४ ) १४२-संत्षा की स्पास्प॥ भीर मेदः---

चैधना'-- ज्ञान का, भसातुक्लेद्वीय भौर मोइनीय कर्म के उदय पता युक्त होना संता है।

सैन सिद्धान्त बौद्ध संम्रह प्रथम माय श्ष्श

सब्जा के चार भेद हैं-- (१) भाशर संक्ा (२) मय सच्चा | (३) मैथुन सच्चा (४) परिष्रद संध्षा।

आदर सज्ञाः--तैलस शरीर नाम कर्म भौर छुपा पेदनीय उदय से कव॒लादि झाइर फे लिए भाद्दार पोम्प पृदुग्ों फो प्रत्थ फरने की ख्रीव की भमिलापा फ्रो आहार संज्ञा" कहते है।

मय सनज्का)--भय मोहनीय के उदय से शोने दाक्षा जीव का व्रास्त रूप परिणाम मय सबश्षा है। मय प॑ उदू्राद जीव फ्रे नेष ओर सुख में विफार, रोमास्ब, फम्पन भादि क्रियाएं शेती हैं।

मैथुन सज्ञा“--पेद मोदनोप फर्म के उदय से उत्पन्न होने पाली मैपुन की इच्छा मैथुन सक्ञा है।

परिग्रद सक्ा'--श्ोम मोहनीय फ्ले ठदय स॑ उत्पन्न शोनें वात्ती उचित आदि द््॒पों को ग्रहण रूप आत्मा फी अमिलापा

अथांत्‌ तृष्णा को परिग्रह सधा कहते है| हे १४३-आाहाए सप्ठा चार कारणों से उस्प्न होती है---

(९) पेर फ॑ याली दने से

(२) घुघा बेदनीय रूम छे उदय से |

(३) भाइए रूपा सुनने और भार के देखने से

(४) निरन्तर भाद्ार छा स्मरण करन पे !

इन चार शोत्तों पे जीव फे भार सह्ठा उपन्न होती है।

( प्रधचन साराद्धार द्वार १४५ भाथा ६२३ टीका )

शब्द सेठिया बैन प्रस्यमात्ता

१४४-मय संता चार कारणों से ठस्पल्न होती हैः-- (१) एत्त भर्पाव्‌ शक्ति दीन होने से | (२) भय मोइनीय फर्म फ्रे ठदय से | (३) मय की बात सुनने, मयानक् बसझों के देखने आदि से ) ;

(२) र्‌ई लोक भादि मय छ्ले कारणों को पाद करने से। इन भार पोत्तों से वौष को भय संज्ञा उस्पन्न दोती है। १४५-मै पुन सप्चा भार कारशों से ठस्पन्न होती है

(१) शरीर के खूब इष्ट्पुप्ट बने से।

(२) वेद मोइनीय फ्रम॑ के छदय से

(३) कायम कथा अयय भादि से

(४) सदा मैपुन की बात सोते रहने से

इन धार बोज्ों से मैथुन संध्या उत्पन्न शोती है। १४६-परिप्रइ सं्षा चार कारों से उत्पन्न दोती हैः--

(१) परिग्रइ की हच्ि होने से !

(२) ज्ञोम मोइनीय कर्म के ठदय होने पे

(३) सभित्त, भ्रबिच्त और मिश्र परिग्रइ की बात सुनने

भौर देखने से (४) सदा परिग्रह कय विचार फरते रइने से ! इन भार पोछों से परिप्रइ संझ्ा उस्पन्‍न शोती है ( बोल नम्बर (घर से १४३ वक लिए प्रमाण )

( ठाणाग झशा सूय १५६ ) ( भभिषान राजेसद्र कोप थां साग पृष्ठ ३३ ) ( प्रबचचत साशेद्धार दा है४४ गाथा २१३ )

श्री चैन सिद्धान्त गाक्ष संपझ, प्रथम माग १०

१४७--चार गति में चार संक्षा्भों का भल्‍्प बहुत्व | सब से थोड़े नैरयिक मंथुनर्सग्ना वाले शेते हैं। आशर संज्ञा पाले उनसे सेस्पाव गुया ईैं। परिग्रद संज्ञा वाले उनसे संस्यात गया हैं| और भय सप्चा बाले उनसे सस्याव गुथा हैं। तिय॑भ्च गति में सब से थोड़े परिग्रद सम्ञा पाले ह। मैंपुन संदर पाले उनसे संस्पात सुशा ई। मय सब्ना बाले उनमे संस्पाव गुणा है। भौर झाद्ार संघ्ता वाले उनसे भी सस्याद सुर ६। मनुष्यों में सप से थोड़े मय संचा पासे | भाहर सत्ता बाल उनसे सस्यात गुणा ईैं। परिग्रदद संज्ञा वाल उनसे सम्न्यास गुणा मैथुन सक्षा भाले उनन मी संख्यात गुणा हैं देवताओं में सब से थोढ़ आहार संगत्रा बाले हैं। मय मन्ता पाक्ते उनसे सल््यात गुसा ई। मैथुन सम्ञा वाले उमसे सस्याव गुणा हैं। भीर परिप्रह संझ्ञा माले उनसे मी सस्यात गुया डा हे ( पप्नवणा संज्ञा पह ८सू० १४८) १४८-बिकपा फ्री स्थास्पा भौर मेदः--

संयम में दापक पारित्र पिरुद फुषा को शिफया कहते €। विऊया के घार भेद (--- (१) सी फया (२) मस्तकथा (३) देशफया (४)राजफरूपा।

(ठाणग एप सूत्र २८२ ) १४६-प््रीऊपा के घार मेद'---

(१) जाति कृपा (२) इत्त रूपा (३) रूप कपा (४) पेश कूया। स्त्री फ्री तावि कपा--प्राद्ण भादि बावि फ्री स्थियों ढ़ प्ररोणा था निनन्‍्दा झरना !

श्न्प क्री सठिया जैन प्रत्थमाजा

स्त्री फ्री इछ कपा--उग्र कुत्त भ्रादि की स्थरियों की प्रशंसा रा निन्‍्दा फरना स्त्री कौ स्पफुपा---माँन्ध भादि देश की एज्रयों के रुप का बर्शन

छरना, झपदा मिन्‍न मिनन्‍न देशों फी स्त्रियों के मिन्‍न मिन्‍न .,

अन्लों की अशंसा या निन्‍दा फ़रना रबी की बेश कपा--स्त्रियों के बेणी पन्‍्त भौर पहनाव झादि की प्रशप्ता था निन्‍दा करना--सैसे भप्कफ देश को एवी के पेश में यह दिशेपता ईं या न्यूनता ६! भस्मफ देश छी स्त्रिया सुन्दर फेश सबारती हैं| इस्पादि | ( ठाशांध इ० < सूत्र <५९ ) स्त्री कमा करन भौर सुनने बालों को मोह फ्री उत्पत्ति शोठी है शोद में निन्‍्दा शोती ६। सत्र भौर भर्य श्ञात की इानि होती ई। प्र्नपर्य्य में दोप शगता है। स्थीकृपा करने बाला सयम से गिर थादा | इलिकी दो बासा पा साष्ठ बेश में रह कर झनाचार सदन करता ६। ( मिशीष धूर्णि उशेशा गा० १२१ ) (ठाणांग र२घसू र८पर) १५४०--मर्त (सात) फया भार। (१) श्राषाप कथा (२) निर्बाप कथा | (३) झारम्म कपा (४) निप्ठान कपा | (१) मोमन प्री श्राब्ाप कवा--मोजन बनाने छी कृषा।! जैसे इस मिटाए को बनाने में इतना पी, इतनी भौनी, भ्रादि सामग्री छगेगी (२) मोजन निर्धाप फपा--दवने पक, अपक्त भनन के भेद इतने स्यंयन होथे हैं। ध्यादि कपा झरना निषवाप फ़पा है।

क््य॥

भरी जैन सिद्धास्व बोल स॑प्रहट, प्रथम माय रण

(३) मोबन की भारम्म-फृपा--हवने थौवों क्री इसमें हिंसा होगी। इस्पादि आरम्म फी कया फरना भारम्म कपा है। (४) मोथन छी निप्ठान रपा-दुस मांचन में इतना हम्प छगेगा आदि कथा निछान झथा है। (ठास्यांग सृत्र २८५२ टीका ) मक्त कया अर्थात्‌ भादार फधा ररने से गृद्ि होती है। भीर आांदार बिना किए ही गृद्धि-भासक्ति से साथु को इन्नाज्ञ भादि दोप खगते हैं छ्ोगों में पह चर्चा होने क्षणती कि पह साधू अजितेन्द्रिय है। इन्होंने खाने फरे लिए सयम लिया है। पदि ऐसा होता तो ये झापु आहार फया क्यों करते ! अपना स्वाष्याम, भ्यान भादि क्यों नहीं करते! गृद्धि माय से पट जीय निकाय के पथ की अनुमोदना लगती ६। तथा झाइर में भ्रासक्त साधु एपथा- शुद्धि का विधार मी नहीं कर सकता। इस प्रकार मक्त कथा के धनेक दोप है।

(डाणांग ब० सूत्र रेपरे टीका) (निशीय चूर्सि रहेशा ! गाया ११४) १५१-देशकथा चार (१) देश विधि फदा (२) देश पिफ्रश्प कथा (३) देश ढंद कपा (४) देश नेपप्य रूपा। इंश विधि कदा--देश विशेष फे भोजन, मसि, भूमि, भादि की रचना तथा बहां मोजन फ्रे प्रारम्म में क्या दिया जाता है, और फिर क्रमश' क्या क्‍या दिथा याता है! भादि कपा फरना देश दिघि कपा है)

११० .. ज्ञी सहिया डेस प्रस्यमाला

देश विकल्प रपा--देश एिशेप में भान्य फ्री उत्पत्ति तमा बहा क्ले वप्र, फूप, देषकुत, मबन भादि का बथन फरना दंश विकल्प फया ! देश छंद फपा--देश शिशंप की गम्प, भगम्प, विपयक्र बात करना | जैसे सार देश में मामा या मासी फ्री शड़की के » सम्बंध किया या सझा और दूसरे देशों में नहीं। इत्पादि कपा ऋरना देश छन्द्‌ कपा ह। देशनेप॒प्प फ्पा--देश विशेष के रत्री पुरुषों के स्वामातिक पेश तथा थूद्गार भादि रा दर्सन करना | देश नपप्य फ़पा (ठाखोग 3० सूत्र *८पे टीका) देश फ्रदा फरने से दिशि॒ट देश के प्रति रामे या रूसरे देश से झरुचि होती ६ै। रागदेप से फर्मगन्त शेता है। स्‍्वपथ भर परपश्ष वाक्षों क़ साथ इस सम्बन्ध में बाद विवाद खड़ा हो जाने पर झगड़ा हो सरूता ई। देश बर्यत सुनकर दूसरा साधु ठस देश को विविध गुस सम्पन्न सुनकर बहा ला सफता | इस प्रकार देश कया से अनेक दोषों की संभावना है ! (निशीष धूर्कि उद्देशा गाभा १९०) (ठायांग द॒२ सूछ श८र टीका) १४२--राजकपा बार--- (१) राजा छी अतियान रथ (२) राजा की निर्माण $भा (३) एया # बरबाइन कौ कशा (४) रास्ता के कोप और कीठार की कया दाजा की झतियाम कया--राजा रू नगर प्रयेश तथा ठस समय झी विभूति का दर्णन फरना, अतिपान कथा है।

भी जैन सिद्धान्द बोक सं, प्रय भाग.

राजा फी निर्याण कपा--राजा के नगर से निरूलने को बात करना तथा उस समय के ऐश्वर्य का वर्णन करना निर्षाण फ्या ई[

राजा के पश्त घाइन की फया--राजा के भण्च, हाथी आदि सेना,

भौर रथ भादि बाइनों फे गुण भौर परिमाण भादि का पर्णन करना पल पाहन कया |

राजा के कोप भौर कोठार फी कथा-- राजा फ॑ खसाने भौर पान्य

भादि झे फ्ोठार फा बर्णन फरना, धन घान्प भादि के

परिमाण का कथन फरना, कप भर फोटार की फया है।

( ठासाँग ४० धृत्न १एर टी० )

ठपाभय में पैड हुए साधुभों को राज फ़पा करते हुए.

सुन फर राजपुरुष फे मन में ऐसे विचार भा सकते हैं फि ये

वास्सय में साधु नहीं ईं ? सच्चे साधुभों फो राजकथा से

क्या प्रयोजन ! मालूम शोता कि ये गुप्तचर या घोर ई।

राजा फ्रे भपुझ अश्य का इरण हो गया था, शा के

रवजन फो किसी ने मार दिया था। उन झपराधियों का

प्रठा नहीं लगा। क्या ये थे दी तो भपराधी नहीं हैं !

अगवा ये उक्त फाम करने के भमिलापी तो नहीं हैं शज-

कणा सुनकर किसी राजइन मे दीक्षिव साथ को इक्त मोगों

का स्मरण हो सकसा ।ै। झभया दूसश साधु राजझदि

मुन कर नियाणा फूर सझता | इस प्रकार राजरूथा फ्रे

मे तथा भौर मी भझनेरू दोप £ |

(ठा० ए० सु ग्पर टी० ) निशीय चूर्गि इएशा है शा० १३९ )

१९

भरी संठिया जैन प्रन्यमाला

१४ ३-परमंफया की स्याख्या भौर मेद'--

दया, दान, दमा धादि धर्म के भंगों का बर्सन फरने चाही और घर्म की उपदियता बताने दां़ी कबा घर्मझथा है। जैस उ्तराष्यपन भादि घर्मकषा के चार मेदः-- (१) भादेपयी (२) गिश्षेपशी | (३) संवेगनी (४) निर्षेदसी _ ( ठाम्ांग रह्देशा सत्न २८२ )

१५४--भाषेफ्ली कथा की स्पादुया भर संदः--

ओवाको मोह से हटा कर तत्व की ओर आफपिंत करते बाली करा को भाषेपशी फया फइते हैं। हसके आर मेद है--

(१) झाषार झापेपसी, (२) स्पवद्टार भाषेपसी )

(३) प्रहमप्ति भाषेपणी, (४) धष्टिबाद भाएेपशी |

(१) फ्रेश शोच, भ्रस्नान आदि भाषार के भषषा आाषारांग प्त्न के स्पारुपान शारा भोता को दक्ष के प्रति आर्पित करन बाली फपा झाचार भाधेपणी कूषा है |

(२) क्विस्ती घरदइ दोप छगाने पर उसझ्री शुद्धि के सिश प्रामरित्रत ऋथबा स्पतद्यार प्रश्न के स्माहपान डरा तत्त्व के प्रति झाकर्वित बरने दासी रूपा की स्पदशार झाधेपणी रूपा ऋश्ते हैं

(5) संशय युक्त भोता छो मघुर पचनों से समझा

कर पा प्रति झुपर के ब्यास्यान दारा तत्द प्रति ऊुछाने बाशी कथा को प्रज्ञप्ति भादेपसी कपा कहते £।

भरी जैस सिद्धान्त वोज धभ्रइ प्रथम भाग ११३

(५) भोता कला स्याल रखते हुए साव नयों के झ्नुसार घरम जीबादि दष्पों फ्रे कपन द्वारा भ्रपवा दृश्टिबाद के स्यास्यान द्वारा तत््य क्ले प्रति भारुष्ट करने थाली कथा दृष्टियाद भाषेपणी फपा है।

(ायांस शढ० सुत्र रेघर टी ) माष तमम' भर्पात्‌ भ्रश्नानान्पकार पिनाशक श्वान, सर्ष विरति रूप चारित्र, तप, पुछंपफ़ार और समिति, भुप्ति का उपदेश दी इस कथा का सार है। शिष्य को सब॑ अथम झावेपणी कथा कइनी चाहिए भा्ेपणी कपा से उपदिण जीष सम्पक्‍त्व स्ाम करता ( इशबेकालिक नियुक्ति अध्ययन हे गा० १४४-१६५ ) १५५-मिध्षेपणी कथा की ध्याल्या भौर मेद--- ओता को इमारगे से सन्मागे में लाने थाली कपा विष्ेपश्षी फ़या ६ै। सन्‍्मार्ग के गु्सों फो कद कर या उन्माग के दोपों छो बता कर सन्मागे की स्थापना फरना विधेपयी कपा है (१) अपन सिद्धान्त से गु्सों झप प्रकाश फर, पर-सिद्वान्त क्र दोपों फो दिखाने बाली प्रथम पविधेपणी फपा £। (२) पर-प्िद्धान्त का कृपन फरवे हुए स्व-सिद्धान्त की स्थापना पहना द्वितीम विद्येपणी कथा हू | (३) पर सिद्धान्त में घुथाचर-न्याय से मितनी पाते शिना शम सरश ई। उन्हें कद छझर जिनागम विपरीत बाद के डोप दिखाना झयवा भास्तिझ बादी का अमिप्राप

श्र श्री सठिया देन मममाजा

बता कर नास्तिझिवादी का झ्रमिप्राय बतलानां दृहीर पिषेष्शी फषा (४) पर सिद्धान्त में घन हुए जिनागम विपरीत मिध्याताई छा फ्थन झर, जिनागम सघ्ण बलों का बर्शन करना गया नास्तिकृपादी फ्री दृष्टि झा मरने कर भाए्तिक

बादी की दृष्टि बताना धीपी वि्ेपशी कपा है। आदेपशों कपा से सम्पपर्व शाम के पम्मात्‌ है शिप्प फो पिधेपसी कथा फनी भाहिये। विेफ्शी कमी से सम्पक्त्थ स्ताम को मजना इ। भवुकूल्त रीति से पर्व करन पर शिप्प का सम्यस्त्र रद मी हो सध्ताह परना पदि शिष्य क्वो सिध्यासिनिषेश दो यो १६ पर-सम् (फर सिद्धान्त ) के दोपों को मे समझ कर गृरु को पर प्िद्धाल्द का निन्‍्दक समझ परता ईै। भौर इस प्रडार इस कृपा स॑ विपरीत असर होने की सम्माषना भी रहती है।

(ठायांग ४४२ सूत्र पर टीका ) ( ररानेकालिक अध्ययन नि शा, १४७-१६८ की टीका )

१५४६--संबेगनी रूपा की स्पारुपा भौर मंदा--जिस कषा द्वारा जिपाक की विरसता बता कर ओता में मैराग्य उत्पन्न किया जाता | बह संबेगनी कपा ६!

धंपेगनी कषा के चार सेइ!-- (१) शहल्तोद् संरेगनी (२) परतोद संबेगनी ! (३) स्वष्ठरीर संब्रेगनी (9) पर शरीर स॑बेगनी

(१) इहोक संवेगनीः--पह ममुप्पस्थ कदझ्षी स्तम्म के समान अपस्तार है, भस्पिर है। इस्पादि रूप मनुप्प झन्‍्म का

थी सैन सिद्धान्त भोज सप्रइ, प्रथम भाग ११५

स्वरूप बता कर पैराग्य पैदा फरने पाली फया इइस्तोक संबेगनी कया ६!

(२) परछोझ संधेगनीः---देएता मी ईपो, विपाद, मय, बियोग आदि पिदिध इशखों से दुःखी ईं। इत्यादि रूप से परणोक का स्वरूप भ्ता कर पैराग्य उस्पन्न करने पाली कया परलोफ संवेगनी कपा है।

(३) स्वशरीर घंवेगनी'--पह शरीर स्वयं अ्रशुत्षि रूप है। अशुत्ि से उत्पन्न हुआ ह। अश्युत्ि विषयों से पोषित दृश्य हं। अशुत्ति से मरा और भद्युपि परम्परा का फारण है। इस्पादि रूप स॑ मानव शरीर स्परूप को धता कर बैराम्प माब उत्पन्न झरने बासी कथा स्वशरीर संभेगनी कया है

(४) पर शरीर सदेगनीः--किसी परदे शरौर के स्वरूप का कथन फर पैशग्पन्माव दिखाने वास्ी फ़वा पर शरौर संपेगनी फ्पा ई।

नो5--हसी कूपा फा नाम संदेशनी भौर संदेदनी मी है संवेजनी का अभे संवेगनी के समान ही ६। संवेदनी का अर्थ ऊपर लिखी बातों से इशतोकादि बस्‍्तुभों फ्रे वास्तविक स्परूप का क्षान फराना |

(ठाण्यांग ४४० छू *८० टी० ) १४७-निर्देदनी कृपा फ्री ध्याख्या और मेद'--- शहलोक पीर परक्षोक में पाप, पृए्प छ्माश्चुम फसल को बता कर ससार से उदासीनता उत्पन्न कराने वासी कपा निर्वेदनी झपा

११६ श्री सेठिया सुन प्रन्चमाला

(१). इस लोक में किये हुए दृष्ट कम, इसी मन में दृष्ख हूप फत्त देने बाले दोते हैं जैसे चोरी, पर स्त्री गमन भ्रादि दुष्ट कर्म। इसी प्रकार इस लोक में किये हुए सुकृत इसी मद में सुख रूप फल देने वाले शोते हैं [खैसे वीम॑शर मगबान्‌ को दाने देने वाले पुरुप को सुषलइष्टि भादि सुख रूप फल पहीं मिक्तता | पह पहली निर्भेदनी ऋषा है!

(२). एस छोझ में फ़िये हुए इप्ट कूमे परलोक में दुःख रूप फल देते हैं। जैसे महारम्म, मद्दा-परिप्रइ झादि नरक योग्प झ्रह्युम फर्म करन बाल सीब क्रो परमव अशुभ नरक में अपने किए हुए दुष्ट कर्मों झर फछ मोगना पढ़ढा है इसी प्रकार इस मब में किये हुए छुम कार्यों का फल पर ज्षोक में सुख रूप फल देने बासा होता ६ई। जेसे मुसादु इस छोद् में पाते इुए मिरतिघार आरित्र कय मुख रूप फेस परलोक में पवि हैं| पद दूसरी निर्मेद्नी रूषा

(३). परक्षोक ( पूर्जमद ) में किये हुए भरशम फर्म इस मब में इख रूप फ़छ देते है बसे परत्तोऊ में किय हुए भ्रह्मम कर्म के फर्त स्वरूप वीब इस क्तोक में डीन इश में उत्पन्न होकर बासपन सं ही इस (छोड़) भादि दुप्ट ऐेगों प्त पीड़ित और दारणिप भमिमूत देखे घात॑ हैं| इसी प्रदार पराझ में किये इुए दम झूम इस मद में सुखरूप फल दन बाल होते हैं। सैस पूर्व मद में घुम कर्म करने बात्त जीब इस मत में वीपंहूर रूप से जन्म सकर मुसरूप फत पाते हैं। पह वीसरी निर्षेदनी कया है

श्री देन सिद्धाम्ठ बोछ संप्रड, प्रथम साग ११७

(४). परलोफ़ (पूर्ष मय) में फिये हुए भश्मम कर्म परक्तोक (भागामी मय) में दु'खरूप फ़त्त देते हैं। जैसे पूर्व मय में फिये हुए भशम कमों पे घीव कौ, गीघ भ्रादि फ्रे मव में उत्पन्न होते हैं। उनके नररू पोग्प छुछ भश्युम फर्म बंधे हुए दोते हैं भौर अहम कर्म फरके वे यहाँ नरझ योग्य अपूरे कर्मो फो पूर्ण कर देते हैं और इस फे डाद नरक में लाकर दुःख मोगते हैं। इसी प्रफार परक्तोक में किये हुए छाम फर्म परलोक ( झागामी भष ) में सुखरूप फ़क्त देने बाले शोते हैं झेंसे देष भव में रहा हुआ वीर का जीव पूर्व मष क्रे सीय- हर प्रति रूप हम कर्मों का फल देव मय फे बाद तीर्भड्वर अन्म में मोगेगा यह चौथी निर्षेदनी रूपा है

(ठाग्यांग सत्र ८०टीका) १५४८--ऋपाय की स्यारुपा भोर मेद्‌ --- कपाय सोइनीय कर्म के छदप से होने वाले स्पेष, मान, भाया, क्षीम रूप भात्मा के परिश्माम विशेष नो सम्पबत्व देशपिरति, सवबिरति और यभास्पात भारित्र फ्रा पात करते हैं| ये कपाय फड़लाते ईं ) कपाप के चार भेद्'-- (१) क्रोष, (२) मान, (३) माया, (४) क्ोम | (१) कोषा--क्रोघ मोइनीय के उदय से होने पाल्ता, ऋश्य भदृत्प के विषेफ को इटाने दाता, प्रयत्न सर्प भात्मा के परिणाम को फ्रोप कडते हैं। होधषश लचीव फिसी की

१८ भ्री सेटिया जेन प्न्थमाक्ा

बात सन नहीं करता भौर बिना विधारे भपने भौर पराए झनिष्ट के शिए हृदय में भौर घाइर जलता रहता है।

(२) माना--मान मोइनीय रूर्म करे उदय से जाति झादि गुर्सो में भ्ंकार पृद्धिरूप आत्मा $ परिश्वाम को मान कहते हैं। मान बश जीब में छोटे बड़े के भ्रति उचित नप्र माष नहीं रहता | मानी घरीग अपने को बड़ा समता है। औौर हसरों को हुस्छ सेमकता हुआ उनकी झ्रबशेलना करता | ! गर्ज वश वह दूसरे के गुझ्यों को सइन नहीं कर सकता

(३) माया --माया सोइनीय कर्म के उदय से सन, बचत, काया की इटिलता द्वारा परमनणना प्र्षात्‌ दूसरे के साथ कफ्टाई, ठगाई, इगारूप भात्मा के परिणाम विशंष को माया कहते हैं।

(४) शोम--शोम भोइनीय कमे के उदय से शस्पादि विषमक इच्छा, मूस्ा ममस्व माव, एवं-तृप्णा प्र्पात्‌ गरसन्तोप रूप झास्मा के परिणाम विशेष को छोम कहते हैं।

प्रस्पेक कपाय के चार मेद हैं---

(१) भनन्तामुबन्धी (२) भप्रस्यास्यान |

(३) प्रत्यारूपानावरण (४) संज्बत्तन | झनन्तानुषन्धीः--जिस कयाय के प्रमाव से सीब अनन्त कास तक

संपार में परिभ्रमण करता है| हस कपाप को ऋनन्वानुभन्धी

कपाय कहते हैं| पश कयाय सम्पक्स्थ का पाठ करता है।

एवं सीन पर्यन्त बना रहता है। इस कपाप से सीब नरक

गति योग्य कर्मों का बस करता है |

श्री जैन सिद्धान्त घोक संप्रह, प्रभम माग श्श्६

अपत्यास्पान- मिस क्पाप के उदय से देश पिरति रूप अन्य (थोड़ा सा मी) प्रत्यास्पान नहीं शोता उसे अप्रत्या रूपान कपाय फइतें हैं | इस फ्रपाय से भाषफ भर्म पी प्राप्ति नहीं होती | पह कपाय एफ वर्ष तक बना रहता £ भौर इससे तियेश गति योग्य कर्मा का रन्‍च होता है।

प्रत्याल्यानावरण --भिस कपाय के उद्य से सर्व बिरति रूप प्रश्पारुपान रुफ चाता है भगात्‌ साधु धर्म छी प्राप्ति नहीं टोती यह प्रत्यास्यानावरस कपाय है। यद्द कपाप चार मास तक धना रहता ह। इस छे उदय से मनुष्य गति गोग्य कर्मो पर पन्‍्य होता है !

स॑म्बलन---घो फ्रपाय परिष्ठ सथा उपसगे के झाजाने पर यतरियों फ्रो मी थोड़ा सा सत्ताता ई। भर्थात्‌ उन पर मी थोड़ा मा झसर दिखाता है उसे संज्वलन कपाय फइते £। यह फरपाय सर्र पिरति रूप साधु धर्म में पापा नहीं पहुँचाता हिन्तु सप ऊँचे यथास्पपाठ ब्यरित्र में याघा पहुँचाता ६। यह क्पाय दा मास उक्त पना रइता है. भर इससे देव गति याग्प कूमें छा रएघ होता

ऊपर जो झुपायों की स्थिति एवं मश्फादि गति दी गह है ! वह पराहुन्पता फी भ्रपषा स॑ ई। क्योंकि प्राहुपत्ति प्रनि की मंज्यलन फ्रपाय एफ गए सद रहा था भौर प्रसन्न पन्द्ररायपँं के भनन्तानुप घी रुपाए भन्नतमु हत्त दक्ष ही रदा था। इसी प्रक्नर भनन्‍्तातुरंधी कृप्राप मं रइत हुफ्‌

१२० श्री सठिया जैन प्रम्भमाता

मिथ्या दृष्टियों फ्ा नगग्रेपेयक तक में उत्पन्न होना शाह््र में वर्णित ६। ( पप्नचणा पद १४ सत्र (प्सप पद २३ सत्र २४१ टीका ) (ठाणांग ड० सूत्र रधः रोका ) १४६-फ्रोष फे चार मेद और उनकी ठपमाएं। (१) अनन्सानुभन्षी फ्रोप, (२) अप्रत्याल्यान फ्रोप (३) प्रत्यास्थानागरश क्रोध, (४) संस्वश्तन क्रोष | अनन्तालुपन्धी कोघ--पर्वत के फरने पर सो दरार होती है। उसफा मिल्लना कठिन है उसी प्रकार थो फ्लोघ किसी उपाय से भी शान्त नहीं होता वह अनन्तालपन्‍्री क्रोध है। अप्रत्पाक्पान स्रेघ--ध्ख्ते तालाब झादि में मिट्टी के फट साने पर दरार दो जाती ह। यम्र वर्षा शोठी दे। तप बह फिर मित्त जाती | ठसी प्रझ्शर जो क्रोप विशेष परिश्रम पे शान्त होता हे। बह पअप्रत्यास्यान क्रोप है प्रस्याम्पानाइरण क्रोघ-- पा छू में सम्ीर फींचने पर कुछ समये में इया से बह छझ्रीर बापिस मर खाती है। उसी प्रकार थो फ्ोष इझ्ठ ठपाय से शान्त हो बह प्रत्याग्म्पानावरश क्रोप है संज्वलन फ्रोपष---पानी में खींची हुई छक्तीर अस प्रींपने के साथ ही मिट जाती ई। ठसी प्रकार क्रिसो कारण से उदय में भागा हुआ क्रोष, शीघ्र दी शान्त दो श्ाप्रे ठसे मंज्पलन कोष कदते है ( पश्चचणा पह १४ छूत्र १८८ ) ( दायांग च७ सूत्र (४ टोौडा )

( कमप्रन्थ प्रथम मादा गा १६ ) ( ठाांप श० सू७ २३३ टी० )

श्री मैन सिद्धास्द बोल संप्रइ, प्रथम भाग ह२१

१६०--मान के चार भेद भौर छनकी उपमाए। (१) अनन्तानुबन्धी मान (२) श्रप्रत्यास्थान मान. (३) प्रस्पास्यानापरस मान (४) सम्बसन सान | अनन्तानुष-घी मान---मैसे पत्थर फ्रा खम्मा अनेक ठपाय करने पर मी नं नमठा उसी प्रफार जो मान किसी मी उपाय से दर फ़िया जा सफ़े दइ ध्रनन्तानुरन्धी मान है। अप्रत्यास्यान मान--जैप्रे-इड्डी भनेक उपायों से नमती हे उसी प्रफार जो मान भनेक उपायों और भति परिभम से दर फिया जा सके | वह भ्रप्रत्याद्यान मान है प्रत्पास्पानावरण मान--जैसे-श्पष्ठ, देख वगैरद फी मालिश से नम जाता ह। उसी प्रकार जो मान थोड़े उपायों घे पमाया या सफ़रे, वह प्रस्पार्यानापरण मान है | सज्यक्ञन मान--प्ैसे-छवा पा तिनक्रा बिना मेइनत के सहज ही नम जाता है| उसी प्रकार छो मान सहज ही छूट माता है। पह संन्व्तन मान है। ( पम्नतरणापद्‌ १४ सृत्र (८८) ( ठाखांग ४० र२ सूच २६३ ) ( कमंप्रन्थ प्रथम भाग गा० १६ ) १६१--म_या के भार मेद झीर उन की उपसाएँ,-- (१) भनन्वाजुबन्धी माया (२) भप्रत्यार्यान माया ) (१) प्रत्पाम्न्पप्नतरण माया (४) पं॑न्श्तनन माया अनस्तानृुत् थी माया--जैसे-गांस क्री कठिन लड़ का टेड्रापन किसी मी उपाय से दूर नहीं किया जा सकता | उसी प्रकार जो भाषा किसी मी प्रझ्ार दर हो, अर्गात्‌ सरसता रूप में परिणत हो बइ अनन्ताजुषन्धी माया |

श्श्र 7 श्री सेठिया जैम प्रत्थमात्ा

अप्रस्पात्पान माया--जैसे-मेंढे का 2ढ्ा सींग अनेक ठपाव ' फरने पर बड़ी पशिकिल से सीघा 'होता है। ठसी प्रकार जो भाया झ्त्यन्त परिभ्रम से इर की जा सके | वइ अप्रस्पा रूपान माया है | ।]

प्रस्पारुपानाजरश माया--जैसे-चसते हुए बैत के मूत्र की ठेरी रूझौौर एस बाने पर पवनादि से मिट खाती है। उसी प्रकार थो माया सरल्तता पूर्वक रुर हो सके, बह प्रत्याख्यानागएश माया है /

संज्वसन माम्ा--द्यीसे बाते हुए बांस के छिसके का टेढ्ापन पिना अयस्न के सइस ही मिट छाता है। उसी प्रकार जो साया मिना परिभम के शीघ्र ही झपने भाप दर दो साय। बह संज्वलन माया है। नह ( पशच्नच॒था पद (४ सूत्र एप) (ठाणा॥ उ० घृत्र २५३ ) ( कर्म प्रस्ष प्रथम साग गा २०) १६२--जोथ क॑ भार मेद भौर उनकी उपमाएँ।-- (१) प्रनन्तानुपन्धी शोम (२) भ्रप्रत्यास्पान छोम | (३) प्रत्पाख्यानायरस सोम (४) संन्बत्तन सोम | अ्रनन्वाजुगन्पी छोम--मैसे किरमची रज किसी मी उपाय सं नहीं दूट्सा, ठसी प्रकार/जो शाम फ्िसौ भी उपाय से दर नहो। नह भनन्तानुबन्धी लोम ईैं। , |; अप्रस्यास्यान सोम'--मैसे गाड़ी फ्रे पद्िण का कीटा ( पम्जन ) परिभ्रम करने पर भतिऊष्ट पूर्वक छूटता है।

सेन सिद्धाम्व धोड़ संप्रह, प्रथम भाग १२३

उसी प्रछ्र चो छोम अति परिभम पे कष्ट पूरयक्न दूर क्रिया या सके | यह भग्रस्पात्यान ्लोम है। ;

प्रत्याक्यानावरस शोम --जैसे-दीपक फा फामत साधारण परिभ्रम से छूट जाता ई। उसी प्रकार भो छोम कुछ परिभ्रम से दूर हो। पघह प्रत्याल्यानापरक्ष सोम )

संज्वज्ञन शीम --जैसे इण्दी का र॑ग सइन ही छूट बाता हई। हप्ी प्रकार जो छोम भासानी से श्वम दूर दो सात वह संज्दसनन सोम |

ते ( ठाणांग €० छृत्र २६३ ) पुश्नबसा पत्र ९४ सत्र ८८) ( कूमे मस्य प्रथस भाय गाया २० )

१६३--किस गति में रिस कपाय फी झ्पिकता होती है।--- (१) नरछ गति में क्रोष फी भ्रधिकता होती है ) (२) विर्यभ्च गठि में माया झषिष़ होतो (३) मनुप्य गति में मान भपिक होता है! (४) देव गति में लोम की अधिकता होती है। ( पश्चणणा पद १४ सुत्र ए८८ ) १६४--कोए के चार प्रकार -- (१) भामोग निवर्दित (२) प्रनामोग निवर्तित | (३) ठपशान्द (४) भनुपशान्त भागोग निषर्दितः--पु"्ट फारण होने पर यह सोच कर कि ऐसा फिय बिना इसे शिवा नहीं भित्तेगी | नो फ्रोप फिया खाता है यह भागोग निषर्दित फ्रोष है।

ह्श्र भी सठिया मैन मत्थमाजा

अथबा --

क्रोघ फ्रे विपाक को खानते हुए थो कोष किया खादा है। बह भागोग निषर्तित क्रोप £।

अनामोग निबर्तितः--खद्न कोई पुरुष पों शी गरुस दोष का ; पिचघार फ़िय बिना परवश शोफर कफ्रोघ कर पैठता झथवा क्रोष के विपाक को छानते हुए क्रोप करता है तो उस

- का फ्रोघ भनामांग निबर्तित फ्रोप है।

उपशान्त'--णो फ्रोष सता में हो, छेफिन उदयादस्था में हो बह उपशान्त कोष है।

अनुपशान्ता--उद्पावस्पा में रहा इझ्ा फ्रोप झ्रनुपशान्त फ्रोष है। इसी प्रकार मान, माया भौर छीम के मी बार भेद हैं।

(ठासांग इ० ! सूत्र २४५०६)

१६४--कोघ की उस्पचि के बार स्थान/--चार फ्रारसों से क्रोप की उरपत्ति होती | (१) देत्र भर्थात्‌ नैरिपे ह्रादि का अपना अपना एस्पत्ति समान | (२) सश्चेदनादि बस्तु अ्रणष्रा बास्तुघर (३) शरीर। (४) ठपषरण

इन्दीं भार बोहों रा भाभय लेकर भान, भाया,

ओर ज्ञाम को मी उत्पत्ति होती ह।

(डाय्रांग इ० सूत्र २४६ )

श्री जैन सिद्धास्ठ बोल संप्रइ, प्रमम माग श्स्र

१६६-करपाय की ऐहिक दानियां--- क्रोपष आदि चार कपाय ससार के मूल फा सिंचन झपने पाले हं। इन के सेमन से जीय फो पेदिक भौर पारक्तीकिक अनेक दुख होते हैं| यहां ऐ्विफ़ दवानियां घ्रताई जाती हैं क्रोध प्रीति को नष्ट करता है | मान पिनय फ़ा नाश फरता ई। माया मित्रता का नाश फरने पाली है। शोम उपरोछ्त प्रीति, पिनय और मिप्रता सभी फो नप्ट फरने वाला है। ( इशाबैकालिक अध्ययन गाजा इ८ ) १६७-कपाप जीतने फे चार ठपाय-- (१) शान्ति भीर दमा द्वारा क्रोप छो निप्फ् फरके दवा देना चाहिए (२) मदुता, फोमत इचि हारा मान पर विभय प्राप्त फरनी चाहिए। (३) ऋमुता-सरक्ष माव स॑ माया फा मर्दन करना चाहिए। (४) सन्तोष रूपी शस्त्र से झ्लोम फ्रो घौदना पाहिए। ( द॒शावेकाक्षिक ध्रध्ययन गाया ३६ ) १६८-झुम्म की घरामझ्की-- (१) मु इुम्म मधु पिघान (२) मधु इम्म दिए पिधान (३) दिप झुम्म मधु पिघान (४) विप इम्म पिपर पिध्रान | (९) मधु इम्म मधु पिघान*--शक्क कुम्म (घढ़ा ) मधु से भराइभादोताएं भौर मधु फे ही दहन भत्ता हांता ६। (२) मधु इम्म दिप्र पिघानः--एक कुम्म मधु स॑ भरा

१२६ श्री सेठिया जैन पन्‍्यमाला

होता भौर उस का इकना पिप का होता | (३) दिप इम्म मघु पिघान--एक कुम्म दिप से मरा होता है भौर ठस फा इफ़ना मघु छा होता है। (४) बिप झुम्म विप पिघान--एक इुम्म मिप से मरा हुआ ऐठा है भौ उसक्य इकना मी विप का दी शोवा £। ( ठाखांग ४० सूत्र ३६० ) १६६-क्ुम्म की ठपमा से चार पुरुप--- (१) फिसी पुरुष का हृदय निष्पाप भौर झ्रकछुप होता हई भर बह मधुरमापी मी होता | वह पुरुष मघु इम्म मघू पिपान खैसा है। (२) किसी पुरुष फ्रा हृदय धो निष्पाप भौर भकतलुप होता है। परन्तु इ४ फड़माप्री होता है। बह मघु हम्म बिप पिघान जैसा है। (३) छिसी पुरुष का इृदय फत्मुपता पूर्श ह। परन्तु बह मघुरमापी होता है। पुरुष विप इम्म संघ पिषान जैसा है! (४) फिसी पुरुष कय दृशप कछुपवा पूर्श भौर बह कु भापी भी ६। इ६ पुरुष दिप झम्स बिप्र पिघान थेसा है| (ठाणांग श्ज 2४ सत्र १६ ) १७०-फूल फ्रे पार प्रकार-- (१) एक फुल्त सुन्दर परन्तु सुगन्ध शीन शोवा ई। जैसे झआाहसी, रोश्डि भादि का फू | (२) एक फू छुमन्ध युक्त दोता पर सुन्दर नईीं होता। स्ेसे बइत्त और मोहनी का फृश्त

श्री मैन सिद्धास्त बोक संप्रइ, प्रथम माग श्र

(३) एम फुछ सुगन्ध भौर रूप दोनों से युक्त होता है। जैसे-जाति पृष्प, गुज्ञाप का फ्त आदि। (४) एक फुश्त गन्ध और रूप दोनों से शीन होता ६ै। चेसे बेर का फुछ, भघ्रे फा फूल | (ठार्णांग ७० सूत्र ३२०) १७१-फुछ की उपमा से पुरुप फ्े घार प्रकारं!-- (१) एक पुरुष रूप सम्पन्न है। परन्तु शीक्ष सम्पन्न नहीं जैंसे-अश्यदत्त चक्रवर्ती | (२) एफ पुरुष शील सम्पन्न है। परन्तु रूप सम्पन्न नहीं। जेसे-इरिकेशी पनि। (३) एक पुरुष रूप भौर शीत्ष दोनों परे ही सम्पन्न दोता है। जैसे-मरत चकवर्दी | (४) एफ पुरुष रूप और शीज्ष दोनों से ही दीन होता है। जैसे-काल सौकरिक फसाई | (ठाणयांग 5० सुत्र १२०) १७२-मेप घार -- (१) कोई मेपर गर्नते हं पर बरसते नहीं। (२) कोई मेष गनते नहीं पर बरसते हैं। (३) कोई मेष गधे मो हैं भौर परसते भी हैं। (४) फोई मप सर्जते £ भौर मरसते £

( ठाणांग परेशा सूत्र १४६ ) १७३-मेपष को उपमा से पुरुष के घार प्रकार:--

(१) कोई पुरुष दान, ज्ञान, व्याख्यान और अलुष्ठान आदि फी कोरी यादें करते है पर करते झुछ् नहीं

श्र श्री सठिया जैन ग्रस्थमाक्ा

(२) होई पुरुष ठक्त फायों फे लिए अपनी बड़ाई तो नहीं फरत पर काय करने बाल दोत॑ ई। (३) फ्रोई पुरुष उक्त फ्रार्यों विपय में दींग मी इांकते

हैं भोर फारय मी 'फरते £। है (४) फाई पुरुष उक्त कार्यो लिप हींग इंकिति हैं . भीर इछ करते दी £ |

(ठार्यांग छशेशा सूत्र ३४६ )

१७७-(फ) मेष फे झन्प भार प्ररार/-- (१) पुष्कर संवर्तक (२) प्रपुम्न (१) बीमूत (४) बिश्च | (१) पृष्कर संबरतेडः---जो एक धार बरस कर दस हमार ब्ष फे लिए एथ्मी को स्निग्म कर देता ६। (२) प्रधुझाा--तो एफ बार परस झूर एक इसार वर्ष के सिए पृथ्वी को उपयाऊ बना देता ६! (३) चीमृत'--सो एक बार बरस कर इस बर्ष फ्रे सिए प्रथ्णी फ़ो ठपमाऊ बना देता है! (७) सिश्ल ---ो मेघ फुई बार घरसने पर भी एप्डी को एड दर्ष के शिए मी नियम पूर्षक उपजाऊ नहीं बनाता

इसी तरदइ पुरुष मी चार प्रकार के हैं। एक पुरुष एक दी बार उपदेश देकर सुनने बासे फ्रे दूमु थों को इमेशा छ्ले लिए छुड़ा देठा है बह पहले मेष के समान ह। उससे उत्तरोत्तर फ्रम प्रभाव बाले बक्या इसरे और तीसरे मेष परीसे हैं | बार बार ठफ्देश देने पर भी जिनका झसर

भी सैन सिद्धान्त बोल स॑प्रह, प्रभभ भाग १२६

नियमपूर्षक हो अर्थात फमी हो भौर क्रमी हो | वह चौथे मेष के समान ई।

व्दान फे लिए भी यद्दी घाव है। एक ही बार दान दंकर इम्रेशा के लिए याचक के दारिद्रष फो दूर करने वाक्षा दाता प्रथम मेघ सरश ई। उससे कम शक्ति पाले दूसरे भर तीसर मेय पे समान हैं| क्विन्तु मिसके अनेझ यार दान देने पर मी शोड़े काल के लिए मी भर्थी (पापक्र) फ्री आवश्पकताएँ नियमपूर्पक पूरी दो ऐसा दानी सिक्ष मंध ये समान है |

( ठाणांग ब्देशा धृत्र ३४० )

१७७(ए)--मप॒ प्रकार मेष के चार मेदा।-- (१) कोई मेघ छेंत्र में बरसता ई, भपेत्र में नहीं परसता (०) फोहई मैष छेग्र में नहीं धरसता, भर्ेत्र में भरसता ६ई। (३) फोह मघ चेंत्र भौर ध्ेश्र दोनों में परसता (५) फाई सेथ देध भौर भेत्र दोनों में शी नदी परसता ( ठाणांग उद्देशा सूत्र ३४६ )

१७५-मंप फ्री उपमा से भार दानी पृरुप-- (१) कोई पुरुष पात्र का दान देते है पर इुपाध छो नहीं दसे।

(र) घर पराप्र फ्रो तो दान नहीं देत, पर इुपात्र का द्व दे |

(३) काई पृर्ष पा भोर झुपाय दोनों को दान देग

१३६० श्री सेठिया जैन प्रस्यमाता

(४) कोई पुरुष पाप्न और हात्र दोनों फ्लो हों दान नहीं शेते ६।

( ठाणांग बहंशा घृत्र १४६ ) १७६-प्रवन्या प्र्त पुरुषों छे चार प्रकारा--

(१) कोई पुरुष सिंद छी तरइ उस मार्दों से दीपा -संकर सिंइ की सरइ ही उम्र पिह्दर भादि द्वारा उसे पाछते है

(२) कोई पुरुप सिंह की तरह ठप्नत मा्यों से दीद्ा लेकर शृगास फी तरह दीन इचि से उसका पासन करते ६!

(३) कोई पुरुष शृगाक्ष की तरइ दीन दृति से दीक्षा लकर पिंइ की तरह उप्र बिद्र झादि इाए उसे पालते है।

(४) कोई पुरुष खगाक्ञ की तरइ दीन बृत्ति से दीया सेकर खुगा्ध की परइ दीन इहतस्ति से ही उसका पालन

करते हैं। ( ठाद्यांग इह्देशा सूच १९७ ) १७७-वीर्य की स्पासूपा भर उसके मेद)-- सम्पग्ड्ान, सम्पस्दर्शन, सम्पस्ारित्र झ्रादि गुर

रनों को पारण करने बत्ते प्राशी समूह को तीर्ष कइते हैं।

पह तीर्ष क्षान, दर्शन, भारित्र डारा घंसार सत्र से सीजों

को ठिराने वाक्ता हैं| इस सिए इसे तीर्ष कश्ते £। तीपे के चार प्रकार!--

(१) साधु (२) साथी |

(१) भाषद (४) आगिका।

अऔ सैन सिद्धान्त वोल संग्रह, प्रथम माग शव

साधु'--पचर महाम्रतधारी, सर्द विरति को सापु फहवते हैं! ये तपस्‍्वी होने से भ्रमण कहलाते हैं।शोमन, निदान रूप पाप से रहित दिल वाले होने से मी भ्रमण फहइलाते हैं। ये ही स्पजन, परजन, शत्रु, मित्र, मान, भपमान आदि में सममाव रखने फे फ्ारश् समस फइलाते हैं। इसी प्रकार साध्वी का स्वरुप है। अमणी भौर समझी इनके नामान्तर हैं। आवक -- देश विरति को आवक कहते ई। सम्पस्दर्शन छो प्राप्त किये हुए, प्रति दिन प्रात!कातज्त साधुभों फे समीप प्रमाद रहित दोफर भ्रष्ट भारित्र फा ब्यारुपान सुनते हैं ये आवक कहलाते हैं। अथशा -- “आरा”! भर्याद्‌ सम्पग्‌ दशेन को घारस फरने बाले बे”! भर्थात्‌ गुखवान्‌ , घर्म धेश्रों में पनरूपी बीज फ्रो बोने बाल, दान देने वाले “क्र! भर्भात्‌ क्लेश युक्त, कर्म रत का निराकरण फरने वाले सीद “आवक” कहलाते हैं| “प्राविका” का भी पद्दी स्वरूप है ( ठाणांग घृत्र १६३ टीका )

१७८--अमस ( समझ, घमन ) की घार बष्यास्याएं। (१) जिस प्रकार प्रक्ते दृ'्स अग्रिय | उसी प्रकार समी जौगों को दुःख भप्रिय छगता हईं। यह सममः फर तीन करस, तीन योग से, जो किसी सीय झी ईसा नहीं करता

१३१२

औी सठिया सैस प्रस्ममाक्षा

एवं थो समी जीवों को झात्मदत्‌ समस्या | बह समण कहलाता ई। है (२) जिसे ससार फे समी प्राणियों में किसी पर राग £ और किसी पर डेप | इस प्रकार समान मन (समध्यस्त मद ) दाता दोन॑ से साधु स-मन फहलाता है। + (३) यो शुम दरस्प मन ब्ाल्ता और माय से मी मिसफ़ा मन कमी पापमय नहीं होता | थो स्वजन, परयन एप मान, भपमान में एक सी कृति बातताई। बह अमश बदक्ाता है। (४) छो पर्ष, पर्वत, भषि, सागर, भाऊ़ाश, इष पक्ति, अमर, सृग, पथ्बी, फ्मप्त, सये एवं पवन के समान होता है। गइ भमशण कहलाता ६ै। दृष्टान्तों के साथ दार्प्यन्तिफ इस तरइ घटाया घाताईै! _ | का

सर्प दसे पू्टे झादि के घनाये हुए वित्ञ में रहता है उसी प्रछार साधु मी गृइस्थ के घनाये शुए पर हूं बास करता है| बह स्वयं पर भादि नहीं बनाता।

पर्बत छेसे झांघी और मदर से कमी निभरल्तित नहीं होता [ उसी पक्यर साघु मी परिषद भर उपसर्ग द्वारा विचलित नहीं होता हुआ संयम में स्थिर रइवा

अप्नि घेसे वेशोसय है दबा कितना ही मद पाने पर भी बह दृप्त नहीं होती | ठसी प्रकूपर एनि मी ठ्रपस ठेजस्वी होता एवं शाद्ध ज्ञान से कमी सन्तुष्ट नहीं दोठा। इमेशा जिशेष शास्त्र ज्ञान सीखने की इच्छा रखता ६!

भी जैन सिद्धास्त योल संप्रह, प्रथम माय १३३

सागर जमे गमीर होता है। रत्लों फ्रे तिधान मरा दोता एप मगादा फा त्याग फरने वाला नहीं होता उम्री प्रकार ध्रुनि मी स्पमाष स॑ गीर होता ईं। क्षानादि रन्नों पै पृ शेता एवं फैसे मी संकट में मयाठा का भ्रति फ्रमण नहीं करता

आफाश मैस निरापार होता है | उसी प्रकार साधु भी भात्तम्पन रहित होता

इच पंक्ति जम मुप भौर द्‌ में फ़मी पिरत नहीं इाती उसी प्रकार समता माष वाला साधू मी सुपर दु फारण बिक्ृत नहीं होता !

अमर मस पृसों से रस ग्रहण फरन में भ्रनिषत हृसि वाला दाता है तथा स्वमायत पृथ्पित एलों को फष्ट पहुँगाता मा भपनी भारमा का हृप्त फर सता | इसी प्रकार सापु मी शहस्पों यहाँ से झाद्र लेन में भनिषत इसि बाला होता गृशम्पों दारा भपन लिये पमाप हुए आदर में स, दें भगुविषा ने दो, इस प्रयार याद़ा थाड़ा भ्राद्र सरर भपना निर्याद झरता

उस मृग बन में दिसऊ प्राणियों से सदा शब्टित रब प्रसव रहता है। उसी प्रझार साध मी दोषों से दाद्वित ग्छा

घृष्यी जम सर दृ्‌३ सहन डाली उस प्रद्यर मापू मी सर दू सो हा साइन दाना दता £|।

श्र श्री सटिया जैस प्रन्थमाक्ञा

फूमल जेंसे जल और पंछ में रहता हुआ मी उन से सर्वधा पथ रइता है। ठसी अख्यर साध संसार में रहता इआ मी निर्सिप्त रहता ई।

प्रय॑ जैसे सब पदार्थों फ्रो सम माद प्ले प्रकाशित . करता है | उसी प्रस्यर साधु मी धर्मास्तिकायादि रूप शोर का समान रूप से क्षान द्वारा प्रकाशन करता है

यैस्ते पवन भप्रतिबन्द गति वाज्ता है उसी प्रकार साधु मी मोह ममता से दूर रश्ता हुआ अप्रतिबन्ध पिद्दारी होगा ६।

( भमिषान राम॑ंस् कोप साग 'समण राष्द प्रप्ठ ४०४) ( इशाणेकाक्षिक भप्य २नि० गा १५४ से ११७ की टीका प्रछ ८१ ) अनुयोगढ्गार “निज्षपाणिकार” सृत्र ११० गा८ ११४ से १३२ )

१७६--घार प्रकार का संपम--

(१) मन संपम (२) बचन संयम ! (१) काया संयम (४) उपकरण संयम |

मन, बचन, काया के अशुम घ्यापार का निरोध करना और उन्हें शुभ स्पापार में प्ररच करना मन, बचन भौर काया का संयम बहुमूश्य बस्थ भादि उपकरणों का परिशर करना ठपररथ संयम

( रूप्ोण अऐेशा से छू ३६ )

शक प्री सठिया झैन प्रस्थमाका

झासम्घन फ्रे बिना जान की मगवान्‌ फ्री भाक़ा नहीं

(३) मा --इपथ में चलने से भात्मा भौर संयम की विराषना होती ६ं। श्सस्तिपे इुपय का स्पाग फ़र सुपप-राजमार्ग झादि से साधु फो चलना चाहिए

(४) पदना'+-ष्प, चेश्र, फ्रातत और माय के मेद से पतना कु चार मेद £।

द्रस्प यतना --द्रस्प से शप्णि द्वारा जीबादि पदार्थों को देख फर संयम सभा झास्मा फी विराघना हो। इस प्रफार साधु को चलना भादिए |

चेप्न पतना'--पेत्न युग प्रमाथ भर्थात्‌ घार इ्वाम प्रमाण (६६ भ॑गुत्त) भागे की भूमि को दंसते हुए साधु का घलना घाहिण।

काल पतना'--कास से जप्र तक चत्तता फिरता रह्दे तब तक पसना से घल फिरं। दिन फ्रो दस फ़र भौर शाप्रिक्ला पूज फर भनना चाहिए

मार सतना ---माद से सायघानी पूत्रक थि का एक्काग्र रपत हुए जाना घराहिए। इपा में उपपात करन बात्त पांप इन्टियों फ़ विप्रय तथा पांच प्रफ़ार के स्पराप्याप का इम्ना भादहिए।

( उत्तराष्ययन सूत्र चध्वदव रश्मा०्४्रस८)

श्री सैन मिद्धास्त घोल संमह, प्रथम भाग १३७

१ै८२-स्थपण्दिख के चार मंगि - मल मूल भादि त्याग करने अर्थात्‌ परिटषने की यगद को स्थोपेडल कहते हैं | स्पणिदक्ष ऐसा होना चाहिए यहां स्व, पर और ठमय पद वालों का तो आना जाना है और सततोरू | भर्थात्‌ दूर से उनकी इृष्टि दी पढ़ती ६। उसके चर मांगे है [-- (१) जहां स्व, पर भौर उमय पच वाल्लों का भाना खाना है और द्र से उनकी नजर ही पढ़ठी है| (९) स्टां पर उनक्रा भाना जाना तो नहीं है पर दर से उनकी दृष्टि पढ़ती है। (३) छट्टं उनका भ्राना जाना तो है डिन्तु दूर से उनकी , नथर नहीं पढ़ती | (४) खा उनका भाना जाना है भौर दूर से ममर मी पड़ती है| इन भार भागों से पहज्ता सोग! परिठषने के स्लिए शुद्ध ६। शेष भशुद हैं |॒ ( उत्तराष्यधन सूत्र अध्ययन रे४ गा० १६) १८३-चभार फारसों से, साध्वी,स झ्राताप सक्ताप करता इुभा साधु 'भकूक्ा साधु अफ्ेसी स्त्री के साथ सड़ा रहे, प्राप-चीठ करे, विशेष फर घाप्दी के साथ/-इस निर्ग्र नया आर का झतिक्रमस नहीं करता ! (१) प्रभ् पूछने पोग्प साधरमिक गृहस्प पूरुप के होने पर भाषा मार्ग पूछता हुथा। _ (२) झार्या को मार्ग बतताता इसा |

१३८ श्री सठिया जैन ग्न्बमाला

(३) भारया छो आहाराठि देता हुआ! (४) झार्ा क्लो ग्रशनादि दि्ताता हुआ | ( ठास्पांग क्ष० सूत्र २६ ) १८४-आजक के चार प्रकार - हु : (१) माता-पिता घमान (२) माइ समान |

(३) मित्र समान. (४) सौठ समान।

(१) माता-पिसा समान*-बिना झपभाद के साधुभों

! प्रदि एकान्त रूप स॑ वस्ससे भाव रखने बाते आगक माता फिला फे समान हैं। 8 ते

(२) भाई फ्रे समाना--तक््य विधारणा भादि में कठोर

/ इचन से कमी साधुओं से अप्रीति इोने पर मी शेष प्रयो- शनों में झतिशय वस्सलता रखने बास्ते भावक भाई के 3 पमलन हैं।

(३) मित्र कै समान -ठपचार सहित वचन भादि हारा साधुभों से मिनकी प्रीठि का नाश शो जाता है प्रीति का नाश हो जाने पर मी आपत्ि में उपेद्ा करने बाते भाषद मित्र के समान हैं।

मित्र की तरद दोषों को इऋने बांसे भौर मूशों का प्रराश करने बाले भावक मित्र के समान हैं। हट ( रघ्बा )

(४) छत के समाना--झापुभों में सदा दोप देखने इसे ओर उनका ध्रपफार करने बाले भाषझ सौत के प्मान हैं

(उार्शांग इ० है सत्र ३२१)

ञ्री जैन सिद्धास्त बोक संपड्ट, प्रथम भांग 4 7

१८५--आपक के अन्य बार श्रकार-- -

((१) भ्रादर्श समान (२) पताका समान (३) स्पाझु समान (४) खर फएटक् समान | (१) आदर्श समान भ्राषकः --अँसे दर्पण समीपस्ध पदार्थों झा अतिविम्प ग्रदय फरता है। उसी प्रकार णो भावक्र पाधुभों से उपदिष्ट उत्सर्ग, अपबाद भादि भागम सम्बन्धी मायों फो यथार्थ रूप से प्रहय फरता £ ! बह झादर्श ( दर्पसत ) समान भाजक

(२) पताका समान भावक-जैसे अस्थिर पताक़ा जिस दिशा की भायु होती है | ठसी दिशा में फइराने श्षगती है उसी प्रकार जिस आयक फा भ्रस्थिर ज्ञान विसित्र देशना रूप वायु के प्रभाव से देशना के भजुसार भदसता रहता भ्रथाव्‌ जैसी देशना सुनवा है। उसी छी भोर कुछ बावा ६। वर फ्ताझा समान

है।

(३) स्पाणु ( छम्मा ) समान आपर-जो भ्रावक गीतार्ष की देशना सुन फर भी भपने दुराप्रइ् को नहीं छोड़ता बह भाषक भ्रनमन शीत्त ( भपरिवर्तन शीक्त ) श्ञान सहित दोन से रथाणु के समान है

(४) शर फश्टक समान भाषक सो भावक समस्धाये आने पर मी अपने दूराग्रइ को नहीं घोड़ता, अल्कि सम- माने वाले फो फठोर वघन रूपी फ्पृरों से कष्ट पहुँ- चाता ईं। मेंस प्रपूसत भादि का क्यंटा उसमें फंसे ।ईए क्रो पाड़वा भौर साम शी छुड़ाने माले

१४० श्री सेठिया जैन प्रस्यमाला

पुरुष के दवादों में चुमकर उसे दृःखित करता है। ( ठासांग 9 इ०।३ सूत्र ३१! ) १८६--शिक्षा वत बार बार सेवन करने योग्य, अ्रम्पास प्रघान अतों को शिदात्रत कहते हैं | ये चार हैं- (१) सामाय्रिक बरत (२) देशावफ्ाशिक तत | (३) पौपघोपवास परत. (४) झठिबि संबिमाग जत | (१) सामायिक जता--सम्पूर्स सावध स्यापार छा स्माम कर भार्॑प्पान, रौद़ स्यान दूर कर धर्म ध्यान में भ्रास्मा के सगाना भौर मनोइति को सममभाष में रखना सामापिक व्रत है एक सामायिक का काल दो पड़ी भर्थात्‌ एक छुददर्च है। सामायिफ में ३२ दोपों ।. को बर्सना चाहिए। ( क्राद इरि० अ«० ६० ८१! ) (पंचा |! गा २५ से २६) (२) देशाबक्राशिक जत|-छठे धत में जो दिशाभों का परिमाश किया | उसका तथा सब वरतों बय प्रति दिन संकोच ढरना देशावकाशिक जत है देशावका- शिक शत में दिशाभों का सक्रोच कर संने पर मर्यादा के धाइर की दिशाओं में आाभव कया सेवन करना चाहिय॑ रषा भर्यादित दिशाझों में बितने द्स्‍्यों कौ मर्यादा की है। उसके उपरान्त द्रष्यों का उपमोग करना चाहिए। ( पंचा+ गा० एऐ७ से एप ) ( इरि० अ० ८१४) (३) पीपघोपबास शता-एक दिन रात ध्र्थात्‌ झ्राठ पहर के स्िए चार भाइार, मशि, सुगर्ण तथा आभूषण,

औी जैन सिद्धास्त पोल संपइ प्रथम माय श्छि

पृष्पमाल्ा, सुर्मंघित चू् झादि सथा सकक्ष सावथ स्यापारों को त्याग फर धर्मस्थान में रहना भौर घम ध्यान में क्षीन रह कर शुभ माषों से उक्त काल को अ्यतीय फरना पौपघोपवास वठ इस जत में पौषध

फे १८ दोपों का स्पाग करना वाहिए। ( पंचा० गा? २६ से ३० ) ( आब० इरि० अ4 $ प० ८६३ ) (४) भ्रतियि संविमाग वत'- पंच मद्दामृतघारी साधुभों को उनके फलप क॑ झनुसार मिरदोप अशन, पान, साथ, स्पाय, वस्त्र, पृत्र, कम्बल, पार्दपोम्धन, पीठ, फ्तफ, शप्या, सस्तारू, भौपप और मेपञ यह चोद प्रकार की वस्तु निष्काम पुद्धि पूर्वक भात्म झस्याय फ्री भाषना से देना तथा दान का पपोर्ग मे सिक्नन पर सदा ऐसी माबना रखना श्रतियि संबिमाग परत है

( पंचा० शा० ३१-३२ )

( प्रयस पंचाशक गाबा २४ से ३२ तक )

( इरिमब्रीयावश्पक पत्पास्मानास्ययन प्रछ्त 5३६ ) १८७-विश्वाम घार'-- है

सार को एक स्पान सेँ दूसरे स्थान पर ले खाने वाल पुरुष के लिए चार विभाम दोते £। (१) मार फो एक कंधे से दूसरे ऋषे पर लेना एक पिभाम है| (२) भार रे कर टड्ढी पंशाप्र करना दूसरा पिभाम है (३) नायइमार सुपर्थइझुमार आादे के देइर में या भन्‍प

स्पोंन पर रात्रि के लिए विभ्ाम करना तीसरा ' विराम है। ५8

श्श्र श्री सठिय्या जैन प्रन्षमाला

(४) यहाँ पहुँचना ई, बहां पहुँच रूर सदा के लिए विशभाम

फरना चापा विभाम ई। का रा - (ठाणांग ३० सूत्र ३१४ ) र८्ए-भाषफ़ के चार विश्रामः--

(१) पाँच भणुजत, तीन गुशत्॒त और चार शिदात्त एवं झन्प स्पाग प्रस्पास्यान का भंगीकार करना पहला विशाम ई।, !

(२) सामायिक, देशावकाशिक प्रतों का पातन करना तंगा अन्य प्रहण किए हुए प्रदों में रकखी हुई मर्पादा झा प्रतिदिन संक्रेष फरना, एव उन्हें सम्पू पाछत करना दूसरा विम्राम है।

(३) भ्रष्टमी, 'पहुईशी, भमास्पा भौर पूर्णिमा फ़ दिन प्रतिपूर्ण पीपभ जत का सम्यक्‌ प्रकार पारान करना तीसरा विभाम

(४) भन्त प्रमय में संतेखना अंगीरयर कर, झाहयार पानौ का स्याग कर, नि रहते हुए भीर मरण फ्री इभ्छा करते हुए रहना, चौथा विशाम ई।

ठाणांग ह० घ्ज्ज श्र ) १८६-सइइ्सा 'बाए--

(१) फ्मार्य छा धर्पात्‌ धीगादि दत्यों का परिचय करना हे ;

(२) फरमार्प भर्पात्‌ ख्रीपादि के स्वरूप को मरी प्रकार सानने बास भाभाग्प झादि की सेदा फझरना।

श्री जैन सिद्धान्त बोल संप्रह, प्रथम माग १४३

(३) जिन्होंने सम्पकत्व का बमन कर दिया येसे निहपादि कली सगति का स्याग फरना | (४) इर्धप्ट भग्रांद झुदर्शनिर्यों क्री सगति का त्याग करना | ( रुचराध्ययन सुत्र भप्ययन रेप गाजा रे८ ) ( घर्म संप्रइ अधिकार श्कोक २२ डीका प्रृ० ८३ )

१६०--सामायिफ की व्याक््पा शौर गा के मेद)---

घामायिका--सर्व सावध श्यापारों छा त्याग करना भौर निरषध श्यापारों में प्रदरधि फ़रना सामायिक है ( घम रन प्रकरण ) ( धरम संप्रइ भणि० रज्जोक ३७ टीका पू० रहे ) अथवाः-- हु

का अर्थात्‌ रागदेष रहित पुरुष को प्रतिदण फर्म निर्जरा से इने पास्ौ भपूर्य घद्धि सामायिक ई। सम अर्माद्‌ ध्ान, दर्शन, चारित्र की प्राप्ति सामायि्क है।

|

3

अमबा!--

प् सम का भर्थ है लो स्यक्ति रागद्वेप से रद्दित होफर पर्ष आशियों को झात्मदत्‌ समम्सा ह। ऐसी झर्मा को सम्पगृष्जान, सम्पग्‌ दर्शन और सम्पय्‌ भारित्र फी भ्राप्ति होना सामायिक्ठ ६। ये क्षानादि रस्‍्नश्रय मबाटबी अमय के इ!ख का नाश फरन बासे | कम्पइ्नद, कामपेन भौर

पिन्तामद्ि से मी पढ़ करे हैं भौर भनुपम सुख फे देने पाल ई।

१४० श्री सठिया जैन प्रश्यमाक्षा

सामापिक के चार मेद'--

(१) सस्पकत्व सामायिक (२) भुत सामायिक - (३) देशविरति साम्रायिक (४) स्व बिरति सामायिक |

(१) सम्पस्त्व सामायिझ --देव नारकी की तरइ निमर्ग अभाव स्वमाद से होन॑ वाज्ता एंब भधिगम भर्पात्‌ तीर्पज्ञरादि के समीप धर्म अयण में ोन॑ बाछ्ता तत्तभ्द्वान सम्पकत्त सामायपिझ |

(२) भुत सामापिद्/-युदु के समीप में ग्रत्र, झर्ण या इन दोनों का बिनयादि पूर्षफ भष्ययन करना भुत सामायिर ईद

(३) देशविरति सामापि5.--भावक का अशुज़त झादि रूप एक देश दिपपक चरित्र, देशबिरति सामायिक ई।

(४) पर्बधिरति सामापिझछः--साधु का पंच महावत रूप सर्व बिरति 'घारित्र, सबंबिरति सामापिक ,

( बिशेपाणश्वक साप्य गाथा २६७१ से २६०७ ) १६१ बादी के चार मेद! -- (१) फ्रिपा भादी (२) भक्किया भादौ | (२) बिनय बादी | (४) भज्जान बादी | क्रियाबादी --हसकी भिन्न स्यासुपाएं हैं पया।-- (१) कर्चा के बिना क्रिया संमद नहीं है | इसछ्तिए क्रिया के कचा रूप से भात्मा के अस्तित्व को मानने बाछे छियाडाएी हैं

प्री जैन सिद्धान्त बोल संप्इ, प्रथम भाग श्र

(२) क्रिया ही प्रधान है भर प्वान की फोई भाषश्यकूता नहीं है | इस प्रकार क्रिया फ़ो प्रधान मानने वाले फ्रियावादी हैं |

(३) जी भजीब भादि पदार्थों फ्रे भस्तिस्व को एफ़ान्त रूप से मने पाक्ते क्रियावादी हैं। द्वियावादी के १८० प्रकार हैं'-- जीव, भभीष, भव, बंघ, पुण॒य, पाप, संबर, निर्नरा और मोघ, इन नव पदार्थों के स्व भौर पर से १८ मेद हुए | इन भठारइ छू निस्प, भनित्य रूप ३६ मेद हुए। इन में से स्पेक्र के काक्त, नियति, स्थमाव, रियर और झआारमा की भ्रपेधा पांच-पाँच मेद्‌ फरने से १८० मेद हुए। सैसे-जीब, रप रूप से काल फी अपे्ा नित्य है। लीव, स्व रूप से कात की भप॑था भनिस्प ह। थीम पर रूप से फाल की भ्रपेक्षा निस्प ६। सीव पर रूप प्त काल फी अपेधा भनित्य ई। इस प्रकार काक् फी भ्रपेधा चार भेद हैं। इसो प्रकार नियति, स्वमाद्र, ईश्वर भौर झ्ात्मा की अपेदा यीय फे 'चार चार मेद होंगे | इस ररइ दीव आदि नव तर्चों फ्रे प्रत्येक फ्रे बीस ध्रीस मेद हुए भौर कक १८० मंद हुए अफ्रियाबादीः-- भक्तियावादी की भी ध्नंक स्यासूपाएं | यथा --

(१) किसी मी भ्रनपस्थिव पदार्थ में क्रिया नहीं होती यदि पदार्व में क्रिया होगी तो मद भनदस्पित

१४६

श्री सेठिया जैन प्रन्पमाश्ा

होगा ! इस प्रसार पदार्थों क्रो अनवस्थित मान कर उनमें क्रिया का अमाज मानन बाले भक्षियातारी कहलाते है

(२) क्रिया क्री क्या लरूरत ! फबल सित की पवित्रता शोनी चाहिए इस प्रकार ज्ञान द्ीस मो दी मान्यता बाल भट्ठियातादी फहइलाते हैं |

(१) बीबादि कफ भस्तित् फ्रो मानने बाक्ते झरक्कियाबादी / कहलात ह। अक्ियापादी ८४ भेद | यैथा+--

वीब,“भजीब, भाभव, बंप संदर, निर्जरा भौर मोध इन सात तत्तों के सत्र भौर पर मंद से १४ मेर हुए। फ्रास, यशस्दधा, नियति,स्वमार, ईश्वर भौर झात्मा इन 'छक्दों फ्री ग्रपेधा १४ मेदों का विचार ऋरन ८४ मेद शोते | सैस---बीए स्वत काप्त नहीं ई। परत काल नहीं | इस प्रकार फ़ाल की भपेद्ा दीप के दा मेद् | काल फी तरह यध्प्दा नियति आदि की श्रपेषा भी वीब के दो दा मेद होंगे | इस प्रकार जीज फ्े १२ मेद हुए | सीद की तरद शेप तस्थों के भी बारह बारइ मेद हैं। इस तरइ इतत ८४ मेद इए

अप्नानवादी! -- जीबाहि झठीन्द्रिय पदार्थों फ़रा सानने बराह्षा

कोई नहीं ६। उनके जानने से इछ सिद्धि हो होती £। इसके भतिरिक्त समान भपरात में श्ानी क्रो अधिक दोप माना भीर भजानी को कम | इसलिए अप्वान ही भेय रूप | ऐपा मानने बाले अन्नानवादी £।

श्रो जैन सिद्धान्त बाल सप्रड, प्रथम सागर रप७

प्रधानब्ाटी फे ६७ मेद ईं। यथा!--

ज्ञीव, भजीप, भाभय, पन्ध, पुण्य, पाप, संबर, निर्जरा, और मोद्ष इन नव तष्तों के सव्‌, असद्‌, सदसवू, अवक्तस्प, सटवक्तम्प, भसत्यक्तव्प, सदसदवक्तस्य, इन सात मांगों से ६३ मेंद हुए भौर उत्पत्ति सदू, मसदू आर भवक्तम्प की अपेधा चार मंग हुए इस प्रकार ६७ मेंद प्रश्ञानबादी फे होते हैं जैसे वीप-सद्‌ यह फोन जानता ! भौर उसके आनने फा क्या प्रयोजन £ै

विनयवादी--स्पगं, भपद्ग, झादि के झत्पास प्री प्राप्ति पिनय से दी होती ६। इसलिए विनय दी भेप्ठ इ। इस प्रकार घिनय शो प्रधान रूप से मानने पाले बिनयबादी फ्श्साव |

एिनयवादी के १२ मेद €--

देव, राजा, यति, द्ञावि, स्थविर, प्रधम, माता भार पिता, इन झाठों का मन, वचन, फ्रापा भीर दान, इन चार प्रफ़ारों से पिनय दोता ५ै। इस अछ्ार भाठ फो चार स॑ गुगा झरने से ३२ मेद दोते हैं ( मगदंदी शतक ३० उहशा सूत्र ही टीका ) ( झाषारांग प्रथम प्रतस्यन्प अध्यरत रश्शा सूत्र टीका ) (सू्रगहांय प्रथम शुतस्दम्प अप्ययम १२)

पारों बादी मिख्या दृष्टि

फ्रियावादी जीजादि पदार्थों भस्तिस्त का थी मानते हैं। इस प्ररार एडान्द भ्स्तित्व को मानन इनके मत

श्ष्८

भी सठिया झैन प्रन्थभाजा

में पर रूप की अपेधा से नास्वित्व नहीं माना जाता | पर रूप की भपेथा से वस्तु में नास्तिख मानने स॑ बस्तु में स्व रूप फी तरह पर रूप छ्ग मी भरस्तिस्व रहेगा | इस प्रकार

प्र्पेक बस्तु में समी बस्तुओों क्यू भरस्तित्प रइने सएक ही.

दस्तु सब॑ रूप हो जायगी | थो कि प्रस्पत्त बाधित ई। इस प्रकार क्रियाबादियों बा संत मिष्यास्त पूर्श है। ,

अक्रियाबादी लीगादि पदार्थ नहीं हैं। इस प्रफार भसए भूत ध्र्थ का प्रतिपादन करते ई। इस लिए गे भी मिध्या रष्टि हैं। एफ़ान्द रूप से जीव के भस्तित्म का प्रतिपेष कहने से उनके मत में निपेघ कर्चा का मी झ्रमार हो जाता हैं। निपेष कर्ता के झ्रमाव से सभी फ्ा झ्रस्तित्व स्वतः सिद्ध दो जाता है।

अ्रज्मातदादी भज्ञान को भेप मानते हैं | इसलिए थे भी मिध्या दृष्टि हैं भौर उनका फ़एन स्वगभन बाधित है। क्योंकि “अज्जान भेप ६!” पह बात मीषे बिना श्रात्त के $से जान सकते हैं? और बिना श्ञान के दे अपने सत का समर्थन मी छैसे कर पते हैं! इस प्रकार झहान की भरेयता बठाते हुए उन्हें ज्ञान का झाभय छेना ही पढ़ता ६।

बिनपबादी--कंदत्त विनय से दी स्वर्ग, भोद पाने की इच्छा

शखने वाले विनयवादी मिप्या रृण्टि ईैं।क्पोंछिब्नान भीर डिया दोनों से मो फी प्राप्ति ोती ६। केवल शान या केवल किया से नहीं | ज्ञान को छोड़ कर एक्पन्त रूप से केजल

जद

भरी शन सिद्धास्त बोक संप्रइ, प्रथस भाग श्ष्ध

फ्रिया के पक अज्भ फा आश्नय लेने से थे सत्यमार्ग से परे हैं। रा

( सूयगद्म॑ग प्रथम अ्र॒तस्कम्थ अध्ययन १२ टीका )

२-आादी चार+-

(१) आत्मवादी (२) छोफषादी (३) कर्मवाडी ) (४) क्रियाशादी भात्मवादी'--भो नरक, तिर्यम्स्व, मनुष्य, देवगति भादि माव दिशाओं तथा पूर्ण, पश्चिम आदि प्रस्य दिशाों में झने जाने पाले 2१ मत झादि स्परूप वाले आत्मा फो मानता है, वह भास्मदादी और भात्तमा फ्रे अस्तित्व को स्वीकार फरने पाता है

स्रो उक्त स्वरूप वाले झरात्मा को नहीं मानते | थे अन्मवादी ई। सर्द स्‍्यापी, एकान्त नित्य या रखिक आस्ण फो मानने वाले मी अनज़्मवादी शी | क्योंकि सब स्पापी, नित्य या चशिक भात्मा भानने पर उसका पुनर्जन्म सम्मय नहीं ६।

सोझवादी'---भारमदादी दी वास्तव में सोकपादी है शोर अर्पात्‌ प्राश्चीणश को मानने पत्ता श्तोफबादी अथबा दिशिए आफाश स्एड यहाँ औीयों का गमनागमन संमप $६। एंसे छोछ फो मानने वाता लोकपाएी | लोफवादी अनेझ आस्माझों फा भस्तित्त स्पीकार फरता क्पोंकि आरमाईँत के एफास्म-वाद के साथ सोक का स्प्रूप और

हैर० श्री संठिषा जैन प्रस्पमाद्ा

छोऊ में झीम्रों का गसनागमन भादि पातों का मल नहीं खाता |

(३) क्र्मपादी।--लो झारमबादी और लोकवादी ई,गहदी कर्मबादी ज्ञानावरशीय भादि फ्र्मो का भस्तिस्प मानने बाण कर्मद्रादी फहलशाता है | उसके भजुसार झास्मा मिभ्यास्त्र, ' अ्रविरति, प्रमाद, कवाय झौर योग से गति, शरीर भादि के योग्य कर्म बाँघता है और फ़िर स्वरृत कमानुसार मिन्न पोनियों में उत्पन्न शोता हे | यहष्छा, नियति भीर ईश्वर यगत्‌ की विचित्रता करने बाले हैं भौर जगत 'त्ताने दाले हैं। एंसा मानने बत्ति परच्छा, नियति झौर (शबरबादी कु मर्तों को फर्मबादी ग्रस॒स्प समस्या है।

(४) क्रियाबादी!--धो कर्मबादी है दही क्रियादादी ( | भर्बाद्‌ कर्म के कारश सूत झास्मा के स्यापार थानि क्रिया को मानने बाला | कर्म कार्य्प है और कार्य्य का कारण योग भ्र्यात्‌ मन, इचत भौर काया ढ्य स्पापार हृप्त लिए छो कर्म रूप कार्य्प को मानता है। बइ उसके कारण झूप क्रिया को मी मानता | सांप छोग आस्सा को निष्किप झर्चात्‌ क्रिया रद्चित मानते हैं| बह मठ क्रिया- बादियों के मतानुसार भ्प्रमासिक है | (शझाचारांग श्ुतस्कश्प अष्यप इरेशा सू» की टौका)

१६३-शर पुरुष के आर प्रफार--

(१) चमा श्र (२) रुप श्र (३) दान श्र (२) इद् थर।

श्री जैन सिद्धान्व वोक्ष संप्रह, प्रथम साग रथ!

(१) दमा शर भरिहन्त मगधान्‌ होते हैं। जैसे मगबान मद्दापीर स्पामी | हे

(२) ठप शर झनगार होते हैं | लेसे पन्‍नाजी और रद प्रहारी अनमार | इड़ प्रधशारी ने घोर भ्रभस्पा में दृढ़ प्रशार से उपा्णित कर्मों का भन्त दीचा लेकर तप दाराष्द भास में कर दिया। द्रस्य॒शप्रुओं की सरइ मार शप्रु भर्ात्‌ कर्मों के क्षिए मी उसने अपने आपफो रर्पइ्ारी सिद्धू कर दिया

(३) दान शर्‌ यैश्रमस देषता होते हैं| ये उचर दिशा फ्रे लोरपात्त हैं। रे तीर्मक्षर मगवार्‌ के बन्‍्म भौर पारये झादि छेे समय ररनों की इष्टि करते हैं

(४) पुद्ध शूर बास्ुदंर ते हैं। जैसे-हृप्ण महाराज | कृप्स भी ने २६० युद्धों में पिजय प्राप्त फी थी

( ठाझाग एट्रेशा सूत्र ११७) १६४-पुरुपाथे फ्रे खार मेद'---

पुरुप फा प्रयोजन दी पृस्मार्ष ६। पुरुषार्ष चार *ै-- (१) धर्म (२) भर्थ १(३) काम। (४) मोष

“?) घर्म।--जिससे सप प्रकार के भम्युदय एवं भोध की सिद्धि हो, वह पर्म धर्म पुरुपार्य अन्य सब पुरुमा्ों की प्रात का मूत्त कारण है। घर्म से पुणप एवं निर्सरा होती ह। पुौ्प से अथे भौर फाम फौ प्राप्ति दवा निजरा से सोच को प्राप्ति होदी ६) इसलिए पुरुपामिमानों समी पुरुषों का सदा धर्म की झाराधना फरनी चाहिप।

श्श्र

श्री सेठिया सैम प्रस्पमाक्ञा

8 5 मम 320 दस 36 22322 (२) भ्र्थ --जिससे सब प्रक्वार फ्रे सौकिक प्रयोजनों की सिद्धि

ोषह पर्थ है भम्युदय फ्रे बाएने बाले गृहस्म को न्‍्यात पूर्वक अर्थ फा रपार्य करना चाहिये स्वामी द्रोह,मित्र हो, जिरदास पात, ज्ुभा, भोरी आदि निन्‍्दनीय ठपायों का " झाभय लेवे हुए अपने जाति कुछ की मर्पुदा के भ्रनु सार नीति पूरफ उपार्मित झर्थ (बन) इहत्तोर झौर परशाक दोनों में हिविझ्मारी होता | न्‍्यायोपार्शित मन का पत्कार्य

में स्पय दो सता ई। भन्यायोपार्जित घन इदसीफ भौर परसतोर दोनों में दृ'ख का कारण होता

(३) क्ाम'---मनोश्ञ विपयों की प्राप्ति द्वारा इन्द्रियों का दे

(४)

होना काम | झमर्यादित भर स्वसथन्द कामाचार का सर्वत्र निपप है

है. ॥। मोद्ः--शाग ठेप द्वारा उपार्जित ऋ्म-इंघन से भ्रारमा को स्व॒तन्त्र करन के लिये संबर भौर निजेश' में उपम करना मोध पुरुपार्थ है !

इन भारों पृरुपार्षों में मोध्त दी परम पुसुषार्ण भानां गया इसी फ़े आराघक पृरुष ठच्तम पुर मान यात है। *

जा मो फ्री परम ठपादपता स्वीकार करते हुए मी भोद की प्रबसता उसके श्षिय उच्चित प्रयत्न नहीं कर सफ़्ते दथा घर्म, भर्थ भौर क्रम इन तीन पुरुवार्थी में अबिरुड्ध रीति से उयम करत ई। बे सघ्यम पूरुष हैं| बो मो भार धर्म की ठपदा करफे झपत्त भर्य झीर काम

श्री जैन सिद्धान्त वोक संप्रह, प्रथम भाग श्श्व

'पुरुषाय में अपनी शक्ति क्या स्पय करते हैं| थे झघम

'पुक्य हैं | थे ज्ञोग बीस फो खा जाने वाले छिसान परिवार

है सरश हैं | थो मत्िष्य में धर्मोपार्थित पुण्य के नं्ट हो "जाने पर 4'छ मोगते है।

? >िकिगा्ग [| ( पुरुषाभ द्ग्दशन $ शझ्राभार से ) १६५-मोधमार्ग के चार मेदः--

, (१) झ्ान। रे 2०

... (३ ) चारित (४) एप

१0) झ्राने --श्वानापरलीय फर्म के चय या धपोपशम से उत्पन्न कर धस्तु के स्परूप को यथार्थ आनने बाला मति भादि पांच भेद पाता आत्मपरिसाम ज्ञान कइलाता, है। यह सम्पसज्ञान रूप है

(२) दर्शन/--इर्षन मोइनीय कर्म का एप, उपशम या च्योपशम ने पर चीतराग प्ररूपित नव तक्त्य आदि मार्वों [पर सचि एज भ्रद्धा शोने रूप भात्मा का शुम माव दर्शन छदलावा है। यही दर्शन सम्यगदर्शन रूप है एः

(३) भारित्र'--चारिश्र मोहनीय कर्म फे धय, उपशम या चयो- पशम होने पर सस्क्रिया में प्रहत्ति और अखसतक्रिया से निशृत्ति फराने वाला, घामापिक, छेरोपत्थापनिर, परिद्टार

- पिद्युद्धि, झच्म सम्पराय भौर ययास्यात स्वरूप पांच मेद बात्षा प्रात्मा फ्ा क्वम परिसाम 'ारित्र ई। यह चारित्र चारित्र रूप एवं जीष छो मोद में पहुंचाने दाह है नोट--्ञान, इशेन भौर घारित्र की प्यास्या ७६ पे पोल में सी दी ई।

श्श्र श्री सेठिया जैन प्रस्थमाला

(४) धपः--पूत्नोपार्जित , कर्मो को दय फरने बाला, बाष् भौर आम्पन्तर भेद दा्ला झ्ात्मा का विशेष स्मापए तप

/. कहलाता है।

हवन, दर्शन, भारित्र और तप ये भारों मित्त कर ही

मोध का मार्ग है। प्यक पृथक नहीं। क्षान हारा भात्मा प्षीबादि तत्वों को प्लानता ह। दर्शन द्वारा उन पर भद्भा करता है। चारित्र की सहायता से झाते इुए नवीन कर्म को रोकता है एवं तप ड्वारा पूर्व संचित कर्मो का दब करता है|

( इक्तराष्यकन अध्यपत शे८ गा* २)

१६६-घरे के चए प्रकार!-- ! (१) दान (२) शीत (३) ठप (४) मादना (माब)।

जेसा कि सतरीसय झशाहत्ति १४१ में द्वार पृ० ७० कहा हैः-- दार्श सी चर सबो मारो, एवं घठम्बिहो धम्मो। सम्य जियेदि मशितो, तहा दुश सुयचारितेई ॥२६६॥ ( अमिघान राजेस््र कोप मांग प्रप्ठ ९२८६ ) दानः--सव भौर पर के उपकार के लिए अर्पी अर्थात्‌ नरूरत वाले को हो रिया श्लाता है। बह दान कइराता || अमर दान, सुपात्रदान, भनुरूम्पा दान, ज्ञानदान भादि दान के अनेक मेद हैं। इनका पाउन करना दान धर्म कइशाता |

( सूसगडांग भ्रठस्कम्ण अप्यपन $ गाज १३) ( अमिषघाम राजेन्द्र कोप माग प्रप्ठ २४८६ ) (पंचाशक दा पंदाशक सपा )

4

भी जैन सिद्धान्त वोक्ष सपह, प्रथम भाग ((॥

दा हे प्रभाव से घप्मार्थी भौर शालिमहजी ने अखूट झ्षमी पाई और मोग मोगे शासिमदजी सर्वार्ष सिद्ध से भाफर सिद्धि ( मोष्ठ ) पा्बेंगे भौर घन्नादी तो सिद्ध दो चुके | पह छान कर प्रत्येक स्पक्ति का सुपापर दान झादि दान धर्म का सेवन करना 'चाहिए।

२--शील (अप्मघर्प्प४--दिन्प एवं भौदारिक फ्रार्मो का पीन

कर्य और सीस योग से त्याग झरना शीत है भगवा मैथुन फा त्याग फरना शीस्त है। शीक्ष का पालन करना शीत्ष भर्म है शीश सर्थ पिरति और देश बिरति रूप से दो प्ररगए का है। देव सलुष्प और दिर्यस्न्व सम्पन्धी सैपुन का सर्मधा तीन करण, तीन योग से स्पाग करना, सर्व बिरति शील है ( '्छदार संदोप भौर परस्त्री विवर्धन रूप अश्नधर्य्य पक देश शीत है

शीक्त फे प्रमाव से सुदर्शन सेठ के लिए श॒त्षी का सिंहासन दी गया। छलादती के झटे हुए दाप नवीन

उत्पन्न दोगपे इस लिए छुद शील का पतन ना चाहिये! ( घमे संप्र० भ्रधि० रशो० र८ टीका प्ृ० ३६ )

३--तप'---.ओओ भाठ प्रफार के कर्मो एव शरीर को सात घातुभों

फ्ो सलाता ईैं। बह तप | तप प्राप्त झौर भ्राम्यन्तर रूप से दो प्रकार का है। अनशन, उल्ोद्री, मिप्षातर्या, रस- परिस्पाग, कायड्लेश भर प्रतिसंत्तीनता ये बाप तप हं। आयरियच, दिनय, बैयादत्य, स्वाप्याय, ध्यान भौर स्युस्सर्ग ये झाम्पन्तर तप ई। ( सगषती हाठक २४ बटेशा ) रक्तराध्पपन अध्यमन ३० )

चर श्री सेठिय्रा जैन प्रस्थमाहा

(४) हप --पूर्नपार्दित कर्मों को दय फरने वाला, बाण भौर अ्राम्पन्त भेद चाक्ता पझ्ात्मा का विशेष स्थापार तप कहइणाता है

च्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ये चारों मिल कर हौ भोच का भार्ग है| एप प्रयक नहीँ | धान दाता भा: घीवादि सत्चों को जानता | दर्शन द्वारा उन पर अदा करता ह। चारित्र प्री सदायता से भाते हुए नबीन कर्मो को रोकता एवं ठप द्वारा पूर्ष संचित कर्मा का भष फरता है। ( 5त्तराष्ययन अभ्यषन र८ गा २) १६६-पर्म के चार प्रकारं:--- (१) दान (२) शीत (३) दप (४) माबना (माब) | छेसा कि सत्तरीसप ठाशाइृत्ि १४१ दें द्वार पृ ७० में कहा है!-- दा सीछ॑ 'न तबो मावो, एवं लठम्बिशों घम्मो ! सब्द सिरे मण्झो, तह दुह् सुयधारिते्द ॥२६४॥ ( अमिषास राजेन्द्र कोष माग पए २२८१ ) दान।---सव और पर के उफकार के लिए झर्मी भवांत्‌ घरूरत वाले पुरुष को छो दिया लाता है। बह दान ऋइछाता है | ध्रमर दान, सुपाधदान, अमुफरम्पा दान, शानदान झादि दान के अनेक मेद हैं। इनका पाउन करना शान घर्म फडलाता है।

( सूम्णडंग भुठस्कल्य अष्थबर णा्ज| १३ ) ( अमिषाम राजेख कोप भाग प्र् ए४८० ) (पंचाशक थार पंचाशक गाज $ )

भ्री सैन मिद्धान्ठ थोक सप्रह, प्रथम साग श्र

अमयदान --दुःखों से मप्मीत जीयों फो मग़ रहित करना, अमयदान है।

धर्मोपकरण दान।--छ क्ाय के भारम से निदृत्त, पष्च मद बवधारी साधुभी को आद्वार पानी, व, पात्र भादि घर्म सद्ायक धर्मोपफ़रण देना धर्मोफकरण दान |

भलुफम्पा दान --अलुकम्पा फे पात्र दीन, भनाथ, रोगी, सफट:

में पढ़े हुए व्यक्तियों फो अलुक्म्पा माव दान देना अबुका इन है। धर्मरत्न प्रकरण गा» ७० टीका ) १६८--भाष प्राथ फी स्याख्या भौर मेद --

माय प्राथ --भात्मा फे निम्र गुणों क्रो माय प्राण कदत ई।

भाष प्रास भर प्रक्मार फ्रे रोते -- (१) पान (२) दर्शन (३) मु! (३) दीप

सफल फर्म से रहित मगवान्‌ इन्हीं भार माह प्राों युक्त दोगे ६। ( पस्तइस्या पद स्‌० ? टीका )

१६६--दर्शन फ़ भार मेंद -- (१) चह्ु दर्शन (९) भषष्ठ दशन। (३) भपधि दशन | (४) फंवल दर्शन

घछ्ठु दशेन -घष्ठु दशनावरणीय झूम करे दपोपशम पर पु द्वारा था पदार्पों के स्ामान्प घमे झा प्रहय दाता ६। उसे चद् दशन दे है

भष्‌ दपन --भधदु दशनापर्यीए फम के दयोपणशम इसने पर घषु के छिगाप शप, स्पणण, रसना, प्राथ भौर भात्र

2] श्री सठिवा जैन प्रस्थमाश्ञा

तप +के प्रमाव से धन्माजी, इढ प्रहारी, इरिकेशी प्रनि भौर इंदश ली अप्रुख मुनीरवरों ने सका कर्मो का उदय कर सिद्ध पद छ़रोग्राप्त क्रिया) इस सिए तप का पेषन फरना चाहिए 5. मय

४--मावना (माब))-मोघा मिछापी ध्मात्मा शशुम भागों को रर कर सन फ्मे श्ुम भावों में छगाने के लिए ल्लो ससार की अनित्यठा भादि एप विभार करता है, बद्ी मारना है ! झनिस्य, भशरण झादि पारइ माधनाएं हैं। मैत्री, प्रभोद कारुणय भौ९ माष्यस्थ ये मी पार माषनाएं हैं अतों को निर्मत्ता प्ले पाततन फरने के सिए तर्तों की एभकू माजनाएँ भतष्ताई गई हैं। मन छो एफाग्र कर इन श्युम मछनाओों में छुगा देना दी मातना पर्म है

माजना फ्रे प्रमाव से मर्देवी माता, मर्त परक्रपर्ती प्रसभ्न भन्द्र राजपि, इसायची इमार, कपिल पनि, एकन्फक, प्रमुझ ध्वनि क्ेपल प्वान प्राप्त फर निर्वाण क्न प्राप्त हुए | इस सिए शुभ मावना मागनी बाहिए | ( पम० संप अपधि० जल्तोक ४७) ( अमिषास राजस्द् कोप साग पृ १५०४ ) १६७---दान के चार प्रकार/--- (१) झ्ञानदान (२) भभयदान। (३) पर्मोपद्रण दान (४) भनुकम्पा दान शानदान'-श्ञान फ्लाना, पढ़ने भोर पढ़ाने वालों की सहायता करना भादि हानदान ई।

श्री दैन सिद्धान्त योल स॑प्रह, प्रथम माय श्श्ध

संशय को दूर ऋर एक भोर ऊुछता | परन्तु इतना झममोर ोता है लि हाता फो इससे पूर्य तिर्षय नहीं होता और ठंसको तदजिपयक्त निमयारमक क्ञान की आकांदा पनी दी रहती है।

अंबाप'--ईंहा से जाने हुए पदार्मों में यह वही है, भन्‍प नहीं है ऐसे निरचयास्मक ज्ञान को भवाय कइते £ सैसे--पह मनुष्प दी

धारशा/--भवाय से जाना हुआ पदा्ों का श्ञान इतना रद हो जाप फ़ि फालान्तर में भी उत्तका विस्मरण हो तो उसे धारणा फहते है

( ठायांग ७० घृत्र १६४ )

२०१---पुद्धि फ्रे घार भेद-- (१) भौत्याविद्री - (२) वैनयिक्षी ! (३) फामिकी | (४) पारियामिकी |

ओऔरस्पातिकी/--नटपृत्र रोइ की पुद्धि पे तरइ लो घुद्धि विना देखे सुने भौर सोचे हुपे पदार्थ को सइस! ग्रश्य फरके कार्म फ्ो सिद्ध फर देती है उसे भौत्पातिकी पृद्धि कहते हैं।

( नन्‍न्‍दी सूत्र की कमा )

शैनपिको --नैमिचिक पिदू पुत्र के शिष्पों की सरइ गुरुभों को सेवा ध्युभूपा से प्राप्त इने दासी पृद्धि पैनयिकी है।

कार्मिद्रीः--कर्म भर्थात्‌ सतत भ्रम्पास और विजार से विस्तार को प्राप्त होने बाली पुद्धि कार्मिकी है! मैसे--सुनार, किसान आदि कर्म करते करते अपने बन्धे में उच्तरो्तर विशेष दव हो जावे ई।

श्श्प भी सठिशा जैन प्रम्थमाक्ा

इन्द्रिय तथा मन स॑ जो पदायों के सामान्य पर्म का प्रतिमास दोसा ई। उसे अचहछु दर्शन फशते ह।

अबपि दुशन --भवधि दर्शनावरलीय फर्म के शयोपशम होने पर इन्द्रिप और मन फी सहायता के बिना आत्मा की हूपी दृस्प के सामान्य घर्म का घ्ो दोष दोता है। उसे . अबधि दर्शन कहते हैं

फेबदर्शन --क्रेवस दर्शनावरखीय कर्म के चय शोने पर भात्मा द्वारा ससार के सकल पदार्थों का छो प्तामान्य जान शेता

ई। ठसे फेर्त दर्शन फइते हैं। ( ठाख्यांग इरेशा सूत्र ११४ )

हु ( कम पस्थ गाघा १२)

२००---भति ब्वान फ्ले भार मेद्‌-- (१) भषप्रद (२) ईचा। (३) भवायप | (४) घारशा |

अधग्रइः--दन्द्रिय भौर पदार्थों के पोग्प स्पान में रइने पर सामान प्रतिमाप्त रूप इर्शन के दाद इॉने पाते अधान्तर सत्ता सहित बस्तु के सर्व प्रशम ज्ञान को अगग्रह कदते हैं। देले-दूर पे किसी च्रीम का शान दोना

ईहाः--अवग्रह पे घाने हुए पदार्प के दिपय में उस्पन्न हुए संशप को दर फरत हुए विशेष की जिज्ञासा फये ईशा कडइते हैं। बैछे-अदग्रह से दिसी दृरस्थ भीम प्य ज्ञान होने पर संशय होता है कि यह शरद भीज मजुष्प या स्वाएु ! ईहा द्ानवान्‌ स्यक्ति विशेष घम विषयक विभारणा द्वारा इस संशय को दर करता है और यह बान क्तेता है कि यह मजुष्प दाना भाहिए। पट ह्ञान दोनों पद्दों में रइने बाले,

श्री बैन सिद्धास्य बोक संभद, प्रथम माग श्द्‌१्‌

परमान-+जिप करे द्वारा सच्णवता से उर्पमेय पदार्थों फा ज्ञान होता है। उसे उपमान प्रमाथ फइते हैं | जैसे गषय गाय के समान दोहा है।

गगम--शासस्र द्वारा होने वाला बन भागम प्रसाण कइजक्ताता है।

( सगबठी शतक 2 इह्देशा सृत्र १४९ ) ( अमुयोग द्वार सूत्र १४४ ) २०३--ठपमा संरुपा की व्यास्पा भौर मेद--- उपमा संरूपा।--ठपमा से वस्तु फे निर्लेय को उपमा संख्या बद्ते है। उपमा सरूपा फ्ले भार मेद/-- (१)--सत्‌ क्री सत्‌ से उपमा | (२)--सत्‌ की भ्रसत से उपसा | (३)--भसद्‌ की सत्‌ से ठपमा (४)-- भसत्‌ की भ्रसत्‌ से ठपमा!

सत्‌ की सत्‌ से उपमा--सत्‌ भ्र्थात्‌ विधमान पदार्थ की विधमान पदार्थ से ठपमा दी छाती है। सैसे--विषमान वीर्थशरर फ्ले बचस्थत की पिशालता के शिये विधमान नगर फे दरवाजे पे ठपमा दौ झाती है। उनको झजाएं झर्गता के समान एवं शब्द देव दुन्दुमि के समान रूदा थाता है।

सत्‌ की श्रसत्‌ सं उपमा --विधमान बस्तु की भिधमान वस्तु से उपमा दी छाती ई। जैसे:--वियमान नरक, पिर्पशआ, प्रदुष्प भौर देव फी आयु पन्‍्योपम भौर सागरोपस परिमाण

१६ भी सठिया जैन प्रस्थमाजा

पाररियासिकरीः---अपति दीघे क्राख तर पूर्बापर पदार्थों के देखने आदि से दत्पस् शोने वाला भात्मा का धर्म परिणाम

) ढछहलाठा ई। उठ परिसाम कारसक पुद्धि को पारिया मिक्ली कइते हैं। भयात्‌ ययोइद्ध स्पक्ति फ़ो बहुत फ्रा्त तक ससार के भनुमव से प्राप्त होने बालौ युद्धि पारिशा- मिक्की युद्धि कइज्ताती है | कब

(ठाणांग 2 सूत्र ३६४) ७9, (मस्त्रीसृत्र पेश घा० ६१)

२०२--अमार् घार - ! ! (ह) प्स्यच छा अनुमान (३) छपमान | (४) झ्ागम

(१) प्रत्पपः--भच शब्द छा प्र्थ झार्मा भौर इन्द्रिय ईन्द्रियों की सह्ापठा फ्रे दिना जीव फे साथ सीधा सम्बन्ध रखने वाला ड्वान प्रस्यच प्रमाय है। दैसे मबधिजश्ञान, मनः पर्यप धान, झौर फ्रेबल झ्ञान | इन्द्रियों से सींपा सम्बन्ध रखने बा्ता भर्थात्‌ इन्द्रियों फ्री सहायता द्वारा सी५ के साथ सम्बन्ध रखने वाक्षा जन प्रस्यध कहलाता ई। सैसे इन्द्रिय प्रस्यच | निश्चय में अदधि धान, मन पर्यप ज्ञान और फेदत क्षान ही प्रस्यध भौर घ्यवड्ार में इन्द्रियों की सद्यायता से इसने बाला क्वान मी प्रस्यध है।

(२) भनुमान'--छिंग भर्यात्‌ हेतु के प्रर्स भौर सम्बधघ अर्थात्‌ ध्याप्ति के स्मरण फ्े पश्चात्‌ झिससे पदार्थ का ज्ञान शोता है। उसे भदुसान प्रसार बछते हैं।। ध्र्पात! साधन से साध्य फे शान को भनुसान कईते ैं। ||

भरी खैन सिद्धाम्त बोक संप्रइ, प्रथम माग १६३

असत्‌ की असत से उपमाः---भविधमान परतु झी प्रविधमान यस्तु से उपभा दी लाती है। जैसे -यद्द कइना कि गधे फा सींग शश (सरगाश) के सींग सा है। पह्टाँ उपमान गधे करा सींग और उपमेय शश फा सींग दोनों ही भसत्‌ ईं। 7( अनुगोगढ्वार सूज १४६ प्र८ २६१-२१२ )

२०४--चार मूल बश-- ) (६) उत्तराध्ययन स्रत्न (२) दशवैकाछिफ छत्र (३) नन्‍्दी पत्र | (४) भलुगोग द्वार झत्र !

(१) उच्रराष्यपन--हइस ब्रत्न में विवयभुव भादि ३६ उचर अर्थात्‌ प्रधान अध्पयन इससिए यह दप्न उत्तराष्यपन कइलाता है भयवा भाषाराक्ञ रत्न फ्रे दाद में यह सत्र पढ़ाया जाता है। दशपेफालिफ धप्न बनने से पहले यह भाचारांग के बाद पढ़ाया साता था। शप्यम्मद स्वामी द्वारा

इशवैकालिक घन याने फ्रे बाद यह दश्फालिफ फ्रे बाद पढ़ाया थाता ई। यास्तव में यह साधु का भाषार बानने के ब्राद पढ़ाया लाना चाहिये | दशुबैकासिक में साधु का भायार... होन से उसके प्राद पढ़ने की परिपाटी प्रभश्षित

( उत्तराध्यमन नियुक्ति गा० टीका ) इसलिये यद्द ठत्तराध्ययन कइक्षाता है। गदट श्र

भडवास फ्ाशिक भुत है। फालिर घत्र दिन भयवा रात्रि क॑ पहले या पिछले पहर में दी पढ़ा खाता ह। इस सत्र के ३६ अध्ययन निम्नलिपित हैं।--

(१) विनयभुत"--पिनीत के क्षदश, भविनीत छे सच भौर

१० ओऔ संठिया जेल प्रस्यमाञा !

! आयु को भवियमान योजन परिमाश कप के बाशाग्राडिस उपमा दी जाती है

असत्‌ की घत्‌ से उपमा ---अविदमान वस्तु की विधमान बस्तु से उपमा दी जाती है। जेसे:--बसन्त के समय में बी प्राए', पका हुआ, शाखा सं चलित, का प्राप्त, गिरते हुए पत्र - दी फिसलय (नबीन उस्फन्‍न प्र) के प्रति वक्ति।-- “चैसे तुम हो पैसे इम मी थे और त॒म मी इमारे घेसे हो शाझोगे!! इस्यादि |

ठफ्रौक्त बाताज्ञाप फिसलय और जी्खपत्न फ्रे पीच में ने क्प्ती इआ और होगा भम्य घीबों को सांसारिक समृद्धि से निर्बेद डो। इस भाशय से इस पार्तालाप की कश्पना की गई

“जैसे तुम हो दैसे इम मी पे!” इस वाक्य में करिसतय पत्र परे बर्तमान भवस्था फी उपमा दी गई है किसत्तय ठपमान है जा कि विधमान हैं और पाएद पत्र फ्रीअतीत किसलय भबस्था उपसेय है | जो कि अपी मझविधमान है। इस पकार यहाँ असत्‌ की सत से छपमा दी घई ह।

“तुझ्न भी इमारी तरइ हो याभोगे!! इस वाकप में भी पायडु पत्र की बर्तमान अवस्था से किसत्तय पत्र की मविष्य कात्तीन भपस्वा की ठपसा दी गई [ पायदुपत्र उपमान है थो कि विधमान है। छिससय की मजिष्यक्रशीन पायडु झवसस्‍्था उपमेय है। लो कि भ्गी मौजूद नहीं इस प्रकार पश पर मी असत्‌ कीसत्‌ से उपमा दी गई ई।

श्रौ जैन सिद्धान्त बोल संप्रद, भ्रयम माग श्ष्श

पीड़ित सलुप्य को शरशभूत नहीं दोोते। बाश्न परिप्रद का स्पाग, जगद फे सर्वे प्रालियों पर मैत्री माद, भचारशन्प यागू-ैदरण्य एवं विद्वत्ता व्यर्थ है। संयमी फी परिमितता।

(७) पक्चका--मोगी फी घफर के साथ' तुलना, भ्रम गति में घाने बाले सीमर के विशिष्ट ज््धण, केश मात्र मूल का पति दुःखद परिश्षाम, मनुष्य खीबन का फ्रत्तेव्य, फाम मोगों की चंचलता |

(८) कापिष्षिकः-कपिल प्वनि के पूर्व जम्म का इ्तान्द, शुम मावना भ्रहुर के कारण पतन में से विकास, भिन्तुफ़ों के लिए इनका सदुपदेश, छ्म भर्थिंसा फ् सुन्दर प्रतिपादन, बिन पिधामों से प्ुनि का पतन हो ठनफ़रा त्याग, सोम का परिसाम, दृप्णा का हट सिन्र, स्त्री संग का स्पाग।

(६) नमि प्रतन्पा'--निमिच् मिलने से नभि राणा का झमि- निेकमश, नमि रामा के निष्कमझ से मिथिस्ता नगरी में इाइफार, नमि राया के साथ इन्त्र फा साश्विक प्रश्नोचर और ठनका सुन्दर समाघान |

(१०) हू मपत्रक -पत्त फ्े पक्के हुए पत्र से मनुष्य वीयन की तुलना,

» चीवन की उत्क्ाम्ति का क्रम, मजुष्प खीवन पे दृश्तेमता,

मिन्‍्न मिन्‍न स्पानों में मिन्‍न झायु स्थिति का परिमाण,

गौतम स्वामी फ्लो ठपेश कर मग्रणान्‌ महावीर स्वामी

# का अप्रमच रहने का ठपदेश, गौतम स्वामी पर उसफा प्रमाद, भौर उनको निर्षाथ दौ प्राप्ति होना

श्द्र श्री घटिया गन प्रन्धमाता

उप्का परिशाम, साधक का फ्टिन कर्चस्य, गुरुपम, शिष्द- शिषा, पछते, उठते, पैठये तथा मिद्या लेने के लिये थाते हुए साधु फा झाचरश |

(२) परिषइ्:--मिप्न मिन्न परिस्थितियों में मिन्न भिन्न प्रकार के झाये हुए भाकसिमिक संकटों फ्रे समय मिझ्छु क्रिस प्रकार सहिप्यु एवं शान्त घना रहे झादि पाठों का स्पष्ट उल्स्ख।

(३) घतुरंगीयाः- मतुष्पस्त, पर्मभरगण, भद्धा, संयम में पुरुभाई करना, इन चार झात्म गिफाश फे भड्डों का फ्रमपूष निर्देश संसार षफ़ में फिरने का कारण, पर्म कौन पात्त सकता है! घुम कर्मों फा सुन्दर परिणाम है

(४) प्रस॑स्कत --जीगन ही भंफ्लता, दुष्ट कर्म का दुशखद परि शाम, कर्मो के करने वाले को दी उनके फसल मोगने पढ़ते हि 8 में जायृति, स्वस्छन्द बृच्ि को रोरने में प्ृक्ति ६।

(४) भ्रका मर णी २" ज्ञानी का भ्पेय शूत्प मरस, करफर्मी का बिज्ञाप, मोगों की भासक्ति का दुष्परिणाम, दोनों प्रकार शोगों की उस्पति, स॒स्यु करे समय दुराचारी की स्पिति, ग्रृहस्व साधक दी पोग्पता। सच्चे संयम कय प्रदिपादन, सदाभारी प्री मति, दृबगति फरे सुर का बर्खन, संयमी का पफछ मरश।

(६) छुद्चरुनिर्रन्प८-एन, सही, पुर, परिवार आदि सद कममों

भरी जैव सिद्धान्त चोल संपइ, प्रथम मांग श्र

(१६) प्रक्षचये समाधि के स्पान-- | मन, वचन, काया से घुद्ध अद्लत॒य किस सरइ पाला जा सकता है? उपद्धे लिए दस द्वितकारी घचन | प्रध्नचर्य की फ्या झ्रावश्यकता है! मझ्नचर्य पालन फ्रे फल भादि फा विस्तृत बर्थन १७) पाप भ्रमणीय"-- पापी अमण फिसे झड़ते हैं? अमण जीदन को दृपित करने बासे सच्मातिद्बतम दोपों फा भी भिरतित्सा- पूर्य वर्णन (१८) सपवीय'-- फ्रेपिलपुर नगर के राजा संयति का शिकार फ्रे लिए धान में दाना, स्ग पर बाय चलाना, एक छोटे पे मौ मजा में परमाचाप का ना, गर्रभाज्ी पनि फे उपदेश रा प्रमाष, सँयति रामा का गृह स्पाग, सयूति तथा चश्रिय घनि का समागम, लैन शासन फ्री उत्तमता फिस में है? शुद्ध भन्तऋरण से पूर-मन्म फा स्मरण होना, चक्रपर्ती की अनुपम विभूति फे घारक भनेर महापुरुषों का भार्म सिद्धि के लिए स्पग माग का अनुसरण फर झात्मकन्याण करना | उन सब की नामात्रत्ी | (१६) झुगापुधीय'--- सुग्रीष नगर के फलंमद्र राजा के तर्थ युदराज सगापुत्र को एक प्ुनि के देखने से मोग विज्लासों से देराग्पमाद का पैदा होना, पृत्र का कर्चेब्य, भाता-पिता का पात्सन्प मात, दीपा छेने के ज्षिए भाज्ञा प्राप्त करते

॥।

श्ृ९ श्री सेटिया बैन मस्थमाला

(११) षहुभुवपून्प'-क्षानी एवं भरज्मामी के लचल, सन्चे ज्ञानी की मनोदशा, प्वान छम सुन्दर परिसझाम, हानी की सर्वोश्व उपसा।

पिया ] ्चू

(१२) इरिक्रेशीय'--जातिवाद करा खपडन, धाति मद का वुण- .

! रिशाम, धपस्वी कौ त्याग दशा, छुद्ध तपर्चरय्पां का दिम्ब प्रभाव, सच्ची झुद्धि किस में है?! ' री

कि

(१३) चित संसूदीयः--संस्क्ृति एवं ध्लीवन का सम्बन्ध, प्रेम

का झाकपेश, तिच भौर संभूति इन दोनों माहयों का

पू्ष इतिदास छोटी सी बासना के शिए भोग,

क्यों ! भ्र्ञोमन के प्रदत्त निमित्त मिशने पर भी स्पायी

की दशा, जि भौर स॑मूति का परस्पर मिलना, चित

मनि का उपदेश, संमूति का मानना, निदान (नियाला)

का दुष्परिणाम, संमृति का घोर दुर्गति में जाकर पड़ना |

(१४) इृएक्परीयः-आलासुभन्ध किसे कहते हैं! छः साथी धीरों का पूर्स इचान्त भौर इपुकार नगर में उनका पुनः इकट्ठा होता,संस्कार की स्पूर्ति परम्परागत मास्पताभों बस जीवन पर प्रमाव, गृइस्थाभम किस छ्िए ! सब्चे पैरास्य करी कसौटी, आस्मा की नित्पता का मार्मिक बर्णन | भ्रन्त में प्रोशित दो पुत्र, पुरोदित एवं उसकी पत्नी, इपुकार राजा झौर रानी इन छः ही थीषों का एक देसरे के निमिच से संसार क्य स्पाग और घ्क्ति प्राप्ति

(१५) मिफ्छुः-भादश मिष्ठू छेसा दो ! इसका स्पष्ट तथा इृदपस्पर्शी बर्णन

|

भरी सैम सिद्धास्त बोल सप्रह, प्रभभ माग शव

रथनेमिं हथा राजीमती का एकान्त में भ्राकृत्मिक मिशन, रपनेमि का कामातुर होना, राजीमती कौ भरिगता, राजौ- मती के उफ्देश स॑ संयम से विचलित रथनेमि का पुनः संयम में स्थिर होना, स्प्रीशक्ति का ज्यक्तन्त दृशन्त | (२३) फ्रशी गौतमीया-- अ्रावस्ती नगरी में मद्दा पनि फेशी भ्मद से शानी हनि गौतम स्वामी का मिलना, गम्भीर प्रश्नोत्त, समय पर्म की महत्ता, प्रश्नोचरों से सर का समाषान भौर केशी भमस झा भगवान्‌ महावीर द्वारा प्ररपित भाषार, का ग्रहण | (२४) पमितियाँ:-- आठ प्रवचन माताओं का बर्सन, साथघानी एवं संपम फ्रा सम्पूर्स वर्जन, फैसे चत्तना, बोश्लना, मिथा प्राप्त करना, स्यभ्रस्था रखना, मन, बचन भौर क्ाय संयम फी रचा आदि फ्ा विस्तृत वर्जन | (२४) पश्नौप--- याजक छीन है? यज्ञ कौनसा ठीरू है ! भप्रि ढौसी होनी जाहिए ! म्राप्नस किसे कदते हैं ! बेद करा असली रहस्प, सच्चा यज्य, साविवाद का पूर्थ सुन, कमंवाद का मंदन, अमण, घ्वनि, तपस्‍्वी, फ्रिसे छइते हैं ! संसार रूपी रोग क्री सब्यो बिकरित्सा, सस्पे उफेश फा प्रमाव | (२६) पमाघारी!--- साघक मिह्ठु की दिनघर्य्पा, उसझ्े दस मेदों का वर्णन, दिवस का समय विमाग, समय घर्म को पद्िचान कर काम

श्द्र श्री सेठिया देन प्रस्यमाक्षा

समय उसकी ताश्विक चचा, पूर्व लन्मों में नीच गतियों में मोगे हुए दुःखों की पेदना का वर्णन, आदश प्राग, संयम स्वीझगर कर सिद्ध गति को प्राप्त करना (१०) महानिर्प्रन्पीप-- श्रेसिक महाराज ओर प्मनाभी ध्वनि का भ्राभग - कारक संयोग, भ्शरण मादना, भनायता और सनाशता का दिस्तृत धर्शन, कर्म का कर्चा तभा मोकठा भास्मा ही है इसकी प्रतीति, झास्मा ही अपना शत्रु भौर झास्मा ही अपना मित्र ६ै। सन्त के समागम से मगघपति को पैदा इुसा भानन्द (२१) सप्द्ररातीया-- अम्पा नगरी में रहने बाल्ते, मगदान्‌ महाबीर के शिष्प पालित भाषक फ्या भरित्र, उसके पृष्र समुद्रपाल को पक भोर की दशा देखते ही उत्पन्न हा बेराग्यमाष, उनकी झढ़िंग तपभर्य्पा, स्पाग का बन | (२२) रथनेमीय/-- मगबाद्‌ श्ररिष्टनेमि फा पूर्व जीबन, सझुश बय में दी योग संस्कार क्ये यागृति, विबाइ के लिए साते हुए मार्ग में एक छोटा सा निमिच मिलना। पानि दीन एग सूक पशु प्चियों मरे हुए बाड़ को देख ऋर तथा ये बरातियों के मो नाथ मारे बारेंगे ऐसा सारपी से खानरर उन पर फठुशा कर, उन्हें बंधन से छुछ करताना, पात्‌ बैराग्य मात्र का उत्पस्न होना, सपम स्त्रीफार करना, खीरण राजीमदी का भमिनिष्कमन

भरी जैल सिद्धान्त बोज़ सप्रह, प्रथम माग श्ब्घ

रथनेमिं तथा राघीमती का एक्लान्ठ में आकस्मिक मिलन, रघनेमि फा कामातुर होना, राजीमती की मडिगता, राघौ- मी के उपदेश ध्ष॑ संयम से बिचलित रघनेमि फा पुन! संयम में स्थिर होना, स्प्रीशक्ति झा ज्वलन्त रष्टान्त | (२१) फ्रेशी गौतमीय'-- ग्रापस्ती नगरी में मदद परनि केशी भ्रमश से शानी प्नि गौतम स्वामी का मिलना, गम्भीर प्रश्नोचर, समय घर्म की महत्ता, प्रश्नोश्वरों से सब कय समाधान भौर फेशी भमज फा मगवान महावीर दारा प्ररूपित भाचार फा ग्रहय (२४) घमितिर्षों-- आउ प्रवचन माताझों का बर्खन, -सामघानी एवं संयम फा सम्पूर्श वर्सन, फैेसे चलना, बोसना, मिधा प्राप्त करना, ब्ययस्था रखना, मन, बचन भौर क्रय संयम फी रचा अएदि फ् दिस्ठुत चर्सन (१५) यक्गीय'-- याजक फौन ? यद्ध कौनसा ठीक है ! अग्रि फ़ैसी बोनी चाहिए ; प्रा्मण फ़िसे कहते ! बेद का भ्रसत्ती रहस्प, सच्चा यज्ञ, जातिवाद फा पूर्थे खंडन, कर्मवाद का मढन, अमस, इनि, तपस्पी, किसे फते है ! संसार रूपी शंग की सप्यो विकिस्सा, सस्वे उपदेश क्रय प्रमाव | (२६) समाघारी -- साधक मिष्ठु की दिनर्म्पा, उसझे दस मेदों का मर्थन, दिवस का सम्प विभाग, समय धर्म छो पदिषान कर फाम

शए० श्री संठिया सैन भन्‍्बमाला

फरन की शिक्षा, साबघानता रखने पर विशेष ओर, ' बिना दिवस तथा रात्रि सानने की समम पद्धति |

(२७) श्द्युद्वीप--- गरघर गर्माचार्य क्ा सापझ छीवन, गलियार बैएं साप शिष्पों की तुत्तना, स्वच्छन्दता का दुष्परिणाम, शि की भावश्यकसा कड्टों तक है? गर्गाचाय का अपने शिर्प्पों को निरासकत माद से छोड़ फर एकान्‍्त भा। कस्पाश फरना |

(२८) मोषमार्ग गति।-- मोचमार्ग के सापनों का स्पष्ट बर्शन, संप्तार के सम तस्तों के सात्िक ज़तस, प्रास्म विकास फा मार्ग £ जता से कैसे मिस सकता !

(२६) धरम्पक्त्व फराक्रम'-- विश्वासा की सामान्य भूमिक्य से लकर झन्तिम सा (मोष) भाप्ति तक डोने बाल्ली समस्य भूमिकाओं ' सार्मिक एवं सुन्दर बन, उत्तम ७३ बोलों को एल उनके गुथ भौर शाम

(३०) वपोमार्गः-- कर्मरूपी इघन को जलान यात्ी भगिन कौन सी तपरचस्पा का बेदिक, बेशानिक, तथा भ्राध्यात्मिक तीन दष्टियों निरीदृस, तपभर्प्या के मिन्न प्रकार

प्रयोगों का बर्सन भार उनका शारीरिक तथा मानप्ति' प्रभाव

अं सतत ([छसज्ाल्य बार्ध सप्त, अवध भागा का,

३१९) परलष विधिः-- यह संसार पाठ सीखने फी शाला है प्रस्पेफ वस्तु में इुछ ग्रहण करने योग्य, इछ त्पाग ने योग्य, और कुछ ठपे- पथ्यीय गृथ हुआ फरते ६] उनमें से यहां एक से लेकर देतीत संख्या तफ़ छी वस्तुओं का बर्थन किया गया है। उपयोग यही धर्म ई।

(३२) प्रमाद स्पान -- प्रमाद स्थानों का चिकित्सा पूर्ण पर्णन, व्याप्त दु से छूटने का एक मार्ग, एृप्णा, मोद भौर छोपघ का जन्म फ्शों से ! राग तथा देप फा मूत्त क्या है मन वया इन्द्रियों $ भसंगम के दृष्परिणाम, पुमृदु की फाये दिशा |

(३३) फर्म प्रकृति --

जन्म मरण के दुों का मृत छारण कया ! भाठ कर्मी के नाम, मेद, उपमेद, तथा उनकी मिन्‍न मिन्‍न स्पिति एवं परिणाम का सचिप्त दखन

(३४) कश्षेरपा--

पथम शरीर फ्रे भाव भ्रयवा शयुमाश्ुम फमो फू परिसाम, छ' छश्पाभों के नाम, रंग, रस, भन्प, स्पर्श, परिणाम, लग, भ्पान, स्पित्ति, गति, जपन्य, उत्कृष्ट स्थिति झादि का विस्दृत परणन | रिल ऐिन दोपों एवं गुर्णों से भमुन्दर एड सुन्दर माद पैदा दोते हैं। स्पूल फ्रिया से सुधम मन का सम्पन्ध, कठुपित अपवा भ्रप्रसन्‍न सन फा भारमा पर

श्७्७ श्री सठिया जैन प्रस्वमाक्षा

फरन की शिक्षा, सावघानता रखने पर विशेष जोर, घड़ी पिना दिवस सथा रात्रि यानने की सपम पद्धति

(२७) सल्लुड्ञीप-- गयपर गर्माघार्य का सापफ जीवन, गलियार शैसों साथ रिष्पों दी तुलना, स्मच्छन्ददा का दुष्परिणाम, शिष्यों की झावरयकशा फ्डां तर ? गर्गाचाय फा अपने सर शिष्पों झा निरासक माष से छोड़ फर शकान्त भात्म करपांश फरना |

(२८) मोषमार्ग गति'-- मोधमार्ग के साधनों झा स्पष्ट बर्णन, संसार के समस्त तस्तों सात्तिक सदर, भात्म विकास का मार्ग पर सता सं फ्स मित्त सज़्ता !

(२६) प्रम्पकत्व पराफ्रम'--- जिश्ासता फी सामान्य भूमिया सं लकर भन्विम साप् (माय) प्राप्ति तऊ़ होने बात्ती समस्त भूमिका्ों झा सार्मिक एवं सुन्दर बशन, उत्तम ७३ पोत्तों फी पष्ता, उनक गुण भार ताम

(३०) हपामाग -- कमरूपी इएन का जसान ग्रात्ती ग्रस्त इन प्ती ६! तपरयप्पा का बैदिक, बेध्ानिट, तथा झ्राष्पात्मिक इन तीन दृष्टियों निरीषण, तपसर्य्या के मिन्न प्रसार के प्रयोगों का बंयन भार उनऊा शारीरिक तथा मानमिद प्रमार

भ्री जैन सिद्धान्त धाल संप्रह, प्रथम भाग श्ज३्‌

कद्टा जाता है! झार्म प्रषाद पूर्व में से “छज्मीवणीय” अध्ययन, कर्म प्रवाद में से पिए्टेपणा, सस्य प्रवाद में से दाक्यशुद्धि, और प्रथम, द्वितीय भादि अध्ययन नपपे प्रस्पास्यान पूर्व फी तीसरी बस्तु से उद्रश्व किये गप £ै। इस्त प््न में दस भम्ययन भार दो चूलिकायें हैं) यह सप्र उत्कासिक | | शिस घ॒प्न फे पहने में समय फा कोई मन्‍्धन नहीं है। उठते उत्कालिक पत्र पड़ते है। भष्पयनों के नाम इस प्रफार हैं।-- (१ ) द् मपुष्पिफा:-- घर्म की वास्तविक स्यास्या, स्तामाजिझ, राष्ट्रीय सया झाष्यास्मिक दृष्टिपों से उसकी उपयोगिता भौर उसका फ्रत्त, भिछु तथा अमर जीवन फ्री तुलना, मिछु की मिदर शथि सामाजिस जीएन एए मार रए दोने का कारस (२) श्रामएप पर॑झ--- दाससा एप विरृम्पों के भ्रपीन हां मर बयां सापुता छी भारापना दो सस्ती ६! भादर्श स्थागी दीन झामी में बीस रूप में छिपी धृश पामनाों से जब पिस संपत हो टठ तप उसे रोडन के सरत एवं सफत्त उपाय, रपनेमि भौर रामीमती फ्ला मार्मिऊ प्रमड, शधनमि फ्री शीश फ्राम परासना, फ़िल्तु राजोमती की निरफनता, प्रदत्त प्रत्तामनों में सं रपनमि का उद्धार, पप्ी शक्ति रा ज्वतत्त उदाएरस।

श्ज्र श्री संठिया जैन प्रत्वमाजा -

कया असर पड़ता है! झृस्यू से पहले सीवन क्षार्प्य के फल का विचार

(३४) भ्रणगाराण्यपना--- गृह-संसार का मोद, संयपी की लवाबदारी, /स्पाम की सादघानता, प्रलोमन तथा दोप के निमिच मिलने पर सममाव फौन रख सकता ! निरासक्ति की बास्तविकता, शरीर ममस्व दा त्याग |

(३६) बीवाजीब विमक्तिः--- सम्पूर्ण शोक के पदार्थों का विस्द॒सत बर्णन, हक्ति की पोन्‍फ्ता, संसार का इतिदास, शुद्ध पैतन्प पतन स्थिति, पसारी घीषों की मिन्‍न मिन्‍न गतियों में क्पा दशा दोतौ है! एकेन्द्रिय, दीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पश्चे न्द्रिग जीबों के मेद प्रमेदों क्य बिस्ट॒व वर्शन, जड़ पदार्थों का बर्न, सम की प्पक्‌ प्रकू स्थिति ज्रीवास्मा पर झात्मा का क्या झसए पड़ता है! फल हदीन राथा सफत्त सृस्‍्यु की साधना की छुपित तथए सुन्दर भावना का दसन |

इन सब बातों का दर्सन कर सगवान्‌ मदुीर प्वामी

का मोद गमन।

(२) दशशभैदाक्तिक धत्रः-- शंप्पंमष स्वामी ने झ्पन॑ पृत्र मनक शिप्प कौ कबत के! मात भायु शेप खान कर विकाल झर्थात्‌ दोपहर से गा कर थोड़ा दिन शेप रहने तक भीदह पूर्व तथा अह् शा्सों से दस भष्पयन निकासे इस लिए यह छत्र इशपेकासिक

ही

श्री जैन सिद्धास्व पोल संग्रह, प्रथम भाग र्षर

कहा जाता ईै। आत्म ग्रवाद पूर्व में से “तब्बीवसीय! अध्ययन, कर्म प्रदाद में से पिएडैपणा, सत्य भवाद में से वास्पशुद्धि, भोर प्रपम, द्वितीय आदि भध्ययन नवरयें प्रश्पारुपान पूर्व फ्री ठीसरी पस्तु से उद्ष्ठव किये गये है इस घ॒श्न में दस भ्रष्ययन भीर दो चूलिकायें एै। यद्व पत्र उत्कालिक ई। जिस पत्र फे पढ़ने में समय का कोई मन्‍्पन नहीं उसे उत्तारिझ मप्र फदते है

अ्रष्पयरनों फे नाम इस प्रफार ६ै-- (१ ) प्र मपुप्पिका!--

धर्म फ्री वास्तप्रिफ ध्यास्या, सामाजिक, राष्ट्रीय तपा झाध्यात्मिक दृष्टिपों से उसझी उपयोगिता भौर उसका पतक्त, मिछु तयां श्रमर जीवन फ्री तुलना, मिलु री मिचा पृति सामाजिक जीपन पर भार रूप ने योन का प्यर्स (२) भामएप पूर्वक ---

वासना एवं विफ्नन्पों क्र भ्रपीन हो फ़र कक्‍पा सापुवा की भारापना हो समझती ६! भादणश स्थागी ढन ! झात्मी में बीत रूप में छिपी हृ्‌ई पासनाभों से जद पिप पंचल हो उठ तप उसे रोकने के सरत्त एवं सपस्त उपाय, श्यतमि भौर राजीमनी झा मार्मिझ प्रसक्ष इधनमि की उश्ीत छाम दासना, फिन्तु राजीमती की निश्नश्वता प्रवत्त प्रसोमनों में रपनमि झा उद्धार, इत्री शस्त्रि का ज्वलन्त रदाश्स्त।

श्ज भी सेटिया जैन प्रश्यमाला

( ) चुस्तकाघाए-- सिद्ध के सयमी घौषन को सरदित रखने क॑ लिए

महर्पियों द्वारा प्ररूपित चिकित्सा पूर्स ५२ निपेघास्मक नियमों का निदर्शन, अपने कारश किसी लीग को शोड़ा सा मी कष्ट पहुँचे उसवृत्ति से जीइन निर्वाइ करना | आर शुद्धि, भपरिग्रह पृद्धि, शरीर सस्कार का त्पाम, गृइस्प के साथ झति परिचय भड़ाने का निपेष, अजुप- यांगी बस्तुभों तथा क्रियाओं छा त्पाग

( ) पद छीवनिरण --

गष पिमाग/--भसण जीवन की भूमिका में प्रवेश करने बाले साधक पी पोग्पतर कैसी और कितनी ोनी चाहिए ! अमख घीवन दी प्रतिह्ठा के फ्ठिन पतों का सम्पूर्श बर्खन, उन्‍हें प्रसन्‍नता पूर्वक पालने के स्िए आपृत बौर साथक की प्रदत्त झमिशावर |

प्च विमागा--काम झरने पर मी पापकर्म का बन्च शोने के सरत्त मार्म का निर्देश, भ्रष्टिसा एवं संयम में गिवेफ़ दी आादश्पकता, ड्रान से क्षेकए पक्त होने तक की समस्ठ भूमिकाशों का क्रम पूर्वक विस्दृत बर्णन, कौन सा साधक दुर्गति झ्मथबा सुगति को प्राप्त योता है। सापक के आषश्यक गुल कौन कौन से £ !

(४ ) पिप्डैपशा।---

प्रधम दृशेशकः-मिथा की स्यारुपा, मिद्ा का भ्रणिकारी कौन मित्षा की रवेपणा ऋरने की विधि, किस भार्ग से किस

श्री औन सिद्धास्व बोक़ संप्रद, प्रथम माग श्ज््‌

सरइ ममनागमन क्रिया जाय? चछने, भोशने भादि क्रियाभों में कितना ब्रावधान रहना चाहिए ? कहाँ से मिचा प्राप्त की खाय झौर छिस प्रकार प्राप्त की जाप ! गृहस्व के पर्दा खाकर दिस सर से खड़ा होना चाहिए ! निर्दोप मिथा किसे कहते हैं! फ़ेसे दाता ऐे मिचा लेनी आहिए ! मोजम किस सरह करना चाहिए ? श्राप्त मोजबन में दिस तरइ सन्तु्ट रहा साथ ! इस्यादि बातों फा स्पष्ट पर्यन है। दिवीय उरेशका---

मिषा फे समय ही प्रिज्षा के शिए ख्राना चाहिए। थोड़ी सो मी मिन्ता का असंग्रइ | किसी मी मेदमाव के बिना शुद्ध भाषरण एप नियम वात्ते घरों से मिष्रा सेना, रस इत्ति का

» स्याग (६) धर्माषेकाामाष्यपन)--

मोधमाग का साधन कया है! भमश भवन के लिए झावश्यक १८ नियमों का सारमिक धर्सन। भर्दिंसा पात्तन किस लिए ! सस्प तथा असत्यप वत की उपयोगिता फैसी ओर कितनी है ! मैथुन इचि से कौन कौन से दोप पैदा होते हैं ! प्श्नशम्प की भाषस्यकता ! परिग्रह की मार्मिक स्याठुया, राजि भोजन किस लिए वर्ज्य है! घवम थौवों को दया किस सीबन में कितनी शक्य है! मिधुभों के लिए कौन कौन से पदार्थ भक्प्प हैं! शरी९-सस्कार का त्पाग क्‍यों करना चाहिए !

न्द्

] भी सठिया जैन प्रस्थमाला

(७) पाक्य शुद्धि --- बचन युद्धि की झाजरयकता, बासो कया चीज ६! बाली कै भतिम्पय से हानि, मापा के स्पबद्मारिक प्रकार, उसमें से फ्वीन फौन सी मापाएं बर्न्य हैं झीर किस सिये ! केस सत्य बाणी बोलनी चाहिए ! झिसी का दिश दु्ले . भौर प्पबशर मी भल्तता रहे तथा संपमी छीएन में बाधक हो ऐसी बिषेक्त पूर्ण बासी का उपयोग |

(८) धाभरस प्रसिधि-- सतू ग्रुशों फी सच्ची करन फ़िसे छगती है! सदाचार मगार्म फ्री फ़ठिनता, सापफ़ मिन्‍न कठिनठाओों को क्रिस प्रकार पार करे! क्रोपादि भ्रास्मरिषुों की किस प्रकार वीता साय! माससिक, पाचिक, तया फ़्ापिक प्षचरय्य की रषा अमिमान छैसे दर किया जाप ! क्षान का सदुपयोग साधु फो भादरणीय एवं स्पास्प क्रियाएं, साधु शीत की समस्पाएँ और उनका निराकरण

(&) विनय घमाषि:-- प्रथम उदेशक--बिनप की स्पापक् स्पाठ्या,गुरुकुश में गुक्देव फल प्रति अमण साधक सदा मक्ति माव रकखे। झबिनीत साधक भपना पतन स्वयमेद फ्रिस तर करता ! गुरु दो बय अथवा ज्षान में छोटा दान कर उनकी भविनय करने का मर्यकर परिणाम | क्वानी सापक के लिये भी गुरूमक्ति छ्ी क्रावरयकता, गुरुमक्त शिप्प फरा विकास | बिनीत साथक के विशिए सबण !

भी जैम सिद्धान्त घोल संप्रद, प्रथथ माग मी]

तीय उेशफः--इृष्त फे विकास केसमान भाष्यात्मिक मार्ग फ़े विकास छी तुछतना, धर्म से लेकर उसके भन्सिम परिशाम तक छा दिशदशन, विनय झ्विनय के परिणाम विनय के शत्रुओं का मार्मिक वर्णन! दीप उदेशक --पूज्यदा की आवश्यंक्सा है कया ? आदर्श पून्पता फौनसी ई? पूज्यता के शिये आवश्यपक्ष गुण | विनीत साथक्र अपने मन, वचन भौर काया फा फैसा ठपयोग फ़रे पतुर्ष उऐ्शशकः--समाभि फ्री स्याखु्या, भौर उसके चार साधन भआादर्श प्वान, आदर्श विनय, आदर्श तप भौर भादरश आचार फी झाराभना क्रिस प्रकार की जाय! उनकी साधना में भावश्यक् जागुति। (१०) मिष्ठु नाम -- सच्चा स्याग माद कब पैदा होता है ! फ़नक सथा कामिनी के स्पागी सापफ्र की लथाषदारी, पति सीबन पाछने की प्रसिज्ञा्ों पर रृढ़ कैसे रहा आय स्पाग का सम्दन्ध ब्राष्त बेश से नहीं दिन्तु भात्म पिफ्रास के साथ है। भादश मिद्दु फी क्रियाएं (११) रवि बाकय ( प्रथम चूलिका )--- शहस्प सीवन को झ्पेदा साधु सीबन क्यों महत्वपूर्ण है! मिछ्ठ परम पन्‍्प ने पर मी शासन के नियमों को पाछने के लिये बाप्य ६ै। वासना मप संस्कारों कय लीषन पर झसर, संयम प्ले चक्तित घ्रिध् रूपी धोड़े

श्री सठिया जेम प्रम्थमाता

का रोकने फे अठारइ उपाय, संप्मी लीबन सं पतित साधु की मगर परिस्थिति) उनदी मिन्‍न बीशों साथ तुलना, पठिठ साधु पा प्रभाचाप, संपभौ के दुख फरी चय महुरता झोर अष्ट सीन की मर्य फरता, मन स्वच्छ रखने फरा ठफ़ेश।

(१२) पिविफ्त चप्पा ( डितीय चूलिका )--

पफ़ान्त चप्पा की स्यास्या, संधार फें प्रदाह में बहते हुए थीषों फ्री दशा, इस प्रभाई के गिरुद घाने का भ्णि- कारी आन ६१ झादरशश एक '््पा, तथा स्वप्छन्दी एक चर्य्पा की तुलना, भादर्श एफ चर्य्या फे भावशयक गुल सपा नियम। एकान्स ऋरस्पां का रहस्प झौर उसकी योग्पठा का भषिरार, मोद् फस की प्राप्ति

(१३) नन्दी घत्र --

नन्‍्दी शब्द का भर्ष मगल्त पा इर्प ६। इप, प्रमोद भौर मंगल का कारण दाने और पांच झान का स्परुप बताने बात्ता दोने से यट स्रप्न नंदी कद्ा जाता ई। इस झत्र के देव-बाभफ दमा भमय फए जाते है। इस छज का एक ही भष्पयन ई। इसके झारम्म में स्वधिराषली कईी गई है। इसफे बाद ओताओं के रृष्टान्त दिए गए हैं। बाद में पाँच झान का स्वरूप प्रतिपादन छिया गया | टीका में ओोस्पाविकी भादि चारों बुद्धिपों की रोचक कयाएं दी गई £। डादशाह कौ हुएशो भौर कासिफ, टस्काशिक शादों के नाम मी इसमें दिए गए | पह पृज्र उत्कासिक है |

भी नैन सिद्धास्व दोरू संप्रषठ, प्रथम माग श्ज

(४) झलुयोगदार -- भणशु भयांत संक्षिप्त उत्र को महान अर्थ के साथ जोड़ना भनुयोग है अवबा भष्ययन फे अर्थ- अ्यारूपान की विधि को अनुयोग कहते हैं। जिस प्रफार हार, नगर-प्रपेश का साधन है द्वार होने से नगर में प्रवेश नहीं हो सकता | एक दो हार होने से नगर दु'ख से गवेश योग्य होता है। परन्तु खार द्वार एवं उपदार वाले नगर में प्रपेश सुगम है उसी प्रकार शास्त्र रूपी नगंर में प्रवेश फरने के भी चार द्वार (साधन) ह। इन द्वारों एबं उपद्गारों से शास्त्र के खटित्त भ्र्य में सुगमता फे साथ गति हो सकती है | इस सत्र में शास्त्रार्थ के स्यारूपान की दिषि के ठपायों का दिखरशन हैं। इसी ज्तिये शसका नाम झलुयोग- द्वार दिया गया है। यों दो समी शास्परों फा भनुयोग होता है। परन्तु यशं भाषश्यक फ्रे भाधार से भजुयोग द्वार का पर्सन है। इसमें भलुयोग के घरूप चार द्वार बदलाये गये

(१) उपक्रम (२) निष्ेप (१) अनुगंम (४) नय |

नाम, स्थापना, हृ्य, चेत्र,फाल और माव के मेद से तथा भानुपूर्षी नाम प्रमाय,पक्तस्पता,भर्या पिछ्यर भौर समवतार के मेद से ठपक्रम के मेद हैं आजुपूर्वी के दस मेद घताये गये हैं। इसी प्रकार नाम के मी एक दो पावत्‌ दस नाम इस प्रकार दस भेद हैं | इन नामों में एक दो भादि मेदों का दर्यन करते हुए स्त्री, पुरुष, नपूसक; शिड, झागम, लोप, प्रकृति, बिरार, छ. माद, सात सदर, भाठ बिमक्ति, नय रस,

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मी सठिया जैन म्रस्थमाता

आदि का बन है | प्रमाण वर्णन # प्रसंग में स्पाकरस के तढ़ित, समास झादि फा पर्णन दिया गया है | द्रष्प, पेज, काल और माप प्रमाथ के मेदों झा स्वरूप बताते इुए, घान्य का मान, हाथ दणढ, घनुप भादि का नाप, सु जा,

फ्राकिशी, माशे भादे फा तो, भंगुत, नारकादि की भ्रद

गाना, समय, झावज्षिका, पल्योपम, सागरोपम भादि नरकादि की स्थिति, द्रस्प एवं शरीर का बर्खन, बढ़, हक, आदारिफ, वेक्रियक झादि का भपिकार, प्रत्यक्त भनुमान, आागम, उपमान, प्रमाण, शान, दर्शन, 'घारित्र, गुण प्रमाण, नय॑ प्रमाण, संख्या प्रमाथ भादि अनेक दिपयों का बर्शन है। इसमें संसु्य, भ्रसंतठ्य और अनन्त संल्यामों का अपिकार भी ६। झागे बक्तस्यता, भ्र्थाणिकार भर सम- इतार का मर्णन दिया गया ह। बाद में अ्रनुयोग के शेप डारं, निधेप, भनुगम, भर नपों का बर्णन ई। यह ध5 रत्कालिफ है |

२०४--छेद छप्न घार -- (१) इशाभुत स्कष (५) पृइस्कम्प म्त्र (३) निशीय प्र॒त्न (४) स्पाद्वर छछत्र।

(१) दशाशअुत स्केभ'--इस प्रद्न क्य विषप यों तो भन्य त्रों

में प्रतिपादित ई। फ़िर भी शिष्पों की सुगमता के लिए प्रत्पास्यान पूर्व से उतृर्त कर दस झष्पपन हूप इस प्र क्वी रचना की गई ह। इसके रप्रयिता मद्॒बाहु स्त्रामौ हैं। ऐसा टीकाझों से ज्राद होता है। इस छज़ करे दस

प्री जैस सिद्धास्य बोक संप्रुइ, प्रथम माग शा

भ्र्ययन ने से इसफा नाम दशाभुतत स्फन्‍्च ई। पहली दशा में अ्रसमाधि के स्थानों फा वर्णन दूमरी दशा में एक्‍्क्ीस शम्रत्ञ दोप दिये गये हैं। तीसरी दशा में वेतीस भशातनाएँ प्रतिपादित हैं | चौथी दशा में आचार्य्य की झाठ सम्पदाभों का पर्यन है भोर भाचार, अश्रुत, विधेषणा एवं दोप निर्षादन रूप घार विनय तमा चार विनय प्रतिपच्चि का कथन | पांगमी दशा में दस चित्त समाधि भादि का वर्यान छठी दशा में शायद की ग्यारह प्रतिमाएं भार सातवीं दशा में प्ाधु की पारइ प्रतिमाएँ तथा प्रतिमाघारी साधु के फर्चम्याफ्त्तज्य वर्सित हैं। झाठपी दशा में पथ फ़ल्पाण फा बर्णन दिया गया है। नपर्षी दशा में तीस मशा मोइनीय कर्म फे बोल भौर उनके त्याग फा उपदेश ह। दश्पी दशा में नर निदान (नियाणा) का सबिस्तर वर्खेन एवं निदान करने का उपदेश ई। यह फ़ाछिझ प्रत॒ ६।

(२) शहत्कल्प सप्र---ऋण्प शम्द का झर्थ मर्यादा ! साधु घर्म की मयादा का अतियादक द्वोने से यह शदृत्तल्प के नाम से कहा जाता पाप रा विनाशफ, ठत्सगें भपपाद रूप मार्गों छा दर्शक, साधु रः पिदिष भाषार का अ्ररूपक, इत्पादि भनेफ़ पातों फ्लो बंदलाने वाला इसे से इसे पृइस्फल्प कद्टा खाता है। इसमें आधार, उपफरण क्रिया सतेश, गृदस्पों यहाँ जाना, दीचा, प्रापमिच, परिद्दार दिश्यद्धि चारित्र, दूसरे सच्छ में जाना, विद्वार, बाथना

पर श्री संठिया देन प्रस्पमाता

स्थानक, सद्दायता देना और समम्यना, इत्यादि दिपवक साध्याचार का कथन हैं | यह काशिक धत्र है |

(३) निशीष पत्र--निशीष शम्द का भर्य है प्रच्डन्न अर्शत्‌ छिपा इस इस शास्त्र में सब को बताने योग्य बातों का बर्शान है। इसझिप इस श्रप्त का नाम निशीद है। अगवा जिस प्रकार निशीद भर्भात्‌ कतक इच्च के फल को पानी में दालने से मै नीचे पैठ लाता है| छप्ती प्रकार इस शास्त्र के अष्ययन से मी भ्राठ प्रकार के कर्म रूपी पंक का उपशम, क्षय भथवा क्योपशम हो खाता है। इस लिए इसे निशीय कहते हैं। पह भ्रत्न नव प्रस्पाख्यान पूर्व की दृतीप बस्तु के बीसवें प्रासृत से ठद्हृत किया गया है | इस पत्र में बीस उऐशे हैं। पहस्ते उशेशे में पुरु मासिक प्रायमरि, दसरे से पांचये ठप्ेशे तक छपुमासिकत प्रापथ्ित्त, छठे पे स्ारइवें उर्ेश हक गुरु चातुसासिक प्रायमित्त, बार्‌इरें से उन्‍नीस्षें उऐशे तक शघु चातुर्मासिक प्रायश्रिच का है। बीसष उरेशे में प्रायरिच्त्त की विधि बतसाई गई है। यह काशिक छत्र है !

(३) भ्यष्गार छत्रः--जिसे छो प्रापरिच्रच झआाता ६। उपे ब६ प्रायरिच्त देना स्यवह्दार है | इस छत्र में प्रापरिषत्त का बर्खेन इस शिप्‌ इस उनल्न फो स्यवद्ार सत्र कहते £। इस छत में दस रऐरो ईं। पहले दऐरो में निप्कपट भौर सकपट झासों- घना का प्रायमित्त, प्रापधित्त फ्रे मांगे एकल विद्वारी साधू, शिषिस दोकर दापिस गस्‍्छ में झाने बाले, यृशस्प होकर पुनः

श्री जैन सिद्धान्त बोक संप्रद, प्रभभ माग श्ष्३्‌

साध्‌ बनने वाल्ते, परमत का परिचय करने मांले, झ्राज्ोघना सुनने के अषिकारी, इत्यादि विपयों फा बेन है। दसरे उेशे में दो या अधिक समान समाचारी वाले दोपी सापुभों की शुद्धि, सदोपी, रोगी भादि फी बेयाइत्य, भनबस्थितादि फ्ा पुन) संयमारोपणश, अम्पाह्यान भड़ाने वाले, गघ्छ फो स्याग कर फिर गष्छ में भाने बाले, एफ पाधिफ साध भौर साधुभों का परस्पर समोग शत्पादि पिपयक पेन है। तीसरे ठशे में गन्छाणिपति होने पाले साधु, पदपी धार के भ्राचार, थोड़े काल के दीधित फ्री पदषी, पुषा साधु का आधार्य्य, उपाण्याय आदि से भत्तग रहने फ्रा निपेष, गर्क में रइ छूर तया छोड़ कर अनाचार सेपन झरने बराले को साम्रान्य साधु एवं फदबीघारी छो पद देने घावत फाज्त मर्यादा के साथ विधि निपे, मपागादी फो पद देने का निपेष भादि का बेन है |

चौथे ठेशे में आधास्पे झादि पदपी धारक का परिदार एवं ग्रामालुग्राम बिचरते हुए उन का परिवार, आधार्य्प आदि क्ली सत्यु पर भाचषार््य॑ झादि स्पापन कर रहना, रहने पर दोप, युधाचार्य्य की स्थापना, मोगावत्ती कम ठपशसान, बड़ी दीका देता, ध्ानादि के निमित्त भन्य गच्ध में जाना, स्थविर की झाहा पिना“दिश्वरने का निपेण, ग्रुरु को फैसे रहना, दो साधुभों के समान होकर रइने का निपेघ, झादि घ्ातों का बर्थन है | पांचयें उऐेशे में साप्दी छा आचार, शप्न मूलने पर मी स्थिर फो पद की योग्यता, साधु साथ्यी के १२ सम्भोग, प्रायभित्त

श्प्ए

प्री सेठिया जप प्रन्यमाज्षा

देने के पोग्य झ्ाचार््प झ्रादि एवं साधु-साध्वी के परस्पर दैयाइस्प झादि बातों का पर्सन है छठे उऐेशे में सम्बन्धियों के यहाँ थाने की विधि, आचार्य्य उपाध्याय के भ्रतिशव, पटित अपठित पु सम्बन्धी, खुले एवं हृके स्थानक में रहने की दिपि, मैथुन की इच्छा का प्रायरिचत्त, भ्रन्य मप्छ ' से भाये हुए साधु धाप्वी इस्पादि विषयक बर्णान है।

सातवें रे शे में संमोगी साधु साभ्वी का पारस्परिक आचार, किस झबस्था में किस साधु को प्रत्यक्ष भगवा परोक्ष में बिसंमोगी ऋरना, साधु का साप्यी को दीपा देना, साधु साप्वी की भझाचार भिन्नता, रक्तादि के अस्वाण्याय, साधु साध्वी को पदवी देने फ्रा काश, एका- पक साधु साध्वी की सृस्यु ने पर सापर्मिक साधुभों कर्ततम्य साधु के रइने के स्पान झो पेचने या माड़े देने पर शय्पातर सम्बन्धी डिगेझ, रासा का परिवर्तन होने पर मरौन राम्याषिफारियों से झाज मां गना, भादि बातों का वर्णन है|

आाठयें उर्शे में झौमास के सिए शस्पा, पाठ, पस्टशादि मांगने की विधि, स्पविर छी ठपा पि, प्रतिदारी पार पाटख संने की विधि) भूले उपकरण प्रशण करने एवं झन्न जिए उपकरण मांगने की बिधि का पर्सन है। नव उएं शे में शय्पातर फे पाईँने भ्रादि का झाशरादि अहसल तथा पाषु की प्रतिमाझों की विधि का दर्सन है इसके उर्ं शे में पबमच्य एवं दजमध्य प्रतिमाशों की विधि, पांच स्यदृइार, विविध अमद्नियाँ, बालक को दीया देन की दिपरि, दीक्षा छने के

भी मैन सिद्धास्त बोल संपह, प्रथम साग (पे

बाद फ़प् प्रश्न पड़ाना, दस प्रद्यर की पैयापच्च से सहानि्रा एवं प्राप्षित् छा स्पष्टीफरण इत्पादि बिपयों झा दर्णन है। यह पत्र कालिक है। २०६९--आधभना के घार पाष् -- 5 (१) बिनीत। (२) चीरादि बिगर्यो में झासक्ति रखने वाला (३) क्रोध को शान्त करने वाशा (४) भ्रमायी, माया-फपट करने वाक्ता ये चार स्पक्ति दाचना के पात्र हैं। (ठाणांग व० सृ० ३९६ ) २०७--अआधना के चार भपात्र'-- (१) झबिनीत (२) बिसपों में आसक्ति रखने दाला। (३) भ्रशान्त (क्रोषी) (४) गायावी (छा करने बाश्ा) | पे बार व्पक्ति बाघना के श्रयोग्य हैं। ( ठायांग इं्देशा सूत्र ३२३ ) २०८--अलुपोग के भार ह्ारा।-- (१) उपक्रम (२) निश्षेप (१) भ्रनुगम | (४) नय। (१) उपक्रम।-द्र रही हुई बस्तु को विभिभन प्रतिपादन प्रष्रों छे समीप काना भर उप्ते निधेप योस्प करना ठपकृम कदछाता है मद प्रतिपाथ बस्तु को निद्देप योग्य करने बप्से गुर के बचनों को उपहम कहते हैं।.. «

१८६ £ श्री सठिया जैन प्रन्थमाश्ना

(२) निद्देप--अठिपाय बस्तु का स्वरूप समम्थने के शिए नाम, स्पापना झादि मेदों से स्थापन करना निर्षेप है

(१) भझनुगमः--प्त्र के भझनुरृतत अर्थ क्या कथन भनुगम फडइछाता है अथवा सत्र फा स्यार्पान करने बाला बचत ्र अलुगम कशइाता है। |

(४) नप--अनन्त धर्म वाक्ती बस्त॑ के भ्रनन्‍्त पर्मो में से इतर घर्मो में उपेधा रखते हुए गिवधित घ॒र्म रूप, एकरांश का प्रदय करने बाज्ञा शान नय कशलाता है|

निष्ेप की योग्यता क्षो प्राप्त वस्तु का निध्ेप फ़िया जाता है इस लिए निधेप की पोम्पता फराने बाला 5पक्म प्रबम दिया गया है झौर ठप़के बाद निश्षेप | नामादि मेरों से स्पबस्थापित पदार्थों का ही स्पात्यान होता है। एस लिए नि्षेप फ्रे बाद भ्रजुगम दिया शया है। स्पारुपात बस्तु दी नयों पे बिभारी श्लाती है, इसक्तिए भलुगम के प्मात्‌ नप दिया थया है। इस प्रकार भनुपोग स्पारुपान का क्रम होने से प्रस्तुत चारों दारों का उपरोक्त क्रम दिया गया है। 5 आप

नल ऋ. ( अनुयोग हार सूत्र 2२३ ) २३०६।--निधधेप चार।-- 2०

याबन्‌ मात्र पदार्षों के जिसने निश्षेप हो सके उतने ही करने "चाहिए | यदि विशेष निष्देप करने की शक्ति नद्दोतो चार निषेप तो अधश्य ही करने चाहियें।

सेन सिद्धास्त बोल संप्रइ, प्रथम माग श्प््क

इनके 'वार मेद नीचे दिये जाते हैं -- (१) नाम निष्ेष », (२) स्थापना।निधेप। (३) द्रन्‍्य निच्चेप (४) भाव निधषेपष - गम निध्वेप --प्नोफ ष्यपद्दार चलाने करे लिए किसी दूसरे गुणादि निमिच फी भपेधा रख कर किसी पदार्थ की कोई संत्ता रफ़ना नाम नि्ेप | चैस-किटी प्राक्तक फा नाम मदापीर रखना | यहां बाक्षक में वीरता भादे गुर्यों एय रुपाल फिए पिना ही “महावीर” शब्द फ्रा सफेत फिया गया ६। फई नाम गुण के झलुभार मी होते | किन्तु नाम निेष गुण की भपेचा नहीं फरता ! स्थापना निष्देप'-अ्रदिषाय पस्तु फे सर्श झयपा विसरश भाकार वाली पस्तु में प्रविपाप वस्तु की स्थापना फरना स्थापना निषेप फहलाता है। जंस-अम्पू द्वीप फ्रे सिप्र फ्रोअम्पू द्वीप फ़इना या शतरंज फे मोहरों को हाथी, घोड़ा, पजीर, भादि एडना ट्रम्प निर्देप/-विसी पदार्प क्री भूत भौर मपिष्यद्‌ फाश्तीन पर्याय फे नाम का बर्तमान फाल में स्यवह्ार करना द्रस्प निधेप ६। जंस-राता के मतक शरीर में “यह राम्मा ६? इस प्रदार भूव-फ्ात्ीन राजा पयाप फ्रा स्पपदार करना, झथवा मिष्प में राजा दोन पाले यूवरात फ्ो राजा कइना कोई शास्प्रादि का प्राता अब उस शास्त्र के उपयोग मे शत्प होता ६॥। ठब उसऊा धान हप्य धान झश्ताऐगा | “प्रतुपरोगो द्रप्पमिति रधनाव्‌? |;

श्प्प श्री सेठिया जग प्रत्थमादा

प्र्थात्‌ उपयोग होना दस्प जैसे-सामापिक का ड्ाता जिस समय सामायिक के उपयोग से शन्व है | उस धमप उसका सामायिक श्ञान हृस्प सामाकिक जात कइरछायेगा |

माष निधेपा--पर्याप के भनुसार धस्तु में शब्द का प्रयोग फरना साब निधेप ६। जेसे-राम्प करते हुए मलुप्प को राजा फ़न्‍ना | सामायिक्ठ के उपसोग बाते को सामाविक का शाता कइना | ( अमुबोगद्वार सूत्र 'मिछ्तेपाबिकार! खू० १५९ ) ( स्मायप्रदीप अ० ) २१०--शस्तु के सत्र पर अतुप्टय के चार मेद!--

(१) द्रष्प (२) बेच ( (३) काश (४) माद !

जैन दर्शन अनेकान्त दर्शन है इसके झलुसार बस्त में झनेक घमं रहते £ एबं भपेदा मेद से पररपर गिरफ प्रतीत होने बाते धर्मो का मी एक ही वस्तु में सामशस्व होता सैसे-भस्दित्व और नास्तित्व ये दोनों धर्म मो तो परस्पर विरुद्ध हैं। परन्तु भ्रपेषा मेद से एक शी बस्तु में सिद्ध है घैसे-पर पदार्य सत्र चतुएय की भ्पेधा भस्ति घर्म दाएश्ता और पर ऋहुष्टप कौ भपेषा नात्ति अर्म बात्ा है सत्र भतुष्टय से बस्तु के निजी द्रस्प, बेत्र, काठ भर माद लिये जाते हैं भीर पर बतुएय से परूम्प, परपेत्र, परकात्त भौर परमण्र सिपे जात ह।

भी जैन सिद्धास्त बोल संप्तह, प्रयम माग श्पड

द्रस्प, देव, काल, माद की सामान्य स्पास्या सोदाइरण निम्न प्रकार से है।

द्रष्प*--मुणों के समूह झो हरस्य रइते ई--जैसे-बड़ता भादि घट के गुर्यों के समूद रूप से घट है। परन्तु चैतन्य भादि बौध छे गुणों के समूह रूप से बह नहीं ६। इस भ्रकार पट स्व द्रम्प की भ्रपेदा से भरस्ति धर्म वाक्षा एप पर द्रम्प (सीव ट्रम्प) की भ्रपेचा से बह नास्ति घम बाला है।

चेतर --निरचप से द्रस्प फे प्रदेशों को चेत्र फशते £। सैसे- घट के प्रदेश घट का चंत्र हैं भीर जीव के प्रदेश जीब का चेत्र ६ै। घट भपने प्रदेशों में रहता है| इस लिए वह सत्र चेत्र सी अपेदा सत्‌ एप भीष प्रदेशों में रृने से सीव छेत्र की अपेदा से भसत्‌ है। स्पवद्वार में वस्तु हे झाशर मृत भादारश प्रदेशों क्रो मिन्हें बह प्गगाइती है, पेत्र करते हैं) जंसे-स्पपद्ार दृष्टि स्रे चेत्र की भपेषा घर अपने चेत्र में रहता ६। पर चेध्र की श्रपेता लीद फ्े चैत्र में पह नहीं रहता ६।

फातए'--४प्तु के परिझमन को फ़ात फइते जेसे-भट स्पडाल से बसन्य ध्युतु का £ भार शिरिर आठ फा नहीं

माष --वस्तु के गुण पा स्‍्वमाव को माप कइते ह। जैसे-पट स्वमाद की अपेधा से लतघररण स्वमाद बाला हू फ़िन्तु चस्त्र झी तरइ आाषरण स्पमाग वाक्ता नहीं टै श्रयषा

पटरद की भपेदा सद रूर और परस्द पी भपेषा झप्तदू सूप

श्ण्प सठिपा डेन प्रस्थमाला हे

अर्थात्‌ उपयोग होना द्रस्ब बेसे-समामिक का क्ावा जिस समय सामायिद के उपयोग से शूत्व है उठप्त समय छप्तका सासायिर ज्ञान द्रस्प सामाग्रिक श्वान कइलागेगा। भाष निर्ेप:--पर्याय के भजुसार धस्तु में शम्द का प्रयोग फ़रना माषर निषेप है। ब्रेसे-राज्य करते हुए सतृभ्प को राजा फ़घना | सामायिक्त करे उपयोग बाऐ छो सामागिक का ज्ञाता झइना ( अमुबोगढार सूत्र निष्षेपाधिकार' सू० ११९ ) ( स्मामप्रजीप हअर० ) २१०--शसतु के स्वर पर चतुण्टप के चार मेद/-- (१) हस्प (२) चेत्र , (३) फाक्त (४) भाद ! देन दर्शन अनेकान्त दर्शन है इसके अनुसार बसु में अ्रनेर धर्म रहते हैं एवं भपेषा मेद से परस्पर विस्य प्रतीय होने दासे घर्मो का मी एफ ही बस्तु में सामअस्व शोता घेसे-अस्तित्व भौर मास्तिस्व ये दोनों पर्म बों हो परस्पर बिरुद्ध हैं| परन्तु भपेदा मेद से एक हो बस्त में सिद्ध €ै। जैसे-घट पदार्य सत्र चतुष्टय की ऋपेषा भस्ति धर्म बाता ओोर पर चतुटप की श्रपेषषा नास्ति धर्म बाला ६। स्व चतुष्टय से दस्तु कू निजी द्रस्प, चेत्र, काश आर भाद छिपे खाते हैं और पर अतुष्टय से परुम्प, परचेत्र, परदातत भर परमाद छिपे बाते £।

श्री सैन सिझ्धास्व बोल संप्रइ, प्रथम माग पु

दृष्प, चेत्र, काल, माप की सामान्य ध्याख्या सोदाइरय निम्न प्रकार से है।

दृष्य --गुशों के समूह फरो द्रम्य कहते हैं--जैसे-जड़ता भादि घट फे गुर्सों के सम्‌इ रूप से पर परन्तु चैतन्य आदि जीव के गुणों के समूह रूप से बह नहीं है| इस प्रकार घट स्प द्रस्प की भपंथा सं भस्ति पर्म वार्ता एबं पर दस्य (भव द्रव्य) को भपेदा पे वद नास्ति शर्म वास्ता है।

च्षेत्र!--निरथय से हस्प के प्रदेशों को देत्र कइते हैं। जैसे घट हे प्रदेश पट का चेत्र हैं भौर यीव फे प्रदेश चीब का पेपर हैं। पट भपने प्रदेशों में रहता है। इस छिए पद सत्र 'बेह्र की भपेषा सद एवं चीप अदेशों में रहने से जीव के दघेत्र की अपेदा से असत है। स्पवद्र में बस्तु के भाभार भूत भाषाश प्रदेशों फ्रो जिन्हें बह भ्रपगाहवी है, घेत्र कइते ६! जेसे-स्फ्वशर दृष्टि से देंत्र फी भ्रपेषा पट पझ्पने देद्र में रहता है। पर दंत्र छी भ्रपेषा भीव फ्रे पेत्र में वह नहीं रहता है |

फ्ात्ता---भस्तु के परिणमन सम फाल रइते हैं। वैसे-पट स्वकाह से घपन्द प्यतु का भीर शिशिर पशु का नहीं है

माव/--पस्तु के यु८ या स्व॒माव करे माद ऋूइते ६! सैसे-पट स्व॒माद की अपेदा से सश॒घारस एवमाद बाला है झिन्‍्तु वस्त्र कौ तरह आवरल स्वमात्र बाहा नहीं है श्रथपा घटत्थ की अपेधा सत्‌ रूप झभौर पटत्थ को भपेधा असदू झुप है

१६० शी सठिया जैन प्रस्थमान्ना

इस प्रकार प्रत्पेक इस्तु स्व चतुएय की अपेदा सू रूप एएं पर 'तु्टय की भपेष्ता असदू रूप ६।7 ( स्थायप्रवीप अष्याप ) ( रानाकराबदारिका परिच्छेष्‌ सूत्र ९४ की टीका )

२११--अनुयोग फे चार मेद।-- हि (१) भरस रूरखाजुयोग (२) घर्म कवालुपोग | (३) गझिताजुयोग (४) द्रम्पानुपोग |

घरण फरशानुपोगः--जत, भमक घर्म, सपम, पेयाइस्प, गुप्ति, फ्रोधनिग्रइ भादि शरण हैं पिएड बिशुद्धि, समिति, पढिमा झादि फरण हैं। चरण करण का दर्यान करने बात आधाराक्लदि शास्पों फो घरझ करणानुपोग कइते हैं!

धर्म फवालुपोग'--धर्म कपा का पर्यान करने बाले श्ञातापर्म कपाहू, ठ्राप्पपन भादि शास्त्र घर्म कशालुयोग हं।

गणिसानुयोग --अर्सप्रश्मप्पि आदि गझित प्रधान शास्त्र गशिता- जुयोग फ़हलाते हैं। का

द्रम्पाहुयोग/--्रस्प, पर्याय झयादि का स्पास्पान करने बाले इष्टिबाद आदि डस्पानुयोग है। न्‍

( ब्शबैकाकिक सूत्र सटीक मियुफि गाया इए ३)

२१२५--क्यम्प के चार मेदः---

(१) गष (२) पथ (३) कप्प (४) गेय रया--छो कास्प छल्द पद्ध हो बद गध कास्प हू पथ+--छम्द बद्ध पथ ममष्प है। कृप्प---ूपा प्रभान रृप्य कास्प | गेप+--गायन के योग्य रास्प को गेप कहते है।

भरी सैन सिद्धास्व गोद संप्रह, प्रथम भाग श्र

कृथ्य और गेय झास्य फा गध भर पथ में समावेश हो जाने पर मी फथा और गान धर्म फ्री प्रधानता ने से ये अलग गिनाए गए हैं।

( ठायांय ४० घूत्र ३०६ ) २१३--चार शुम भर चार भ्रष्ठटम गश)--

तीन भ्रदर के समूह को घस् फहते €ै। झादि मष्प भौर भन्त भषरों के गुरु सघु के विचार से गयों फे भाठ मेद हैं।

नीचे लिखे सञ्न से भाठ गजल सरक्षता से याद फिए जा सबझते हैं।

#यमाताशघमानसलगम!!

(पगथ) मा (मय)

वा (हगय) (रगण)

थे (जगय) मा (मगयो

(नगश्) : से (संग) ये झ्राठ गल हैं। -

“ए' छघु फ्रे लिए भौर “ग! गुरु के लिए है

किस गय फ्ो धानना हो, उसर के श्रत्र में गय के भर के साथ आगे के दो भौर भदर मिलाने से वह रास बन लायगा। खैसे--यगस पश्चानने के लिए “य॑ के झागे के दो झधर ओर मिलाने से यमाता हुआ झसमें 'पः लघु है, 'मा! भौर ता! शुरु हैं| भर्वाव भादि अदर के पु भर शेप दो भधरों के गुरु होने से पगण (घ्छैशेाहै

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श्री सेठिया ऊैय प्रन्यमाका

भदि नगण सानना हो, तो न॑ के भागे के दो अधर “सछ” मिलाने से “नस्ल” हुआ धर्दाद जिसमें तीनों भ्दर लघु हों, दइश नगश घानना चाहिए।

संधेप में यों कइ सकते हैं कि मगश में भाद गुरु, अगश में मप्प गुरु और सगय में अन्त शुरु और शेष अकर - सघु दोते है| (5) पह निशान गुरु का भीर (।) पद निशान छपु रा है। देते-- -

मगय आ। गरधा-भारत।

संगस |, यथा-भरत।

सरणश 5 पया -मर्ौ।

यग्रय में भादि प्घु, रगय में मप्य लघु शौर तमद में झन्द कघु भौर शेप भ्रधर शुरु होते हैं।--

यगस 55... परया-इरी |

रगण 55. यपा+मारती।

सगण ध्ञ् यया+-मायातु

मशणश में तीनों अधर गुरु भोर नगझ में तीनों भचर हधु दोव ई। सैसे।--

मंगय 55६. य्रधाः-भामाता |

राय यधा*-मरत |

संचेप में इन भाठ गणों का छचण इस प्रद्मर बताया गपा ई। यथा+-- झ्रादिमष्पावसानेपु, मजसा पान्ठि गौरवम्‌ यरता सापत्र यान्दि, मनी हु गुरु सापबम्‌ ॥१॥

श्री मैन मिद्धास्त बोल संप्रई, प्रथम माग श्घ्व्‌

अर्थात --मगश, लगणश और पर्गश, भादि मन्य झौर भश्रव सान (अन्त) में गरु होते हैं भौर यगज, रगथ झोर तगस आदि मध्य, भवसान में लघु होते ह। मगस से गुरु भौर नगय सर्व खघु है। पिन शास्त्र के श्नुसार इन भाठ ग््॒ों में पगद मगश, मगण और नगण ये धुम भोर बगस, रगण, सगय ओर तगश ये भशुम माने गये हैं। ( सरक पिह्क ) नोट।--दग्घाघर पांच हैं | पे घोल नं० ३८९ में दिये गये हैं। २१४---बार इन्द्रियाँ प्राप्पकारी हैं!--

विपय को प्राप्त करके अरदांत्‌ ब्रिपय से सम्मद्ध दो

फ़र उसे जानने पाली हन्द्रियां प्राप्पफारी फदत्तावी ६। प्राप्पकारी इन्द्रियां चार हैँः--

(१) भोष न्द्रिप (२) प्राणेन्द्रिय | (३) रसनेन्द्रिप (४) स्पर्शनेन्द्रिय |

( ठायांग ए० सूत्र १३६ ) नोट--बैशेपिफ, नेपायिरू, मीमांसफ और सांख्य दशान समी इन्द्रियों को प्राप्फकारी मानत ६। भौद् दर्शन में भोत्र और अधु भप्राप्पकारी, भौर शेप तीन इन्द्रियाँ प्राप्पफारी मानी गई हैं! जैन द्शन के भजुसार चष्त झ्रप्मा- प्यक्ारी भौर शेप चार इन्द्रियां प्राप्पफारी हैं। ( रताकराबदारिका परिभ्छणंद सू» टीका २१४ --पान छी ष्यारूपा और मेद्‌ः-- ध्यान+--एफ लक्य पर बिच फो एकाग्र झरना ध्यान है। भवया छप़स्थों का अन्य हर्प परिमास एक दस्तु में पिच

श्ग्प श्री सठिया जैन प्रस्थभाजा हे 22/: 2 हाजी 2448: 3 74777 20 /02/ / अज कीच

को स्थिर रखना ध्यान कइसादा | एफ पस्छु प्त दफ़री पस्ु में स्पान के संक्रमस होने पर प्यान का प्रवाह बिर फ्ाल तक मी हो सकता है| मिन मगवान्‌ का तो भोगों का निरोध करना ध्यान कइलाता ह। प्पान के भार भेद है।-.- हे (१) भार प्पान (२) सौद्गप्यान (३) धर्म ध्यान (४) पुकचप्पान | (१) झाचैध्यान-क्त भर्घात्‌ दु/ख के निमित्त पा दुशख में होन बाला छ्यान भार्चप्यान कइछाता है. अ्रथदा भ्राच भर्थात्‌ दुखी आाशी फ्य न्‍्यान भार्चस्मान फडखाता है। (ठाणांग ४९ सुत्र २४० ) अधबा!-- सनोश्ञ बस्तु के वियोग एवं अमनोश् बस्तु संयोग आदि कारण से चित्त की घबराइट शझार्चप्पान है। ( समबाजांग सूत्र समबाब ) अधवा[?--- छीव मोशबश राज्य काम ठपभोग, शयन, झभामन,बाइन स्त्री, गंध, मात्ता, मणि, रस्न विभूषदों में ओो भ्तिशय इच्छा करता है| बह भारष्यान है। ( इराबेकालिक सूज अष्मबन है नि गा ४८ की टीका (२) रौद्गरप्पान/--हिसा, रू ठ, भोरी, घन आदि की रचा में मन को ओोड़ना रौद्न्पान है | , उम्रषाजांग सूत्र समपाष ४)

झपवाः-- हिसादि दिप्य का अरदिऋूर परिलाम रौद्ग्यान है (ठायणयंग सूप रएशे

मरी जैन सिद्धान्त बोज सप्रद प्रथम भाग श्ध्ड्‌

अगवा)

पिसोन्युज झात्मा द्वारा प्राणियों को रुताने पाले म्यापार का चिन्तन करना रौद्गन्‍्पान है। ( प्रदशन सारोद्धार द्वार $ गा रछ१ थी० ) अयपा-- छेदना, मंदना, काटना, मारना, प्र करना, प्रहार करना, दमन करना, इनमें जो राग करता है भौर जिसमें अलुफम्पा भाषर नहीं है। उस पुरुष का ध्यान रैष्रध्पान फइलाता है। ( दराबेकातिक सूत्र अप्ययन मि० शा० ४८ टीका )

(३) घर्मेन्याना--घर्म भर्थात्‌ भाज्ञादि पदार्थ स्वरूप के पर्या सोचन में मन को एकाग्र करना धर्मष्यान दे | ( धमदागांग घूत्र समवाय ) अपवा'--- भरत भौर घारित्र भर्म के सहित प्पान, धर्मप्यान फहलाता है ) | ( ठाखांग 3० सूत्र ९४७ ) अथपा'--- छ्त्ार्य की साथना करना, महज्तों को घारस्ष करना, दघ और मोधच् तथा गति-भागपि फ्रे हेतु्भों का बिचार करना,पम्ष इन्द्रियों के विपयों से निह्रच्ि झौर प्राणियों में डेया भाव, इनमें मन की एकाग्रता का होना भर्मप्यान है ( दराबेकालिक सूत्र ग्रभ्पयन मि८ गा० ४८ शीफा )

श्ष्द्‌ भ्री संठिर जैन मन्बमादा

|

अपना -- जिन भगगान्‌ और धापु के गुस्मों का कपन करत बाला, उनकी प्रशसा करने बाला, विनोद, भुवशीत ओर पंयम में झनुरक्त झात्मा परमंष्यानी है | उमका ध्पात " घर्मप्पान रछशाता ६। & ( भ्रावर्यक इरि० अम्पयन घ्यानशतक गा० ६८) धुक्त प्यान/--पर्ज गिपयक अत के भाषार से मन छी भस्पत्त स्पिरता और योग रथ निरोध शुक्तभ्यान कइलाता ९ै। ( समधायाग सूत्र समवाय ) अ्रषबा'--- जो भ्यान झाठ प्रझ्राए फ्रे मत छो इए करता है। अपया यो शोक को नष्ट करता ६! बह भ्पान शृक प्पान रै। ( ठाययांग £ सूह्र रेशे४ ) पर अ्रबस्म्भन बिना शुक्रु--निर्मेश भारमस्वरूप की

सन्मयता पूर्वक चिन्तन करना शुक्रष्पान कइक्ताता ६। ( भागमसार )

अभदगा'-- जिस घ्पान में ऐिपयों स्य सम्पन्ध शोन पर मी देरास्प प्रल से चित्त बाइरी विपयों की झोर नहीं खाता ठश शरीर का छेदन मेदन पर मी स्थिर इसा चित्त ष्याने पे खा मात्र भी नहीं डियठा | ठसे ल्ुक्प्मान कहते है। ( फत्तसब कौमुरी दूसरा साग रकोक २११) (आदबण इरि अ« भ्यान शातक प्र ८२)

३१६--आर्चप्यान के चार प्रकाए"--

(१) झमनोझ्ष वियोग बिन्ता-भमनोह्ठ शब्द, रूप,गंध रह, स्पर्श, विपय एवं उनझ्री सायनमूव बम्हुभों का

श्री मैन सिद्धास्द शोक संप्रह, प्रघम माग श््०

होने पर उनके षियोग (इटाने) फ्री चिन्ता करना तथा मधिप्य में मी उनका संयोग हो, ऐसी इच्छा रखना आच ज्यान कला प्रथम प्रकार है। इस झाच ज्यान फा कारण ढइप है।

(२) भनोन्ञ सयोग घिन्ता'---पांचों इन्द्रियों फे मनोश्न विपय एव उनके साधन रूप माता, पिता, माई, स्वजन, स्त्री, पूत्र भौर घन, तथा साता पेदना फे संयोग में, उनका वियोग (झल्तग) दोने का अल्‍्यपसाय करना तथा मतिष्य में मी उनके संयोग की इच्छा फ़रना झात्त स्यान का दूसरा प्रकार है | राग इसका मूल फारण है |

(३) रोग भिन्ता'--शुज्ञ, सिर दे आदि रोग भाव परे होने पर उनफी चिकित्सा में व्यग्र प्राथी फा उनक्रे वियोग फे लिए चिन्सन करना सभा रोगादि फ्े भ्रमाष में मगरिप्प फ्रे शिए रोगादि फ्े सपोग होने फी चिन्ता फरना झात्त ध्यान फा तीसरा प्रकार है।

(४) निद्दान (नियाणा)-देपेन्द्र, बक्रवर्ती, परदेष, वासुदेव के रूप गुण भौर ऋद्धि फो देख या सुन फर उनमें भसक्ति लाना और यह सोचना हि मैंने ज्रो सप संयम झादि घर्म फृत्प फिये हैं। उनके फल स्वरूप मुझे मी उक्त गुय एव आदि प्राप्त शो इस प्रकार अघम निदान फी चिन्ता फरना आर ध्यान का थीपा प्रफार६ | इस झात्त ध्यान का मूल कारस भन्नान ! क्पोंकि भरश्ानियों फ्रे सिद्राप झौरों फो सांपारिक छुसों में भासक्ति नहीं इोती श्ञानी पुरुषों फ्े चित्त में तो सदा मोच की लगन दी पनी रदती ६।

श८ श्री सठिया मैम प्रस्पमाक्षा

राग देय और मोह से युक्त प्राशी का यह चार प्रफार का भार्चघ्यान ससार को बढ़ाने बाला भर सामा- न्पतः विर्यन् गति में ले साने बाला ह।

( ठाझाँग ९० है धू० २४५) (दरि० आवश्यक अध्ययन स्वास शतक गा से ४)

२१७--शार्चघ्पान के चार लि -- (१) भाज न्दन | (२) शाचन | (३) परिदेवना (४) तेपनता ये बार आार्चप्पान फ्रे भिष्त ऊँशे स्पर से रोना भौर चिह्ताना झामन्दन | श्रांखों में भांप शाकर दीनमाद घारण करना शोचन | बार धार वित्त मापथ करना, विज्ञाप करना परि देवना अआाँध्व गिराना तेपनता * इृष्ट वियोग, श्रनिष्ट संयोग भीर पेदना फ़ निमिच ये भार तिह् भार॑ष्पानी के दोते (इरि आदश्यक अप्पपम ब्यानशतक था १४ प्रृर्ट श्रू४ ) ( ठायांग रऐशा सूप २४७ ) ( मगशती शतक ३१४ उद्देशा छु* ८०३) २१८-रौरष्यान चार प्रफारोा-- (१) सिंसानुप्रभी (२) म्रपाजुभन्भी (३) चौस्पानुषन्धी (५) संरचणालुगन्धी दिसालुब भी --प्राणियों को घाजुक, उता आदि से मारना, कील झादि नाक भर्गेरइ बींपना, रस्सी, जंसीर भादिस बांधा, भ्रप्ति में कत्ताना, डाम रूगाना, तलवार झादि से

भी जैन सिद्धास्द बोक्ष संप्रह, प्रथम माग श्घ्ध

प्र पर करना अथदा उपरोक्त ब्यापार करते हुए भी फ्रोष के वश होफर निर्दयता पूर्यक निरन्तर इन इंसाकारी स्यापारों को करमे कय चिन्तन करना दिसालुमन्पी रौदर

ध्यान है

सपानुषन्धी!--मायाबी-हूसरों को ठगने के प्रवृत्ति करने पाले दा छिप कर पापाघरण फरने बाले पृरुषों के भनिष्ठ पधक पतन भ्रपस्प षचन, असत्‌ अर्थ का प्रफाशन, सत्‌ भर्थ का भपज्ञाप, एवं एक के स्पान पर दूसरे पदार्थ भादि का फवन रूप भसत्य वचन, एवं प्राशियों के उपषात करने पाले पचन कइना या कइने फा निरन्तर चिन्तन फरना मपानुषन्दी रोद्रप्पान है !

चौर्य्पनुगन्धी--तीत क्रांघ एवं क्षोम से स्यग्र चिच बाले पूरुप की प्राणियों उपदातफ, भनाए॑ काम जैसे-पर दरम्य हर है निरन्तर चिच इसि का होना, घ॑स्यानुगन्धी रौद्र ध्यान है

अरचशानुपन्धी:--शब्दादि पांच विपय के सापन रूप धन की रचा करने की चिन्तना करना, पुप मालूम दूसरा क्‍या करेगा, ईस झाशंस्या से इसरों का उपयात करने की कपापसयी सित्त बृति रखना, सरदशानुरन्षों रो ध्यान है।

छिंसा, मृपा, चौय॑, एवं संरघल, स्वय करना दूसरों कराना, एप करते हुए क्री भनुमोदना (प्रशंसा) करना, इन सीनों कारस विपयक्ू सिन्‍्तना करना रौद्गप्पान दं ! राग

१०० श्री सठिया जन प्रस्भमाक्षा

हेप एपं मोह झाकुत जीव फ्रे यह चारों फ्फार हा रौद्॒प्पान होता ई। पई ध्यान संसार फो बढ़ाने बजा एएं नरक गति में से घाने वाक्ता | ( टाय्रांग र० सूत्र रे८० ? २१६-रीद्रप्पान फ॑ चार लक्षणः:-- (१) भोसन्न दोप (२) घहुदोप, ( बहुछ्तोप ), (३) अझ्ञान दोप ( नानादोप ) (७) भामरणान्त दोष |

(१) झ्रोसन्‍न दोष/--हौद्रभ्पानी हिंसादि से निव्रतत होने सं बहुलता पूर्वक हिंसादि में से किसी एक में प्रति करता है। पद भोसनन्‍्न दोप है|

(२) इहुछ दोप+---रौद्न प्पानी समी हिसादि दोपों में प्रदृत्ति करता है। वइ बहल दोप है।

(३) भज्ञान दोप/ः--भड्ान सं इशारत्र फ्रे संस्कार से नरह्ादि $ फारय भपम स्वरूप हिंसादि में धर्म पृद्धि से उन्नति के लिए प्रदृत्ति फरना, भड्जान दोप है |

अपधवा।--

नानादोप---विविध ह्िंसादि के उपायों में अनेक बार प्रवर्ति करना नानादोप है।

(४) भामरझान्द दप/--मरण पर्यन्त हर हिंसादि कार्य में भव ताप ( पछताद्ता ) होना, एवं हिंसादि में प्रति करते रहना भामरणान्त दोप है। जेसे-कासत सौकरिक कर्मा(!

( भाव० इरि० हम ब्यान शनक गा? २६ पृ०४६ ) ( ठार्याग इ० सूत्र १४० ) ( संग» श० र४ छ० सूच ८०१)

श्री चैन सिद्धान्त बोल संप्रश, प्रथम मारा रण

कठोर एवं संक्लिष्ट परिणाम वाला रौद्रण्यानी दूसरे फे दुश्ख पे प्रसप्त होता है | ऐहिक एवं पारतौकिफ मय से रद्दित शोता है | उसके मन में भनुफम्पा मात्र छेश सात्र भी नहीं होता भकार्य करके मी उसे परचााचाप नहीं द्ोदा | पाप करके मी वह प्रसभ्र होश है।

(इरि० आवश्यक अध्मय्म )

२२७ पर्मष्पान के चार प्रकार-- (१) भाज्ञा विच्रय | (२) भपाय बिचय (३) विपाक गिचय (४) सस्यान विचय !

(१) भाज्ञा विचय--श्रद्म रक्तों के उपदर्शक होने से झरति निपुण, भनादि, भनन्त, प्राक्षियों फ्रे दास्ते शितफारी, अनेकान्त का श्ञान कराने बाती, झ्रमृस्य, भ्रपरिभित, प्ैनेतर प्रबबनों से भपरामूत, महान्‌ भ्रवात्ती, महाप्रमाव शाज्ती एवं सहृतन्‌ पिपय वही, निर्दोष, नयमस एवं प्रभाण से गएन, भ्रतएव भहशक्त षनों के शिए दुर्शेप ऐसी जिनांज्ञा ( जिन प्रवचन ) की सत्य मान कर एस पर अद्भा फरे एवं उसमें प्रतिपादित तक्दों कर चिन्तन भौर मनन करे। बीतराग के प्रतिषादित श्र के रहस्प को समझाने वाल्ते, भाषाय्ये मह्ाराव के दोने से, शेय की गइनता से भर्थात्‌ ज्ञानावरशीय कर्म के रदय से भर मति दौप॑स्पस जिन प्रबचन प्रतिपादित तष्य सम्पग्‌ रूप से समझ में भरापे अथवा क्रिस दिपय सें बेठु छदा।इरण के समय होने से वद बात धममझः में आये तो यह विचार करे

9०० मी सठिया बैल प्रस्यमाजा

कि ये बचने वीतराग, धर्बश्ञ मगबान्‌ भी जिनेश्वर हारा कवित हैं। इसलिए सर्ष प्रकारेश सत्य ही है। इस में सन्देद नहं।

7! अनुपक्ारी घन कै उपकार में दत्पर रहने पाले, जगत में प्रधान, जिलोक एवं विकास के क्षाता, राग ठेव भौर मोह के विजेता, भी सिनेश्वर देष के पचन सत्य हो हंये हैं क्योंकि उनके असत्य कथन का कोई कारश ही नहीं ऐै। इस तरइ मगर माफ्ति प्रवचन का चिंतन तथा मनन करना एवं गह तक्तों के विपयों में सन्‍्देह रखते हुए उन्‍हें दवा पूर्वक सत्प समझना और बीतराग के व्चनों में सन को एकाज करना आप्वाषिच्िय नामक पर्मष्यान है।

(२) भ्रपाय विक्षप--राग देप, कपाय, मिस्पास्‍्य, अविरति भादि झाभव एवं क्रियाओं से इोन बाले ऐशिक, पारलोकिफ हफत भीर हानियों का विचार करना। जैसे-कि महाम्माषि से पीड़ित पुरुष को भ्रपस्य अम्म की इसका जिस प्रऋरर इानिप्रद है। उसी प्रकार प्राप्त हुभा राग मी जीव के लिए वुश्खदायी होता है।

प्राप्त हृथा इ्ंप मी प्राशी को ठसी प्रकार ता देता है। प्रेसे-झ्ेटर में रही हुई भरिन वृद्द को शीमर दी जला डाछठी है।

सबज्ष, सबंदर्शी, बीवराग देव ने रृष्टि शाग भादि मेदों वाले राग का फस पररौह में दीप संसार बवलाया ई।

हेपरूपी झस्नि सी संतप्स जीब इस लोक में मी इ"लित रइवा है और परक्तोक में मी बह पापी नरक्पग्नि में सता है।

मी जैन सिद्धान्त बोल संप्रइ, प्रथम माग २०३

मे

वश में किये इुए कोप्र भोर मान एवं मढ़ते हुए माया भौर क्तोम--ये चारों फपाय संसार रूपी हृव के मूत्त का सिंचन फरने पाले हैं भर्थात्‌ संसार फ्रो बढ़ाने बाले हैं

प्रशम आदि गुणों से शून्य एप मिथ्यास्त से मूढ़ मतिषाला पापी स्रीव इस छोक में ही नररू सच्श दु खो को पाता ६!

क्रोध भादि समी दापों फी भपेत्ता मशान भधिक इुशखदायी क्‍योंकि भज्ञान से भाष्छादित नीव भपने शिताहित को मी नहीं पट्चिधानता | प्राणियप्र से निज होने से लीव यहीं पर झनेक दूपणों का शिफार होता उसके परिणाम इतने फ्रर हो खाते हैं कि वइ स्तर निन्दित स्वपृष्र वध, लरेसे जघन्प ( नीच ) इृस्प मी कर बैठता है| इसी प्रकार भाभव से श्र्मित पापकर्मो से भ्ौष सिर फाज्त कक नरफादि नीच गठियों में अमण करता इआ अनेक भपायों (दुखों) का माशन होता फ्रायिफ्ी झादि क्रियाभों में ब्तमान सीब इस शोक एव परछोर में दु सी शोते ये क्रियाएं ससार को घटाने भ्रात्ती कदी गह हैं। इस प्रद्ार शाग इंप फपाय झादि के अ्पायों के चिंतन करने में सन को एकाग्र करना अपाय विषय पर्मप्पान | इन दोपों से दोने दाता इफत का विन्तन करने वाला

९०४ भर सठिया सैन पत्थमाक्षा

क्लीब इन दोपों से भपनी आरमा की रक्ा करने में सह भान रहता है एवं इससे दूर रहता हुआ असम कक्याल का साधन करता है।

(३)--विपाक विच्य-झुद्ध क्‍्रास्मा क्रय स्वरूप ब्ान, दर्शन, घुख झादि रूप है। फिर मी कर्मत्श उसके निजी युद _ दबे हुए हैं एवं गह सांसारिक सुख दु'ख के इन्द में (री ईरई चार गियों में प्रमाण कर रही है! संपत्ि, विपत्ति संयोग, पियोग झादि से दोने बास्ते सुख दुःख लोष पूर्मोपरार्सित शुमाशम कर्म केद्दी फत हैं। भार्मा दी अपने कृत कर्मों सरे सुख्र दुःख पाता है। स्वीपार्दित कर्मों के सिवाय भौर कोई भी झ्मास्मा को सुख इुःल देने बाज्ता नहीं है। भारमा की मिन्‍न अगस्थाओं में कर्मों क्रे मिन्‍न फल हैं। इस प्रकार कृपाय एवं बोग सनित शमाहझ॒म कर्म प्रकृति बन्‍्न, स्थिति बन्ल, भनुगाप बन्ध, प्रदेश बन, ठदय, 6दीरेणा, सत्ता, इत्यादि कर्म विपयक सिन्दन में सन का पएक्पग्र करना विपाक विचषत घ्रम॑ध्यान है।

(४)--प्रंस्पान विचय -- पर्मास्विक्रय प्रादि द्वस्प एवं उन की पयाय, धीष असीब फ्रे श्राझार, उस्पाद, स्पय, प्रीम्प, जोक का स्वरूप, प्रृष्यी, द्वीप, सागर, नर, विमान, मबन झादि के भाकार, लोक स्पिति, जीध कै गति, आगति, जीवन, मरण झादि सभी सिद्धान्त के झ॑ का बिन्तन करे तथा सीष एवं उसके कर्म से पैदा किए हुए

भी जैन सिद्धास्त बोक्ष संग्रह, प्रथम माय र्०श्‌

सनम, सरा एवं मरण रूपी छत्र से परिपूर्ण क्ोघरादि कपय रूप पाताल बाले, विविघ दुःख रूपी नक् मकर से मरे हुए, अज्ञान रूपी पायू से उठने पाल्ली, सपोग प्रियोग रूप छाइरों सद्दितइस झनादि भनन्त संसार सागर का चिन्तन करे इस ससार सागर फो हिराने में समर्थ, सम्परदर्शन रूपी मबपूत इनन्‍्पनों वात्ती, शान रूपी माषिक से चलाई घाने वाली चारिय रूपी नौका है | संर से निरिछ्, तप रूपी पवन से पेग ढो प्राप्त, वैराग्य मागे पर रही हुई एवं अपध्यान रूपी तरगों से ढिंगने वाली बहुगून्य शीत्त रन से परिपूर्स नौका पर चढ़ कर प्रुनि रूपी स्यापारी शीघ्र दी ऐना बिस्‍्नों फे निवाय रपी नगर फ्ो पहुँच जाते हैं। वहाँ पर पे भ्रवय, भम्पाबाघ, स्वामाबिफ, निरुपम छुस पाते हैं। इस्पादि रूप से सम्पूर्ण वीयादि पद्मार्यों फ्रे पिस्दार बाले, संघ नपसमृद्द रूप सिद्धान्तोक्त अर्थ के चिन्तन में मन फो एकाग्र करना सस्‍्पान विषय धर्मप्पान £।

( राजांग $० सूत्र २४७ टी० ) ( अमिषान राजम्द कोए भाग मगाण शब्द ) २२५१--पर्म प्पान के घार लिड्ध।-- (१) झाठा रच (२) निम्त्ग रूचि | (३) यत्र रुषि | (४) भवगादरुचि (उपदेश रुचि)।

(१) भाषा रुचि।--स्त्र में प्रतिपादितत भ्र्पों पर रुचि पारण झरना भाद्ठा रुसि ह।

२०३ भी संठिया देम मल्यमाला।

(९) निसर्ग हजबि --स्वमाब से ही बिना किसी उपदेश के विन भापित तस्तों पर भद्धा करना निसर्ग रूचि है। - (३) घव रुचिः--स्त्र भ्र्वाद झागम द्वारा बीतराम प्रूफित द्रश्यादि पदार्यों पर भद्धा करना छत्र रुचि है | (४) भवगढ़ हथि (उपदेश रुचि)--द्वादशाक का विस्तार पूर्वक शान करके जो शिन प्रदीत मारों पर भ्रदा होती है। ! हुई अबगाढ़ रुचि है अ्रयवा साधु के समीप एइने वाले परे साधु के धजानुसारी उपदेश से थो भद्धा दोती है। का झजगाड़ रुचि (उपदेश रुचि) है। तात्पर्य यह है कि हच्चार्य अद्धान सम्पकत्व हो रे ध्यान का शिक्न है! मिनेश्वर देप एम साधु प्ुनिरात के शु्षों का कबन झरना, भक्तिपूर्वक उनकी प्रशंसा भौर स्तुति करना, पुर भादि का विनय करना, दान देना, भुत शीत एवं संयम में झतुराग रपना-ये घमंभ्यान के पिह इन से प्म॑ध्वानौ + मद्दिषाना प्लाता है। ( ठाश्ीग इ० सूत्र १४७ हौ९ ) ( अमिपान राजेसख ढोप माग राय राब्च ) २२२--अर्म ध्यान रूपी प्रासाद ( मदस्त ) पर घटने के चार अआातम्बन --- (१) बाचना (२) एृष्छना | (३) परिबतना (४) झनुप्रेषा (१) बाषना--नि्॑रा झे लिए शिष्प को प्रत्र झ्ादि बढ़ाना बाचना |

कट

श्री मैन सिद्धास्व धोक संप्रह, प्रथम माग र्०्छ

२) प्ृच्दना--म्रत्न झ्ादि में शह्ठा होने पर उसका निषारण करने के शिए गुरु मद्दाराज से पूछना पृष्छना है।

(३) परिवर्तना--पहले पढ़े हुए स्नादि मृत्त जाएँ इस सिए तथा निजेरा के लिए उनकी भाइसि करना, भम्पास झरना परिवततेना

(४) भनुप्रेघा-घज्न भर्य का बिन्‍तन एवं सनन करना भजुप्रेषा ६।

(स० २५ ह० सु० ८०ऐ ) ( ठाणांग छ० सूत्र २४७ टीका)

(एव० सू० २०) (भाष5 इरि* अ०४ भ्यानशप्तर गा० ४२ प्ृ० १६४)

२२३--धमध्यान की चार भनुप्रेचाएँ --

(१) एकस्य माना | (२) भनिस्पत्थ मायना (३) भशरणथ मावना (४) ससार मावना

(१) एकल्प मावना--/इस समार में मैं भरकेशा हूँ, मेरा छोई नहीं हैं भौर मैं शी फसी का हूँ? ऐसा मी कोई ध्यक्तिनही दिखाई देता सो मपिष्य में मेरा दोने बाला हो भधवा में शिस फा बन सह! इस्पादि रूप से झारमा के एकस्प झर्पाद्‌ अमझापपन की भाषना करना एकस्य मापना है

(२) प्रनित्पल मजना--“शरीर अनक पिप्त घाधामों एवं रोगों का स्पान सम्पत्ति विपत्ति फ्रा स्थान ६] संयोग झे साथ पियोग उत्पन्न छोन वाज्षा प्रत्यक पदार्थ -नशबर है। इस प्ररार शरीर, जीवन तथा ससार के समी पदार्थों के अनित्प स्परूप पर विचार वरना भनिःयत्व मावना है

(३) भरारण भादना--अम, जरा, मृत्यु छू मय से पीड़ित, स्पाधि एवं पेदना से व्यथित, इस संसार में भात्मा पा दाग रूप फाई नहीं ६। यदि कोह भागा का दाय करन

श््प सेठिया छेम प्रस्यमाला

बात्ता तो हिनेन्द्र मगबान्‌ के प्रवचन ही एक अब शरण रूप ई। इस प्रसार आत्मा फ्रे श्राश 4 शरल के भमा की फिन्ता फरना भ्शरश माबना है

(२) पंसार मापना--इस संसार में मादा इन कर वही बी, पृष्री, बहिन एडं स्त्री बन खाता £ झौर पृत्र का जीब फल, माह, पह्ाँ तक कि शत्रु बन जाता है | इस प्रकार भर गयि में, समी भदस्थाओं में संतार फ्रे विचित्रता पूर्व डर क्रा बिघार छरना संसार मावना ६।

( सग* श॒श१ 5० सूत्र ८०३ ) ठासांग कु० सूत्र वएस्थी )

(उत्० सू० २०) ( झावब० हरि प्यानश गा० ६५ ही* ६९ ६%१)

२२४--अर्मप्पान के आर मेइः--

(१) पिएडस्प | (२) पदस्थ | (३) रूपस्प ! (४) रूपातौत।

(१) प्रियडस्थ--पार्थिवी, आम्नेयी, झादि पांच धारशाओों का एडाग्रता से चिन्तन ऋरना पिएडस्प स्यान

(२) परदस्प--नामि में सोक्तर पॉसड़ी के, हरप में चौबीस पांखड़ी फ्रे तथा पु पर भाठ पांखड़ी फ्रे फमत की कल्पना करना झौर प्रस्पेक्ठ पांसड़ी पर बर्समासा के झ् भाई आदि अधरों की श्यवा पभ्च परमेष्टी मंत्र फे भध्रों की स्थापना करके एफ़्यप्रता पूरक उनका सिम्तन करना झर्थाद किसी हि आपित दोढ़र सम के एकाग्र करना पदस्थ भ्यान है।

(३) रुपस्प--शाज्जोक्त भ्रिहन्व मगधात्‌ की शास्त दशा को हृदय में स्वापित करके स्थिर चिच से ठतझा स्वान ऋरना रूपस्प भ्यान |

जेन सिद्धास्त बोल सप्रड, भ्यम माग २०६

(४) स्पावीत--रूप रद्वित निरंजन निर्मल सिद्ध मगबान्‌ का आलं॑पन लेकर उसके साथ भात्मा की एकता का चिन्तन करना रूपातीत ध्यान | (ज्ञानासंव प्रकरण ३७ से ९०) (प्ोगशास्त्र प्रकाश 3 ०) (कत्तम्य कौमुदी साग रलोक २८७ से २०६ प्र १२७ से २८) २२४ शुक्ल ध्यान के चार मेद--

(१) पृपस्त्व वितर्क सविधारी |

(२) एकस्प वितर्फ झषिषारी |

(३) सद्म क्रिया झनिवर्ती

(४) सपच्धिन्न क्रिया भग्रतिपाती

(१) एपप्त्व वितर्क सविचारी--एफ द्रस्प विषपक अनक पर्यायों का एपरूपृपर रूप से गिम्तार पूर्वक पूर्षगत भ्रुत के भजु सार द्रस्पार्थिक, पयायार्थिक भादि नयों से पिन्तन करना पृथक्त्द पिरफ़ संपिचारी ६। यह ध्यान विचार सददित देता दिचार का स्ररूप प्र्थ, ब्यज्षन (शम्द) एवं पोगों में सक्रमय भपाद्‌ श्स ॒प्पान में भर्ण से शम्द में, भौर शब्द मे भर्ष में, भौर शम्द शब्द में, भर्ण से भर्प में एड एक यांग सं दूसरे योग में सफ़्मस दाता

पूरंगत भ्रुत के अनुसार विवि म्यों पदार्थों की दयाएं का मिप्न मिप्न रूप से बिन्तन रूप पह शुक्ल *पान प्श्पारी रात होता भौर मरदेबी माता सी तरद आंपूरपर नए ऐैं, उन्हें भ्रपे, स्पम्वन ०वं योगों में परस्पर पंदमण सूप यह झयुइम प्यात हाठा ६)

श्१० अ्री सठ्रिया जैम धरस्थमान्ना

(२) एछ्स्य दिदक झविषारी-पूर्रगठ भुठ का आजार छेकर उस्पाद आदि पर्यायों फ्रे एफस्थ झर्भात्‌ भमेद से किसी एड पदार्थ अथवा पर्याप का स्थिर दित्त से चिन्तन करना एकल बितक ६। इस प्पान में शर्य, स्पस्‍्जन एवं योगों रा संक्रमस नहीं दोता। निर्षात ग्रह में रह हुए दीपक की तर इस प्पान में चित्त पिचेप रहित भर्यात्‌ स्पिर रहता है |

(३) छत्तम क्रिया झनिवर्ती-निर्वाण गमन फ्रे पूर्ण फ्रेशली मगर मन, बचन, योगों झा निराघ कर छेसे हैं भौर भर्द व्थपयोग का मी निरोष कर सेते ं। ठप समय कश्॒ली के कापिकी उच्छबास झादि खचम फ्रिया दी रहती | परिशामों के बिशेष बड़े भदे रइने से यहाँ से केबली पीछे नहीं इटते यह तीमरा ब्रह्म क्रिया झनिवर्ती शुक्‍्सप्पान £।

(५) प्रष्टप्छिप्त क्रिया झ्प्रतिपाती--शैशेशी अषपस्पा को प्रा कछेषत्ती समी योगों का निरोप कर सेता योगों के निरोध से समी क्रियाएं नष्ट हो ताती हैं! पह प्याव सदा घना रहता है | इस लिए इस समुस्दिस्त क्रिपा भग्रति- पाती शुक्तष्यान कइते !

पृपकस्प वितर्क सबिचारी शुक्त््यान समी पोगों में होता ई। एकत्व दितक अविचार शुक्शप्पान किसी एक ही थोग में होता है। उत्तम क्रिया झनिषर्ती शुक्‍क्ृप्मान झंवश काप योग में होता / दौथा समष्किभ, कया अप्रदिषाती शुक्त्तप्पान अयोगी को शी होता है | ऋषस्त

श्री जैन सिद्धान्त वोक संप्रइ, प्रथम साग २११

के मन को निभक्ञ करना स्यान कइलाता है और केवली ही काया फ्लो निश्नल्त करना ध्यान फलाता है। : (ऋषश्यक अध्ययन ब्यान शतक गाबा ७७ से ८२) (कर्सब्प कौमुद्दी माप २े श्लोक २११-२१४) (ठार्यांग छ० सूत्र ९४७) (हानार्त्र प्रकरण ४र)

२२६ शुक्तन्‍्पान क॑ चार लिम्र -- + (१) भम्पथ (२) प्रसम्भोद | (३) विवेक (9) ब्युत्पगे।

(१) ध्वस्सन्यानी परिषद ठपसगों से हर फर भ्यान से चक्षित नहीं होता इसशिए पद ध्म्पम सिम वाला है

(२) थुक्लभ्यानी को सच्रम भत्पन्त गहन विपयों में भथवा देवादि ऋृव माया में सम्माह नहीं होता | इस सिए वह असम्भोढ़ लिक्न वात्ा ६।

(३) झुफ्क्षप्यानी भारमा फ्ो देह से मिप्न एवं सब संयोगों झा आस्मा से मिश्न समम्सा £ | इस लिए यह जिवेक लिमे वाला

(४) सुस्तप्पानी निसग रूप देह एवं उपाधि का स्पाग करता इस सिए पह घ्यूत्सगे लिझ बाला

( झावश्यक प्रष्वजन घ्यान शतक ) (टार्याग घ० सूत्र २४७ ) २२७--शुकत ध्यान के चार आतस्वन/-- शिन मत में प्रधान दमा, भादंग, भाजब, मुक्ति इन घारों आतलम्बनों सौब शुस्त ध्यान पर घरता £

फ्रश्श्‌

शी संठित्रा मैल प्रव्थमाजा

क्ोघ ने करना; ठदय में आपे इुश क्रोध को दवाना, इस प्रकार काम कय त्पाग चमा

मान ने फरना, ठदय॑ में भ्राये हुए मान को विफक्त करना इस प्रकार मान का स्पाग मार्दव है

माया करना --ठद्य में झाई हुई माया को बिफस करना, (रोकना) इस प्रकार माया क्य स्वान- आजंष (सरश्ता) है।

ज्ञोम करना “उदय में झ्रापे हुए सलीम की विफत्त ऋरना (रोकना) ! इस प्रकार शोम क्या त्पाग-पमक्ति (शीत निर्ञोमिवा) | ( ठाणांग इ० सूज २४५ ) ( आाषश्यक भप्फ्यल स्पान शतक शाबा ६६ ६०४६ ) ( रुदचाई सज्ञ २० )

२५८- शुक्ल भ्पानौ की भार माषनाएँं॥---

(१) झनन्त बर्तिताजुप्रेत्ा (२) भिपरिक्षामानुप्रेंधा (१) भ्रद्ममानुप्रेषा (४) भवापानुप्रेषा |

(१) प्रनन्त बर्तिवामुप्रेक्षाः-मष परम्परा की झ्नम्तता की मना

करना--डेसे पह यीतर भनादि काल से संसार में चक्र श्गा रहा | समुद्र की तरइ इस संसार के पार पहुँचन, उसे दुष्कर हो रहा भोर बह नरक, तिय॑म्च, ममुप्प ओर देष मर्गों में लगातार एक के बाद दूसरे में बिना विभाम के परिभ्रमण कर रहा | इस प्रकार कौ माबना भनन्‍त बर्तितामुप्रे्

श्री जैन सिंद्धास्व बोल संप्रह, प्रयम भाग र्क्घ

(२) बिपरिणामाजुप्रेचा--बस्तुओं के पिंपरियमन पर विचार झरना | खैसे--स्ं स्थान भ्शाश्रत कया पदों फ्रे झौर कया देवतोक के देव एवं मनुष्प भ्रादि की ऋद्धियां भौर सुख भअस्थापी हैं इस प्रकार की मोघना विपरिंशामा नुप्रेदा है

(३) भद्युमाजुप्रेचाः-ससा€ के भरद्युम स्वरूप पर्र विचार करेना। जैसे कि इस संपार को धिफ़ार है खिसमें एफ सुन्दर रूप बाला भमिमानी पुरुष मर कर भपने ही मृत शरीर में कृमि (कीड़े) रूप से उत्पन्न हो जाता £ | श्स्पादि रूप से माषना करना भशमानुप्रेधा है

(४) भपायानुप्रेधाः-भाभवों से ने बरसे, नीवों को दुःख देने बासे, विविध भपायों का चिन्तन फरना, जैसे पश में नहीं किये हुए कोष भोर मान, बहती हुई माया और क्तोम ये भारों कपाय संसार फे मूल को सींचने वाले ईं! भर्थात्‌ संसार को बढ़ाने बाले शत्पादि रूप से भाश्रप से दोने बासे भ्रपायों की सिन्तना अपायालुप्रेधा

( ठार्णाग इ० सूत्र २४७ ) (प्राषश्यक हष्मयन प्यानशतक गा० प० ६०८) ( अगब॒ती शतक २४ इर्टेशा छू० ८०६ ) ( रुथवाई सूत्र ठप अषिकार सू० २० ) २२५६---घार बिनय प्रतिपत्तिः--

आचार्य्य शिप्प को चार प्रकरर की प्रतिपत्ति सिखा कर उच्यय होता है। विनय प्रतिपत्ति छे भार प्रकारः-

श्र प्री सठिया सैन प्रन्यमाक्ा

(१) भाषार बिनय | (२) भुव विनय (३) विद्देषया विनय + (२) दोप निर्माठन विनय ( दशा भुठस्कन्प बशा ४) २३०---भाचार विनय फ॑ घार प्रकारोा-- , (१) संयम समाघारी | (२) सप पमाचारी | (३) गय समाचारी ।._ (४) एक्राकौ पिह्र समाचारी |

(१) प्ैयम समाघारीः--संयम मेदों फा ज्ञान करना, सतरइ प्रकार कु सयम को स्प्थ पाछन ऋरना, सयम में उत्साह देना, संयम में शिपित्त ोन वाले को म्पिर करता संग समातारी ६।

(२) ठप समाचारी--तप के धाप्त और झास्पन्तर सेदों कय कराते करना, स्प्य तप करना, तप करन बाक्षों फ्लो उस्साई देना, ठप में शिगिल दोते हों, उन्हें स्पिर करना तय प्माचारी है

(३) ग़श्न भमाचारी-गश (समूइ) धान, दशन, भारित्र की इद्धि ऋरते रहना, सारसा, बारथा झादि द्वारा मत्ती मांतिरका करना, गस में त्पिद रोगी, बाल, इद्ध एवं दर्घत साधुभों की पपोचित ध्यदस्था करना गय समात्रारी ६7

(४) एक्मक्ी बिशर समाघारी--एकोकी विद्वार प्रतिमा का मेदो पमेद सहित सांगोपाकु क्वान करना, उप्की विधि को प्रइल करना, स्त्र्य एक्ाफ्री बिद्दार प्रतिमा का अंगीडार करना

जी सैन सिद्धान्द दोक संप्रइ, प्रथम माण रह

एव दूसरे को ग्रदय करने के लिये उत्साहित करना भादि एकाढ़ी विह्र समाचारी है। के मे (दशाप्रुद स्कन्‍्न वशा )

२३१-भुवविनय फे धार प्रकार--

(१) मून्तखख् पढ़ाना।

(२) अर्भ पढ़ाना।

(३) द्वित वाबना देना भ्र्वात्‌ शिष्य की योग्यता

अजुसार प्रत्र भ्र्थ उमय पड़ाना | (४) नि*शेप बाचना देना भ्रथात नय प्रमाख दि द्वारा ब्यास्या करते हुए शास्त्र की समाप्ति पर्यन्त बाचना देना। ( दइशाअ्रुद स्कस्न दशा )

२१५-पिदधेपशा विनय फे चार प्रकार--

(१) जिसने पहले धर्म नहीं ज्ञाना £ै। एवं सम्पग्‌ दशन का

जाम नहीं किया ई, रसे भ्रेमपूर्वक सम्पगृदर्शन रूप घर्म

दिखा कर सम्पषस्व घारी बनाना।

(२) यो सम्पक्त्य भारी इं, उस सघे बिरति रूप घारित्र धर्म

की शिषा दकर सदृर्मी बनाना !

(३) छो घर से अष्ट दृए हों, उन्हें घर्म में स्थिर करना।

(४) भारित्र धर्म की लेसे वृद्धि हो, पैसी प्रवृत्ति करना। सैसे एपशीय भादार प्रहय झरना, भनेपजी आदर का त्याग करना, एवं ारिष्र धम फी इद्धि के श्षिये हितफ़ारी, सुखफारी, हदश्तीक, परत्तोक में समय, कश्याण्यकारी एपं मोद़ में त्ते जाने वाले अनुंछान के सिए तस्पर रइना |

(शशाशुद स्कम्प दशा ४)

कप ि। 08 कर 47 यक।

२३४३--दापनिर्षातन विनय के बार प्रकार --

(१) मीठ बचनों से क्रोध स्पागने का उपदेश देकर कोषी $ क्रोध को शान्त करना।

(२) दोषी पुरुष दा्षों को दर करना !

(२) टचित कांदा बाले की कांक्षा करो अमिलतित बस्तु डर प्राप्ति द्वारा या भन्‍प वस्तु दिखा कर निव्त करना। <

(४) कोष, दोप, व्यंघा भादि में प्रहचिन करते हुए झारमा का सुमार्ग पर शग़ाना।

( बशाशत सकन्ध दशा ४) २३४--बिनय प्रतिपत्ति क्ले आर प्रद्धार-- (१) उपकरशोत्पादनता (२) पद्ापता | (३) बर्ण सन्दशनता (ग्रुसानुबादस्ताओ (४) भार प्रत्पररोहसता गुशवान्‌ शिष्प की उपरोक्त चार प्रकार की दिनय प्रतिपत्ति है। (इशाभुत स्कश्य इशा ४) २३४ --भजुस्पन्न ठफ्फरसोस्पादन विनय के चार प्रकारः-” (१) भवुत्पन्न भर्थाव्‌ अप्राप्त आदश्यक ठपकरणों को सम्पक प्रकार एपसा शुद्धि से प्राप्त करमा। (२) पुराने उपकरणों की यथोक्त रक्षा करना, सी गसतों की सीना, छुरदधित स्पान में रखता भादि। (३) देशान्तर से झाया इुआ अथवा समीपस्प स्वधर्मी ऋत्व डपणि बाला दो तो उसे उपधि देकर उसकी सहायता करना! (४) प्माविधि भादार पानी एवं बत्वादि का तिमाग करना, मस्तान, रोगी भ्रादि कारसिक साधुभों के लिये ठनके योर

श्री मल सिद्धान्त बोल संप्रइ, प्रघम मांग श्श७

वज्ादि उपचछास जुराना। ( इशाप्रुद स्कश्प इशा )

२३१६--सा्ापता विनय फ॑ भार प्रकार ---

(१) भनुरझूश एवं ट्वितकारी वन बोजना--गुरु क्री भान्ना फो आदर पूर्वक सुनना एवं पिनय फे साथ भज्जीकार फरना |

(२) क्लापा ते शुरु की अनुझूछता पूर्पफ सेद्मा करना भर्पाद्‌ सुर सिस भज्जञ की सेवा करने के लिए फरमाने ठस भक्त को काया से बिनय मक्ति पूर्णक सेवा करना |

(३) जिस भ्रफार सामने वाले को सुख पहुँचे, ठसी प्रकार उनके भह्रोपाक्ादि की पैयादब्च फरना

(४) प्मी बातों में इूटिश्षता स्पाग ऋर सरलता पूरक भनुकृतत प्रृत्ति फरना |

( दशाभुः स्कम्म दशा )

२१७---वसे स॑ज्बतनता वितय फे आर प्रकार'--

(१) सष्प भीवों के समीप भातास्पे मद्ाराज के गुण, लाति झादि की प्रशता करना।

(२) आधास्य आदि फे अपयश कहन बाल के कपन का मुक्ति आदि से खपरन कर उसे निरुचर करना |

(५) आधाए्पे सद्ाराज फी प्रशंसा करन बाज को घन्पम्राद देकर उस उस्साहित छरना, प्रसन्‍न फरना |

(४) इञ्लित ( भाकार ) डारा झाधार्य्य महाराव के माद मान कर उनकी इस्छानुसार र्वर्य मक्तिपूर्वक संवा करना |

( इशाभ्रत रस्म्प शशा ५)

श््८ श्री छेठिया हैन प्रत्यमाला

२३८--आर प्रत्यवरोहराता बिनय क॑ चार प्रक्र/--

(१) कोघादि वश गष्द स॑ बाइर जाने बाले शिष्य को मौटे बचनों से समस्या बुझा फ़र पुनः गन्छ में एखना

(२) भपष्युतपन्न एवं नव दीदित शिप्प को ज्ञानादि भाषार तब मिधा्रारी बगैरइ का श्वान सिखाना |

(३) साधर्मिफ भर्थाद समान अरद्धा एवं समान समाचारी बाल ग्सान हों भ्रथवा ऐसे दी गाद्ागाड़ी झारसों पे भाहारारिक पिना दू पा रहे हों, उनके भाशर भादि शान, गैंध से बताई ६६ औपणि करने, टबटन करने, सवारा विछने, पडिलदना करन भादि में पघाशफ्ति तत्पर रहना |

(४) साधर्मियों में परस्पर बिरोध ठस्फ्म होने पर राग इंप स्पाग दर, किसी भी पत्च का गहुस ने करत हुए मध्यर्त माष से सम्पग्‌ न्याय संगत स्पवद्दार का पालन करत॑ हुए उस बिरोघ के क्षमापन एवं ठपशम फं लिए सदेष ठप्त रहना भ्ौर पह माना #रते रइना कि किसी प्रकार से मेरे साधरमिंक बन्घु राग दप कशहइ एव कपाय से रहित हों। इनमें परस्पर “त्‌ द्‌,मैं मैं” नहों। पे सवर एज प्माषि करी बहुलता बार हों, भ्रप्रमादी हों एवं संयम तथा तप से अपनी भास्मा क्यो मादते हुए दिचरें |

( इशामृत स्कस्थ दशा ४)

२३६--उपसर्ग चार -- (१) देष सम्बन्धी | (३) मनुष्प सम्बन्धी

श्री जैन सिद्धाम्व धोञ संपरह प्रयम मा हु

(३) छिपस्च सम्ब घी (४) भास्मसंबेदनीय

( ठायांग रु० सूत्र ३६६१) ( सूयगढांग भरुवस्कम्ध ! भ्रष्ययन ४० टीका नियु क्ति गाथा ४८)

२४०--हैप सम्भधौ चार ठपसग--

देय भार प्रकार से उपसग दते हैं

(१) दास्प

(२) प्रद्केप |

(३) परीक्षा

(४) पिमात्रा

भिमात्रा का अर्थ विविध मात्रा र्यात्‌ इछ हास्य, हुछ प्रप, कुछ परी फे लिए उपसर्ग देना प्रथवा द्वास्प से प्रारम्म कर दे उपसर्ग देना भादि। ( ठाणांग ४० सूत्र १६१ )

( सूसगडंग पुतृस्कत्प अष्यपन इ० टीका नियु क्ति गाथा ४८) २४१---मलृष्प सम्बन्धी उपसगे के मी चार प्रकार--

(१) दास्प

(२) पढ़ेप

(१) परीषा

(४) इशील प्रति सेबना

( रायांग इ० सूत्र ३६१ ) ( सूपग्धांग शतस्कम्प अस्यपत 3० टीका नियुक्ति घाया ए८ )

२४२---तियस्न सम्बन्धी उपसे के भार प्रछार -. तिर्पम्ध बार बातों -से उपसर्ग देवे |

११० ही सठिया बैल प्रस्यमाक्ता

(३) मय से |

(२) प्रदप से।

(३) भाद्वार छ्िये। (४) सतान एवं भपने लिए रन स्थान क्री रबा “५

के शिए! (डाणांग ४० सुत्र ३६१) (सूप्रगहांग सूत्र भुदस्कश्प अधभ्यपन है इ० १टी० मि० गा ४८)

२४१--भार्मसंघेदनीय ठपसर्ग 'चार प्रकार'--- अपने ही कारस से ने बाछ्ता उपसर्ग झारग- संपेदनीय £ | इसफ़रे भार मेद हैं (१) पहन | (३) प्रफ्तन | (३) स्सम्मन | (४) स्छेक्ण |

(१) पहनः--भपने ही भक्त पानि भंगुत्ती आदि फ्री रगड़ ते होने बाला प्नन उपसर्ग ह। जेसं-आाँतों में पृ पढ़ गई | भाँख को दाथ से रगड़ा इससे भाँख दुशखने शम गई

(५) प्रपयन --- बिना ग्ठना के अरुते हुए गिर दाने से बोट आदि का सगजाना। (३) स्वम्मन --हाथ पैर भादि ्रशयत्रों क्य सुझ हो आना |

(४) हलेफ्श'--भंयुदी आदि भशयथों का आपस में चिपक साना | बात, पिच, कफ एवं सप्मिपात (बात, पित्त, कफ

7? २!

जैस सिद्धास्व वोज संमइ, प्रथम भाग श्श्१

का संयोग ) से दोने याज्ञा उपसर्ग रलेपण है। ये समी भास्मसंबेदनीप उपसगे हैं। ( ठाणांग ४७ सूत्र १६१ ) ( सूयगढांग सृद्र झुतस्कस्थ झ० ५० टीडा नियुक्ति गा० ४८) २४४--दोप चार--- (१) अठिफ्रम | (२) व्यति क्रम | (३) भविचधार | (४) भनाघार |

अतिक्रम --ल्षिए हुए घत प्चफ्स्ताण या प्रतिज्ञा को मग करन फा सकृस्प करना या सर करने फे सकन्प अथवा रार्य का अनुमोदन करना भ्रतिक्रम है।

स्पतिझमः--व्रत मझ करन के लिए उपत इाना स्पतिकम ह।

अतिघारा--अत 'भ्रयवा प्रतिज्ञा मम करने फ़ लिए सामग्री एकत्रित फरना तथा एक देश से शत या प्रतिमा सदित फरना अतिचार ई। अनाधघार*--सबथा प्रत छा महू करना भनायार ई। आधा कर्मी भरादयर फी भपेता प्रसिकरम, प्यतिक्रम, अतिभार भौर भनाधार फ्रा स्वरूप ह्स प्रकार --

साधु फा अनुरागी कोइ आवक भाषाऊकर्मी आाइर सैयार फर साधु को निमन्द्रण देता | उस निमन्व्ण सती म्दीकृति फर आद्ार खाने फे लिए उठना, पात्र लेकर गुड़ के पाम भाष्ञादि लेने पर्यन्त ग्रतिकम दोप हं। झ्राघाकर्मी ग्रहण फरन के लिए उपाभय दाइर पर रखने से सफर पर में प्रवेश रूरने, भाषारुर्मी भाषर लेने के क्तिण मल्टी

04

भरी सठिया जेस प्रश्वमाला

खोख कर पात्र फैछाने तक स्वतिक्रस दोप है। आधादर्मी आदर प्रहश फरने से छ्ेकर दाफ्सि ठपाध्ण में भाने; गुरु के समद्द झाहोचना करना एवं खाने की तपारौ करने तक अतिचार दोष है | खा छेने फर भ्रमाचार रोर रगता है। ( पिशढ मिबु कि गा* १८९)

अतिक्रम, भ्यतिक्रम, भ्रतिचार और प्नातार में उत्तोचर दोप की अधिकता ई। क्योंकि एक से दूसरे क्य प्रापरिभ्रच अषिक है |

मूल गुझों में भतिक्रम, व्यतिक्रम भर अ्रतिचार स॑ षातित्र में मत्तीनता आती है भौर उसकी झ्राक्तोषना, प्रतिक्रमल झादि से शुद्धि दो जाती है। भनाचार से एस गुण सर्बषधा मन्न हो बाते ६ै। इसलिये नंगे सिरे से उसे बधण करना भाहिए उत्तर गुशों में भ्रतिक्रमादि चारों से

चारित्र की मत्तीनता हांती परन्तु अत महू भहीं होते ( परम सप्रद श्रथिकार रलोक 2३ डी० पृ० १३६ )

२४४ (र)।-- प्रायश्चित्त चार ---

सम्घित पाप क्यो छेदन करना-प्रायर्चिस | | अझपवा।-- अपराष-मल्तीन दित्त फ्े प्रायः शुद्ध करने बाला जो इस्प बह प्रायरिच्रच ई। प्रायश्चित्त चार प्रसार के ६!--

(१) धान प्रायरिषरद। (२) दशन प्रावरिच्रत्त | (३) घारित्र प्रापरिषत्त | (४) स्पकदृत्व प्रापश्चिच।

भी जैन सिद्धास्व बोल संप्रह, प्रभभ माग २२३

शान प्रापमित्त।---पाप छो छेदने एवं चित्त को हाद्ध करने बाला होने से ज्ञान शी प्रायमिच रूप है | भतः इसे श्ञान प्रापम्रित्त फहते हैं। भथदा झञ्ञान के भपिचारों की शुद्धि केक्षिए नो भालोचना भादि प्राममित्त कहे गये हैं, बह शान प्रायश्रित्त है। इसी प्रक्र इशन भौर घारित्र प्रायश्षिच का स्परूप मी समम्सना चाहिये | अपफरत्पप्रापसिच/--गीता्य॑ ध्वनि छोटे पड़े का विचार कर सो कुछ करता है, बइ सभी पाप पिशोधक है इस लिए स्यक्त प्र्यात्‌ गीठार्ष का कृत्प है, वह स्पक्त- ऋृत्प प्रायभित्त है | (ठाण्ांग रु है सत्र २६१ ) २४५ (स) प्रायश्रिच के भ्न्य प्रछार से खार मेदः-- (१) प्रतिसेवना प्रापश्नित | (२) सयोजना आयश्ित्त | (३) झारोपझा प्रायम्चित (५४) परिहभ्चना प्रायधि (१) प्रतिसेषना प्रापश्रिच/--प्रतिपिद्ध का सेवन करमा भ्रर्यात्‌ भरृत्य का सेबन करना प्रतिसंवना है। इसमें जो भारो- चन झ्ादि प्रायप्षित है, बह प्रतिसेबना प्रापशित्त ई। (२) पंयोगना प्रायश्रिच ---एक ख़ीय अतिचारों फा मिल जाना सयोध्ना जैसे कोई साधु शप्पादर पियद छाया, दइ भी गीले हाथों से, वह मी सामने जाया इझ्ा और वह मी झापाकर्मी। इसमें जो प्रापंधिच होता ई। बह संयोजना प्रापजित्त है (३) भारोपशा प्रायभ्रिच-एद् भपराध का प्रायमित्र फरने पर बार बार उसी अपराध को सेवन करन

श्ण्

सेटिषा सैम प्रत्थमाला

से बिशातीय प्रायशरित्त का आरोप करना श्रारोपशा

प्रायश्षिच डेसे एक भपराघ के त्षिय पाँच दिन झा प्रायश्षिच श्राया | फिर उसी का संदन ऋरने पर इश दिन का, फिर सबन करने पर १४ दिन फ्रा इस प्रकार 6 मास दक्क खगातार प्रायश्मिच देना | छः मास से झ्धिक तर का प्रायश्चिच नहीं ठिया जाता

(४) परिकृम्चना प्रासश्मिच-द्रष्प, चेत्र, काल मात्र कौ भरप॑धा

अपराध फ्रो छिपाना या उस दूसरा रूप दना परिकृम्चना है इसका प्रायम्रिच परिहम्षना प्रायश्रिच कहलाता ई। (ठार्शोंग 9 ३० ! सूत्र २६३ )

२४६-भार मावना-

(१) मैत्री माबना (२) प्रमाद माइना (३) करुया मादना | (४) माध्पत्थ मातना

(१) मैजी माना -जिश्व के समस्त प्राक्षियों साथ मित्र

सैसा स्यवहदार करना, दैर मात्र कय सर्पया स्पाग करना मैत्री माजना ईर माद दु/ख, बिन्ता और मद का स्थान है। यह राग ठेप को बढ़ाता एवं चित्त की विधित रखता ई। उसफ्रे विपरीत मैत्री भाव बिल्ता एवं भप को मिटा कर अपूर्द शातति और सुख का देने गाता ह। मैत्री माव से सदा मन स्इस्प एवं प्रपन्‍न रहता है।

शगत्‌ के सभी प्रासियों घाव इमाए माता-पिता, माई, पृष्ठ स्त्री, भादि क्य सम्बन्ध रद चुका ह। ठसे स्मरस कर सेत्री मात्र क्रो पृष्ठ करना चाहिए अ्रपछारियों

भी जैन मिद्धास्त बोल संप्रड प्रभम मांग 9२४

के साथ मी यह सोच फर मैत्री माय घनाये रखना चाहिये कि यरि घर क्षोग पूरे मी इोते ईं वो भी थे हमार ही रहते हैं और इम निरन्तर सदूमावना क् साथ उनक द्ितमाबन में सत्पर रहते हैं। विश्व क्॒ प्राणी मी इसार धर घाल रह घुफे हे भीर मविष्प में रद सझते £। फ्रि उनके साथ भी इमारा येसा दी स्पसद्ार इना चादिए | खान इम इस ससार में अमस करते हुए कितनी बार पिश्व क्र प्राशियों उपछूुत शो चुक है फिर उन ठप

कारियों के साथ मित्र माप रखना ही इमारा फरज यदि पतमान में पं द्वानि पहुँचात हों सा मी इमें ता उपझारों का स्मरस क्र अपना कक्‍्स्तस्प पालन करना ही चाहिये। भपने विरफले ठफ से काटत हुए च्रणडफोरिक का उद्धार मरने था्त मगपान्‌ श्री महावीर स्थामी की मगत्‌ उद्धार फी मावना का सा ध्यान रखना चाहिये यदि इमारीभोर से फिसी का भदित हो ताप या प्रतिझूल सख्यवहर हो, ता हमें उससे मरकाल शुद्ध माय से धमा ग्रासना करनी चाहिए इसस पारस्परिझ मेट भाव नए हा जावा ६। इससे सामने बाला इमार 'भद्दित फा प्रयत्न नहीं फरता भौर इमारा पित्त मी शुद्ध हो जाता एवं उसकी शार से हानि पहुंचने की श्राशष्टा मिट जाती है।

शह मंत्री माप भनुष्प पा स्वामापिक गुण वर एरना पश्चुता मप्री भाप का पर्ण पिज्ताम होने पर सनीषम्ध प्राणी मी पारम्परिक पैरमाय मूल जान ई। ता

श्श्डृ

श्री साठया जैन प्रन्धमाल्ा

शप्रुझों का मित्र डोना सो साघारण सी वात | मत्री मार फ्े पिफाश के स्िए मित्त फ्रो निर्मल तथा बिशद बनाना आवश्यक पर के ज्ञोगों से मैत्री माद झा प्रारम्म होता है और बढ़ते सार संसार में इस मात्र क्य प्रसार इोजाता ' है। एद विश्व मर में आरमा फा कोई शत्रु नहीं रहता | एम कोटि पर पहुंच कर भात्मा पूर्ण शान्ति का भनुमव करता है। झ्रतएय सदा इस माषना में दक्तचित्त रह कर पैर माष को प्क्ताना घाहिए भौर मैत्री माप की शद्धि करना भाहिय | भारगा की तरइ खगत्‌ लीजों की सांसारिक दृ!खहन्दों से प्रक्ति दो, एवं श्रो इम भपने झ्िए 'चाहें | पद्दी गिर के समत्त प्राथियों रू लिये भी चाहें! एपं संघार के सभी प्रावी मित्र रूप में दिखाई इन छर्गें इस प्रकार की मावना दौ मैत्री मावना है!

(२) प्रमोद माबना/--भणिक्र गुश सम्पन्न महापुरुषों को भौर

उनके मान पूमा सत्कार प्रादि को देखकर इर्पित होनाप्रमोद माषना है। चिरकाल के भद्मम संस्कारों से यह मन ईर्प्पति हो गया है। इस प्रकार दूसरे छी बढ़ती क्यो बह घदन नहीं कर सकता | परन्तु ईर्पा महादुयु है। इस से सीष दरों को गिरते देख कर प्रसन्‍न होना चाहता है। किन्त उसके चाहने से किसौ का फ्तन संमव नहीं। विश्सी के चाहने से पीछा (ींका) नहीं टूटता परन्तु पह मक्तौन माबना अपने स्वामी को मदौन कर गिरा देती है एव सतूगुक्कों को इर खेती है | ईर्प्पाद्ध भात्मा समी को सष बातों में ग्रपन पे नीचे

श्री जैन सिद्धास्त पोझ धप्रह प्रपम माग सर

देखना चाइता ई। परन्तु यह संस्मद नहीं इसफे फत्तस्परूप बह सदा बल्ञता रहता एवं अपने सवास्प्य और गुणों का नाश ऋरदा ई। पदि इस यह चाहते हैं कि इसारी सम्पत्ति में ममी इरपिंत हों, इमारी उन्नति से समी प्रसन्न हों, हमारे शुर्णों से समी छो प्रेम शो | यह इच्छा तमी पूर्ण हो सफ्सी है, जब इम मी हूसरों के प्रति इपा छोड़ कर उनके यरुस्यों से प्रेम ऋरंगे | उनकी उम्नति से प्रसुझ द्वोंगे। इससे यइ लाम होगा झि इमारे प्रति भी कोइ ईपा फरेगा एप जिन अच्छे गुणों इम प्रसन्न होंगे, थे गुण हें मी प्राप्त शोंगे। इसलिए सदा ग्रुणान्‌ पृ्प--बैसे भरिइन्त मगदाम्‌, साधु महरात्र भादि के गुणालुवाद फरना, भाव बग में दानी, परोपक्ारी भादि का भुणानुवाद करना, उन शुर्सों पर प्रसन्नता प्रझट करना, उनकी उन्नति से इर्पित द्ोना, उनकी प्रशसा सुन कर फुलसना भादि प्रमोद भादना |

(३) ऋशू्णा मादना --शारीरिक मानसिक दु छों दुखित प्राणियों रू दुश्स फ़ो दर करने की इन्दा रपना फसु्या मना ई। दीन, भपह, रोगी, निरंल, लोगों की छेषा करना, इृद्ध, विधवा भौर भनाय परालकों को सशायता दना, झविदृष्टि, भनाइष्टि भाद दुर्भिव के प््रप अन्न अत्त पिना दु“स पान बालों के लिए पाने पीने की स्पवस्था झरना, बपरबार लोगों क्ले शरण देना, मद्यमारी भादि # समय ज्लोगों का भौपधि पहुँचाना, स्वबनों

न्न्८

भी सठिया जैन ममस्यमाला

बियुकत ज्ञागों का उनक म्वजनों मिला देना, मयमीत प्राणियों के मय फा दूर फ़रना,एद्ध और सगी पश्चुमों झी मद करना | ययाशक्ति प्राणियों दुख दूर करना, समय मानब्रों का कचचस्प है घन तपा शारीरिक और मानसिक ब्रल का दोना तमी सार्यक ह।जत्र कि उपर दु।सी जी रू उद्धार लिए लगा टिए जाब॑ | संसार में घा मु ऐरबर्य दिसाए देता है। वह समी इस करसा जनित प्रुषप फ्रे फलम्परूप है। मतिष्प में इनकी प्राति पृएप बल पर दी द्वीगी। जो लाग पूप्र पुएप के मल से तपबल घन बल एवं मनाजन पाफ़र उसका उपयोग दूसरों हे दुष्ख दूर करन में नहीं करते, वे. मत्रिष्प में भान पाने सुर्मो का भपन ही हाथ राश्त हैं

छस्सा-डुया भाव, जैन दर्शन में सम्पगू दशन का लक्ष्य माना ग्रषा हैं। भन्प घर्मो में मीहस धरम रूप इृध का मूल बताया गया है। दया के बिना घर्मासपन असम्मप इस लिए भर्मार्वी एबं सुखार्थी समर्थ भारमाओों का प्रा शक्ति दृ'खी प्रासियों दू खों को दूर करना चाहिए | असमर्थ जनों को मी दुःख दूर करन फ्री माइना अवश्य रसनी चाहिए अबसर झाने पर उस किपात्मक रूप मी देना बाहिए। इस प्रकार भनदीत, दू ली, मयमीत झास्माझों दृ"ल का दूर करने की बुद्धि करुसा माइना है।

(३) माध्यस्थ साइना --सनाझ्ष भमनोत फ्दार्प एकडुष्ठ अनिष्ट

मानों ऋू संरोग ब्रियोग में रागद्भेप ने ऋरना

भी जैन मिद्धास्द बार सप्रह् प्रथस भाग श्र

माध्यम्थ भाषना है| यह माषना आरझा झो पूर्ण शान्ति टन बाली ६। मष्यस्थ माव से मावित आत्मा पर मल घर का प्ोश भी असर ठीफ उसी प्रकार नहीं होता जिस प्रकार दर्पमप पर ग्रतियिग्बिस फहार्थों का झसर नहीं होता भर्थाद्‌ जैसे दर्षस पंदाड़ का प्रतिप्रिम् ग्रहण पर मी पह़ाड़ फरे मार से नहीं दबता या समुद्र का प्रतिषिम्भ ग्रहण फर मीग नहीं जाता पैसे द्वी राग है स्पांग कर साध्यस्थ मावना का आलम्बन लने वाला झारमा अस्छ यूर पदार्थ एवं सयोगों को कर्म का खेज समझ कर सममाद से उनका सामना ऋरता झिन्तु उनस भारम मात का भश््त नहीं दान दंता | संसार सभी पदार्थ विनश्वर हैं। सयाग अम्पायी | मलुप्य मी मल फर थुर भौर पूर झू मल होत रहते £ं। फिर राग द्व पात्र दो कया ? दुसरी बात पह क्िडए,अनि्ट पटार्थों क्री प्राप्ति, सयोग बियोग भादि शुमाशुम कमे सनित हईं, ता नियत काल सक हा कर ही रहेंगे राग करन से कोई पदार्थ इमशा लिए हमार साथ रद्द सफझगा डेप करन से हो किसी पडाय का इमार से ब्रियाग हा धायगा यदि प्राणी पशुम कब नहीं साइप ता उड़े अशुभ कर्म नहीं करने थे। अशुभ कम ऋरन म॑ बाट अशुम फल का रायना प्राणियों की शक्ति बाइ९ है स्पान पर मिर्घ रख झर उसके तिक्तपन से मृक्ति घाइन की हरड यह अधानता शुमाशुम कम जनित इप झनिए पदार्थ एव संयागों में गग दै का स्पाग करना (उपेचा मार रखना) डी माप्पस्थ माइना !

र१०

प्री सठिया डेल प्रस्थमाज्ा

छगत्‌ के धोग्राली विपरीत इति बाले हैं। उसे सुपारने के सिए प्रयत्न करना मानष कर्चस्य है। ऐसा ऋरने से इम उनका ही सुधार नहीं करते बल्कि उन _ कुमार्गगामी होने परे उस्फन्‍न हुई अ्रम्यबस्था एवं भरने साथियों फी अ्रसुविधामों को मिटाते हैं। इसके लिए प्रत्पंक मनुष्य को सइनशीस बनना 'भाशिए | इमार्गगामी पृछ्त इमारी सुघार माबना को विपरीत रूप देकर हमें मत्ता बुरा कइ सझता दवानि पहुँचाने का प्रपस्न मी कर सकता है | उस समय सहनशीकृता घारण करना सुघारक का कर्ताम्ष है। पद सहनशीतता फममोरी नहीं क्लिन्तु झ्रास्म-ब्शा कम प्रकाशन उस समय यह ध्ोच् कर सुघारऊ में सुधार भाभ भौर मी ल्पादह इृड़ होना चाहिए फ़रि जब बह अपने बुरे स्वभाव को नहीं छोड़ता ६ै। तद मैं भपने भ्क्े स्वमार को करों छोड़ र! पदि सुपारक सइनशीश हुभा हो बइ अपने उएृश्य नी्षे गिर जायगा | पाप से प्रशा होनी चाहिए, पापी से नहीं। इस लिए घृथा योग्य पाव को दूर करने का प्रपस्न करना, परन्तु पापी को किसी प्रकार कृप्ट पहुँचाना चाहिए मत्तीन धस्त की शुद्धि उसको फाड़ देने से नहीं दोसी, परन्त॒ पानी दारा कोमल करके बरी माती ई। इसी तरद पापी छा सुघार कोमत्त ठपायों से करना चाहिए। कठिन उपायों से नहीं | यदि कठोर ठप" का ह्राश्रय लना दी पड़ ता बद फ़टरता बाध्त होनी साहिए | प्रन्तर में ठा कोमतता दी एइनी चाहिए! इस

श्री जैन सिद्धास्त चोढ़ संपरई, प्रथम माग र्श्१

सरहद पिपरीत इति वाले पतित भार्माभों के छुघार की चेप्टा करनी चाहिए। यदि सुघार में सफलता मित्धती दिखाई दे हो सामने पाले के भद्छुम कर्मो क्ली प्रबलता समझा फर ठदासीनता घारश फरनी चाहिये। यही माण्यस्थ मावना ई।

( माबना शतक परिशिष्ट )

( फ्तेम्प कौमुद्दी माग श्कोक ऐश से ५४ )

( अतुर्माषना पाठमाक्का के आधार पर )

२४७--इन्घ की स्पारुपा और उसके मेद ---

(१) नेसे कोई स्यक्ति अपने शरीर पर सेज खगा कर पूलि में क्ेरे, दो पृष्ठ उसके शरीर पर सिपक्क जाती है। उसी प्रकर मिभ्यात्व कपाय योग आदि से जीव के प्रदेशों में जप इस चत होती तब जिस झाफाश में भात्मा के प्रदेश हैं। बदीं के भनन्त-झनन्त कर्म पोम्प पृदृगस परमाणु लीव के एक एक प्रदेश फे साथ बंध खाते हैं। कर्म और भास्म फ्रोश इस प्रकार मिल लाते हैं। देसे दघ भौर पानी तथा भाग और छोइ पिएड परस्पर एक हो फर मिल यासे हैं। भास्मा के साथ कर्मों का जो यह सम्बन्ध दोता है, वही बन्च कइलाता है

बघ के चार मेद है (१) प्रकृति बन्ब (२ ) स्थिति बन्च ( मे ) अनुमाग बन्घ (४ ) प्रदेश पन्‍्ध |

( १) प्रकृति बन्ध--शीज द्वारा प्रदय किए हुए कर्म पुद्‌ शो में घुदे झुदे स्वमातरों छा भ्र्थात्‌ शक्तियों का पैदा होना प्रदधति बन्‍्च कइलाता है |

२३२ श्री सठिया चैन प्रस्थमाजा

(२) स्थिति बाघ--औौष फ्रे द्वारा प्ररशभ करिए हुए कर्म पृदुगलों में अऋत्तक कात्त तक अपने स्थ्रमात्रों को त्याग फरते इुए सीम्र के साथ रइने फ्री फ़राल मयाठा को स्थिति बंध फहत ईं

(३) भनुमाग बन्ध--अनुमाग बरध को अनुमाव घन्य भौर परनुमद बघमी फहत | यीव कर डारा ग्रह किये दुए कर्म पुदुशक्षों में मे इसमक ठरठम माद का भथांत फल इने की न्यूनाधिक शक्ति का होना भनुमाग दघ फइलाता हैं।

(५) प्रदंश बन्ध--जीब के साथ न्यूनाघिक परमाणु बाल फर्म सक्रघों फा सम्बण होना प्रदश प्रन्ध कइलाता |

(ठाख्यांग इ॒ सूजन २४६) ( क्मंप्रस्थ माग है गाणा ) २४८-'चारों बन्भों का स्ूरूप समझान॑ रू स्लिए मांदफ (सड़ढ) का इृष्टान्त)---

छैसे--सोंठ, पीपल, मित्र आदि से बनापा हुआ मोदक बायु नाशक होता | इसी प्रफ्यर पित्त नाशक पदार्षो से बना इश्मा मोदक पित्त का एवं फफ नाशक पदार्थों से बना हुआ मांदक कफ फ्रा नाश करन पाछा शोता ई। इसी प्रकार झयात्मा से अइल किए हुए कम पूृदगत्तों में से किन्हीं में त्ञान गुथ को झ्राष्छादन करन की शक्ति पैदा दोती ६, फिन्दीं में दर्शन गुण घात फरने की | फोई फ़र्म-पूवृगल, झात्मा के आनन्द गुण का घात झरत हैं |तो कोई झारमा की झनन्त शाक्ति फ्ा ईम

भरी जैन सिद्धान्त बोल सं॑प्रह, प्रथम माग २३३

तरइ मिन्न मिनन्‍म कर्म पुदूग्लों में मिन्‍न पार फी प्रकृतियों के बन्ध होने को प्रकृति वाघ कइते हैं | जैस फाई मोदफ एक सप्ताई, फोर एक पक्ष, फोई एक मास सक निर्जी स्वमाद फो रखते £ैं। इसफे बाद में छोड़ देसे हैं भर्पात्‌ बिकृस हो आते हैं। मोदकों की काल मर्यादा की तरह फर्मो की मी काक्त मयादा होती द|। बद्दी स्थिति भन्ध ई। स्थिति पूर्ण होने पर फर्म आत्मा से जुद॑ हो वाले

कोई सोद्क रस में मधिक मधुर होत हैं सा फाइ कम | काई रस में अधिक कद दात ईं, कोई कम इस प्रकार भोदफ़ों में सस रसों की न्यूनाधिकता होती | उसी प्रकार इुछ कम दर्तों में शुम रस भ्रभिक भौर कृछ में फम। कुछ कर्म दलों में झशुम रस भषिफ भौर कुछ में भणुम रस कम हांता ई। इसी प्रकार फर्मो में तीम्र, सीगरतर, सीवतम, मन्द, मन्दर, मन्द्सम, शुमाशुम रसों का बघ होना रस बन्घ ह। यशी बछ् भनुमाग घघ भी कइलाता

कोइ मोदक परिमाण में दो तोले का, कोई पाँच सोल आर फोह पाव मर का होता इसी प्रकार मिन्‍ने कर्म दलों में परमाएुपों की समस्या का न्यूनापिक हना प्रदेश भध कहलाता है

यहाँ यश मी जान लना चाहिए हि झीव संस्यात अमरत्यात और भनन्‍्त परमाएभों इन हुए कार्माण सऋन्घ का प्रइख नहीं करता परन्तु भनन्तानन्त परमाणु

रह भी सेटिया जेैम प्रस्थमाक्षा

दाले स्कत्म को प्रशण फरता ६। (ठाणांग ४४5 सूत्र २६६) (छम्प्रस्य साग पहला गा २) प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्च योग के निमिच् मं होते | स्पित्चि बन तथा झ्नुमाग घन्‍्ध कपाप के निमित्त म॑ बंषते हैं | २४६---उपफ्रम छी स्यारूपा भौर मेद'-- उपक्रम का भ्र्भ आरम्म हैं| बस्तु परिकर्म एवं बस्तु बिनाश को मी उपक्रम क्द्मा जाता ६। उपक्रम के खार भेद है (१) बन्घनोपक्रम | (२) उटीरयापक्रम (३) उपशमनोपकफ्रम | (४) बिपरिसामनापक्रम |

(१) इन्धनोपक्स--कर्म पृदूगल भौर सरीत्र प्रदेशों के परस्पर सम्यन्ध दोने कय बन्‍्धन ऋइते ैं। उसके झारम्म हा बघनोपक्रम फश्ते अ्रथभा बिखरी हुई अवस्था में रह हुए कर्मों को आत्मा से सम्बन्धित सबस्पा बाल कर देना बन्घनोपक्म ६।

(२) ठदीरशोपक्रम--विपाफ़ भ्रधांत्‌ फल देन का समय दाने पर मी कर्मों क्रा फ्ल्त मोगन झे त्षिए प्रयत्न विशेष से उन्हें ठदय अदस्था में प्रवेश ऋराना उदीएया है ! ठद्दीरशा के प्रारम्भ का उदीरशोपकम फहते ई। -

(३) उपशमनोपकृम--कऋम, उदय, उदीरशा, निघत् आर निफाचना करण के अयोग्य हा जायें, इस प्रकार उन्हें स्थापन करना ठप्शमना | इसका आारम्म

भी सन सिद्धान्त बोश सप्रह, प्रपम भाग श्३३

उपशमनोपक्रम है इसमें भपद्यन, उद्यर्शन भौर संक्रमण ये तीन करण इोते हैं।

(४) पिपरिणामनोपक्रम--सत्ता, उदय, छाय, 'क्षयोपशम, उद्दर्चना, भपवर्चना भादि द्वारा कर्मों के परिशझाम फो बदज्त देना पिपरिणासनां भथवा गिरिनदीपापाण की तरह स्व्रामाबिक रूप से या द्रब्य, चैत्र, फास, माय आदि से भधगा करण बिशेष से कर्मों फ्रा एक पश्यस्पा से दूसरी अद्बस्था में धदल जाना पिपरिणामना है | इसफा उपक्रम (झारम्म) पिपरिण्ामनोपक्म है

( ठा्णाग 9 ५२ सूत्र २६६) २५०--संक्रम ( सक्रमज ) की स्यारुपा और उस फरे मेद'-- जीव सिस प्रकृति को बांध रह है ठसी एिपाक्ष में बी विशेष से दूसरी प्रकृति के दक्षिक्तों ( फर्म पृदुगत्ञों ) को परिणत फरना संक्रम रइसाता है | ( ठाख्ांग 8 ३० सृत्र २६६ ) जिस वीर विशेष से कम एक स्वरूप को छोड़ कर इसरे सजादीय स्वरूप को प्राप्त करता हैं। उस वीर्य विशेष का नाम सफ्रमण् श्सी सरह एक फर्म प्रकृति का दूसरी सजातीय कर्म प्रकृति रूप घन जाना भी संक्रमण है। बेसे-मति धानाबरसीय का भुत ज्ञानावरणीय भववा अत ज्ञानावए्णीय का सति क्षानावरसीय कर्म रूप में बद्त घाना ये दोनों रूम भ्रकृतियाँ ज्ञानाररसीय कर्म के मेद होने से भाषस में सम्ातीय हैं।

(कमे प्रस्थ माग गा की स्पास्या )

२३१३

श्री सेठिया जैन भरथमाजा

इसके चार भेद द-- (१) प्रकृति संक्रम (२) स्थिति संक्रम |

(३) भ्रजुमाग सक्रम (५) प्रदंश संक्रम (अणांग ढ़ सूत्र २१६३)

२५१--निषरच की स्पारुपा भौर मेद --

उद्दर्च ना भौर अपवर्सना करण सिवाय विशेष करों के अयोग्य कर्मो को रसना निघत्त कहा जाता है | निएर अवस्जा में ठदीरणा, सकमझ वर्गरह नहीं होत हैं। तपा कर निकाली हुई छोड़ शत्ाका के सम्बन्ध समान कर्मो फ्लो परस्पर मित्ताकर घारण करना निघरव कइलाता है| इसके मी प्रकृति, स्थिति, अनुमाग भौर प्रदेश रू भार मेद इंते ६!

(ठाणांग भ॒ सूत्र २४६ )

२४२--निकासित की स्यारुपा भार मदइ'---

मिन कर्मो का फल पन्ध के अनुसार निश्चय द्वी मोगा यादा ई। जिन्हें बिना मांगे छुटकारा नईीं होहा। पे निफ्राकि कर्म कइलात हैं। निकाचित कर्म में कोह मी ऋरस नहीं दोदा | शपा कर निडाजी इई सोद शत्ताफायें (सुर) घन से कूटने पर जिस तरइ एक हो बाती हैं। ठसी प्रकार इन कर्मों का मी आत्मा साथ गाढ़ा सम्बस्ध दो मता | है | निद्मणित कम रू मी प्रकृति, स्थिति, अलुमाग भौर

प्रदेश मेद चार मेंद हैं। (टांग ३० सूत्र २६६ )

सैस सिद्धासव बोल संप्रइ, प्रथम भाग र३७

२४३--कर्म की चार अपस्थाएँ-- (१) इन्च | (२) उदय | (३) रदीरशा (४) सच्चा

(१) घन्घ--मिथ्यास्प आदि के निमित्त से ज्ञानावरसीय आदि रूप में परिशत शोफ़र कम पृदूगलों फा भात्मा के पाथ इस पानी की तरइ मिल ऊाना बन ऋइलाता है।

(२) उदप--ठद्॒य फाख अथांत्‌ फल्तदान फ्रा समय झाने पर कर्मों के शुमाशुम फर का दना ठदय कड़लाता |

(३) उदीरण्ा--भवाघा फराक्त स्पतीत हो चूफने परमी जो फर्म-दलिक पीछे से उदय में झाने वासे हैं। उनको प्रयक्न बिशेष से खींच कर उदय श्राप्त दक्षिकों क़॑ साथ भोग सेना उदीरणा है |

बंधे हुए कर्मो से जिसने सम्रय तक झात्मा फो अबाघा नहीं होती भषांत्‌ शुमाशुम फल का वेदन नहीं ता, उठने समय फो भवाधा कायल समम्धना भाहिए | (४) सत्ा--घघे हुए कर्मा फ्रा भपने स्वरूप को छोड़ कर आस्मा के साथ ज़गे रइना सा ऋडलाता है| ( कर्मप्रस्य साग गाया ब्यास्या ) २५४--भन्तक्रियाएं चार--

कर्म अथवा कर्म कारणक मद का झन्‍्त फरना अन्वक्रिया है। यों तो भन्तक्रिपा एक ही स्परूप पाती हे किन्तु सामग्री के मेद से चार अद्ार की बताई गे है।

रश्८ भरी सठिया जैस प्रस्यमाला

(!) प्रथम अन्तक्रिया--कोई जीव भन्‍्प कर्म बाला हो फर मनुष्प मत में उत्पन्न हुआ उसने मुँडित होकर गृहस्त से साधुपने की अवज्पा शी।वह प्रचुर संयम, धंवर और समाषि सहित दोता है। घइ शरीर भौर मन से रूच हस्प भोर माष से स्नेह रहित संसार सप्ठद्ध के पार पहुँचने छरी इच्खा वाल्ता, उप्धघान सप पाला, दुःख एवं उसके कारण भूत #र्मो का क्षय करने पाला, भाम्पन्वर तप भर्थाद श्यम बयान वाला होता हे | पह भी इघमान स्त्रामी की तरइ पैसा पोर तप नहीं छरता, ने परिषह उपसर्ग खनित पार पेदना सहसा है। इसे प्रकुसर का गह पुरुष डीर्म दीघा पर्याय पास कर पिद्ध होता ई। बुढ़ होता ई। पृक्त होता है | निर्दाश क्रो प्राप्त करता है शव सभी इ!सों का भरस्त करता | सैंस भरत महारीज | मरत मद्दाराज क्षप्‌ कर्म बाल ोफर सर्दर्धसिद्ध गिमान से पे, बहाँ सं लव ऋर₹ मनुष्य मब में चक्रवर्ती रूप से उत्पन्न हुए चक्रवर्ती श्रवस्‍्पा में ही केवल ज्ञान उत्पम्र कर उन्होंने एक शास पूर्व री दीया पाली एवं मिना घोर तप किए झौर बिना विशेष कष्ट सइन किये शी मोक्ष पघार गपे |

(२) इसरी भन्तक्रिपा--कई पुरुप मह्दा कर्म बाला होकर ममुष्य मम्र में उस्पन्न हुआ दह दीपित दोर यावत्‌ छुमन्पान बाला हांता है। महा ढर्म बाला इने से ठन कर्मों झा धय करने के तिए बइ घोर तप करता ६। इसी प्रकार घोर बेदना मी सइसा है उस प्रकार ब्य बह युरुढ भोड़ी

जैन सिद्धास्त वोल सपफड़, प्रथम माग 5९%!

ही दीदा पर्याय पात्त कर सिद्ध हो खाता है। यापत्‌ समी दुःखों का भन्त छर देता है। जेस-गजसुदूमार ने मगवान्‌ भी भरिष्टनेमि के पास दीचा लेकर श्मशान भूमि में कायो

स्सर्ग रूप महातप प्रारम्म किया और सिर पर रखे हुए चाज्यस्पमान भज्जारों से उत्पन्न भत्पन्त साप वेदना फो सहन फर झन्प दीदा पर्याय से ही सिद्ध शो गए।

(३)--वीसरी भ्न्तक्रिया--कोई पुरुष मइए कम बाला होकर

ठस्पन्न होता वह दीदा लेकर यावत्‌ शुभ ध्यान करने वाज्ता होता १ै। महा कर्म बाला होने से वश घोर तप फरता है, एवं घोर वेदना सइता है। इस प्रकार फ्रा वह पुरुष दीर्प दीचा पर्याय पाक्त कर सिद्ध, युद्ध, याव॒त्‌ एरक्त होता है। बैसे-सनस्क्मार चक्रदर्ती सनस्क्षूमार चह्रर्सी ने दीदा छेकर फर्म चय फरने के शिए घोर तप किया एवं शरीर में पैदा हुए रोगादि की घोर बेदना स॒ह्टी भौर दीप का्त तफ़ दीदा पर्याय पाल्ती कर्म भ्रणिर दोने से बहुत फाल तक सपस्पा फरक्े मोद् प्राप्त किया

(४) चीधी भन्त क्रिया --कोई पुरुप अल्प कर्म बांत्ता होकर उस्पप्न होता है| पह दीचा लेकर याबत्‌ शुम भ्यान वाला होता है। वह पुरुप घोर तप करता है घोर वेदना सहृता है। इम प्रफार दह पृुप अल्प दीदा पर्पाप पाल फर ही सिद्ध, बुद्ध यावत्‌ मुक्त शो जाता है ।जैसे-मरु देवी माया मरु।दंधी माता के कर्म चीण प्रायः थे | अतएव बिना तप हक कई बेदना धड़े दागी पर विराजमान ही सिद

श्र श्री सेठिया पैन प्रस्यमाशा

नोट--उपरीक्त दृश्ान्त देश रष्टान्त है | इस लिए सभी धातों में साधम्प नहीं ईं। लैस-मरदेवी माठा मै डिए हुईं, इत्यादि | झिन्तु माय में समानता है | ( ठाणाँग ह७ घृत्र २१४ ) २४४--माष दु'ख शस्या फ्रे चार प्रकार*'-- पलक बिद्दौना बगैरइ मेसे होने भादिए, बैसे हों,

दु।खकारी हों, तो ये ह्रस्प से दुःख शप्पा रूप हैं। चित्त (मन) भ्रमस् स्वमाव बाला होकत दुभमणता गाहशा हा, तो बह माव से दुस शस्पा | माप दुख शस्पा चार हँ।

(१) पहल्लो दुःख शस्पा --किसी शुरु (मारी) फर्म बाले मजुप्य ने प्डित दोकर दीद्ा ली। दीपा लेन पर बह निज्रेस्न प्रबचन में शह्वा, कमंघा (पर मत अष्छा इस प्रकार की बृद्धि) विधिकिस्सा ( परम फत्त के प्रति सन्‍्देद) करवा है। मिन शासन में कइ हुए माष बेस ही हैं भ्रमबा दूसरी तर| के हैं! इस प्रकार चित का डांवा डोल करता है। कह्ुुप मात्र अर्थात्‌ विपरीत मांव फो प्राप्त फरता हे | बह बिन प्रवभन पर भद्धा, प्रतीति और रुचि मई रखता | मिन प्रदरभन में भड़ां प्रतीति करता हुआ भर रुतित रखता हुमा मन को ऊंचा नीचा करता हैं इस कारण वा परम से अष्ट हो याता ईं। इस प्रकार बह अमणता रूपी श्या में दुख से रइता है

(२) इसरी दृः्स श॒प्पाः--काई कढरमों पे भारी मनुष्य प्रवज्पा सेफर भपन ज्ञाम से सन्तुष्ट नहीं होठा | बह भसन्तोपी बन कर इमरे क्षाम में से, बह घुसे देगा, ऐसी इय्हा रसता

श्री द्ैन सिद्धास्द घोल सप्रइ, प्रभभ भाग र्श्१

है। पदि वह देपे दो में 86 के इच्छा फरता ई।! उसके लिए. याथना करता भोर भसि भमिलापा फरता है उसके मिल खाने पर भौर अधिक चाहता इस प्रफार दसरे फे काम में से भाशा, इच्दा, याचना याषत्‌ भमित्ापा फ़रता हुआ पद मन फो ऊँचा नीचा करता है | इस फ़ारण वह घर्म अष्ट दोजाता ६। पड़ दूसरी दुःख शय्पा है

(३) पीमरी दुःख शस्पा “कोई फर्म बहुल प्राणी दीचित दोझर देव छा मलुप्य सम्भ थी फाम मोग पाने की भाशा करता £ याघना याषत भ्रमिक्षापा करता | इस प्रकार झरते हुए वह भपन मन फो ऊँधा नीचा करता भौर धर्म से अष्ट द्वो जाता ६। यह पीमरी दुख शय्पा

(४) चौंपी दुख शब्पा-कोह गुरु फर्मी यीव साधुपन लेफर सोषता कि मैं जब यूइस्थ वास में था।उस समय ठो मरे शरीर पर मालिश दोती थी। पीटी होती पी, तैल्ादि शगाए जाते थे ओर शरौर फ्"े भ्रज्न ठपाक़ पोये बाते थे भर्पात्‌ छुके स्नान फराया जाता था | स्किन जप से साधु घना हू। सब से परे मर्दन भादि प्राप्त नहीं ई। इस प्रफार वह उनकी आशा यावत्‌ भ्रमित्तापा करता भौर मन को ऊँषा नीचा करता हुआ परम अष्ट होता यह दीपी दृ शय्या | अ्रमण को घारों द्‌ शस्या छोड़ कर सयम में मन को स्पिर रूरना चाहिए

२५४६--मु् शप्पा घार -- ऊपरभदाई हृई दु प॒ शप्पा दिपरीत मुस्त शप्या जाननी चाहिए | य॑ संछेप में इस प्रकार हैं ---

(ठार्छांग १० सूत्र ३२५)

श्डर श्री संठिया जेन भम्बमाक्षा

(१) जिन प्रवचन पर शंदा, कयंदा, विनिकित्सा करता इआ तथा चित्त को डांबा डोल भौर कछुषित करता इआ साध

+. निर्प्राथ प्रवचन पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि रखता है भौर सन को संयम में स्थिर रखता है। वह धर्म से अद नहीं इाता भपितु धर्म पर भौर भी अणिक ढ़ होता है | गए पहली सुख शप्पा है।

(२) जो साधू भपने ज्ञाम से सन्तुष्ट रइसा है भौर दूसरों श्ञाम में से भाशा, इम्छा, पाचना झौर भ्मिल्लाषा नहीं करता उस सन्‍्तोपी साथु का मन संयम में स्थिर रहता है भौर बह घर्म अ्र्ट नहीं होता यह इसरी सुख शप्पा है|

(३) सो साधु देवता झौर मनुष्य सम्पन्धी फ्मम मार्गों कौ झाशा याषत्‌ झभिल्षावा नईं करता | उसका मन सयम में स्थिर रहता है भौर बह धर्म से अष्ट नहीं होता यह तौसरी सुख शस्पा हैं।

(४) कई साधु होकर पद साक्रता क्लि जब हए,नीरोग,बतवात शरीर वात्त भरिइन्त मगबान्‌ भाशसा दोप रहित झतर ठद्ार, फ़त्पालकारी, दीप॑ कासतीन, मद्या प्रमावशाती, कर्मो क्रा चय करन बात्त तप को संयम पूर्षक झादर माद स॑ भगीकार करत ईं तो कया झुमे कश सोष, अप्मचर्स्प आदि में दान बाली भाम्युपगमिझी भार ज्बर, भतिसार भादि रांगों सं डोन बस्ती औपक्रमिकी बेदना करी शान्ति पूर्वक, दरेन्पमाब द्शाते हुए, बिना झिसी पर काप किए सम्पक्‌ प्रकार से सम माव पूर्वक सइना

श्री औैन सिद्धाश्व बोल संग्रह, प्रथथ भाग २४१

चाहिए ! इस बेदना फो सम्पक प्रकार सहन कर में एकान्त पाप फर्म के सिधाय भौर क्या उपाजन करता हूं! यदि में इसे सम्यक्क प्रकार सहन कर खू, सा क्या इुमे एकान्त निर्जरा होगी £ इस प्रकार विचार फ़र प्रद्नसय्य बत के इपस रूप मर्दन झरादि फी भाशा, इब्छा का त्याग ऋरना चाहिए एवं उनके भाव से प्राप्त घेदना तथा अन्य प्रकार की येदना को सम्पक्त प्रकार सइना चाहिए यह चौघी सुख शप्या है! ( ठाणांग 3० सूत्र १२४ ) २१४७--चार स्थान से हास्प की उत्पत्तिः-- इास्प मोहनीय फर्म के उदय प्ले उस्पन्त हास्प रूप विकार भर्षात्‌ ईंसी फ्ली उत्पत्ति चार प्रफ़रार से होती | (१) दर्शन से (२) मापद से (३) भ्रवद से (४) स्मरण से (१) दर्शन!--विदृपक, बहुरूपिये झादि की इंसी सनक स्ेप्टा देखकर इसी भाजाती है। (२) मापथ--हास्प ठस्पादक वचन झड़ने से इसी झ्ाती (३) भ्वस--हास्प जनक फिसी का वन सुनने से हँंसो की उत्पकि होती है। (४) स्मरण--हंसी योग्य फोई बात या चेष्टा को पाद करने से इंसी उत्पन्न होती है। ( ठाझांग "७ सूत्र २६६ ) २५४८--प्रुणक्षाप के भार स्‍स्पाना---

भार प्रकार से दूसरे के विधमान गुयों का छोप किया चाता है।

ण्ह्ह श्री सेठिया जेस प्रस्थमाज्ा

(१) क्रोध पे (२) दूसरे की पूझ्ा प्रतिष्ठा नं सहन कर सकने के काएश, र्ष्पा से (३) भकुतश्ता छे (४) विपरीत ह्वान से णीवष दूसरे के विधमान्‌ गुशों का भफ्ताप करवा है। (ठांग्रांग शण सूत्र ३७० ) २४६--थगुश प्रकाश के चार र्पान)-- घार प्रकार सं झसरे के विमान ग्रुश प्रकाशित किए चाते ६। (१) भ्रम्पास भर्पात्‌ झाग्रह गश, भयवा, वर्सन करिए जाने बाल पूरुप के समीप में रइन से (२) दूसरे के अमिप्राय के भनुछझूस स्पबद्दार करने के लिए | (३) इपट कार्य कू प्रति दूसरे को भनुकृछ् करने के लिए | (४) छिपे हुए गुस प्रकाश रूप ठपछार झन्‍्य उपकार की बदला चुकाने के द्विए। (ठाझ्छांग शव सूत्त ३७० ) २६०--पार प्रकार का नर का भाद्ारः-- (१) भड्कारों फ़ मदश भाइर---पोड़ काक्त तक हरा होने सं (२) मोमर कर सरश भाइर--भणपिक फाल तक दाह होने से (३) शीतत्त ग्राद्ा---शीत देदना उस्पन्न करने से (४) दिम शीतत्त भाह्र---भरयन्त शीत पेदना जनक होने मे | ( ठायांग 5५ सूत्र ३४० )

भी जैम सिद्धान्त पोल संप्रद, प्रयम माग रहे

२६१--चार प्रकार छा तिर्यष्सु फा आइरः--

(१) क्ंकोपम-जैंसे कक पी फो मुरिकुल से हजम होने बाला भाहार भी सुमच दोता हे भौर सुख से इसम हो खाता है। इसी प्रकार तिय॑म्च का प्ुमच भौर सुखफारी परिणाम बाज्ा आहार कंफ्रोपम भाइार है|

(२) पिक्तोपम/--जो भाशर एशिल्त फी तरह गले में निना रस का स्थाद दिए शीघ्र ही उतर जाता वह मिल्तोपम आहार

(३) भार्ह् मोसोपमा--भर्भात्‌ जैसे भाणटात्त का मांस भुस्परप दोन पृझा फ्रे कारस पड़ी धरिफल खाया खाता है। पैस शी जो भाद्ार पुरिफत से खाया जा सके घट मातञ्ञ मांसोपम झाद्यार ई। के 0

(४) पृत्र मांसोपम--जैसे स्नेह ोन पुश्र फा मांस पहुत ही फ़टिनाई के साथ साया जाता है। इसी प्रकार नो भाइर बहुत ही पुश्फिसे से खाया साय वह पुत्र मांसोपम भाहर है

(ठार्णांग च० सूत्र ३४० ) २६२--घार भ्रकार का मनुष्य का भाइर -- (१) भशन (२) पान (३) पादिम (४) खादिम (१) दाज्र, रोटी, माद बगरइ झाहार अशन झड़ शादा है। (२) पानी बगरइ आदर सानि पंय पदार्थ पान है।

श्ष्र श्री संठिषा जैम प्न्थमाला

(३) फ़श, मेबा बगेरइ भाइर खादिम कइलाता है | (४) पान, सुपारी, इलायची वगेरइ झाद्ार स्वादिम है! ( ठाझ्यांग है ढ० सूत्र ३४१ ) २६१--देषता का चार प्रकार का भाइरा-- (१) घूम वर्ण (२) शम गन्घ (३) हम रस (५) घूम स्पर्श बाला देवता का भादर होता है। (ठाणांय ण० सूच्र ३४०) २६४--जार माएड (फएप वस्तु)--

(१) गणिम--ज्रिम चीज का गिनती से स्पापार होता है गए गणिम है मैसे--नारियत्त बगैर

(२) परिम--जिस चीज का हराद्ध में तोल कर स्पवद्दार भर्वाद्‌ सेन देन होता है| मेसे---गेहू, पाँव शहर गगैरइ

(३) मेप--जिस घीश का स्पबद्दार या लेन देन पायछी भारि में था हाय, गज भादि से नाप झर होता ई, बह मेय £। सैसे--कपड़ा बगेरह छर्टों पर घान वरगरह पायत्ती भारिस माप कर लिए भौर दिए खात £। बह पर ने मी मैय हैं

(४) परिष्छेष--गुण कौ परोधा कर शिस सीकर का सृत्व स्थिर दिया जाता है झौर बाद में सेन देन दोता उसे परिम्द्ेष कहते हैं। सेसे-- सबाइरात

बढ़िया बस्त बगैरइ जिनके गुण की परीक्षा प्रधान है, दे मी परिष्ठेय गिने साते £ |

(६ हाता सूत्र प्रथम श्रुत रकृ॒म्प अध्याप घृत्र ६६ /

अ्री जैन सिद्धान्द बोक संग्रह, प्रसभम साय रएज

२६४--(क) आराघफ दिशाधक की बोमज़ी--

(१) एक पुर्य शीक्षतान्‌ है फिन्तु भुतपान्‌ नहीं है, बह पाप से निषृत्त है फिन्तु घर्म को नहीं: जानता ६, इसलिए वह पुरुष देशाराघफ है | (२) एक पुरुष भुतवान्‌ किन्तु शीक्तान्‌ नहीं, वरद्द धम फ़ो जानता है छ़िल्तु पत्प से निवृत्त नहीं है। इसलिए यह देशजिराघफ | (३) एक धुरुष शीक्षयान है भौर अभुद्रान भी है पह पाप से निहत्त है भौर घर्म को मी जानता है। इसलिए वह स्व झाराबफ है (४) एक पृरुष शीरबान्‌ नहीं है भौर भुतवान्‌ भी नहीं है, पद पुरुष पाप से निषृत्त नहीं भौर पर्म को मी नहीं बानता ई। इसलिए बह स्व पिराघक है।

(मगदपी शक त० १०) २६५--चार श्याधि-( १) वात की स्याधि (२) पित्त की स्पाधि।

(३) रूफ की स्याधि (४) सन्निपायज स्यापि। ( ठायाँग उ० सूत्र ३४३ ) २६६--.बार पुवृगल् परिसाम)---

पुद्गल फा परिणाम अ्र्पात्‌ एक झरधस्था स॑ दूपरी भवस्था में जाना चार प्रार से होता है (१) इर्य परिणाम (२) गन्ध परिणाम

(३) रस परिसाम (४) स्पर्श परियामा (ठा ४३. घू २६५ )

२६७---थार प्रकार से छोर की स्पदबस्था -- (१) झाकाश पर घनवात, दनुबात, रूपयात (यायू) रह हुआ ६! (२) भायु पर पनोदधि रद्ा इभा ६। (३) पनोदधि पर पृथ्यी (दी हुई ई। (४) एथ्दी पर श्रस और स्थाबर प्राणी रह हुए हैं।

डाणांग 7० सूत्र ८३ )

२६८--घार कारणों से खीब ओर पृषृग्त शोक प्राइर जाने में भसमर्थ ६:-(१) सति भमाद से !(२) निरुपग्रइ शोन

रघोप श्री सठिया मैन प्रस्थमात'

(३) रूचता से (२) कोई मर्यादा पे

(१) गति के अ्रमाव सेः--जीव भौर पुदृगल का लोक से बाहर प्वाने का स्व॒माव नहीं है। जैसे-दीप शिक्षा स्वमाद से हौ नीचे को नहीं साती

(२) निमुपग्रह दोने से!--शीक के बहिर धर्मास्तिकाग झा अमाब है। मी भौर पूंदूगल के गन में सड़ायके पर्मा- स्तिकाय का अमाब होने से ये लोक से बाइर नेहींा सकते | जैसे-बिना गाड़ी के पड़ परुष नहीं जा सकता |

(३) रूपता सः--सोझे के पक्‍्रन्त तक शाकर पृदूगत्त दस प्रकार से रुखे शो माते हैं कि भागे खाने लिए उनमें सामर्ध्य ही नईं रहता। #र्म पुदुगलों फ्रे रूखे हो जाने पर ज्ीष मी बैस दी दो साते हैं। भत | मी जोक के बाइर नहीं ला सकते सिद्ध जब तो घमास्तिकाप का आपार शोने से दी भागे नहीं. जाते

(५) शांझ मर्स्पदा संः--खोक मर्यादा इसी प्रकार दी ई। जिससे लीब औौर पुवृग्स शोक से बाइर नहीं खाते | जैसे- सर्प सफ्डक्त अपने मार्ग से दूसरी झोर नहीं माता

( ठास्यांग 3० घृत्र ३३७ ) २६६--मापा चार सेद -- (१) सस्प भाषा (२) भम्ृत्य मापा (३) सत्पारझषा मापा (मिश्र माषा)। (४) भसस्पाम्पा मापा (स्परहार माषा)।

भरी फैन सिद्धान्त वोकत संगह, प्रथम माग रश्श६

(१) सस्प भाषा--विधमान जीयादि पदार्थों पा पयार्थ स्परूप फहना सत्य मापा है। अथवा सन्त भर्यात्‌ परनियों फे छिए दिउरूारी निरषध मापा सत्य मापा फट्टी खाती इं।

(२) असस्प भापा --जो पदार्थ जिस स्वरूप में नहीं | उन्हें ठस स्वरूप से झदना प्रप्तत्य मापा है। भधवा सन्तों फे लिए पझट्टिवफ्रारी सावध मापा असत्य भाषा फद्दी आती ड्र।

(३) भस्पाझृपा मापा (मिश्र मापा)--जों मापा सत्य और मृपा भी ई। पद्द सत्पासपा मापा ई।

(४) भसतत्पारपा मापा (्पवह्ार मापा)--जों माप्रा सत्य ईं भीर भसत्प है। ऐसी भामन्त्रणा, भाशापना भादि की घ्यवद्वार मापा भ्रसत्यारपा मापा कड़ी धाती है। अमन्पाछपा भाषा छा देसरा नाम स्यवद्दार मापा है |

ले पमनवण्या मापापत्र ११ घू० १६१) २७०--भसस्प पपन फे घार प्रकार४-- खो वचन सन्त भपात्‌ प्रासी, पदार्थ एवं मुनि के सिए द्दितरारी द्वो, पड भ्रमत्य पचन अगवा -- प्राणियों के त्तिये पीड़ाफ़ारी एवं घातक, पदार्थों का अपयाप स्वरूप प्रताने बजा भार पमछु धनिर्षों कर मोच

का पावऊ बसन असस्य देन ६। अमत्प बघन के थार मंद --

(१) महाव प्रतिपिप।... (२) भमझापाक्राबन ! (३) भपान्तर (श)गहा

शह० श्री सेठिया ज्ेन प्रव्थमाता

(१) प्र्ाब प्रतिपेष--विधमान बस्तु का निपेष करना सद्भाव प्रतिपेष ह। जैस-यह कहना कि झास्मा, पुण्य, पाए आदि नहीं हैं।

(२) श्सक्रावोह़ाबन--अवियमान वस्तु का प्रस्तित्व बताता असझ्ावोक्शाबन है खेम-पद कइना कि भास्मा सर्व स्पापौ है। ईश्वर जगत्‌ का कर्ता है। भादि |

(३) पर्पान्तर--एक पदार्ष को दूसरा पदार्थ बताना भर्पान्तर है। पैसे गाय को घोड़ा बताना |

(४) गर्ई--दोप प्रकट कर किसी का पीड़ाकारी बचन कहना गई (प्रसत्य) है। सेसे-काे क्रो काशा कइना

(इशासैकाकिक सूत्र अध्ययन दूसरे मद्दावनत की टीका) २७१-च॒तुष्पद ठिर्य॑स्ध पश्चन्द्रिय के चार मेदः-- (१) एफ खुर। (२) दिछ्लुर (१) मी पद (४) पनख पद |

(१) एक खुर--जिसके पैर में एक सुर हो। वह एक खुर घतुष्पद है | सैसे-धोड़ा, गदद्दा वगैरई।

(२) दिखुर--मिसक पैर में दो खुर हों | बह दिखुर घतुप्पद ९! जैसे-गाय, मैंस बगैरह

(३) गणडीपद---सुनार की एरश के समान चपरे पर बासे बतुप्पद गएडौपद पहणाते हं। बेसं-दापी, छँट बगैर

(४) सनस पद--भिनक परों में मस हों थे सनय भतुणद कइलाते हैं। जेसे-मिंइ, इचा वरगैरद |

( ठाणांग ४० सूत्र ३५० )

श्री सैन सिद्धान्व चोल संप्रह, प्रथम माग न्श्र

२७२--पदी चार*--(१) चम पी | (२) रोमपद्दी। (३) सप्ददूगफ पी (४) पिदत पची।

(१) चर्म पद्चीः--चर्ममय पहन वाले पध्ठी चर्म पद्ी फहलाते है। सैमे-घिमगादड़ परेरद

(२) ऐम पची--रोम मय पहु वाल पधी राम पची करछाते ई। जैमे-इएस वगैरद

(३) सप्रुदूगक पदी --दिब्य क्री तर प्न्द पद्ठ पाल पषी सप्ुदृगक पी कइछाते हैं

(४) वितत पी --फैल दुए पहु बाल पद्ी पितत पी कदइलाते हैं। सम्ुदृगकपची भौर विवतपती दोनों जाति कपदी भड़ाई दीप के पाइर ही होते हैं ( ठा ४४० शसृत्र ३४०

२७३---अम्पूद्टी में मेर पर्वत पर चार बने हैं।-- (१) मद्रशाक्ञ दन | (२) नन्दन पन | (३) सोमनस दन (४) पाएडक वन

ये घारों पन पढ़ ही मनाइ९ एव रप्णीप हैं। (ठा ५५.२ सू ३०२ २७३---%क) धार फ्पाप छा फल --

(१) फ्रोघ से भार्मा नीच गिरता (२) मान से भ्रधम

गति प्राप्त घती ६। (३) माया से सदूगति फा नाश शोता

६। (७) शोम सम इसनोझ तथा परनाझ में मय प्राप्त

इंता ई। ( उफारॉध्ययनम अध्ययन मं भा० 2४) २७३-+ग) मसापि के घार मदः--

(१) पिनप समाधि (२) भर ममाषि

(३) तप समाधि! (9) भाषार ममाधि |

इन प्रयह हे फ्रि पार मद ६! (दराण् अप्यण् ५)

सर भी सेठिया जैन प्रस्यमादधा

पाँचपां बोल ( बोल सप्या २०४ ४२३ तक ) २७४--पस्च परमेप्ठी:-८

परम ( उस्कृ्ट ) स्वरूप भ्धांत आष्यात्मिक एरूप में स्थित प्रास्‍्मा परमंप्ठी कडस्ाता ६। परमेष्टी पास (१) भरिददन्त (२) सिद्ध (३) झाषार्प (४) छपाण्पाय | (५) साधु

(१) भरिइन्‍्द--प्वानावरणीय, दर्शनावरसीय, मोइनीय भौर पन्तराय रूप धार सर्ध धाती फर्स शत्रुओं फा नाश करने बाले महा पुरुष प्रिहन्त कहलाते है |

पाती फर्म शत्रु पर दिशय प्राप्त करने बाक्ते मद्पुरू पदना, नमस्फ़ार, पूजा भौर सत्कार के पोम्प होते £ दशा सिद्धगवि के योग्य डोदे | इस लिये मी थे भरिएन्त फडलाते है

(२) सिद्ध-भाट «र्म नए हो जान से छत कप हुए, सोकाप्रस्पित सिद्ध गति में विराजन प्रात मुक्तास्मा सिद्ध कइसात॑ ई।

(३) भाषास्य--पश् प्रफार के भाचार का स्वयं पालन करने बाल एवं भन्‍्प सापुभों से पालन कराने पाक्त गच्छ के नायक आचास्प कहलाते है!

(४) उपाष्याय--शाप्परों फ्रो स्वर्य॑ पड़ने एवं दूसरों झो पाल बाल पनिराज उपाध्याप कहलाते ई।

श्री जैन सिद्धान्त दोत सप्रइ प्रथम माग श्श्३्‌

'५) सापु--सम्पस्श्ान, सम्पस्दर्शन एव सम्परूचारित्र द्वारा मोच को साधना फरने पाले पुनिराघ साधु कइलाते है ( मगवती, मगक्षाचरण ) २७४--पश्च फल्याथक -- तीपइूर मगपाद फे नियमपूर्स पांच महाफस्पाखफ़ होते हईं। थे दिन पीनों छोकों में आमन्ददायी तथा यीदों फे मोध रूप फल्याख करे साथफ हैं ! पम्च फन्‍्पाणफ फरे भवसर पर देवेन्द्र भादि मक्ति मार पूपंक कल्पाणकारी उत्सव मनात॑ हैं। पन्‍्च फभ्यासफ ये हं--- (१) गर्म फ़ल्पासक ( ब्यबन कल्पासफ् )। (२) जन्म कश्याणफ (१) दीचा (निप्फमण। फल्याजक | (४) फ्रेपशक्ञान कल्पासकू (५) निवाय कल्पाणर | ( पस्चाशक गा? २०-११ ) ( इशा भुप्त स्कम्प इशा ) नो7+--गर्म छल्यासक के भवसर पर ददेन्द्र भादि फरे उत्सव का दणन नहीं पाया लाता मगषान्‌ भी मद्यावीर स्पामी फ्रे गमापइरण को मी फ़ोइ भाभाय्य कल्पाथफ मानते हैं। गमापररस फन्‍्याणक फी भपंधा मगबान्‌ भी मद्ठापीर स्वामी रू & फ्रस्पासक फइलाते हैं। २७६--पांच मस्तिकाय'-- अस्ति! शन्द का भर्य प्रदेश भौर फाय का भर्घ है 'राशि!। भ्रदृशों की राशि वाले द्रण्पों को भस्तिषाय फ्रदुव भस्विराय पांच है -- (१) घमास्विदाय | (२) भधमास्तिफपप

स्ह्ह भरी सठिया जैस्त प्रस्थमाद्ा

(३) भाकाशास्विकाय | (४) जीषास्तिकाय ! (५) पुदूगलास्तिकाय | (१) घर्मास्तिकाय/--गति परिश्षम धा्से सीब और पूदुग्लों की गति में सो सदयायक हो उसे घर्मास्तिकाप कहते हैं| जैसे--पानी, मछती की गति में सहायक शोता है (२) भपर्माश्तिफाप:--स्थिति परिशाम बस्‍ले वीब भौर पुदगरतों की स्थिति में न्ञो सहायक ( सहकारी ) हो, एस भपर्मास्तिकाय कहते ५! जैस-विम्लाम 'नाइने बार पढ़े हुए पयिक के टइरन में छायादार वध सद्दापक होता है। (३) आकाशास्तिकाय।---छो घीवादि दस्पों को रने के शिए अदकाश दे | बइ ह्राकाशास्तिकाय है | (४) छीपास्तिक्यय/--बिससें उपयोग भर वीर्य दोतों पागे बाते हैं। उसे श्लीदास्तिकाय कइते हैं| ( इत्तराध्यञन सूत्र अष्ययम म्प्गामा सं! ) (४) पुवरगलास्विकाय/--जिस में बर्ण, गन्ष, रस भौर सर्श हों भौर थो इन्द्रियों से प्राप्त हो तथा विनाश परम बाला

हो पह पृद्रग्तास्तिक्यय है। ( ठाझांग शुछ घसूद् ४४१ ) २७७--अस्तिकाय के पाँय पाँच मेद)--

जल्येक भस्तिष्यय के इम्प, चेत्र, कायल, मात और गुश की भ्पेचा से पांच पांच मंद हैं | घर्मास्तिकाय के पांच प्रकार-- (१) दष्प कौ प्रपेणा घर्मास्तिद्यय एक दस्य है (२) देंत्र की अपेधा धर्मास्तिक्य शोक परिमाल भर्थात सर्व शोकब्यापी हईं यानि सोकाझाश छी तरइ प्रसंक्यात

श्री जेन मिद्धास्त चाक्ष संप्रइ, प्रथम माग रा

प्रदेशी है

) काल की भपेदा घर्मास्तिकाय प्रिक्नाल स्थायी है। यइ भूत काल में रहा है। बर्तमान फाल में दिधमान है भौर मधिष्यत्‌ कात्त में मी रहेगा | यह घुब है, नित्प *, शाखत्‌ है, भचय एवं भन्पय है तथा भवस्थित |

२) माब की भपेदा घमास्तिकाम बर्श, गण, रस और स्पर्श रहित है। भरूपी तथा चेतना रहित भथांत्‌ जड़ है।

५) शुस्ध की भपेचा गति गुण पाक्षा भर्थात्‌ गति परिणाम पाले शीय और पृव॒गत्तों की गति में सहकारी होना इसका

गुण है ठाणांग ३० सूत्र ४४१ )

अधर्मास्तिकाय के पांच प्रकार--

अधमास्तिफाय द्रष्य, चेड, फराल भौर माव फ्री अप॑चा घमास्तिकाय जैसा ही

गुण की अपेदा अघमास्विकाय स्थिति गुण पाता (ै। भाफाशास्तिकाय के पाँच प्रकार --

आऊकाशारितकराय ट्रम्प, काल भौर माप झी भप॑चा धमास्तिफाय जैसा डी है

चेद्र की भपेद्दा भार्यशास्तिकाय सोझालोक प्पापी है आर भनन्त प्रदेशी | लोकाकाश धर्मास्तिकाय की तरह भर्परपात प्रदेशी ६।

गुण की भपेदा भाकाशास्तिश्यप भवगाइना ग्रुथ

दाज्षा प्रधांत जीव और पृदृगलों को भवकाश देना डी इसका गुश

904] श्री सठिया जैन प्रम्थमाता

सीपास्तिकाय फ़ पांच प्रकार--

१--2प्प शी भ्रपेधा बीवाम्सिकाय भनन्त द्रष्य रूप क्योंदि प्रपझू पृथफ़ द्रष्प रूप जीव झनन्त !

२--चेत्र फी भरा जीयास्तिकाय लोफ़ परिमाय ईं। एक वीष क्री भपंधा जीप असंस्पात प्रदेशी और सदर सी के प्रदेश भनन्त ईं |

३---छालत फ्री फ्रपेषा औीब्रास्तिकराय भादि अन्त रहित है भवाय्‌ धुब, शारपत भर नित्य ई।

४--मात्र की अपेषा जीवास्तिक्राय ध्ण, गम, रस भौर म्पर्श इष्टित ६। अरुपी पा पेतना गुण बाला ६।

प्र--झुण फी भपेष्ा जीपास्तिक्राय उपयोग गुय बा्ता ६! पृवृगक्षास्तिकाय फे पाँच प्रछार/--

(१) द्रम्प की ध्पेदा पुद॒गल्ञास्तिर्यय अनन्त हम्प रूप ६!

(२) पेत्र फ्री क्रपेधा पृद॒गज्ञाम्तिफ्राप स्लोक परिमाण है भौर अनन्त प्रदेशी है।

(३) काल की भ्रपपा पृद॒गत्तास्तिफाय आदि भन्त रद्दित भर्पात्‌ घुब, शार्पत भौर नित्य ६।

(४) माब फी भपेधा पुद्दगक्तास्तिफ्ाय पर्स, गन्घ, रस भौर स्पर्श सहित £ | यू रूपी और यड़ है

(५) गुस की भपेदा पृवृगतास्तिकाप फा प्रइण गुण अर्थात्‌ झीदारिक शरीर श्ादि रूप स॑ ग्रइश क्रिया खाना या इन्द्रियों से ग्रहस होना भ्रथांत्‌ इन्द्रियों का विप्य होना

श्री डैन सिद्धास्व बोल सप्र, प्रथम माग रह

या परस्पर एक दूसरे से मिल्ल जाना पुवृगशारितकाय का गुय है। पक ( ठाशांग ७०३४ सूत्र ४४१)

२७८--गवि पाँच -- (१) नरक गति | (२) हिय॑म्च गति | (३) मजुष्प गति (४) देव गति।

(२) पिद्व गि। 7४" नोट।--गति नाम कर्म के उदय से पहले की चार गतियाँ होती हैं छिद् गति, गति नाम फर्म फ्रे उंदेय से नहीं होती, फ्पोंकि सिद्धों के छर्मो कला सर्वथा भ्रमाव है| यहां गति शम्द का भ्रथे सह्टां लीग जाते ऐसे चेत्र पिशेष से ई। चार गतियों की स्यारू्या १३१ यें पोक्ष में दे दी गई ६। ( ठायांग रु० सूत्र घ(२ )

२७६--मोध् ग्राप्ति फरे पांच फारण--- _ (१) काल | (२) स्वमाष | (३) नियति | (४) पूवरुत कर्मचय |

(५) पुरुपकार (ठच्योग)।

गन पांच कारणों के समृदाय से मोद्त की ग्राप्त होती इन में से एक फ्े मी होने पर मोध् की प्राप्ति _ दोना प्रम्मप्र नहीं ई। ;

बिना छास्त सब्पि मोध रूप कार्य की सिद्धि नहीं होदी ६। मस्प सीव काल (मय) पाकर ही भोच प्राप्त करद हैं। इस किए मोद प्राप्ति में काल की आवश्यकता है।

ईशप

#ी सेडिया मैम मरस्यमाला

दि काल को हौ। कारण मान छिपा जाय ता अमष्य मी युक्त हो सांप | पर अमम्पों में मोच प्राति का ज्तमाव नहीं इस सिए थे मोद्र नहीं पा सबसे मब्यों के भोद प्राप्ति 'का स्व॒माव होने से ईी बे मोष पावे ह्ृ। हे

यदि कास और स्वमाद ठोनों ही कारस माने डाँव तो सब मम्प पद साथ युक्त हो धांप | परन्तु नियिति भर्याद मवितस्पता (दोनहार) का योग होने ईी समी मम्प एक साथ घ्क्त नहीं दोते | जिन्हें कांत झौर ख़मार डे गा नियति का योग प्राप्त होता | डी इृक्त दोत हैं।

ढाज्त, सवमाद भौर निपति इन तीनों का ही मोष प्राप्ति $ कारश मान छें तो भेशिक राजा मोध प्राप्त कर छंते ! परन्तु उन्होंने मोश्व के भनुरुत ठपांग कर पूर्वर्त र्मो का धय नहीं किया | इस लिए वे उक्त तीन कारणों ब्य योग प्राप्त दोने पर मौ युक्त से हो सक्ले इस शिए पुरुवार्ण ओर पूर्बकृत कर्मों का बय---य॑ दोनों मी मोद प्राप्ति के कारण माने गये !

बयल, स्वमाष, लियति और पुरुपार्भ सं डी माह प्राप्त हो जाता दो शापिमड्र पृक्त हो धाते | फन्‍्तु पूरवेझत हम कर्म भवशि्ट र्‌इ जाने से मे ्वस्त हो सके | पस लिए पूर्बरूत कर्म चय सी मीष प्राप्ति में पाँज्षों फरारश है

मरी जैम सिद्धास्त बोल संप्रद, प्रथम माग स्श्स

-मरुदेपी माता पिना पुरुषाय किये युक्त हुई हों यह बत्स नहीं है। गे मी धपछ मेणी पर आरुद दोकर शुक्र भ्यान रूप अन्तरह पुरुपार्थ करके दी सुस्त हुईं थीं।

इस प्रद्ार ठफ्त पांच कारों फे समबाप से दी सोद की प्राप्ति होदी है।

( सम्मति प्र० शु० काएड माय गा० 2३ पूछ ७१० ) ( झागम सार, कारण संदाद )

२८०--पाँच नि्योश सार्गे- मर समय में जीव निरूलने फ्ला मार्ग निर्याण भार्ग रुइसाता है निर्माण-मा्ग पांच है -- (१) दोनों पैर (२) दोनों जाजु (३) दच्यावी (४) मस्तक | (४) सर्व भजन

सो जीब दोनों पैरों से निक्तता है। बह नररूगामी होता ह। दोनों आतुझों से निरुतन बाला बीए विश गति में जाता है।

छाती निरूल्तन पाज्ता जीब मजुष्प गति में जाता ६! मम्सर से निकलने वाला जीद देवों में खाकर पैदर दोता है। जो ज्ीर समी झन्लीं सम निकलता ६। बष् मीव सिद्ध गति में जाता | जद

२८१--थघादि छ्ली स्पारुपा आए आर न) अनक स्यक्तिषों में एकता की प्रतोति कराने बाले

२६९० ! जी संठिया जैन प्रत्यमाला

समान धरम को जाति कहते है। जैसे-गोस्व (गायपता) सभी मिन्न वर्ण की गौझों में एकता का बोध कराता है| इसी प्रकार पदुंन्द्रिय, द्ौन्द्रिय याति ऐक इन्द्रिप ( सर्श इन्द्रिय ) वाले, ' दो इन्द्रिय ( स्पर्श और रखना) बापे थीवों में एकता का ह्वान कराती | इस झिए पकेनिन , दीन्द्रिप भादि प्लीद फे मेद मी बाति फइलाएे हैं। / -.. बिस कर्म के ठदय से जीव एड्रन्द्रिस, दीन्दिय आदि ढड्े घ्ाँप उस नाम कर्म क्यो डाति कहते हैं। साति फ्रे पाँच मेद:--

' (१) एडेन्द्रिय (२) डीन्द्रिप (३) ब्रौन्दित | (४ ) भतुरिन्द्रिय (४) पस्चन्द्रिय | "

१--एकन्द्रिप:-- जिन जीवों रूबसत स्पर्शन मामक एक हौ इन्द्रिप होती है। दे एकेन्द्रिप कश्साते हैं। 'बैस-परपी, पानी बगैरद |

२-'न्द्रिपा--( गे इन्द्रिय ) मिन जीबों के स्पर्शन भौर रसना दो इन्द्रियां होती हैं। दे डीन्द्रिय कइलाते | जैसे-क्तर, सीप, झलसिया बगेरइ।

३-श्ीन्द्रिप--सिन थीबों फ्रे स्पर्शन, रसना और नासिक वे तीन इस्द्रियां हों | थे श्ीन्द्रिय कदइाते हैं। जैस-भींटी, मकोड़ा बगेरए हैं

४-चतुरिन्द्रिय' - मिन छीषों स्पर्शन, रसना, नासिका ओर चघ्ठु प॑ चार इन्द्रिपां होती हैं। थे कतुरिन्द्रिय कइशाऐं हैं। जैस-मक्खी, मच्छर, मेंबरा बगेरइ

४-पस्मेेर्द्रिप' --जिन दौदों के स्पर्शन, रसना, नासिका, पह

श्री झैन सिद्धान्त बोल संप्रह, प्रथम माग श्हृः

(और श्रोत्र ये पाँदों दी इन्द्रियां हों,' थे पम्चेन्द्रिय हैं।

सैसे-मण्छ, मगर, गाय, मैंस, सर्प, पद्ी, मज॒ुष्प पगेरइ।

एड्लेन्द्रिय जीव फी उस्क्ृष्ट अवगाइना कुछ भषिक

१००० योजन ६। डीन्द्रिय फी उस्क्ृण भवगाहना घारइ

थोजन ई। भ्रीन्द्रिय फ्री उत्कृप्ट भ्रवगाइना तीन केस

६। जतुरिन्द्रिय की उत्कृष्ट अपगाइना 'चार कोस हू। पम्वेन्द्रिय की उस्कृप्ट अबगाइना १००० योघन है।

हर ( पन्‍नबण्या प३ १३ रुह्देशा सू० २६३ ) ( प्रबषन सारोद्धार द्वार १८७ साग गाया १०८३४ से ११०४)

२८२--समकित के पाँच मेदु-- ! (१) उपशम समझिति (२) सास्वाइन समकित। (३) चायोपशमिकझ समकिस (४) बेदक समफ्ित (५) चापिफ समकित | (१) उपशम समक्रित--अनन्‍्तालुष धी चार फ़पाय और दर्शन मोइनीप की ठीन प्रदृतिरया-इन सात प्रकृतियों के उपशम प्रगट ने वाला तत्त्व रुचि रूप आरम-परिशयाम उपशम समफित कइलाता £ इसकी स्थिति अन्तर्मुहर्स ६। इसका प्रन्तर पड़े तो सपन्‍्प झन्वर्मुहर् उस््र.्ट देशोन भर्द पृद्गत परामदेन काल का यह समकित जीव को पद भभ में जघन्प एफ पार उस्कृष्ट दो शार तथा झनेक मर्यों में सपन्प एक बार भौर उत्कृष्ट पाँच बार प्राप्त हो सफती है। (२) साप्वादन समफ्शि-ठपराम समक्षित से गिर कर मिथ्यात्व की ओोर भाठे हुए जीष फ्रे, मिप्यात्य में पहुँपने प्रत्त जो परिणाम रहते £। बहदी सास्वादन समस्त है। इसझी

२६०

श्री सेठिया डैन प्रश्ममाला

स्विति अपन्य एक समय, उस्कु्ट छः आपलिका दौ इांती सास्जाइन समफ्रित में अ्रनन्तामुभन्‍्धौ छऋार्पो का उद्प रहने से मीद फ्रे परिशाम निर्मल नहीं रइते। हल में दश्धों में भरुषि अ्रम्पक्त (भ्रप्रगट) रइती झौर मिम्कासत में स्पक्त (प्रगट) | यही दोनों में भन्तर सास्वादन धमकिि का झन्दर पढ़े तो श्रमनन्‍्य अन्‍्तई इर्स भौर उत्कृष्ट देशोन अदद्ध पृदुगक्ष परावर्तन फाल का बइ समक़ित भी एड भष्र में जघन्य एक बार उस्कृप्ट दो घार तथा झनेक मर्रो में जपन्प एक बार उत्कृष्ट पंच बार प्राप्त हो सझुती है

(१) चापापशमिक समफित-अनन्तातुद घी कषाय तबा उदय प्रात

मिथ्यात्व को धय करे भनुदुय प्राप्त मिस्पास्त का उपशम करत इुए पा ठस सम्पष्स्थ रूप में परिशत करते हुए तथा सम्पकत्य मोदनौय को बैदत हुए जीब के परिणाम विशेष की दापापशमिक समकित कइते ईं | द्ायोपशमिक समक्रित की स्थिति जपन्प भन्सप इृश भौर उस्कश ६६ सागरोपम मे छुध् भपिदझ ई। इसखझा अन्तर पढ़ तो अपन्य भ्न्‍्त- पंप का टस्कष्ट देशोन भर्द पृदुगत् परावर्तन ढात्त का | पह समक्रित एक मद में थमन्‍्प एक बार उस्टृ्ट प्रस्पेके हजार बार आर अनेक मर्दों में अपन्प दो बार उष्फृए भमंस्प्यात बार होती £।

(४) पदक समकित -धायापशमिक सम किस दाला औप सम्पक्स

माहनीप # पुण्ज ढा अ्रप्रिस्सश घय करक् जब सम्पदरव मोइनौय रे भाषिरी पूद॒गलों ब्ये पदता ६। उत्त समय इतने

मी मैम सिद्धास्त बोल संपरडड, प्रथम सांग ण्इ३

बाले आस्म परिणाम को बेदक समकित कहते हैं। दूसरे शस्दों में यह फ़द्ा खा सदता है कि चायिफ समक्षिस होने से टीफ भम्यवद्ित पशले चण में होने वाले चायोपशमिर समफितघारी जीव फ्रे परिशाम को मेदक समक्रित कहते हैं| बेदक समकित की स्थिति वपन्प भौर उत्झुएं एक समय की है। एक समय फे पाद पेइक समकित धायिक समक्ित में परिखत हो जाता है! इसका भन्तर नहीं पड़ता, क्योकि पेदक समकित के बाद निमप पूर्जक घायिफ समकित होता ही | बेदक समकित जीव की एक बार शी आता ई।

(५) क्ञायिक समकित---भनन्तालुबन्धी भार कंपाय भौर दशन मोइनीय की तीन-इन सात प्रदूतियों फ़ घय सं होन बाला आत्मा का तत्तरुषि रूप परियाम चायिक सम्षित कइलाता €। चायिक समक्तित सादि अनन्त ६! इसका अन्तर नहीं पड़ता | यह समकरित शोव को एक ही भार भाता भौर भान॑ के बाद सदा बना एता

( करे प्रस्थ भाग है गाया १५) २८३--समझ्ित के पाँच लदणश!ः-- (१) शम। (२) संवेद (३) निर्बेद (४) भलुकम्पा | (५) भास्तिफ्य

(१) शम--भनम्तानुध घी रकपाय का उदय ने होना शम इडलाता ई। कप्प रू अमाद में होन बाला शान्ति-माद मी शम कहा खाता है

र्ष४ श्री सेठिया रैम प्रम्यमाक्षा

(२) संदेग--मनुष्प एवं देवता के सुखों का परिहार ( विक्तों पे निशत्ति) करके मो सुरों की पका करना संबेस ह। अगथवा!-- | के |

बिरति परिणाम के कारश रूप मोद् कौ अमिलातरा कम झेष्यदसाय संरेग है। ._... (३) निर्वेद->संसार से उदासीनता रूप बैराग्य भाव का दोना निर्वेद कइशक्ताता है (४) भल्ुुफृम्पा---निष्पद्पात ोकर दुःलौ जीबों के इ'कों ग्रे मिटाने की इच्छा भलुरुम्पा है। पह भ्रनुकृम्षा द्ृस्प भौर माद से दो प्रफाराकी - हा 7 शक्ति होने पर दु ली शीद्ों गु'ल' दर कशना ट्रस्त अलुरूम्पा ई। दु ली लीवों के दुःख देख कर दयो से हर॒प का कोमल हो छाना भाव अनुछम्पा है | (४) झास्तिक्प--जिनेन्द्र मगबान्‌ के फरमायं हुए अंतौन्त्रिष घर्मास्तिकाय, झारमा, परशोद झादि पर भरद्धों रखना भास्तिष्प है।

( घममं संपइ अषिड्वार स्क्षोक २२.प०४१) २८४--समकित के पांच सूपशः--- + (१) जिन-शासन में निपृस होना) »5+ 7 (२) शिन-शासन की प्रमादना छरना पानि सिने-शासन के यु्ों करे दिपाना| बिन-शासन की मइत्ता प्रसत हो एंव क्प्पं करना (३) भार दोर्य दौ सेब करना। ; )

भी जैन सिद्धारत बोल संग्रइ, प्रभम माग श्द्श्‌

(४) शिपित्त पुरुषों को उप्देशादि द्वारा घर्म में स्थिर करना | (५) भ्रिहन्व, साधु तथा गुसवान पुरुषों का झ्ादर, सत्कार करना भौर ठनकी विनय मक्ति छरना ( घस संग्रह अधि० स्कोक २२ टी० प्रू० ४३ ) ८१--समफिस के पांच अतिभार)-- (१) शह्टा। (२) फांदा (३) विशिकिस्सा (४) पर पापदी प्रशसा | (५) पर पापदी (स्तव ( १) गह्।--बघुद्धि के मन्द होने से 'मरिदन्त सगदान्‌ से निरू पित धर्मास्तिफाय आदि गइन पदार्थों की सम्पफ घारदा ने पर उन में सन्देद करना शह्षा है। “२) काँचाः--भौद भादि दर्शनों की 'चाइ करना कांचा है। (३) विधिकिस्सा;:--थुक्षित ठपा भागम संगत फ़रिया बिपय में फल कर प्रति संदेश करना विभििस्सा ई। जेसे-नौरस सप आदि क्रिया फा मजिष्प में फ्त शोगा या नहीं ! शह्टा-तप््य के प्रिपय में होती भौर बिचपिस्ित्सा क्रिया के फक्ष के विषय में शोती है। पह्दी दोनों में अन्तर ६। (४) पर पापी प्रशंसा -सर्बक्ष प्रणीद सस के सिद्याप अन्य मठ वालों दी प्रशंसा छना, पर पापंदी प्रशंसा ६। (५) पर पापदी संस्तब!--सर्बच् प्रदीत मद फ्े सिवाय भरन्‍्प मत बाहों रू साथ सवास, मोजन, भात्ताप, संश्ताप भादि रूप

श६६ श्री सेठिया धैन प्रस्थमाशा

परिचय करना पर पार्षंडी सस्‍्तद कइखाता है। ( ढपासक दशांग सृज अप्बयस सुत्र ) ( इरिसिश्रीर आवश्यक हझम० प्ू० ८१९ ) २८६--हुर्शम दोषि के पांच कारश।--- | पांच स्थानों से श्रीग दुर्लम बोषि योग्प मोहनौप , कर्म बाँपता है ! (१) झ्ररिहन्त मगवानु का प्रवर्शवाद बोलने से ! (२) भरिइन्त मगवान्‌ द्वारा प्ररूपित भुत चारित्र रूप पर्म क्र अबशंवाद बोसने से | (३) झाचार्य्य उपाष्याय का भव॒र्शबाद बोलने से | (४) चतुर्षिष्त भौ संघ का झपर्शबाद बोलने से ! (५) मबान्तर में उत्झू्ठ तप भौर जक्नचर्य का अरमुध्तान किन हुए देवों का भवर्शबाद बोलने से ठायांण रु० शसूत्र ४२६) २८७--मुराम बोधि के पांच बोल -- (१) भरिएन्त मगबान्‌ के सुझप्राम करने सं | (२) भरिइन्त मगवान्‌ से प्ररूपित भुत चारित्र परम क्य गुबात- वाद करने से | (३) भाषार्य्प उपाष्याय के गुणामुवाद करने से (४) भुर्षिषर श्री संप की रसापा एवं बर्यबाद (गुलानुपार) करने से | (५) मबान्तर में उस्झृष्ट हप भौर प्रसचरय का संबन किये हुए देषों प्रा बर्सदाद, रसापा करने से जीव धुज़्म बोषि के अनुरूप कर्म बांधते ६! ( टाझांग प० सूत्र ४२६ )

भ्री सैत सिद्धास्द बोज सप्रझ प्रथम माग श्द्फ

२८८--मिथ्यास्त्र पाँच।-- मिथ्पात्व मोइनीय के ठद॒य से विपरीत अरद्धान रूप जीद के परिशाम फ्लो मिश्यात्व कहते हैं। , भिष्यास्व छे पाँच मेद'-- | (१) भामिग्रहिक (२) भनामिग्रशिफ | (३) भझामिनिषेशिक् ।. (४) सांशविक | (५) भनामोगिक |

(१) भामिग्रद्िक मिध्यात्ः--सश्व की परीक्षा फिपे बिना ही पद्दपात पूर्षक एक सिद्धान्त का भाग्रद करना और अन्प पद का सण्दन फ़रना भाभिग्रह्ठिफ मिप्पात्व £।

(२) पनामिप्रदिक मिध्यात्/--ग्रुण दोप की परीचा किये बिना ही स्वर पक्षों फ्रो बराबर समझना अनामिग्रहिक मिष्पात्प है

(३) आभिनिषेशिक मिध्यात्व/--अपने पथ क्यो असस्प मानते हुए मी उसकी स्थापना के लिए दुरमिनिवेश (दृशाग्रह-इट) झरना झामिनिषेशिक सिश्यात्व |

(४) सोशपिफ मिध्यास्बा/--दस स्वरूप बाला देप होगा या अन्य स्परूप का! इसौ तरद गुरु भार धर्म के दिपय में संदेद शीक्त पने रदना सांशपिझ मिथ्यात्त |

(५) भनामोगिक मिथ्यास्व--विचार घन्य एकन्द्रियादि दया विशेष प्ञान विफल छीपों को लो मरिथ्यात्व होता है| बह भवनामागिक मिप्यात्व रू नादा है।

( घमसंप्रद भपिकार शकोक रे० थी० पृ० ३६ ) (कमर प्रस्थ भांग गाण०्२१)

श्द८

श्री सड़िदा जैस प्रस्थमात्ा

२८४--पाँच झ्ाभव)---

जिन से आप्मा में आठ प्रक्मर के कर्मो का अगश होता है। बह आमप है! अधवा[!---- जीब रूपी ताछ्ताव में कर्म रूपी वानी का झाना भ्राभग है | अपवाः-- घैसे-यक में रही हुई नौका (नाव) में छिल्रों हारा स्स प्रपेश होता है इसौ प्र्यर सरीचों झीी पाँच इन्हरिक, विष्ष, फपायादि रूप छिठ्ों द्वारा कर्म रूपी पानी का प्रबेश होता है। नाथ में छ्िद्ों द्वारा पानी का प्रवेश इोना दस्प झाजर शैजौर जऔीष में गिपय कृपायादि से कर्मों का प्रदेश होरा माजाभव फ्र्मा जाता है।

आम्रव क्े पाँच सेद।-- (१) मिध्यास्व | (२) झबिरति। (३) प्रमाद | (३) कपाय | (४) (योग)

(१) मिध्यास्थ'--मोहबश र्षचार्थ में प्रद्धा होना पा विपरीत

अड्भा होना सिध्यास्व कद लाता है।

(२) प्रभिरतिः--आरशातिपात झादि पाप से निएच दोनों

अबदिरति है।

(३) प्रमाइ/--धयम ठपयोग के अमाद को पा श्युम कार्य में पढ,

उप्रम करने छो प्रमाद कहते हैं।

भी जेस सिद्धान्त बोल संप्रद, प्रथम माग २६६

अथवा-- सिससे सीब सम्पस्थान, सम्परदशन और सम्यग्चारित्र रूप मोच मार्ग के अ्रति उप्तम करने में शिविलता करता है | पइ प्रमाद है (४) फ्रमाय)--ल्ो हद्ध स्वरूप वाक्ती झास्मा को फछुपित करते हैं। झर्पात्‌ कमे मल से मलीन फरते £। वे कपाय हैं। अथवा-- कूप भर्थात्‌ फर्म या ससार की प्राप्ति या इद्धि बिस से हो, वह कपाय है। अयवा --- फ्रपाय मोइनीय कर्म के उदय से दोने वाज्ञा खीव का फ्रोष, मान, माया, छोम रूप परिणाम क्रपाय कहलाता है। (४) # योग/--सन, बचन, छाया फ्री शुमाद्युम प्रदृत्ति को योग कहते हैं। ओजेन्द्रिय, चद्चुरिन्द्रिय, भाणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिप, स्पर्श नेन्द्रिय--हन पांच इन्द्रियों को बश में रस कर शम्द, रूप, शन्ध, रस झौर स्पर्श विषयों में इन्हें स्वतन्त्र रखने पे मी पांच भाभव होते है। प्रायातिपात, सपावाद, अदक्तादान, मैथुन भौर

परिप्रद-पे पाँच मी भाभष हैं ( ठाणांग श्सृत्र ' पड इए८ ) झसमचापांग २६०--दुपद्ध की स्पारूपा भौर मेदा--

# स्पषद्यार में हम योग को संबर शी माना है। (उल् ल्प्ण)

श्छ० घेठित्रा जेगस प्रत्थमाक्षा

जिससे भात्मा श्र झ्न्प प्राखी दंदित हो अजांत्‌ उनकी टंसा हो इस प्रकार की मन, बच्नन, छापा की

कुछुपित प्रद्नचि फ्रो दण्ड कइते ईं-- दण्ड के पांच मेद-- (१) भर्प इए्ड | (२) अनर्थ इफ्ड (३) एिपा इएड 7 (४) घकम्माइफ्ड | ' 7 (५) रष्टि दिपर्यात दण्ड | (१) अर्थ इए्ड--स्त्र, पर या ठमय के प्रयोजन के शिये श्र स्पाधर ठीबों की हिंसा करना अर्थ दण्ड !

(२) पनर्य दुपइ--अनर्थ भर्थात्‌ बिना प्रयोजन के श्रस स्थागर थीबों फ्री हिंसा करना अनर्थ दपड है|

(३) हिँा रण्ड--इन प्राशियों ने मूतकाश में हिंसा की | गर्तमान काल में हिंसा करते हैं झौर मविष्प काश में भी. करेंगे, पद सोच कर सर्प, विष्छू, शेर आदे सरौसे ठ्मा हिंसक प्राक्षियों कया भीर बेरी का बप करना हिंसा दण्ड ६।

(४) भकत्माइप्ड--एक प्रायी के यघ के लिए प्रहार करने पर दसरे प्रासी का भ्रकस्मात्‌ू-प्रिना शरादे के बंपर हो जाना अकस्मादयड है!

(५) दृष्टि गिपर्पास दुपइ--मित्र को बैरी समझ कर टसज््य बध कर देना दृष्टि विपर्यास इण्ड है।

(ठायांग शड 2 सत्र ४९८) श६१--प्रमाद पांच)-- (१) मप (२) विषय |

भरी जैन सिद्धाश्श पोद संप्रइ, प्रथम साग श्जा्‌

(३) कूपाप | (४) निद्रा (५) पिछपा मर्ज्य पिसय कसाया, निदा बिगह्ा पस्चमी मशिया। ए. ए. पशुच पमाया, खीव॑ पाडेन्ति संसारे | १॥ मादाघेंः--मध, विषय, कपाय, निद्रा और विकधा ये पांच प्रमाद घी छो संसार में गिराते हैं

(१) मंप --शराब झादि नशीसे पदार्थों का सेबन करना मय प्रमाद है | इससे शुम परिशाम नष्ट होते हैं भौर भशुम परिझाम पैदा होते हैं शराब में भ्रौर्दों की रस्पत्ति होने से णोव हिंसा का भी मशपाप छंग्ता है। छ्ंज्घा, लक्षमी, बुद्धि, विगेक्त आदि फा नाश तथा ल्रीब दिसा भादि मधपान के दोए ग्रत्यद ही दिखाएं देते हैं तथा परलोक में यह प्रमाद दुर्गंति में ले घाने बासा है। एफ प्रन्पकार ने मपपान के दोद निम्न शप्तोफ में बताये ई--- बैरूप्य स्पाधिपिएडः स्शथनपरिमषः बा्मंकछातिपातों विद्वेपो क्ञाननाश' स्थृतिमतिददररण ब्रिप्रयोगप सक्षि।॥ पारुप॑ नीचसेदर इतठबलबिलपो घर्मकामाथेदानिः। क्र दे पोदशेते निरुयचयकरा मधपानत्प दोपा।॥ साबाः--मप्रपान से शरीर हुकूप और बेदौस हो जाता है। स्पाधियाँ शरौर में पर ऋर लंती ैं | घर के लोग रिरघ्कार करते हैं। क्यये का उचित समय हाथ से निकल घाता ईै। दवप उत्पभ होता है ज्ञान का नाश होता है |

स्मृति भौर बुद्धि का नाश दो खाता है | सब्जनों से रुदा।

श्ज्रे

जी संठिया लेन प्रस्थमादा

(२)

होती बाशी में झठोएदा भा जाती |नीचों की सेवा

करनी पढ़ती टै। इस की इीनता होती भौर शक्ति का दास हो याता हे | घर्म, फरार एवं भर्य करी हानि दोती है इस प्रकार झात्मा को गिराने बात्ते मप पान के सोलइ क्ूप्ट दायर दोप ई। ( इरिमद्रीमाहक अश्टक १६ मा रस्तोक ! टौका )

विपय प्रमाइ---पाँच १नद्रियों के विषय-शप्द, रूप, गन्ब, एस झौर स्पर्श-अनित प्रमाद बिपय प्रमाद है|

शम्द, रूप भाद में श्रासक्त प्राली विषाद को प्रात दोते हैं। इस किए शम्दादि विपय कड्े छाते है)

अधपबा।--

शप्द, रूप भाद्दि मोग के समय भघुर दोने से ता परिशाम में अति कदुछ ोने सं विप से उपसा दिये मते इस छिपे पे दिपय कहलाते £।

इस विपय प्रमाद से स्पाइस चित्तवाता घीष दिताशित ऐ्ले विवेक से शूत्प हो याता इस छिय॑ झ्रस्प का पेइन करता इुच्मा बश चिर काल तकझू दुःख रूपी अटबौ में ग्रमश करता रहता है

शब्द में भासक्त शिरक्ष स्पाए का शिक्यर बनता है। कप समाहित पतगिया दीप में बल मरता ह। गन्ध में गृद्ध मँबरा झर्यास्‍्त के समय कमस में दी बन्द दोकर नए हो जाता ई। एस में अनुरक्त इई मक्सी कारे में फँंप फर सस्‍्यु का शिकार बनती ६। स्परा सुख में श्याप्तस्त हाथी

कि

भरी जैन सिद्धान्त बोक संप्रइ, प्रभभ साग २७३

स्वतन्त्रता सुख से पम्चित शोकर पघन छ्रोग्राप्त होता है। इस प्रकार अजितेन्द्रिय, पिपय प्रमाद में प्रमच, जीवों फे झनेझ अपाय होते | एक एक विषय फे वशीशृद होफर जीब उपरोक्त रीठि से विनाश छो पाते | तो फिर पांचों इन्द्रियों क्र विपय में प्रमादी बौदवों के दु सों फ्रा तो कइना ही क्या

विपयासक्त ख्ीव धिपय का ठपमोग करके मी कमी ठत्त नहीं होता | विपय मोग से विपयेच्छा शान्त होकर उसी प्रकार बढ़ती है | खैसे-भग्नि थी से विपयासक्त जब के ऐदिफ दु पह् प्रत्यच दिखाई देते £ भौर परत्तोर में नरफ़ तिर्॑स्न्ख योनि में मद्दा दु मोगने पड़ते हैं। इस ,शिंए पिपय अमाद से निद्वत होने में दी भय ६। (३) क्रपाय प्रमाद --फक्रोष, मान, माया, सोम रूप कपाय का सेवन करना फपाय प्रमाद है।

क्रोधादि का स्वरूप इस प्रकार है।--

क्राध--फोघ श्युम परिशामों का नाण ऋूपता | गए सर प्रथम अपने स्वामी को सलातठा भार बाद में दूसरों को | फ्रोर से पिभेक दूर मागता ईं भीर उसका साथी अषिवेक भाकर जीब को अफार्य में प्रदूच करता है क्रोप, सदाचार क्रो गूर फरता है भौर मनुष्य क्रो द्राचार में प्रहत्त होने फे लिपे प्रेरित फरता ई। क्रोध बइ भम्नि है, जो सिर काक्ष से भम्पस्त पम, नियम, तप झादि को चस मर में मस्म कर देती है। कोघ के दश होकर ह्वीपापन ऋषि ने स्वर्ग सरीक्षी सुन्दर द्वारिफा नगरी को सता कर मस्म कर

श्री घंठिया बेन प्रस्थमावा

(२)

होती है। वाझी में कठोरता जाती है | नीचों की सेवा करनी पड़ती १ै। इस को दीनता होती है भौर शक्ति का हस हो जाता ! घर्म, काम एवं अर्थ की हानि होती है इस प्रकार झ्रास्मा को मिराने बाल्ते मध पान के घोर कृप्ट दायक दोप हैं।

( इरिमद्रीमाप्टक अप्टक १६४ थां रल्ोद ठीका ) दिपय प्रमाइ---पाँच इन्द्रियों के विपप-शप्द, रूप, गन्‍्ष, रस झौर स्पर्श-मनित प्रमाद बिपय प्रमाद है!

शम्द, रूप भादि में भासक्त प्राश्वी विपाद को प्राप्त होते हैं। इस शिए शम्दादि विपप कहे घाते हैं अथबाः-... शघ्द, रूप झ्ादि भोग के समय मघुर दोने से हभा परिक्षाम में झ्ति कदुक होने से विप से उपमा दिये बाते है। इस सिय ये दिषय कदताते हैं।

इस दिपय प्रमाइ से स्पाइस सिचबाप्ता ध्वीव शिवाहित के दिषेक से शूत्प हो प्राता ६! इस सिंपे क्‍झ्रहत्प का सेन करता हम बद चिर काल तक दुःख रूपी अटवी में अमण करता रइता है | -

शब्द में भ्रासरू शिश्ष स्‍्याप का शिक्र बनता है। हझूप मांशित पतंगियां दीप में अछ सरता है| गन्‍्ण में पृद्ध मेंबरा सर्पास्त के समय ढुमछ में ही बन्द होकर मए हो जाता | एस में अनुरक्त हुई मध्सी ढांटे में फंस फर मृस्पु का शिक्षार दनती स्परा सुस्त में भासक्त शमी

भी सैन सिद्धास्थ बोदा संग्रद, प्रथम भाग रण

स्वतन्त्रता सुख घथ्चित होछूर बघन फो प्राप्त शोता है। इस प्रकार अजितेन्द्रिय, विषय प्रमाद में प्रमच, जीवों फ् अनेक अभ्रपाप होते हैं | एक एक विपय करे वशीमृत होकर जीढ उप्रीक्त रीति से बिनाश फो पाते | शो फिर पांचों इन्द्रियों के विपय में प्रमादी लीतों के दुःखों फा तो कहना ही कया *

विपयासक्त लीव धिपय फा ठपमोग करके मी कमी दृप्त नहीं होता | विपय भोग से विपम्रेघ्छा शान्त होकर उसी प्रफार पढ़ती है। जैसे-मम्नि घी से विपयासक्त मीष के ऐहिक दुःख पह्टाँ प्रत्पच दिखाई देते £ भौर परततोफ में नरफ़ तिर्यम्च योनि में महा दुःख मोगने पढ़ते हैं। शस ,चिए विपय प्रमाद से निइृत् होने में ही श्रेय (३) क्पाय प्रमाद --क्रोध, सान, माया, शोम रुप फ्रपाय क्षा सेघन फरना क्पाय प्रमाद है

फ्रोघादि फ़ा स्वरूप इस प्रकार हैः--

क्ोप---छोघ श्वुम परिशामों छा नाश करता | वह सर्ध प्रशम भपने स्वामी को यस्पता भोर बढ़ में शूसरों फो।फ्रोष से विवेक दर मागता भोर उसका साशी भविषेक भाषर जीप को अकाय॑ में प्रवृत करता है | छोघ, सदावार हो हर करता भीर भजुष्य उराचार में प्रवृत्त होने ऐ्े लिये प्रेरित करता ई। छोए वह अग्नि है यो फिर का ते भम्पस्त यम, नियम, हप प्रादि झा दस भर में भस्प कर देती | कंघ हे बश दोढर इीपायन ऋषिने

स्वर्ग सरीक्षी सुन्दर दारिका नगरी छो बला फर भस्म कर

श्र शी सेठिया देन प्रस्थमाश्ा

दिया दोनों लोक बिगाड़ने वाला, फपमय, स्व-्फ का अपकार करने वाज्षा यह क्रोष प्रारियों का वास्तद में मद्दान्‌ शत्रु है। इस क्रोघ को शान्त फरने का एक उपाग, क्षमा है

मान।--इन्त, धाति, बत्च, रूप, तप, विदा, ज्ञाम भर ऐश्बर्प्प का सान करना नीच गोत्र के बन्य का कारश ै। मान विवेक को मगा देता है और झात्मा को शी, सदाचार पै गिरा देता ईं। वह विनय का नाश कर देता हे भौर विनय फे साथ ब्लान का मी फिर झारचर्य तो यह है ड़ि मान से सीब ऊँगा बनना चाहता है पर कार्य नीचे होने का फ़रता है। इस लिए उप्नति के इच्छुक झ्रात्मा क्रो विनय का झ्ाश्नय क्तेना चाहिये श्रौर मान फा परिहार करना चाहिये

भाया।--भाया झ्त्रिधा की जननौ भीर भक्रोर्ति का भर है। माया पूर्षक सेबित तप संयमादि धलुप्ठान नकमनी सिक्के की सरहद झसार भौर स्वप्न पा इन्द्रजास छीौ माया के समान निप्फ्त है। साया शल्प है पह आत्मा को प्रतघारी नहीं बनने देती, करपोंकि जती निःशस्प दोता ६। साया इस लोढ़ में तो झ्रपयश देती भार परलोफ में दुर्गति | प्यगुवा भधांत्‌ सरसता घारण फ़रने से माया कपाय नए द्वो जासी ६। इस लिये माया का स्पाग कर घरकता छा भपनाना चाहिये

श्री सैन सिद्धास्त बोल संप्रह, प्रथम माग २३२

गम कपाय/--छक्षोम कृपाय छप पापों का भाभय है | इसके पोषण के सिए सीव साया का मी झार्रय छेता है। समी जीघों में सीने की इच्छा प्रपर्त होती है भोर सृत्यु से दरते हैं। किन्तु क्ोम इसके विपरीत सीधों फ्ो ऐसे कार्यों में प्रवत्त ऋरता है। सिन में सदा झृत्यु फा खतरा बना रहता है। यदि छलीव वहीं सर गया तो क्षोम छे परिणाम स्थरूप ठसे दुर्गति में दुःख मोगने पड़ते हैं। ऐसी भवस्या में उसका यहाँ का साए परिभ्रम स्पये हो घात है। यदि उससे लाभ मी दो गया तो ठसफ़े मागी भौर ही होते हैं। अधिक क्‍या कह ख्राय, सोमी भात्मा को स्वामी, गुरु, माई, इद्ध, स्त्री, प्राश्क, दीस, दुषत, अनाथ भादि की इत्या फरने में मी दिघकिचाइट नहीं होती सद्षेप में यों कई सकते हैं, कि शास्प्रकारों ने नरक गति छ्ले कारस रूप जो दोप बताये हैं। से समी दोप छ्तोम से प्रगट शोते हैं। छ्ोम क्री भौपधि सनन्‍्तोष ई। इस लिए इल्छा का संयमन कर सतोप फो धारस करना चाहिए

(४) निद्रा अमादः-जिस में चेतना भस्पष्ट माव को प्राप्त रो, ऐसी सोने की किया निद्रा ६। भषिकत निद्राज्ञु वीष ज्ञान का उपा्न फर सकता और घन का ही | क्ञान और घन दोनों के ने से घद्द दोनों शोछू में दु'ख का मागी दोवा ह। निद्वा में संपम रखने से यह प्रमाद्ध सदा बढ़ता रदता ई। मिससे अन्य कर्सम्य फार्यो में ब्राघा पड़ती ई। कहा भी है।--

२5६ श्री सठिया औम प्रस्थमादा

पद्ध न्‍्त पश्च झीन्‍्तय ! संस्पमानानि निस्यशः ! आलम्प मैपूर्न निद्रा चुभा फ्रापम पम्चम ॥१॥

है अन्न ! झानस्य, मैयून, निद्रा, दुधा भौर कांप पांचों प्रमाद सेबनन किये जान से सदा बढ़ने रहते हैं। इस लिए निद्रा प्रमाद का स्पाग फ़रना घरादिएं। समप पर स्पास्प्य क्षिए झावश्यर्ध निद्रा के सिप्याय भभिर निद्रा सनी भाहिये भौर भममप में मं साना चएिपे। (५) पिमथा प्रमाद --प्रमादी माप राग देप बस दोऋर या इसने फशता वह विकया ६। स्थी भादि के विषय डी कपा फरना मी दरिफ्पा (| नोट --प्रिझया का दिएप गणन ?४८ धें पाल में दिपा गया ६। €( ठाणांग १७ $ धृप्र १०२ ) ( पर्म संप्रद अधिकार रलोक $ही० प्रए ८! ) ( पथ्षाशह प्रपम गांधा २३ ) २६२--रिपा फ्री घ्यास्यां भार उसझे मद -- इम-पपर ही कारय पश हो ड्िया फदने मभपाता--- दरष्ट ध्यापार दिशप बाग झिया फदत हैं पपवा+ कम दप हू क्यरण रूप कापिष्टी भादि पंप पषि ढरझ पष्थीस डियाएं हैं। बे जैनागम में दिया शाप्द से घरीगद।

भरी जैन सिद्धान्त बोद्ध संप्रद, प्रथम माग ज्फ्ऊ

फ्रिया के पाँच मेद-- (१) कायिकी ! (२) आपिफ्रणिकी | (३) प्राहेपिकी (४) पारितापनिष्ी (५) प्राय्ाततिपातिकी क्रिया |

(१) छापिझी--काया से होने वाक्ती क्रिया फायिक्ी क्रिया कइलाती ई।|

(२) झ्ाधिकरणिक्री--विस भनुष्ठान विशेष भगवा घाष्त सड्ादि शस्त से ग्राम नरक गयि फा अधिकारी होता है। वह अणिकरण कइलाता है। उस भषिझगण से होने बाछ्ती फ्रिया आषिकरणिफी फइलाती ई।

(३) प्रारपिकी--फर्म पन्ध के फारण रूप जीव फे मस्सर माद अर्थात्‌ शपा रूप भ्रकुशल परिणाम फ़ो प्र्ठेप फइसे ईं। प्रदेप से होने पए्सी क्रिया प्राद्ेपिकी कइलाती ॥ै।

(४) पारितापनिकीः-- ठाड़नादि से दुःख देना भर्पात्‌ पीड़ा पहुँचना परिताप है| इससे ने वात़ी क्रिया पारिताप- निश्ी फाजाती है।

(५) प्राणाविषतिकी क्रिया --इन्द्रिय भाएदि प्राण ई। उनके अ्रतिपात॒भ्र्थात्‌॒ विनाश से छ्गने वाक्ती क्रिया प्राशातिपाविछी क्रिया

( टठार्णाग २? छ० सूत्र ६० ) ( ठा्शांय ३० + सूत्र ३११६ ) ( परग्मश्णसा पद 5२ सू० २ड॥ )

२६३--फ्रिया पाँष -- (१) भारम्मिष्ठी (२) पारिप्रहिष्ठी

श्श्८ की सेटिया ठील प्रश्ममाक्षा

(३) माया प्रत्यया (४) अ्प्रस्पात्यानिक्ी (३) मिथ्यादरशेन प्रत्यया |

(१) आरम्मिस्ये---छ! छाया रूपए जीब तथा अजीब ( ध्रीतर रहित शरीर, आरे बगैरद फ्रे बनाये हुए जीव की भाइति कै पदार्थ या पस्वादि) के झारम्म भर्यात्‌ सा से शमते बाकी फ्रिपा झ्राश्म्भिकी फ्रिपा कइछासी ६।

(२) पारिप्रहिक्यी-मूर्च्डा भर्पाद्‌ ममता को परित्रद कदते हैं! जीग भौर झजीब में मूप्छु/-ममत्व भाव से शगने बाशी फ्रिया पारिप्रहिकी है।

(8) माया प्रत्यपा--छझक् कंपठ को माया कइते ं। माया दारा इसरों को ठसने के स्यापार से खगने पाती किया मागा- प्रत्पपा है। जैसे-अपने भद्यम माव छिपा कर शुम माद प्रग्ट करना, झूठे सेख लिखना भादि

(४) भप्रस्याश्पानिकी क्षिपा--अप्रस्यास्पान अर्थात्‌ बोड़ा पता मी बिरति परिलाम शोने रुप क्रिया भग्रस्यास््यानिद्ी फ्रिपा है|

अगषा।-- !

पजत पे सो कर्म धन्य होता है वह अप्रस्पाश्यान किया है (४) मिध्याइशेनग्रस्पया--मिथ्यादरशन अर्थात्‌ तत्तत में अ्रभड़ान था विपरीद भड़ान से छगने बाल्ली क्रिपा मिध्यादर्शन प्रस्पपा किया है। ( ठाझ्यांग ? सूचर ६०) (ठाणांग 2 #० सूत्र ४१६ ) ( पम्नत्रसा पद २२ घू* २८४)

शी सैम सिद्धान्त चोक संपद, प्रथम माग 9३

२६४--फ्रिया थे पांच प्रकारः--

(१) घष्टिजा ( दिट्विया)। (२) धष्टिवा या स्पर्शना ( पृषट्टिपा )। (३) प्रातीत्पिकी ( पादुच्चिया )। (३) सामन्तोपनिपातिझी ( सामन्तोश्खिया )। (५) स्वाहम्तिफ्री ( साइत्यिया )। (१) रष्टिया ( दिद्विपा )--भश्यादि जीप भौर सिप्रफर्म भादि प्रजीद पदार्थों फो देखने के लिए गमन रूप फ्रिया दृष्टिजा ( दिट्टिपा ) फ्रिया दर्शन, पा देसी हुई वस्तु के निमिश से लगने वाली फ्रिया मी रश्टिजा फ्रिया ६।

अयपा'-- दर्शन से जो फम उदय में भाता | वद दृष्टिजा फ्रिया है।

(२) एृष्टिजा या स्पश्जा ( पृष्टिपा )--राग प्रेप फेबश दो कर जीब या झवीय प्िपप प्रश्न से था उनपर स्पर्श से हतगन॑ पाती फ्रिपा पृष्टिया या स्पर्शवा फ्रिया

(३) प्रतीन्पिडी (पाुस्षिषा)--दीप भौर भवीय रूप पाप बस्तु फू भाषय से या राग ट्वेष की उस्पि दोवी | तम्बनित झर्म पन्‍्प छा प्रादीरियश्य (पादन्चिया) क्रिपा ऋएते है

/४) सामन्तोरनिपातिफी (सामस्तोगणिपा)-घाएँ सरफ से घारर इचटड इए सांग ज्यों ज्यों दिमी प्राथी, पाड़, गोघ (मांट) झादि प्रायिएों दी भार भडीर-रए भारि ही प्रण्मा गुन

शप० भ्री सठिय्या मैन प्रस्भमाला

फर इर्पित दोवे इपिंत धांदे हुए उन पुरुयों को इस कर अरबादि से स्वामी को या क्रिया शगती ६। बह सामनन्‍्तोप निपातिक्ी फ्रिया है। ( दइरि आवश्यक अप्ज फ़रियापिकार पृ०११२) (५) स्थाइस्तिफी--अपन इप में प्रदा किये हुए सीब या ध्जीष ( सरीष की प्रतिकृति ) को मारने से भ्रथद्रा ताड़न करने पे छूगने बाली क्रिया स्माइस्दिक्ी ( साइत्थिया ) क्रिया है। (ठा्यांग सृत्र ३० ) (ठासांग » १० सूत्र ४१६) २६४--क्रिया पांच भेद -- (१) नंसृष्लिफी ( नसस्थिया )। (२) झाव्ापनिकफा पा आनायनी ( झ्ाशबणिया ) | (३) बैदारियी (बेयारसिया )। (३) भ्रनामोग प्रत्यपा (भणामोग इचिया) (५) भनबरुांधा प्रत्पपा (भसवक्ेख बत्तिया) | (१) नैयप्टि्लौ (नंसर्िबिया)--शप्ता श्रादि दी झाज्ा स॑ यंत्र ( फण्बारे झादि ) द्वारा जल छोड़ने से भगवा घनुप से बाश फेऋन होने बाल्ती किया नेसृष्टिकी किया है। अबषबपा)--- गुरु भादि को शिष्य या पृत्र देने से अथवा निर्दोष भार पानी प्रादि देने से खगने बाली ड्रिया नंसृष्टिकी किया ६। (२) भाज्ञापनिक्य था झ्ानायनौ (आशबण्िया)--जीब अबषा अ्रयीब को प्राज्ा देने से अगजा दूसरे के ढारा मंगाने से शगन बाली किपा झ्राश्ापनिका पा झानायनी किय्र है।

श्री दैस सिद्धास्त बोल संप्रह, प्रथण माग श्पौँ

(३) वैदारिणी (बेपारसिया)--जीव भवया भप्ीव को विदारख करने से खगने पाली क्रिया दैदारियी फ्रिया ६। अथबा)-- सरीब भजीष फ्े स्यपद्दार में व्यापारियों क्री मापा में गा माद में भ्रसमानसा होने पर दुमापिया या दल जो सौदा करा देता उससे छगने वाली क्रिया भी विया रसिया क्रिया अथपा --- लोगों को ठगन फ्रे लिए फ़ोइ पुरुष किसी ख्रीव प्मथांत्‌ पुरुष भादि की पा भजीय रथ भादि छी प्रशसा फरता ई। इस बम्धना ( ठगाई ) सगन वाक्ती क्रिया मी वियार णिया क्रिया ६। अनाभोग प्रस्यप--भजुपयोग स॑ बस्प्रादि को ग्रदय करने तथा प्रधन भादि को पू जने से खगने पाली फ्रिया भनाभोग प्रत्यया क्रिया ई। भनवरांचा प्रत्यपा--स्प-पर रू शरीर फी भ्रपेधा करते हुए स्व-पर को इानि प्ुचान॑ से ज़गन बाली क्रिया भनवफांधा प्रत्पपा क्रिया इ। भथवा'-- इस लोक भोर परत्ताक़ की परवाह फरत हुए दानों क्ाझ बिरोपी हिंसा, चोरी, आषण्यान, राद्धप्पान भाटि से क्षगन याज्ती क्रिया भनइरांदा प्रस्यपा क्रिया है। (ठाणांग सूद ६० )

( ठाणांग ५३० सूत्र ४१६ ) ( दरि० भाषश्य्क अ« जियापिरार प० ६११-११४)

श्पर म्री सठिया जैन प्रस्थमाजा

२६६--क्रिया छे पांच मेद -- (१) प्रेम प्रस्पमा ( पेर्स बत्तिया )। (२) ह्ष प्रस्पया | (३) प्रायोगिद्टी क्रिया | (४) धामुदानिद्ी क्रिपा। (३) ईयापबिकी किया | (१) प्रेम प्रस्पपा (पेज बरत्तिया)-प्रेम (राग) यानि माया भौर ज्ोम फ्रे कारझ से ज्ञषगने वाली ह्रिया प्रेम प्रत्पवा फ्रिया है झपवा-- इसे में प्रेम (राग) उस्पन्न करने बाले बचन कइन पे सगने वाल्ली किया प्रेम प्रत्यपा क्रिया कदुछाती है।

(२) डेप असल्पयाउ-छ्लो स्वयं 5 अ्रधांद क्रोष और मान करता है और दूसर में भादि उत्पन्न करता ठससे शमने बाली श्रप्रीतिकारी क्रिया दर. 4 प्रत्यपा छिया है!

(३) प्रायोगिकी फ्रियाः-अाव भ्यान, रौद्र स्पान करना, तीर्प- बूरों से निन्दित सावध भर्थात्‌ पाप सनक इचन बोस्सना तपा प्रमाद पूरक लाना, झाना, हज पैर फ़ैशाना, संफ्- चना भादि मन, गचन, काया के स्पापारों से सगने बाशी क्रिया प्रायोगिक्ी क्िपा है

(४) धाह्दानिदी क्रियाः-डिसस समग्र भर्थात झाठ फर्म प्रशण किये जाते हैं। बह साम्ृदानिकी क्रिया है। साम्रदानिकौ क्रिपा देशोपपात और सर्दोपणाठ रूप स॑ दो मद बाली है।

श्री जैन मिद्धारत चोक़ संप्रह, प्रथम मांग म्पर

अपपा -- अनेक छ्लीषों रो एक साथ जो एक सौ क्रिया छगती है पद्ट सामुटानिक्की फ्रिया ६। मैसे--नाटक, सिनेमा आदि फे दर्शकों को एक साथ एफ हो किया ्गती इस क्रिया से उपार्थित फर्मों झा ठदय मी उन लीबों फे एक साथ प्राप शक सा हो होता ह। जंसे--भूफम्प घगरइ। हे अथवा _न्‍न्‍मन्‍क असम प्रयोग (मन, यचन, फाया फे स्यापार) द्वारा प्रदय किये धुए एवं सप्दुदाय भवस्था में (्टे दृए कर्म, प्रकृति, स्थिति, भनुमाग भौर प्रदेश रूप में व्यवस्थित किये जाते है।वह सामुद्ानिफी क्रिया है। पह क्रिया मिम्या दृष्टि श्गा फर छत्म सम्पराय मुख स्थान तक लगती है ( सूपगटांग प्रुताइन्ब अध्ययन 2 नि० गा० १६८टी० ) (५) श्यापधिष्ीी क्रिया --उपशान्त मोद,चीस मोइ भीर सयोगी केंदली इन दीन गुण रपानों में रइ हुए भ्रप्रमप साधु के इंदल गोग फारस से जो मातारेदनीय रूम बंघता है | पट श्रपोपधिसी छिया है। ( डाणांग सूत्र ६० )

( ठाणांप सुप्र ४१६ ) ( इरि आवश्यक अप्प० फ्रिपाधिकार १९ ६१५ )

२६७--भसपम पाँच --- पाप से निय्च्च ने दाना, भर्तंदम ऋदलला भपवा साइप अलुष्टान सदन करना अस्यम ६।

श्प्ःं

मरी सठिय्या जैस मस्बमाता

एफ्रेन्द्रिम सीवों का प्रमारम्म करने बात के पांच प्रकार का भ्र्मंयम होता है।--- (१) ए्ृष्वीकाय असयम | (२) अ्रप्फांम भ्रस॑पम (१) वैमस्काय अरसंपम (9) बायु छाय प्रसंयम | (५) बनस्पति काय भस॑पम |

पस्पेन्द्रिय औजों करा समारम्म करने बाला पाँच इन्द्रियों का स्पाणात करता ह। इस लिय ठस पाँच प्रकार का असंपस दोता ६। (१) भोग्रेन्द्रिय भसेपम (२) चह्ुरिन्द्रिय अर्संय्म। (३) प्रा्न्द्रिय असंपम |. (४) रसनस्द्रिय भस्म (७४) सर्शनेन्द्रिय भसंयम सर्द प्रास, भूत, शीत और सक्त का समारम्भ करने बाल पाँच प्रकार छमर भ्रमंपम दवा है।-: (१) एफ्रेन्द्रिस भमंपम | (२) दीन्द्रिय असयम (२) श्रीन्द्रिय असंपम | (४) भतरिन्द्रिय झर्मंपम | (५) पस्षेन्द्रिय भर्संपम (ठाशांग भू सूतज ४२६ से ४१० )

१६८--संयम पाँच!/--

सम्परू प्रकार साइभंथ योग स॑ निदृष्त होना गा

झाअभब से बिरत हाना या छः काया की रघा करना संयम

श्री मैन सिद्धास्त बोल संप्रइ, प्रथम माग श्र

एफ्रेन्द्रिय खीवों का समारम्म करने वाले के पाँच प्रकार का सयम दोता है। (१) प्रष्पीक्षाय संयम (२) भ्प्फाय संयम ! (३) देजस्काय संयम (४) दायुकाय संपम | (४) बनस्पतिक्ताय संयम | पम्बेन्द्रिय क्षीवों का समारम्म करने दाज्ला पांच इन्द्रियों का स्याघात नहीं करता इस लिए उसका पाँज प्रकार का सयम होता है | (१) ओ्रोग्रेन्द्रिय सपम | (२) चह्तुरिन्द्रिय संपम (३) प्राणेन्द्रिय सपम (४) रसनेन्द्रिय संयम (५) स्पर्शनेन्द्रिय संपम सर्व प्राश, भूष, जीप और सस्त का समारम्म फरन बाझ्षे फे पाँच प्रकार फा संयम होता ई। (१) एकन्द्रिय संपम (२) डीन्द्रिय संयम (३) प्रीन्द्रिय सपम (४) फतुरिन्द्रिय संपम | (५) पस्सन्द्रिय संयम | ( रासाँग इण० सूत्र ४२६ से ४३० ) २६८--पाँच संवर)-- कम पन्‍्ण के कारण प्रायातिपात भादि जिससे रोक जाय बढ़ संबर ६। भथपा*-- सीब रूपी तालाद में भ्राद हुए कर्म रूपी पानी का रुक नाना संबर कइलाता है।

] शी सठिया जैन प्रम्धमाद्ा

अबबा!--- असे!--बल में रही हुई नाव में निरन्तर जल प्रगेश इरान॑ पाले लिठों को किसी द्रस्य से रोक द॑ने पर, पानौ अ्ाना रुक जाता ६। उसी प्रफार खीब रूपी नाव में कम रूपो सल प्रवेश कराने बाले इन्द्रियादि रूप छिद्ठों को सम्पह , प्रक्रारम सयम, तप भादि दारा रोकने से भारमा में कर्म का प्रयेश नहीं दोता नाब में पानी का रुक जाना दृम्प सबर झौर भारमा में कर्मो झ्रागमत का रोक दना ।.. मात्र सबर है। प्बर फे पांच मेद'---

(१) सम्पफ्त्थ (२) बिरति (३) भप्रमाद्‌ | (४) प्रकपाय | ;ः (३) भ्रपोग (गुमयोग)। ( ठाग्यांग इ० श्‌ सूत्र ४८५) (१) भापरेन्द्रिय संवर : (२) चह्दुरिन्द्रिप सबर | (३) प्रागन्द्रिय सपर | (३) रसनन्द्रिप सबर | (५) सर्रनन्द्रिप सपर ( टाणांग 2 ग७ हे सूत्र ४४७ ) (१) भर्िमा (२) भग्ूषा | (३) भपाष्प (२) भमैयून (३) भपरिप्र:

(१) सम्पकद--सुदद, सुगुर भौर शुपर्म में विश्वाम दोना मम्पक्स्प है।

अ्री सैन सिद्धान्द पक्ष सप्राह प्रभम माग स्पक

(२) बिरति---प्रणादिपाव भादि पाप-श्यापारसे निभ्वस होना बिरति है )

(३) भरप्रमाद-मथ, जिपप,कृपाय, निद्रा, विछथा-इन पाँच प्रमादों फा त्पाग करना, भ्रप्रमत्त मार में रहना अप्रमाद है

(४) भ्ररपाय--कछ्लोघ, मान, साया, छोम-इन चार धपायों को त्याग कर दमा, मारदब, आादेब और शौच ( निर्लोमिता ) का सेवन फरना भद्पाय ह£।

(५) भयोग-मन, वचन, काया क॑ स्यापारों का निरोप करना अयोग हैं। निमम दृष्टि पे योग निरोष ही संवर फिसु स्यवद्दार से द्ुम योग मी सेवर माना खाता है।

पाँचों इन्क्रियों फ्रो उनके बिपय शब्द, रूप, गन्घ, रस झौर स्पश की झोर लाने से रोकना, उन्हें भदुम स्पापार से निमृच् करके शुभ झ्यापार में गाना भोत्र, बहु, पघा८, रसना और स्पशेन इन्द्रियों का संदर है। (१) भर्टिता-- किसी जीब छी इसा करना या दया ऋरना भरिय्ना है | (२) भमृप-- ऊंट में बोशना या निरबध सस्प बन बोलना अभमृपा ह। (३) झचीर्प्प--घोरी करना या स्थामी की भ्राज्ञा मांग कर कोई मी चीज छेना अचोर्प है| (४) भमैषुन--मैपुन का स्पाम छरना अगांद प्रम्मर्॑य्य

पारान करना अमैषुन है।

ण्प्प श्रौ सेठिया सैम भ्रस्थमाला

(४) अपरिग्रद--परिप्रद का स्पाग करना; ममता र्र्च्चा से रहित दोना पा शाच सन्तोप का सेवन करना झपरितरद हैं! ( प्रश्न स्पाकरण संबर द्वार ) ३००--भणुजत पांच/-- मद्ावत की भ्रपंदा छांटा त्॒त क्रयांत्‌ एक देश स्पाग का निपम झणशुव़त है। इसे शीत्जत मी कहते हैं।

अखुवरत)-- गे सबे दिएत साधु की भ्रपेद्ा भ्छु भर्थात भोढ़े गुब वाले (भाषक। के ग्रत अगुत॒त कइलाते है| आवक के स्पूल प्राशादिपाव भादि स्पाग रूपअत अगुब्त हैं।

भ्रणुतव पांच है१--

(१) रपूश प्राशाठिपात का स्पाग ! (२) स्पूक्त सपाबाद का त्पाग। (३) स्पूल भदचादान का स्याग (४) छदार सनन्‍्तोप |

(४) इष्छा-परिसाश

(१) स्पूसत प्राग्मातिपात का स्पाग--स्वश्रीर में पीड़ाकारी, अपराधी तथा सापेद्द निरपराघी फे सिद्ाय शंप डीन्द्रिष भादि भस ऊौगों द्ली म॑उत्प पूरक हिंसा का दो करल तीन ग्रोग से स्पाग करना, स्पूछ प्राश्यातिपात स्‍्पीग रूप प्रथम भणशुक्रत है

(२) स्वृत्त मृपाबाद का स्पीस---दुष्ट भ्रष्ययसाय पु्बंझ तथा स्पृक् बस्तु विपयक बोला जाने बाला ऋसत्य-फूट, प्वृत्त

भी जैन सिद्धान्त बोक संप्रइ, प्रथम माग रषघ

मृपावाद है। अविश्वास आदि के कारण स्वरूप इस स्पूलत मृपायाद छा दो करण तीन योग से स्पाग करना स्पूत् मृपाधाद-स्याग रूप द्वितीय भणुद्त है।

स्पृक् मृपावाद पाँच प्रछार का हे-- (१) फन्‍्पा-पर सम्मन्धी झूठ (२) गाय, मैंस भादि पश्ु सम्बन्धी कूठ ! (३) भूमि सम्मन्धी झूठ | (४) किसी फ्ली घरोदर दपाना या ठसके सम्बन्ध में झूठ

पोक्नना

(५) झूठी गयाही देना (३) स्पूछत भदत्तादान का स्पाग--घेत्रादि में सामधानी से (सी हुई या भसावघानी से पड़ी हुई या भूछी हुई फ्िसी सचित्त, भषिष्र स्पृत्त वस्तु को, जिसे लेने से खोरी का अपराध सग सकता हो झ्थवा दृष्ट भ्रध्यवसाय पूर्दक साधारस पस्तु को स्वामी झी धाता बिना लेना स्पूल भदचादान ई। साठ सनना, गांठ खोल कर चीज निरूसतना, छेद काटना, दूसर के साज् को प्रिना भाष्ठा घादी जगा कर झालना, मार्ग में घलते इुए को खूटना, स्वामी फ्रा फ्या ते हुए मी फिसी पढ़ी पस्सु को के सेना भ्रादि स्पूल अ्रदत्तादान में शामिल ऐसे स्पृत्त भद्सादान का दा फरण सीन योग से स्पाम फरना स्घूल भदतादान त्याग रूप तृतीय भणशुवत

(४) स्पदार सन्तोप/--स्प-स्त्री भर्थात्‌ भपने साथ ब्याही हुई स्‍त्री में सन्‍्ताप रूरना | वियादित पत्नी के सिध्वाय शेप

सच श्री सेठिया मैन प्रन्थमाल्ा

ओदारिक शरीर धारी भ्र्थाद्‌ मनुष्प विश के शरीर को घारश्ष करने बाली स्त्रियों के साथ एक करश एफ योग से ( अर्थात्‌ काय से सेदन नहीं करूँगा इस प्रकार ) एवा दैफ़िप शरीरघारी भर्भात्‌ देश शरीरघारी स्त्रियों $ छा दो करश सीन योग से मैथुन सेबन का स्पाग करना सस्‍्वदार सन्‍्तोप नामक चौषा भणुवत

(४) इच्छा-परिमाशइः--६ परिग्रइ परिमादश ) पेंत्र, भास्तु, शिरएप, झुगर्ण, दिपद, फ्तुप्पद, घन, भान्प पर्व कृप्य ( सोने चांदी के सिद॒य काँसा, ताँगा, पीतल भादि के पात्र तथा भस्प घर का सामान )--श्न नव प्रकार के परिप्रद छी सर्गाद करन. सर्याद उपएन्द परिह॒ का एक करश तीन योग७ से स्पाग करना इच्छा-परिमाश बत है। सप्णा, मून्हा कम कर सन्‍्तोप रत रहना शी एस बरत का पुरुष ठर्श्य

( इरिसठ्रीज आवश्यक अ॒ पूछ ११७ सं ८१६९ ( ठाणांग 2 ब० सूत्र १८४४६

( कपासऊ वरशांग झ० है सू* ४.

( परम संप्रइ अधिकार श्लोक २३ से २६ )

३०१--भहदिंसा भगुश्त (स्पूल् प्राथातिपात-विरमश हुत) के पाँध भतिचार।--

प्रिंस कार्य को करने का विचार करना भतिक्रम ६!

कवार्य-पूर्ति यानि वव महू क॑ छ्तिए साधन पृरुत्रित करना

स्पदिछम है। मरतमड़ की पूरी तैयारी परन्तु अर तक

शरद मह नही दुसा रा तक अठियार ६ै। भषदा

एड्ररूच्ण रूम भक्त जेममजाह

#एक करण पद मोगा से भी बी शा सउनी

भरी जैन सिद्धास्त शो संप्रद, प्रथम भाग रघ्१

ग्रत की भपेचा रखते हुए कुछ भंश में तद झा मज् करना अतिधार ई। परत की भपेधा रखसे हुए सहम््प पूर्व व्रत महज करना श्रनाघार | इस प्रकार भविक्रम, अ्यतिक्रम, अतिचार, भनाचांर-य भारों ब्रत की मयांदा मदर करने फे प्रकार हैं। शास्त्रों में हर्तों के भ्रतिचारों फा दर्णन है परन्तु यह मध्यम महू फा प्रकार भौर इससे आगे फे भतिफ्रम, स्पविक्रम, भमौर पीछे का अनाचार मी ग्रहण किये जाते ६। थे मी स्पान्य ईं यह मी ध्यान में रखना चादियं कि यदि सकश्प पूरक वों की पिना भ्पेषा किये अतियारों फ्रा सेपन क्रिया साय तो बह भनाचार-सेबन दी है भौ९ पद जत-मज का कारण है प्रभम भप्ुत्रत क्र पाँच भतिचार -- (१) पन्ण ! (२) वध (१) छविष्टेंद (४) भविमार (४) मक्त-पान ष्ययध्देद

(१) बघा--ड्विपद, चतुष्पदों का रस्सी झादि से भन्पाय पूर्वक बॉधना पन्‍्ध ईं। पद प्न्ध दी प्रकार फा -.. (१) दिपद फा प्न्‍्भध ) (२) भतुप्पद का वन्य प्रत्पेझ के फिर दो दो मेद ईं-- शक भर्य पन्‍न्ध भौर दसरा झनर्थ पन्‍्ध। श्र भी दो प्रकार का ई--

(१) सापेद भर्ष बन्य।

घर औरौ सेठिब्रा जैश प्रस्यमाजा

(२) निरपेध भर्ष बन्च

दिपद, चतुप्पद को इस प्रकार से बांघना कि आग भादि शगने पर झासानी से खीसे मा से, सापेक्ष बन्ध कहलाता है। घेस-चतुप्पद गाय, मैंस भ्रादि भौर द्विपद, दाप्ती, भोर, थादुर्दिनीत पुत्र को ठनकी रद या मलाई का रुपाल कर या शिदा के सिये कठुशा पूर्वक हारीर की हानि भौर कष्ट को बाते हुए शाँधना सापेज्ञ बन्द है। हाएरजाईी के साभ निर्दयता पूर्वक फ्रोघवश गाड़ा बन्धन बांध देना निरपेक्ष अर्पन्च है। भाषक # लिये सापेष् अ्भमनन्‍्ध प्रतिचार रूप नहीं है| भनरदन्ध एवं निरपेषत भर्थवन्ध भतिषार रूप झौर भ्रावक के सिए स्पान्य हैं

(२) बष --कोड़े भादि से मारना वप है। इसके मी बन्च की तरह भर्ष, भनर्थ एवं सापेष, निरपेच प्रकार से दा दो भेद हैं। झनर्य एवं निरपेद् गण झदिचार में शामिल रिषा के ऐतु दास, दासौ, पृत्र भादि को पा नुकसान करते हुए भतुम्पद को भावर्यकता दोने पर दयापूर्वक उनके भर्म स्पानों पर चोट शगाते इए मारना सापेध् भर्भवन्व ह। यह आइक # स्तिए झ्रतियार रूप नहीं है।

(३) छब्ष्छेद--शस्त्र से भड्"ों पाझ़ का छेदन करना रबिच्लेद है। छविष्ट॑द मी पन्‍्च भोर गध, की तरइ सप्रयोगन तबा निषप्रयोजन और सापेध दया निरपेद होता है। निष्पयोजन तथा प्रयोजन दोने पर मी निर्देयता पूर्वक हाप, पैर, कान, माक आदि का छन करना भतिभार रूप हं भौर बद आवक के लिए त्पाग्प हैं। झिन्तु प्रपोधन होने पर दपा पूर्वक

श्री जैन सिद्धान्त वोह संप्रह, प्रथम भाग श्ध्३

सामने वात की मलाई के लिए गांठ, मस्मा बगैरह फाटना, सेप्त-राकसर या वैध चीरफाड़ फरते हैं। दाम देकर लक्ताना झादि सापेच छपिच्छेद है। सापेच्च छषिच्छेद से भावफ अदिचार के दोप का भागी नहीं होता अविमार--शिपद, पुष्पद पर ठसकी शक्ति से अधिक भार जल्ादना अतिमार है | भावक फ्ो ममुष्य अथया पशु पर फ्राप भथपा ्ोमवश निर्दूयता के साथ भषिफ भार नहीं घरना चाहिये भौर मनुष्य सथा पछुभों पर भोझ शादने फ्री दि फरनी चाहिए। यदि भ्न्‍्य जीविका हो और पह बृत्ति छरनी दी पड़े ठो फरुणा माव रख कर, सामने वाले के स्व्ास्प्य का ध्यान रखता इआा छझरे | मनुप्प उतना ही भार उठयाना चाहिये, जितना घह स्वयं उठा सक्के भौर स्वयं उतार सके ऊँट, बैल, भादि पर मी स्वामाषिक मार से कम लादना थाहिय इस्त, गाड़ी पगैरइ देज्नों को नियत समय पर छोड़ देना चाहिये। इसी तरद गाड़ी, तांगे, शक्कर, घोड़े आदि पर संवारी चड़ाने में मी विदेक रखना साहिप |

(५) भक्त-पान विच्छेद--निष्कारस निद॑यता के साथ किसी

आइर पानी फ्रा विष्छेद करना, मक्त-पान बिस्छेद भ्रतिचार है। तीव्र छुघा भीर प्यास ब्यादुल होकर कई प्राखी मरबाते हैं. भौर मी इसम भनेक दोपों को सम्मायना ई। इस लिए इस झतिचार का परिहार करना चाहिये | रोगादि निमिर्त सं वैधारि छइन पर, था शिदा फे हेतु भादर पानी देना पा मय दिखान के लिये झ्राह्वर द॑ने की

१४ श्री सेठिया डैन प्रश्यमाला

प्रात ऋडना सापेद मक्तपान विष्केद भौर पह भ्रतिचरार रूप नहीं है

नोट।/--भिना कारण किसी झी खीधिका का नाश करना तथा नियत समय पर पेतन देना आदि मी इसी झतिचार में

गमित ( घम संप्रद क्रषि शल्ो० ४३ प्रृ० १०० ) ( इरिमद्रीय भ्रावश्यक अप्पयन $ पूछ एॉ८) ( इपासक ड्रशांग सूत्र अ० सू ७) ३०२--सत्पाग्रुत्रत् ( स्पूल सपाधाद ब्रिमय ) पांच अभपिभार।--

(१) पद्साध्म्पार्पान (२) रहोउम्पास्यान | (३) छादार मन्त्र मेद (9) झपोपदेश (५) छूट लखरूरण |

(१) सहसाऊस्पाह्यान---बिना विचारें किसी पर मिश्या झारोप लगाना सहसाउम्पास्यान ई। अनुपयोग भ्रवात्‌ मसाब- घानी से परिना विचारे भारोप गाना भतिषार सानते हुए इरादा पूर्वक हीत सक्‍तश मिप्या आरोप छगाना अझनाघार और उसप्त जत मग हो जाता |

(२) रहोध्म्पास्पान--एकान्त में सक्ताइ करत॑ हुए स्पक्तिपों पर आरोप ज्ञगाना रह्मप्म्पास्पान ई। सँस-पे राजा के अ्प- कार की मन्त्रशा करत हं। झ्रनुपयोग से एसा ऋरना झतिचार माना गया झौर जान पूमः कर एसा करना अनाघार में शामित्त ६। एफ़ान्त प्रिशपय ने से यह अतिघार पहल भठिषार सं मिम्न इस अदिचार में सम्माबित भर्थ कद्ा साता

श्रो श्ैन सिद्धान्त बोल सप्रद, प्रथम माग स्श्ह्‌

(३) स्वदार मन्त्र मेद-स्वस्त्री फे साथ एफान्स में हुई विश्वस्त मन्वणा-(वार्ताक्ताप) का इसरे से कइना स्वदारमन्त्र मेद है। अपवा!-- दिश्वास करने वाली स्त्री, मित्र भादि की गुप्त भन्य्रणा का प्रकाश फरना स्वदार मन्त्र मेद है। यधपि बक्ता पुरुष स्त्री या मित्र के साथ हुई सत्य मन्ध्रशा को ही कहता है परन्तु भ्रप्रकाश्य मन्त्रसा के प्रफाशित हो जाने से क्ज्णा एवं संक्रोच वश स्त्री, मित्र झादि आस्मघात कर सकते हैं या जिसके आगे वक्त मन्प्रणा प्रकाशित की गई उसी का पात कर सकते हैं| इस प्रकार भनर्य परम्परा का फारथ होने से बास्‍्तप में यह स्पाज्य डी है

(४) म्पोपदेश--मिना दिचारे, भनुपयोग से य्रा किसी इदाने से दूसरों फ़ो भसस्प उपदेश देना मिथ्योपदेश | जैसे-इम लोगों ने ऐसा ऐसा मूठ कह फर भप्ुक स्यक्ति को इदरा. दिया था इत्पादि कइ छर दूसरों को भ्रसस्य बचन कहने में प्रेरित फरना |

अथधाः-- असत्प उपदेश देना मपोपदेश ई। सस्पवतपारी पुरुष के लिये पर पीड़ाफार्री वचन कइना मी अ्सत्य है। इस हिए प्रमाद से पर पीड़ाकारी उफ्देश देना मी भुपोप- देश भ्विधार ६। लैस-ऊँट, गधे बगैरह को बताना भारिये, चोरों को मारना भाहिये। आदि |

२५५

जी पठिया जैम प्रन्यमाला

अथवा[!-- क्रो सन्दिग्ध ( सन्देइ पात्ता ) स्पक्ति सन्‍देह निषारण के छिपे आाष॑, उसे उत्तर में अगपार्थ स्वरूप फएना संपोपदेश ईै। अथवा बिगाड़ में स्वय या दूसरे स॑ किसी को भ्रमिसंघान ( सम्द्रभ ओड़ने कर ठपाय ) का उपदेश देना या दिल्ताना भुपोपदेश अथवा तठ रब की पुंद्धि से दूसरे इत्तान्त को कई कर मृप्रा छपदेश देना मृपोपदश ६।

5 (३) इट छपफ़रस--हू पर्भात मूठ सुख शिखना, कूट तल

(२

झइरश ध्तिघार | स्राज्नी श्र्यात्‌ नफ्ती संत, रश्तायेज, मोइर भौए दूसरे इस्ताघर भादि बनाना, हू? सेप ऋरय में शामिल | प्रमाद झौर भ्रषिषेक (भश्वान) सं ऐसा करना भतिभार ! जत छा पूरा आशय ने समझ झुर पद्ध सोघना कि मैंने झूठ बोलने का स्पाग किया पद वा कूठा छप हैं मृपाडाद ता नहीं है | अत परी हपेषा दाने से भौर अपर की बज़ से यह अ्रतिचार है। शत पूर कर छूट खख ल्षिसना अनाषार है ( उपासक दशांग सूत्र अब स्‌ ७) ( पमसमइ अधिकार रजो ४४ प्रष्ठ १०१०१) ( इरिमग्रीय आषरयक अध्य $ पृष्ठ ६२० ) 4 ६-भार्प्पाशमत ( स्पूछ भदत्तादान विरमश शत ) है| पक भ्म भद॒त्तादान बिरिमण रूप सीमर भद्युवत भि खूजा हे भद्युवत के सम्मा (२) स्वत प्रयोग

श्री जैम सिद्धान्त बोक संप्रइ, प्रथम माग २३०

(३) पिरुद्रान्यातिकम | (७) छूट तुला छूट मान (५) तत्पततिरूपक स्यवहार !

(१) स्पनाहृत।--धोर छी घुराई हुई वस्तु फ़ो वहुमूल्य समझ- कर लोम पश उसे थरीदना या यों द्वी छिपा फर ले सेना स्‍्तनादहृत भविचार है।

(२) स्पेन प्रयोग/--चोरों छो चोरी फे लिए प्रेरणा करना, उन्हें चोरी उपकरण देना पा बचना ऋ्थवा चोर छी सहायता करना, “तुम्दार पास साना नहीं सो में देता हूं तुम्शरी घुराह धुए पस्तु फो कोई दचने पात्ता नहीं तो मं पेच दंगा” इत्पादि पचनों से घोर फ्ो घोरी में उस्सा प्विद फरना स्तन प्रयोग

(३) पिरुद्ध राम्पातिक्रम --शग्रु राशाझों राज्य में झाना जाना विरुद् राज्यातिकस अदियार ए्पोंकि विरोध के समय शप्रु शाज्ाों दाग राज्य में प्रयेश करन की मनाई शेवी ६।

(४) छए तुला हू मान ---मूठा भपाद शीनापिक तोल भीर माप रफना, परिमाखण से पड़ दो भर माप से पस्तु सेना और छोर वोश भर माप से बस्तु पेचना झूट तुला कूट मान धनतिषार ६इ |

(४) सस्प्रतिग्पक्त स्पथूइ्टार --मरदुमूल्य पढ़िश पयस्तु में अन्पपून्य दालो घटिया पम्तु, जा उमी रे सच्छ भर्पात्‌ उसी रूप, रग की आर उसमें सपने पाली ६, मिज्ताफर बचना या अमली सरीयी नझस्ती ( पनादटी ) बस्तु को ही भप्तत्ती फू नाम से पंषना रुत्पतिस्पपक स्यवद्दार ६।

फ्ध्प श्री सठिया जैन प्रस्थमाला

पांचों झठियारों में बर्शित क्रियाएं जोरी के नाम से कद्टी याने पर मी चोरी बराबर £ | इनका करने वाला राज्य के द्वारा मी अपराधी माना आकर इणड का भागी होता | इस सिए उन्हें खान पृ कर करना तो उत मुह दी इ। बिना बिचारे अ्रनुपयोग पूरक करने से / या जत की प्रपेधा रख फर फरने से या भतिकरमादि की अपेधा ये भठियार ! (उपान इशांग १सूज्र ७) ( आाब्झ प्र" ८२१)

( धर्म स॑० भभि* रको० ४१ ) ३०४--स्वदार सनन्‍्तोप घठ पाँच झतिभार।-- (१) 'त््वरिका परियूद्दीता गमन। (२) भ्रपरिणृद्दीता गमन | (३) भनझ्॒ कीड़ा (२) पर रिषाह फरव ! (५) काम मोग दीवामिज्ताप

(१) झत्बरिफा परियृद्दीदागमन --हइुछ फ्ाख के लिये भषने अछीन फ्री इई स्त्री से समन करना, इस्बरिफा परि गूद्दीतागमन असिचार है झथवा भज्प दय बाली भर्थाद्‌ जिसकी उप्र भ्रमी मोग योग्प नहीं हुई ई--ऐसी भपनी विद्ाहिता री से गमन फरने के लिये झ्राक्नाप संसापादि ऋरना इत्बर परिग्ृहीतागमन भतिभार है |

(>) मपरिग्ृदीवागसन -बिद्ाहिता पत्नी के सिद्याय शेप बेरवा अनाथ, झन्पा, पिघदा, हस्त॑पैयू झ्रादि से गमन करना, मपरिगृद्दीदा गमन अठिभार | झयदा सिप्त ऋन्यां के साथ सगाई दो हो चुकी फ़िन्तु भमी दिवाइ नहीं हुमा है ऐसी कन्या के साथ गमन करने सिए प्राक्नाप मंक्ञापादि फरना भ्रपरिय्द्षीता गमन अठिचार है क्योंकि बह अपनी होते हुए भी अपरिगृद्दीवा है।

श्री जैन सिद्धान्व योक सम प्रथम माए ग्ध्ध

इत्वरिका परिगहीता और अपरिगहीता से गमन फरने का संकल्प, एवं सत्मम्बन्धी उपाय, भाज्ाप संलापादि अतिफ्रम स्पतिक्रम की झपेद्दा ये दोनों भतिभार है आर ऐसा घरन पर ग्रत एक देश से सण्डित शोता ह। धई होरा फे न्याय से इन्हें सेपन करने में सपंथा प्रत मझ दो जाता है |

(३) भ्रनक् क्रीड़ा --क्ाम सवबन के खो प्राकृतिफ भड्ढ हैं| उनके सिवाय भम्प भझ्डों से, जो कि फाम सेपन फे शिए गज हैं, फ्रीढ़ा करना अनह फ्रीड़ा ६। स्व स्त्री पे सिवाय भन्‍्य म्थ्रियों साथ मैंयुन फ्िया पर्ज फर अनुराग स॑ उनफ़ा भालिड़न भादि फरन पाल का भी शत मसीन इाठा | इस लिए वह मी अतिचार माना गया ६ई।

(४) परप्तिवाइक्रण --अपना भर भपनी सनन्‍्तान सिवाय अन्य का दियाह बरना परविधाह फरण अतिचार

स्पटारमन्तोपी भावफ फत दूसरों का विवाह्मदि फ़र उन्हें सैधुन में लगाना निषप्प्रयोगन ६॥ इम लिये ऐमः फरना अनुचित ई। यट्द स्याश्त छर दूमर फ्रा जियाह करने पे लिप ठप टोन में पद भतिघार

(५) काममोगतीग्रामिलाप --पाँच इन्द्रिपों ऐे विपय रुप, रस, राय और सपश में /भासक्ति होना काममोगनीया भिज्ञाप नामऊ भतिपार हैं। इस झा भाणप पद्द | दि भाव विशिष्ट दिरति बाला होता ६। उस पुरुपवट जनित बाघा की शव पे उपरान्त मैथुन सेथन ने करना भाहिये लो इाजीफरण भार झ्रौषधिषों मे सपा फामशाय्प्र में बताये

००

और सठिया जैन प्रम्पमाला

हुए प्रयोगों द्वारा कझ्ामप्रापा फ्रो भमिक्त ठत्पन्त कर निरन्तर रवि-क्रीड़ा फे सुस फो दाइवा | घह बास्तद में अपने प्र छो सल्ीन छरवा ई। स्त्र्य खाम ( खुजली ) उत्पन्न कर उसे खुमलाने में सुप अनुमव करना ढोई - बुद्धिमचा नहीं ६। झा भी ६ै-- +मीटी पाज सुखाव्तों पीछे दुःप शी खान!

( उपासक बशांग प्रथम्‌ भ्रप्षप्रम सू ७)

३०४--परिग्रइ परिमाण वठ के पाँच अतिसार--

() चेश्न वास्तु अमायासिझम (२) दिरपय सुबर्ण ग्रमाशाविक्रम (३) ढ्विपद चहुप्पद प्रमाश्ातिक्रम (४) पन पान्य अमायापिकऋरम (४) कुष्प प्रमायाविक्रम

(१) देशवास्तु प्रमाणातिकम--पान्योत्यत्ति कली तमीन का पत्र

(खेत) कहते हं। बह दो प्रकार फ्रा ६-- (१) सतु (२) केतु

अरपड्टादि जस्ष से दो खत सींचा जादा है। पह संत प्र है। बपा का पानी गिरने पर जिसमें घान्य पैदा होता है! पह ऋतु घत्र कइलाता है। पर भादि को बात्तु के ईं! मूमियृई (मोंपरा) सृमि गृइ पर बना हुआ घर या प्रसाद एवं भूमि के झूपर बना इभा घर या प्रास्ाद झास्तु ई। इस प्रकार वास्तु के सौन भेद उक्त क्षत्र,बास्द॒ की सो मर्यादा की उसका उच्संपन बनना छेश्र बास्तु प्रमागातिक्रम झतिभार है। अजुपयोग था अपिकरम आदि की भपेष्ठा से य£ झ्तिचार

श्री जैस सिद्धास्व दोक संप्रद, प्रथम माग ३०१

है| जानपूम कर मर्यादा का उम्सघन फरना भनाषार है अथवा मर्यादित देपर या घर भादि से भ्रधिक देत्र या घर आदि मिलने पर बाड़ या दीपाल पगैरद इटा कर मर्यादित चेंत्र था पर में मित्ता लेना मी देश्र वास्तु प्रमाथातिकम अतिघार है। प्रत फ्री मर्यादा फ्रा ध्यान रख पर घी ऐसा करता | इस लिये घइ भतिचार ई। इससे देशत ब्रत सद्ित दो जाता है।

(२) ए्रिएप सुधर्ण प्रमाशातिक्रृम --घटित ( घड़े हुए ) भौर अघरित (प्िना घड़े) हुए सोना, चाँदी क्ले परिमागु फ्रा एव शीरा,पन्मा, जपाइरात, भादि फे प्रमाय दा झ्रतिफ्रमण फरना रिरिएय सुधर प्रमाणातिक्रम भतिचार है। भनुपयोग या अतिक्रम आदि की भपेदा से यह भतिषार ई। शान प्रक फर मर्यादा फा उन्संपन फरना भनाघार है भझथवा नियत कार्त की सयांदा वाल भ्राषफ पर राखा प्रसन्‍न होने से भाषक को मयादा से अधिक सोने चांदी झादि कली प्राप्ति हो उस समप व्रत भर फ्रे इर से भाव फा परिमाण से अषिफक सोने चाँदी झ्लो नियत अवषि फे स्िये, भवधि पूर्स होने पर वापिस ले लू गा। इस मावना से, दूसरे के पास रफना शिरिएय सुबर्स प्रसाणातिकम भतिचार

(३) द्विपद घतुप्पद प्रमाशातिक्रम --द्विपद-मन्तान, स्प्री, दास दामी, सोता, मेंना बगैरइ ठथा चतुप्पद-गाय, घोड़ा, ऊँट, पापी भादि कफ परिमास फ्रा उल्तपन फरना द्विपद चतुप्पद प्रमाणातिक्रम अतिचार अनुपयोग एब अतिक्रम भादि क्री भपेद्दा से पह भप्तिचार हे भगवा

भी सेटिया जैन प्रस्यमाजा

(४)

एक पसात्त भादि नियमित काक्ष फे लिये द्विपद चत॒ुप्पद छी मर्यादा वाले भावक फा पह सोच कर फ्रि सर्याठा श्रीष में गाय, घोड़ी आदि के पचचा होने से मेरा द्रत सदर दो जायगा | इस लिये नियत समय मीत खान पर गर्म घारण करबाना, जिसस कि मयादा पा काल थौत जाने पर दी उनके बच्चे हों, डिपद अतुप्पद-भ्रमाणाविक्रम अतिचार है |

घन घान्प प्रमाणातिक्रम--गणिम, घरिम, मेप, परिष्झप रूप भार प्रकार'का धन एप सतरह या चौबीस प्रकार धान्य की मर्यादा छा उह्नंपन करना पन-घान्य-प्रमाशातिदम प्रतिभार है| वह मी भ्रनुपपोग एवं झ्रतिक्रम झादि की झपेणा स॑ भ्रठिभार अदा मर्यादा सं भणिक घन घान्य की प्राप्ति होने पर ठसे स्परीकार कर छेना परन्तु खत-मझ् के इर से एन्हें, धान्यादि छे बिक स्ाने पर से सखूँगा पह साच कर, दूसर के घर पर (हने देना घन घास्य प्रमाक्माविक्षस झठिभार झ्रपणा परिमित काछ की मर्याठा वात्ते आवक क॑ मर्यादित पन-बान्प से झ्रप्रिक की समाप्ति पर्यन्द दूसरे के पशँँ रख देना घन-पान्प प्रमास्ातिक्रम भतिभार ह।

(५) कुप्प प्रमाशातिक्रम--हप्प-सोने घाँदी, के सिषाय

अन्प धातु ( छ्मंसी, पीतक्त, ठाग्या, छोइा भादि घातु की पया इन से बने यसन थादि की) आसन शगन, बरत्र, कम्बल, वर्गइ पर के सामान दी मर्यादा क्य अतिहकमण फरना कृप्य प्रमाशातिकम

श्री देम सिद्धास्व बाल संप्रद प्रपम माग ३०३

अतिचार है| पद भी अलुपयोग एग भ्रतिक्रम भादि की अपेदा से भठिषार ६।

अथवा --

नियमित कृप्प से अ्रपिक्त संख्या में कुप्य की प्राप्ति होने पर दो दो फ्रो मित्ता कर बस्तुओों फो बढ़ी करा देना ओर नियमित संख्या कायम रखना हुप्य प्रभाश्यातिक अतिघार है।

अपनबदा र््न्नेज

नियत का के छिये कुप्प परिमाण बाले भ्रावक फ्गर मर्यादिव छुप्य से भ्रपिद्त इुप्य फ्री प्राप्ति ने पर उसी समय ग्रहण न॑ करते हुए सामने बालें से पह कइना कि अप्लुक समय शीत जाने पर मैं तुमसे यह क्षुप्प शे लूँगा। तुम भौर किसी को देना यह कुप्य अरमाणाति- क्रम झ्रतिचार हे। (उृपासक वशांग सूत्र झ० सू० ७)

(इरिमत्रीम आवश्यक अ० पृष्ठ ८२५ ) ( धस स॑प्रह भणधि० इोक ४७-४८ प्रप्त १०४ से १०७ )

३०६--दिशा परिमाश ग्रत फे पाँच भतिचार।-- (१) उख्े दिशा परिमाशातिक्रम (२) भघो दिशा परिमाशातविक्रम (३) ठिरयऋू दिशा परिमाश्ातिक्रम (७) चंत्र पद्धि (४) स्पत्यन्तर्यान (स्पृतित्र शे) (१) रष्यंदिशा परिमाशाविक्रमः--ऊंच्ब भर्थात्‌ ऊँची दिशा

इ०्श और सटिया देश प्रस्यमादा

ऐ्े परिमास को उल्लेपन करना ऊर्प दिशा परिमालादिक्ृम झ्रिघार है।

(२) भ्रथो दिशा परिमाणातिक्रम/--झघः भर्पात्‌ निधी दिशा , फ्ा परिमाण उन्‍्सपन छपना झपो दिशा परिमाशातिक्रम अधतिचार ६!

(३) पिर्यक्तिशा परिमालातिझ्म/--विर्दी दिशा का परिमाख उस्तपन फ़रना पिर्यब्दिशा परिमायातिक्रम झतिचार |

अ्रनुपयोग यानी अप्ताररघानी ऊर्ष्म, भ्रषघः भौर तिर्यछू दिशा की सयाद फा उश्छपन करना भतिआार ई। जान बम कर परिमाय भागे खाना झनाचार सेबन है|

(४) देप्॒ बृद्धि---एक दिशा फा परिमाण घटा कर दूसरी दिशा का परिमाण पड़ा देना चेत्र इद्धि श्तिचार है| इस प्रकार चैत्र इृद्धि से दोनों दिशा्ों रू परिमाश का पोग बरी रहता ६। इस लिए हत फ्रा पालन ही होता ६। एस प्रकार अत की अपेषा शोन सम पढ़ भततिवार है।

(४) स्मृस्पन्तधान (स्मृत्तिप्न श)--ग्रदण छ्विए हुए परिमास का स्मरण रइना स्मृतिप्रश भठिक्र £। जेस-फ़िसी ने पूद दिशा में १०० पोयन की मय्यांदा कर रखी | परन्त बूर्व दिशा में भक्त समय उसे मर्यादा माद रही | बह सोचन क्षगा कि मैने पूर्व दिशा में ५० भोजन ही मर्यादा की या १०० पोजन की | इस प्रकार स्मृति राने से सन्देंद्त पड़न पर पचास यांशन स॑ मी आगे जाना

झतिषार ६।

(जपासक इशांग हल शसू ७)

जैन सिद्धासव बोह संप्रइ, प्रथम सास द्च्ह

| ०७--ठपमोग-परिगोग परिमास व्रत के पाँच अतिघार।---

(१) संचिचाइर (२) सचिक्ष प्रतिबद्धाइर (३) ध्रपफ भौपधि मघस (४) दुष्पकत्र शौपणि मदण। (५) तुष्द् भौपषि मय

(१) सबिताहार--सचिक्त स्पागी श्रापक्र फ़ा सचित्त बस्तु श्रेसे नम, एरप्वी, पानी, वनस्पति, दःध्चा फत्त, फन्‍्द-मृत्त, इसी फ्च्बी इस्पादि का झाइर फरना एपं सचित्त ग्रस्तु का परिमाण करने वाले भ्रावक छा परिपाशोपरान्त सचित दस्तु का झाहार फरना सचित्ताहर रूरना है। पिना जाने उपरोक्त रीति से सचिधाइ्र फ़रना अतिचार है और सान पूम फर शसफ्ा संघन करना भनाचार ह।

(३) सचिक्त प्रतिपद्धाइर ---सचिच इचादि से सम्दद भचित गोंद था पफ्फ़े फल पगैर्‌इ खाना प्रथवा सचित्त भीम सम्दद अचेतन खजूर बगेरइ क्र खाना पा पीस सद्दित फो, पद सोच फर कि इसमें भणित्त '्ंश सा लूँगा ओर सबचित घीजादि प्रश को फ्रेफ दू गा, खाना सबचिच प्रतिदद्धाइर भठिषार

सपा सचिस त्यागी भवक क्षिए सचित्त वस्तु छूती इंश किसी मी भवित्त बस्तु को खाना भतिघार एवं मिसन सचित्त फी मयादा फर री ६। उसके लिए मर्यादा उपरान्त सपित बस्तु स॑ संपट्ठा वाली (सम्बन्ध रफने घास) भ्र्रिद भस्तु सो साना भविषार | ग्रत की भपेदा दोने से पह भतिषार है।

ड्ड्5 श्री सेटिया जैनप्रस्थमाला

(३) भ्रपफ औषधि मधदा --+अप्रि में गिना पहक्री हुई शाह / भादि औपधि फ्रा मप्ण फरना;अपक्क ,आपति मक्य अतिच्षार ।, भनुपयोग से खाने में यह भ्रतितरार | (४) दृष्पक् भौषणि मदण!---दृष्पक्र (पुरी तरह स॑ पाई भपि में भषपक्ी ग्रौपतति का परी हुई यान कर बर) करना दृष्पक भौषधि मचथ भतिघार .. _. अपक् ग्रीपपि मपण दृष्पक भ्रौषधि मत अतिजार भी सर्मचा सबित्त स्थागी के लिए $। सवितत भाषषि की मयादा बाले % लिए तो मयादोपराल अपकत, एम दुष्पक्‍त हीपणि कम मछ्स करना भति चारई।! बलि 3 (५) हष्दीपपि मचस-सुच्य भयात्‌ भसार भौषषियाँ बेस म्‌ग छी कल्ची फत्ती, सीवाफतत, ( गडेती-गाा ) बगरइ प्रो दाना दुष्ट्रौपधि मशस भतिभार है। इन्हें खान पड़ौ गिरापना होती और भल्प र॒त्ति होती | एस लिए विवेझशील अचित्तमोजी सागक को उन्हें भवित्त इरफ़ मी खाना भाहिये। बैंसा फरने पर मी बई अतिघार क्रा मागी ६। ( उपासक इशांग सृत्र प्मष्यपन है सू ०) ( प्रबचनसारोद्धार ह्वार $ गाबा २८१ ) मोमन की भपेधा स्तर य॑ पाँच भतिषार ह। मोगोपमोग सामग्री की प्राप्ति साधन खूत द्रस्प के उपार्मन क्लिप सी भविक कर्म अपात्‌ इति स्पापार की मयांदा फरता है! वजत्ति-स्यापार की अपेक्षा भाषक को खर कम भयांत्‌ कठोर कर्म का स्पाग करना चाड़िय |

श्री जैम सिद्धास्व बोख संग्रह, प्रवम माग हज

उत्कर प्ानावरणीयादि भशुम झूम रू फारण मूत फर्म

> छम्र स्पापार छो फर्मादान फहते ई। इगालकर्म, पन फर्म

.. आदि पन्द्रद कमाटान ईैं। ये कम क्री भप॑दा सातवें बद

के भविषार ईं। प्रायः ये शोक स्यपद्दार में मी निन्‍्य गिने

जाते हैं और महा पाप के फारण इन 'से दुगति में ले

जानबाले हैं | भतः अलरू कई लिय त्पाज्य हैं |

नाट --पन्द्रह फमाटाा का विपेखन भांगे पन्‍्द्रइवें घोल में दिया जायगा )

३०८--भनर्यदएद पिरमम्य प्रत पाँच अतिचार--- (१) झन्दर्ष (२) फीरइुच्य (३) मौपरप | (३) संपृक्ताधिकरण | (५) ठपमाग परिमागातिरिक्त |

(१ इन्दप/--झाम उन्पस्न ऋरने बाल पसन का प्रयाग परना, शाग के भाषश में दस्प मिश्रित माहोरीपफ मसाक करना इन्दर्प भतिषार ई।

(२) ऐस्डृस्प"--मांदों की तरह मार्प, नये, नासिका, भाए, मृस, इाथ, पर भादि भगों फ्री प्रिहत पना कर दूसरों रा हमान दाली भष्टा झरना कौस्मृन्य भवतियार ६।

(३) मौसखरपे -रिराइ के माय ग्रमस्प, उठ पराँंग दरन बालना

५. मायप्प झतिरर

(४) मंपृछझापिझमरथ --झाय करन में समय एम उम्ल भर मूमत्त, शिना भर लोश इत्ल भौर फात, गाड़ी आर

मृषा, पहुप मर राग, इबता भार इन्दारी, पक्‍्झो

झ्ब्प औ्रौ सेठिया जैन मख्यमाक्षा

झादि दुर्गति में से आने बासे भ्रधिररशों क्रो, जो साभ हो छाम झाते हैं, एड छाव रकना संगृकाबिक्रथ भ्रतिचरार है। वैसे-उएतत छे मिना मूसल काम नहीं देवा भोर ने मस्त के मिना उखत् ही इसी प्रकार शिक्ता के बिना क्षोरा भौर शोट़े के पिना शित्ता मी काम नहीं देती | ईस / प्रकार उपकरशों को एक साथ रख कर विफरेकौ आवक को खुद छुदे रखना चाहिये! डे

(५) उपमोग परिमोगाविरिक्त (भतिरिक))-उबठन, भाँगशा, दैश, वृष्प, बरत्र, ध्राभूव॒स ठया अशन, पान, सादिम, स्वादिम आदि उपभोग परिमोग फट बस्तुझों को अपने एवं भारमौप धनों फ्रे उपयाग से भषिक रखना उपभीग परिमीगातिरिक अविचार | 8

( इपासक इशांग सूत्र अ० ! सू० ०) ( इरिम्रीप भ्राबश्वक पृष्ठ ८९६ ८३९) ( प्रबचत घारोद्धार हार $ गामा २८१)

अपण्पानाचरित, प्रमाठाघरित, दिस्र प्रदान और पाप कर्मोपदेश से चार भनर्थदयई हैं। भनरमदयड से गिरते होने बाला आवक इन चारों अ्रनर्पदणड फआ्र्पों स॑ निवच होता है। इनमे दिरत दने थाले फे दी ये पाप झतिषार हैं। उक्त पाँसों भतिषारों में पद्ी हुई क्रिपा का अपसादघानी से चित्तन करना अ्रपष्पानाघ्रित बिरतिका अतिभार है। बन्द, कौत्कृस्प एवं उपमोग परिमीगातिरेक से तीनों प्रमादाचरित बिरति के झतिचार हैं

भी जैन सिद्धाम्त घोक संप्रइ, प्रथम माग घन

पंवुक्ताषिस्ग्य, प्विस्तप्रदान पिरति फ्रा भविषार ६। भीसरस्प, पाप फर्मोपदेश गिरति छा भ्रतिचार है। ( प्रबंधन सारोद्धार द्वार गाभा १८२ की टीफा )

३०६--मसामापिफ परत पाँच भतियार--

(१) मनोदुष्प्रणिघान )

(२) वाग्ुप्प्रणिधान

(३) काया दुष्प्रथिघान |

(५) प्रामायिद दा स्मृत्यफरण (५) प्रनयस्पित साम्रापिक करण

(१) मनोदृष्प्रणिषान/---मन फा दुष्ट प्रयोग करना भर्थात्‌ मन को पुरे ब्यापार में क्षगाना, संसे--सामायिर फरफे पर सम्पभी भप्छे पुर झार्यो का दिघार करना, मनो दुष्प्रणिघान भविषार ई।

(२) बारदप्प्रशियान --इचन छा दुष्ट प्रयोग फरना, अँसे असम्प, कठोर एवं सादय दचन फहना बारदष्परणिषान अविषार ६।

(३) काय दुष्प्रधिधान --रिना देखी, पिना प्‌ जी जमीन पर हाथ, पेर भादि प्रवयय रखना, फाय दुष्प्रशिपान झतिपार है।

(५) धामायिक फा स्पृत्पफझर --प्तामायिझ शौ स्पृति रसना अगाव उपयोग श्यना सामापिद प्रा स्‍्पस्पम्र्य भतिषार है। जैपे--घुम्मे हम समप सामासिझ फरना भाहिये | साम्ापिझ मैंने की पा दी झादि प्रपल प्रमाद इश भूल वाना।

ह१्‌ श्री सठित्या रैल प्रस्थमाला

(५) झनबस्थित सामायिझरू -ऋरश ---भम्पवस्थित रीति में सामापिक करना ध्नवस्थित सामायिक करसय भतिचार है |

लैंसे-- नियत सामायिक करना, अ्न्‍्पकाल ढ्री सामायिक झरना, करन धरदि ही सामायिक छोड़ दना, जैस-तस दी भस्थिरदा से साभापिक पूरौ करना पा भ्रनादर पें सामायिक करना | 8, अनुपयोग से प्रथम तीन अतिचाए हैं भौर प्रमाह बहुरता से भागा, पाँचबां झतिचार | 7 +' ( रुपासक इशपंग सूत्र ऋ० सत्र ) + ( इरिमड्रीय आषश्पक अ॒ ईपृप्तप३११) ३१०--देशाबकाशिक धत कर्पांच भंतिषार!-- 77 (१ आनयन प्रयोग | + ': (२) प्रेष्पप्रयाग | (३) शम्दाजुपात | 7 (४) रूपाबुगव। (३) भह्टिः पूदूयत्त प्रधप। ४४ “+ (१) धानयन प्रपोग:->-मर्यादा “किये हुए क्षेत्र से बाहर स्वर था सझने से दुसरे को, तुम पद भीज क्त भाना इम प्रकार संदेशादि देकर सबिचाद ध्भ्प मंगाने-में शगानों आनयन प्रयोग भतिभार ई। हर लन (३) प्रेप्प प्रयोग--मर्पादित दोष से बाइर स्व साने से मयादा का भतिक्म दो खापगा | इस मय नौकर, चाकर आदि आष्याकारी पृरुप को भेज कर।कास्प फ़राना प्रेप्प प्रयोग अ्रतिषार ६7 हऋ-ण 5 है ब्लू (३) शब्दानुपात--अपन घर की बाड़ या चहारदीबारी के गाजर फ्रे नियमित छेत्र स॑ बाहर-क्ारय ओोने

प्री मैन सिद्धास्त वोल़ मंप्रा, प्रधेग माग ११९

* जती का बत भद्भ फे मय से स्वयं पाहर'न साझर निमर वर्सी छ्लोगों को छींक खांसी भादि शब्द हारा ज्ञान कराना « आम्दालुपाद' भतिचारूै।.

($) रूपानुपात--नियमित चैत्र से बार प्रयोजन होन पर दूसरों फो अपने पास पुराने फे स्तिए अपना या पढ़ा विशेष का रूप दिखाना रुपानुपात भतियार है ।*'

(५) बष्टिः पुद्गल प्रदेप -नियमित देत्र बाइए प्रयोजन होन पर बूघरों फो खठाने फे छिपे देशा, कट्टर आदि फ्ेकना बड़े पुतृगल प्रध्ेप भ्रतिचार ६३”) +

पूरा बियेक होने से संघ सशसाफार भनुपयोगादि सम पहले के दो भ्रतिचार हैं। मायापरता ठथा व्रत सापे चता म॑ पिछले दीन भतिचार हैं। ,.. डर ( रपासक व॒शांग अ० है सृ० )

| ( पं संप्रइ अधिकार श्तोक ५६ प्रूप्7११४-११४ / ( इर्मि्रीय आवश्यक अ० $ प्प्त ५३४ )

३११--प्रतिपूर्ण ( परिपूर्ण ) पौपध ग्रत के पाँच भतिघार)-- (१) अप्रस्पुपेघित दृष्पत्युपेध्चित शप्पा सस्तारक्ष (२) भरप्रमार्मित दुष्प्रमार्णित श॒स्पां संस्तारक | (३) अग्रस्युपेदित दुष्प्रस्युपेधित उधार प्रद्धघण मृमि | (४) भप्रमार्मित दृष्प्रभागित उच्चार प्रस्पस मूमि। (४) पौपण छा सम्परू अपालन।

९?) अग्रत्युपेधित दुष्प्रत्युपेचित शस्पा संस्तारक!-«शस्पा संस्तारक का थघु निरीदण करना था प्रन्यमनस्क

३६० शी सठिया भैन प्रम्थमाला दोकर झसाजधानी से निशीयण करना अग्रत्यूपक्षित दुष्प्त्य पेदित शप्पा संस्तारक झतिघार ई।

(२) अ्रप्रमामित दुष्प्रमार्जित शय्पा सस्तारक --शस्या सस्ताएक (प्भारे) को पू जना पा अनुपयोग पृ्षक असावधानौ से पूलना अप्रमार्डित दृष्प्रमार्थित शप्या सं॑स्तारक भ्रदि चार ६।

(३) भप्रत्युपेष्धित दुष्प्रत्युपेधित ठच्चार प्रस़्वण मूमि।-मत, पत्र झादि परिठयने के स्पणिदिसत फ्रो दखना मा भनुपयोग पूर्वक असाइणानी स॑ देखना भग्रत्युपेषित इप्पत्युपेषित रच्चार प्रस्त्रण मूमि झतिभार है

(४) भप्रमार्जित दृष्पमार्थित उन्चार प्रस़्रश मूमिः -मख, मूत्र भादि परिटवने के स्थणिदक्त को प्‌ धना पा बिना उपयोग

असादपानी से पुसना अप्रमार्शित दुष्प्रमार्मित उच्चार प्रस़नण मूमि भतिचए है |

(४) पौपधोपबास कय सम्परू अ्पाठन/--भाममोक़त विधि पे स्थिर बिच होकर पापपोपबास छा पालन करना, पौषध में भाद्र, शरीर दयुभूपा, भ्जह्न दया सावध ब्यापार की अभिलापा करना पौपयोपबास झा सम्पक्‌ झ्रपालन झति आर है।

प्रती फ्रे प्रमादी होने से पहस्ते चार अदठिचार हैं) अतिचारोक्त शय्पा सस्तार तथा उछ्वार प्रख्दण मूमि का उपमोग करना झ्मतिचार का कारण दोने से थे अ्रतिचार

भी जैन सिद्धास्त बोल संपरह प्रथम माग झ्१्३

फड्दे गये हैं। माव से पिरति फ्रा ब्राघक्त होने से पांचवां अतिचर है। (उपासक दर्शांग अ० ! सू० ) ३१२--भ्रठिथि समरिमाग के पाँच अतिचारः- (१) सचित्त निधेष॥। (२) सचित्त पिघान | (३) क्ाक्नातिकम | (४) पर स्यपदेश (५) मस्सरिता

(१) सचित्त निदेप/-साधु को नहीं देने की पुद्धि से कपर पूर्वक सचित्त घान्प भादि पर भचिच अम्मादि का रसना सचिय निधेप भतिचार

(२) सचिध् पिघानः--साधु को नहीं देने फी पुद्धि से कप पूर्वक भचिद्त भन्‍नादि फो सचित फत झादि से इछना सचित्तपिघान भविभार है |

(३) कालासिक्रम उचित मिद्दा छाक्त का झ्तिक्रमणश फरना कालातिक्रम भविषार ई। काक्त भतिक्रम शो जान॑ पर यह सांच कर दान क॑ लिए उधत इोना कि भ्रम साधु मी झादार तो छेंगे नहीं, पर वह जानेंगे क्रि यद आबछ दातार

(४) पर स्पपदेश!---भादइरादि भपना होने पर मी दन फी पृद्धि सं उस दूसरे करा बताना परम्पपदेश भविचार ई।

(४) मस्सरिता --भयुर पुरुष ने दान दिया क्या में ठत्तत कृपणय या दीन हैं! इस प्रकार ईर्पामाव से हान दन में प्रवृष्ि ररना मत्सरिता भतियार ६।

श्र श्री सठिया मैन प्रश्यमाजा

अ्रववाः- मांगने पर इुषिस होना और होते हुए मौ देना, मत्सरिता भविषार हू + झववा।- कपाय कछुरित चित्त से साधु को ठान देना मत्सरिता भविषारईैं। न]

(बम ्स॑० अधि< > शजो० ४३ श८ प्र १०० से ११६) !. (उपासक दशांग १सुण्ने (दरिमब्रीम भ्राजशमक अ० इ-पूष्ट ५१०-८१८ )

३२१३--फ्परभिम मारयान्टिकी संसेसना फ् पाँच भ्विषार -7 अन्तिम मरश समय में शरौर भौर फ्पायादि को कुश ऋरने बाला ठप विशेष भ्रपश्चिम मारशान्तिकी संतेक्षना

है। इसके पाँच भतिचार ई-- ! (१) हइसोकाशंतसा प्रयोग।. (९) परलोकाशप्तां प्रयोग

(३) सीवितार्शमा अपोग (४) मरखाशसा प्रयोग |

(१) काममोगार्शसा प्रयोग (१) इइशोकार्शसा प्रपोग--रशततोक भर्पात्‌ मनुम्प क्षोक बिप- परू इष्छा करना | चैसे जन्मान्तर में मैं रामा, मन्त्र वा

संठ दवोऊं, एंसी भाइना करना शइलोकाशंसा प्रयोग झति आारई |

(२) परशोछझ्ाशंसा प्रयोग/--परलोक विपयकर झमिश्ावरा करना, सैसे--मैं सन्मान्तर में इन्द्र पा देव दोऊें, ऐसी चाइना करना परक्षोकाशंसा प्रपोग अ्रतिभार [र ्‌

भी देन सिद्धान्य बोल संभइ, मबस भाग ३१५

(9) जीषिताशसा प्रयोग/--वहु परिष्वार एवं ज्ञोक प्रशसा क्रादि फारसों से भधिक जीषित रइने फ्री इब्छा करना मीमिताशसा प्रयोग है|

(४) मरणाशपा प्रयोग --भनशन करने पर प्रशसा आदि देख कर या छुपा शादि कष्ट से पीड़ित होफर शीघ्र मरने फ्री इष्छा करना मरसाशंसा प्रयोग

(५) फाममोगार्शसा प्रयोग--मनुष्प एवं देवता सम्बन्धी काम अर्थात्‌ शब्द, रूप एब मोग झथात्‌ गन्घ, रस, स्पर्श की इच्छा करना फाममोगाशंसा प्रयोग

(रपा० इ० अ« सू* ७) (घम सं० अधि० शलो० ६६ प्रछ २३०)

(इरि० भ्राद० अध्प० प्रप्त ५१८) ३१४--भाजक फ्रे पांच अमिगम--ठपाश्रय फ्री सीमा में प्रवेश करते ही श्रावक्र फ्लो पांच अमिगमों फ्रा पालन फ़रुना भाहिये | साधु थी फरे सह्ल लाते समय पाले जाने बाते नियम झमिगम कहताते वे ये ६-- (१) सचित्तद्रस्प, जँस-युप्प, ताम्यूत्ष भादि का स्पाग करना। (२) भषित ट्रम्प, जैसे:--वस्थ वगैरइ मर्यादित फरना (३) एक फएः वाले दुपट्टे का उत्तरासंग करना | (४) मुनिराज के दृष्टि गोषर शोत॑ शी द्वाथ जोड़ना ! (४) मन को एफाग्र करना ( मगवष्ठी शादक इदेशा सूत्र १०६) ३१४-चारिय की स्यारुपा और मदः--घारिष मोइनीय कर्म फे धय, उपशम या दयोपशम से दोने बासे जिरति परि- शाम का चारितर कश्स

३१३ जी सेठिया जैम प्रस्पमाका

अन्य जन्म में ग्रह किसे हुए कर्म संच्रय के दर फरने के छ्षिये मोधामिलापी भात्मा छा सर्व सावध योम से निवृत्त होना चारित्र कहलाता है चारित्र फे पाँच मेद)--- (१) प्ामापिक चारित्र (२) छेद्रोपस्पापनिक भारित्र | (३) परिद्ार विश्युद्धि घारित्र | (४) छवमसम्पराय चारित्र | (५) यपारूपात चारिष्र | (१) सामायिक्त भारिश्र--सम भणांत्‌ राग द्वेप रहित झ्ात्मा प्रतित्तत् अपू्व भपूर्व निर्मरा से होने बात्ती झात्म- बिशुद्धि फ़ा प्राप्त इोना सामापिक है भवाटवी के अमण से पेदा होने पाठ्े क्लेश को प्रतिदरझ नाश करने बाली, सिन्तामशि, कामपेनु एवं ऋल्प दे के सुखों रा मी तिरस्फार फरने बाली, निरुपम सुख देन बाली ऐसी क्षान, द्शन, भारित्र पर्यायों को प्राप्त कराने बालते, राग दवप रद्दित भारमा के क्रियानुप्मन को सामायिकत घारित्र कइत ई। सब सावध स्पापार का स्पाग फ़रना एवं निरबध स्यापार फ्ा सेबन करना सामायिक आरित्र ६। यों तो भारित्र के समी मेद सावय योग पिरतिरूप है। इस लिप सामान्यत सामागिक्त ही ईं। डिन्‍्तु ख्रारित्र के दूसरे मदों साथ छंद भादि विशेषण दोन से नाम भौर अप मिन्‍न मिन्‍न बताये गय ई। छंद भादि जिशेषशों के इन पहसे घारिष्र का नाम घामान्य रूप सामायिक्त ही दिया गया £

आम

मी जैन सिद्धास्त चोक सपइ, प्रथम माग ३१७

सामायिक के दो- मेट--न्‍त्यर फ्राक्षिक प्ामायिक और यावस्कथिछ सामायिक |

इत्दरकाल्िफ सामायिक--ृत्दर छाछ का अर्थ है अन्‍्प फाल अर्थात्‌ मविष्य में दूसरी बार फिर सामामिक गत का व्यप देश होने से दो अल्प क्त फ्री सामायिक हो, उसे इत्र कालिक सामायिर कइते हैं। पहले एवं भ्रन्तिम तीपक्षर मगदान्‌ फे तीर्थ में जब तक शिप्य में महातत का भारोपण नहीं किया खाता तब तक उस शिप्प के इत्दर फ्ाशिक सामायिक्त समझनी चाहिये यावस्कषिक साम्रायिक -्यावब्जीबन क्री सामाग्रिक यावस्कमिक सामायिक्त कइलाती ६। प्रथम एबं प्रन्तिम तीरपैशर मगवान्‌ के सिपाय शेप घाईस दीर्पकर मगषान्‌ एप मद्दाबिदेद छंत्र के दोप॑डरों फे साधुभों के यावत्कपिक सामायिद दांती ई। स्पोंझि इन तीर्थडटरों के शिप्पों छो दूसरी भार सामायिक्त द्रत नहीं दिया जाता |

(२) छद्ोपस्‍््पापनिक चारित्र--जिस चारिप्र में पूर्व पर्याय का छेद एब मशाततों में उपस्थापन-आरोपण होता उसे छेदपस्थापनिक चारिष्र फइते £।

अथवा --- पूपर पर्याय का छेद कर सो महाय्रत दिये खास हैं। ठप्त छेद्धोपस्थापनिक घारित्र ऋहते है। यह चारित्र मरत, ऐरावस देष्र के प्रथम एव घरम

तीपेकरों के दीर्ष में दी होता शेप तीपेकरों के दीर्ष में नहीं होता।

श्श्द भ्री सठिया मैन प्रस्यमाजा

छेद्ोपस्थापनिफ चारित्र के दो मेद ई-... -

(१) निरतिच्वार छेरोपस्पापनिकर |

! (२) साठिभार छेहोपस्थापनिक | (१) निरतिचार छेद्दोपस्थापनिक --- शत्बर सामायिक बासे

शिप्प के एवं एफ सीर्प से इसरे सीर्य में वाने बाले प्राधृभों फ्रे को वठों रा भारोपश होता हे बह निरतिचार छ्ेद्ोपस्पापनिक घारित् है।.

(२१ सातिषार छेद्ोपस्पापनिक!-मृल गु्यों सम पाठ करने बासे साधु के जो अतों झा झारोपण होता है। गई साप्तिचार छेद्दोपस्थापनिफ चारित्र ई।

(३) परिद्वार विशुद्धि चारिश्र --भि्त जारित्र में परिह्ार एप दिशेप से कर्म निर्रा रूप शुद्धि इोदी ६। उसे परिद्धार विद्युद्ध चारित्र कइते ६।

अपबा३--

जिस घारिप्र में घनेपशीयादि का परित्वाग विशेष रूप से शुद्ध दोता गई परिद्ार विद्युद्धि भारित्र ६।

स्पय॑ तीषंकर मगवात्‌ के समीप, पा तीप॑ड्भूर मगबान्‌ के समीप रह कर पहल्त जिसने परिद्ार विशुद्धि चारित्र भड्ीछार किया उसके पास यह भारित्र भह्ीझार किया खाता ६। नव साधुभों का गल परिद्दार हप भ्रद्मीफार फरता | इन में भार तप करते है था पारिशरिफ कहलाते है। जार गेयादृस्प करत ईं। जो अनुपारिहारिक कइस्तात €ं भार एक इम्पस्पित अर्थात

श्री जैन सिद्धास्त घोक सं॑प्रह, प्रथम माग ३१६

गुरु रूप में रहता दे जिसके पास पारिदारिक एवं झनुपारि- इारिक साधु भाततोचना, पन्दना, प्रत्याह्पान भादि फरते हैं। पारिशरिफ साधु ग्रीष्स च्यूतु में वघन्य एक उपवास,मण्यम देखा (दो उपबास) झौर उत्कृष्ट तेला (सीन ठपयास) तप फरते हैं | शिशिर काक्ष में अपन्य ग्रेंसा मप्यम देला भौर उत्कृष्ट ( चार उपयास ) चौता सप फरते हैं। बपा फाल में यपन्प तेज्ला, मध्यम चौता और उस्कृष्ट पौत्ता तप फ़रते ई। शेप चार भानुपारिहारिक एवं फल्पस्थित (गुरु रूप) पाँच साधु प्रायः निस्प मोजन फरते हैं। में उफ्ास भादि नहीं फरते | भायंद्रिश फे सिवाय ये और मोजन नहीं फरते। भर्थात्‌ सदा आयंणिल ही करते हैं। इस प्रकार पारिदारिफ साधु मास तक तप फरवे हैं। ऋ. मास तफ तप कर लेने के बाद पे भनुपारिद्ारिझ भर्यात्‌ सैयाइस्त्प करने बाले शो घातें हैं भीर देयाइक्प करने पाले (भालुपारिद्ारिक) साधु पारिदारिक बन नाते भर्पात्‌ तप फरने शग घाते हैं। यह क्रम मी छः मास तू पूर्व वत्‌ चक्तता है। इस प्रकार झाठ साधुभों के सप फर छेने पर उन में से एक गुरु पद पर स्थापित किया खाता है भौर शेप सात चैयावृप्प करते हैं भर गुरु पद पर रहा हुआ साधू तप करना शुरू फरता है। पद्ट भी छः मास तक तप करवा हैं। इस प्रकार भरठारद मास में यह परिहार तप का कूम्प पूर्ण दोठा है। परिद्वार ठप पूरे होने पर प्रे साधु या तो इसी ऋम्प फो पुनः प्रारम्म करते हैं या जिन कश्प घारण कर

श्री सठिया बैन प्रम्यमाश्ना

संत है या बापिस गरुछ में भाशाते ह। यह चारित ४०000 चारित्र वात्लों फं ही होता दूसरों के |

निर्विश्यमानक -ओर निर्विष्कायिक के मेद परि्टर विद्युद्धि चारित्र दो श्र का |... /

तप करने बाल पारिदारिक साधु निर्षिश्यमानक् कइताते हैं उनझा चारित्र निर्विश्यमानक परिडार विद्यद्ि चरित्र फ़साता

सप करफ॑ वैयाइस्प फरने वास झनुपारिदारिक साधु तथा तप करने के घाद गुरु पद्‌ रद्दा हुमा साधु निर्मिषट कापिझ कइलाता है। इनका चारित्र निर्दिष्कापिफ परिहार विद्युद्धि भारि कलाता है। -_- -

( बिश० गा० ११७० १२०६)

(४) बह सम्पराय भारित/--सम्पराप का भर्प कपाय दाह

ई। खिस बारित्र में धरदम सम्पराय झर्थात्‌ संज्बंन होम का घक्म झरा रहता है | ठसे यक्म सम्परा्य_चारित कदस है।

विशाद्धधमान भौर सक्तिशंपमान के मेद से छ॒क़म प्म्पराय चारित्र के दो भेद हैं।। सी

चपक श्रेशी एवं उपशम भ्रेशी पर चबन माले साधु परिणाम उत्तरोचर शुद्ध रइन॑ से उनका ख़बम सम्पराय चारित्र विशुद्धघमान कइछाता है। __ न्ध

उपशम भ्रेंश्ी से मिरिव हुए साधु फ़ परिणाम संब्र्तेश युक्तडोवे हैं। इम लिये ठनका घक्मसम्पराय भारित्र पंक्लिस्पमान कइखाता हैं। 7

श्री जेन सिद्धास्त थोक संप्रद, प्रथम माग झ्श्१

(५) यथारूपात चारिय्र--सर्बभा फपाय का ठदय ने से अतिचार रहित पारमार्थिफ़ रूप से प्रसिद्ध घारित्र यथा हयात चारित्र कहलाता हे भ्रमवा भकपायी साधु का निरदिचार यथार्थ वारित्र यथार्यात भारित्र कइछाता ईं।

छपस्थ भौर फ्ेबली के मेद से पथास्पात 'चारित्र के दो मेद हैं भयवा ठपशान्द मोह भौर चील मोह या प्रदिपाठी भौर अप्रतिपाती फरे भेद से इसके दो मेद हैं। सयोगी केएली भौर भ्रयोगी केवती के मेद स॑ करती पथारुपात चारित्र फ्रे दो मेद है [| ( ठाणांग रुशेशा रऐ छृत्र ४२८ ) ( अनुयोगढ्ार सूत्र १४४ पृष्ठ २९० ) ( ध्यमिधान राडेस्द्र कोप माग तथा

सामाइआ और चारित्त शम्द ) ( बिशेपाबश्यक साष्य शाथा ११६०--१२७० )

३१६---म्द्दावद की व्यास्या और ठेके मेद+-- देशविरति भावफ की भ्रपेश्ा महान गुसवान्‌ साधु पनिराब के स्ंविरति रूप बतों को महरजत कहते ह। अथबाः-- आवक के भणुवत की अपेद्ता साधु फे तत बड़े है। इस लिपे ये मद्ावतत कहलाते हैं। मद्मग॒त पाँच है।-- (१) प्रास्ाठिपात बिरमथ महातत (२) मृपाषाद बिरमण सदजत | (३) भद्शादान गिरमय मदातत।

झ्२२ सेठिया जैन प्रस्थमाला

(४) मैथुन विरमण मदृजद | (५) परिग्रइ विरमण महाजव |

(१) प्राझ्याठिपात बिरमश मदजतः--प्रमाद पूर्वक छक्स भोर बादर, श्रस और स्पार रूप समस्त सींों के पाँच इन्द्र, मन, बचन, काया, रपासोप्छूप्रास और भायु रूप इश प्रासों में से किसी का अतिपात (नाश) करना प्रालातिपात ह६। सम्परक्ञान एग अद्धापूर्षक यौदन पर्यन्त प्राशातिपाठ से तीन करस तीन योग पसत निष्ृत्त होना प्राश्ातिपा्त जिरमस रूप प्रथम महावत ह।

(२) भुपाबाद विर्मश मदज़तः--प्रिपकारी, प्रस्यकारी एवं सत्प बचन को छोड़ कर कपाय, मय, दास्प आदि के इस असस्प, भप्रिय, सहितिकारी बचन ऋइना मुप्राषाद ई। प्रत्म, बादर फे मंद से असस्प बचन दो प्रकार का |

१५१. पक्धाष प्रतिषेष, असद्धाबोकाबन, भअर्थान्तर और गई $

2 भेद से असस्प वचन धार प्रद्मर का मी है

नोट।---असत्प दचनन क॑ चार मंद झौर उनकी स्पास्पा बोश नम्बर २७० में दे दी गई

ओर को ओर फइना, कोड़ी को कोड़ी कहना, कर्खि

को कासा कइना झादि अप्रिय बचन ई। कया जंगस में पुमन॑ मृग देखे ! शिक्षारियों के यह पूछने पर संग देखन बाशे पुरुप का उन्‍हें विधि रूप में उफ्तर देना भरद्टित बचन

है। उक्त अप्रिय एइं झद्दित वचन ब्यद॒शार में सत्य इोने

पर मी पर पीड़ाकारी दे से एवं प्राद्यियों की हिंसा

श्री औैस सिद्धाश्द बोल संप्रइ, प्रभम मांग ३२३

खनित पाप के तु होने से सावध है। इस श्षिये दिसा युक्‍स होने से पास्‍्तव में भसत्य ही है ऐसे सपायाद से सर्घया सीयन पर्पन्त तीन फरण सीन योग से निश्चय होना सपादाद विरमश रूप द्वितीय महाघत

(३) अश्दादान दिर्मश महात्रत--छईं पर भी ग्राम, नगर, अरएय भादि में सचित, अ्रत्रिश, अन्‍्प, गहु, भ्रणु, स्पूल्त आदि वस्तु को, उसके स्वामी की द्िना आप्ठा लेना अदसादान है। पद अदत्तादान स्थामौ, जीव, सौर्पह्ूर एवं गुरु फ्षे मेद परे चार प्रकार का होता है--

(१) ज्वामी से पिना दी हुई हस, कष्ट भादि भस्तु लेना स्पामी प्रदादान है।

(२) कोई सयित्त वस्तु स्वामी ने दे दी हो, परस्तु उस वस्तु दे अधि्टाता जीब की झाजा बिना उसे सेना जीव भ्रद- सादान है। मैसे-माता पिठा या सरदक दारा पृष्रादि शिष्प मिदा रूप में दिये जाने पर मी उन्हें उनकी इच्छा प्िना दीचा लेने के परिशार शोने पर मी उनक्की अनुमति के बिना उन्हें दीदा देना मीद भदत्तादान है| इसी अक्यर धचित्त पृथ्वी झादि स्वासी द्वारा दिये जाने पर मी पृथ्वी-शरीर दे स्वामी थीव की झ्ाज्ञा शोने से ठसे मोगना जीव भद- सादान है| इस ग्रार सचित्त वस्तु के मोगने से अथम महावत के साथ साथ तृतीय महात्रत का भी मह्त होता है। (३) ऐीप॑डर से प्रतिपेष किये इुए भाधाझमादि भार प्रइस करना दीर्भडूर अदत्तादान है |

२४

श्री सेठिया जैन प्रस्यमाल्ा

(9) स्वामी द्वारा निर्दोष झ्राह्यर दिये जाने पर मी युझ कौ आड्डा प्राप्त किये बिना उसे मोगना गुरु अदत्तादान है |

किसी मी चेत्र एवं बस्तु विषयक ठक्त चारोंबकार के भदत्तादान से सदा के किये तीन रख गौन जोम से निषचच होना भदचादान दिरमश रूप सौसरा महात्तत है।

(४) मैथुन विरमश् महाजत-देष, मनुष्प भौर तिस्च सम्बन्धी

दिव्य एवं झ्ौदारिक काम-सेषन का तीन करण तीन भोग से स्पाग करना मैथुन गिरमथ रूप घ॒त॒र्ण मंदाक्नत है।

(५४) परिग्रह दिरमख भद्राजतः---अल्प, बहु, भर, स्पूछ,, सचितत,

असिच झादि समस्त ड्स्प विपयफ्र परिव्रइ कय तीन छरण सीन गोग पे स्पाग करना परिग्रइ विरमश रूप फ्रंचरी मइणत है। 2234 ममस्व दोना, भाव परित्रह है भौर बह स्पान्य है| का कारण होने से बाह्य सकऋत बस्तुएं दरस्प परिग्रह हैं भौर बे मी त्पाज्य हैं। माई- परित्रद सुरुप है झौर ट्रन्‍्प परिप्र३ गौय | इस लिए पई कहा गया है कि यदि धर्मोपकररश एवं शरीर पर पति के मूर्च्श, ममता माव सनिद राग माव हो तो बह उन्‍हें पारण करता हुआ मी भपगिप्रदी दी |

(दराबेकाहिक अश्यवन ४)

(ठाणांग श्च ! सूत्र शे८३ )

(बम संमइ भ्रप्चि० रखो० ३६४ पृष्ठ १२० से ११४)

( पषचन सारोद्धार हार ६६ माया ४५१ )

३१७--प्राथादिपात द्रिमल रूप प्रथम मह्ाज़त की पाँब

माबनाएँ।---

भरी मैन सिद्धास्व धोल संप्रद, प्रथम माग

(१) साधु ईर्या समिति में छपयोग रखने पाला हो, कभोंकि ईर्या समिति रहित धापु प्राण, मूठ, जीप भौर सन्त फी हिंसा + *रने वाला होता है।

(२) साधु सदा उपयोग पूर्षेक देख कर चौढ़े मुख पासे पात्र में आदर, पानी ग्रह करें एप प्रकाश बारे स्पान में देख कर मोमन करे। भलुपयोग पूर्वक बिना देखे भा्टारादि प्रशस्त॒ करने बाले एवं मांगने वाले साधु के प्रास, सूत, खरीद औौर सच्त फ्री हिंसा का सम्मद है|

(१) भयतना से पात्रादि मंडोपगरण लेने भौर रखने करा भागम में निपेष दै। इसलिए ध्ापु झागम में कुद्टे भनुसार देख फर भौर प्‌ बकूर यतना पूर॑क भंदोपगरण छ्मे भौर रखे, प्रन्यगा प्राणियों फी हिंसा का सम्मय है!

(४) श्रयम में सादघान साधु मन को हम प्रददचियों में छगाषे | मन को इुएं रूप से प्रबर्त्ताने बाला साधु प्राणियों की दिसा करता है। फझाया छा गोपन होते हुए मी मन की दुष्ट अपृत्ति शजर्पि प्रसन्‍न चन्द्र की परइ कर्मतन्ध का कारण घेषी

(४) प्रयम में प्राषघान साधु भदुष्ट भर्पात्‌ शुम वचन में प्रहृत्त करे दृष्ट बचन में भप्रि ऋरने बाले के प्राशियों की हिंसा का संभय है।

शे१८--म्रपावाद विरमशय रूप डविवीय मइापत को पांच मावनाएँ.-- की

३२६ श्री सेटिया जैस प्रत्थमाऊा

(१) पत्पवादी साधु क्मे हस्प का त्याग करना चाहिये क्योंकि इास्य पश सपा मी शोला था सकता है।

(२) साधु को सम्पग्डान पूर्वक वित्ञार करके बोशना चाहिये! क्योंकि बिना दिचारे दोसने बएा कमी मूठ मी कद सकता है।

(३) काप के इफ्स को जान कर साधु को रसे त्पामना भाहिये | फ्रोघान्ल स्पक्ति का चित्त झशान्त हो जाता है। बह सदर, पर का मान मूर्त चाता और थो मन में श्राठा हैं बह्दे कई देता | इस प्रकार उसके मूठ बोलने दी बहुत स॑मावना है।

(४) साधु को ज्लोम का स्पाग फरना चाहये क्योंकि खोमी व्यक्ति पनादि की इच्छा से झूटी साढी भादे से मठ बो्त सकता ६।

(५) साधु को मय क्ला भी परिशर करना चाहिये मयमौत स्पक्ति अपने प्राशादि को घचाने की इच्छा से सत्प अत के दृपित कर असत्प में प्रशत्ति कर छक्ता है।

३१६--भदतादान बिरमण रूप सीसरे महात्रत क्री पांच

माबनाएँ---

(१) साधु को स्वर्प ( दूसरे रू हारा नहीं) स्वामी अगवा स्वामी से झ्पिकार प्राप्त पुरुष को अभ्छी तरह जान कर पद भषग्रद (राने के स्थान) की थाना करनी भाहिये। प्रन्पया साधु को अदृत्त प्रहय का दोप छग्ता है।

(२) भषप्रइ दी झाड़ा लेकर भी वहाँ रहे हुए तशादि ब्रदय के लिये साधु को भाज्ञा प्राप्त करना चाहिये। शप्पातर का

भ्री सैर सिद्धास्व बोश संप्रह प्रथम माग इ्र०

अनुमति दवन सुन फर ही साधु को उन्हें लेना चाहिये अन्यथा पद बिना दी हुई बस्तु के ग्रहण करने एपं भोगने का दोपी है।

३) साधु को उपाभय कली सीमा को सरोल फ़र एवं भाज्षा आप्त कर उसका सेवन झरना चाहिये | तात्पस्पे यह है कि एक मार स्वामी के ठपाभय फ्री भाज्ञा दे देने पर मी बार बार उपाभ्रय का परिमाण खो कर भाज्ना आप्त फरनी चआाहिये। म्तानादि अपस्था में संदुनीस, बड़ीनीत परिख्वने, इाय, पैर घोने आदि फे स्पानों क्री, भवग्रइ ( उपभय ) की भाज्ञा होने पर भी, याचना करना 'बाहिये ताकि दावा का दिल दुःखित हो

(४) गुरु भयवा रस्नाषिक की भ्राज्ञा प्राप्त कर आइर फरना चाहिए | भाशय यह है कि सज़ोस विधि से प्राप़क एपशीय प्राप्त हुए भ्राइर को ठपाश्रय में शाझर गुरु के झागे आोचना कर भोर भाद्दार दिखला कर फिर साधुमंडती में था भफेसे उसे खाना भाशिये। घर्म के साधन रूप भन्‍्प उपकरकों ग्रह एवं ठपयोग भी गुरु की आजा से ही करना चाहिये

(४) ठुपाश्रय में रहे हुए समान भाचार बासे संमोगी साधभों से नियत देश भौर काल टिये उपाभ्रय की भाज्ञा ग्राप्त करके दी ब्शं रइना एवं माजनादि करना चाहिये भन्पथा चोरी का दोप ज्गदा ६ैं। (मर८० सा० द्वार श्गा ६३८)

३२०--मैथुन विरमण रूप चतुर्थ महद्त की पाँच मामनाएं-

(१) हुश्चारी को आदर के बिपय में संयत होना चाहिए | ऋति

श्रप भी सठिया जैन प्रश्यमाश्ता

स्निग्प, सरस भाद्यार करना चाहिए और परिमाश प॑ झषिक टू टू कर ही झाद्ार करना चाहिए | अन्पणा प्रश्नधस्प फ्री बिरापना दो सझती मात्रा सं झणिक आहार तो प्र्नच्पे छे अ्रतिरिक्त शरीर के शिएमौ पीड़ाकारी |

(२) मश्नघारी फ्लो शरीर छो विमृपा भर्थाव्‌ शोमा, शुभूगा फ़रनी चाहिपे। स्वान, विलपन, फ्रेश सम्मार्थन आदि शरीर फ्री सजाइर में दत्तचित्त कई सदा भंच॒ल चित्त रहता है भौर उसे विफ्रारोस्पचि होती जिससे चौसेजत को पिराघना मी हो सकती है !

(३) स्त्री एवं ठसफ्रे मनोहर प्लुस, नंत्र झ्राहि अंगों को काम बासना की दृष्टि से निरसना चाहिए। बासना मरी दृष्टि ढारा देखने से प्रश्नचर्य संडित होना संस |

(४) सियों के साथ परिक्षय ररू। ली, पशु, नपृसकस सम्बन्धित उपाभय, शायन, झासन आदि का सेबन करे | झन्पथा अश्नचर्य्य अतमज़ हो सकता है|?

(५) रत्तज्ञ झनि, सख्री दिपयफ कपा करे | स्त्री कजा में आसक्त साधु का चिच बिद्ठत हो घाता | स्त्री कथा को प्श्नर्य्य के छिए पातकू समझ; कर इस्तस सदा अ्द्ययारी को इर रइना चाहिए।

झातारोंग सज दया समवायांग सत्र में अद्यच्म बत की माबनाओं में शरीर की शोमा विमूषा का स्पाग करने के स्थान में पूर्व प्रीड़ित अबात गृदृस्पाइस्था में मोगे हुए

मरी दैन सिद्धास्व घोल संप्रह, प्रथम माग श्र

काम मोग झादि फ्रा स्मरण फरना सिखा ! क्योंकि पूर्प रति एवं फ्रीड़ा का स्मरथ करने से फामाग्नि दी होती ई, जो कि प्रप्नचर्य्य के लिए घातक

३२१--परिग्रद विश्मण रूप पोचवें महज़त की पौच माषनाएं।-- पाँचों इन्द्रियों के विषय शब्द, रूप, गण, रस भर स्पर्श के इन्द्रिय गोचर दोने पर मनोष्ठ पर मूर्च्छा--शद्ि भार छापे एपं भ्मनोद्ठ पर दप करे, यों तो दिपयों के गोचर ने पर इन्द्रियां उन्हें मोग्ती ही है परन्तु साधु फ़ो मनोश्न एवं प्रमनोष्ठ विषयों पर राग द्ए ने करना भाहिए | पांच जत में मूर्च्छा रूप भाप परिग्रइ का त्याग फ़िपा वाता ६। इस लिए मुर्च्चा, ममत्व करने सपरत खगिरत हो जाता ई।

( बोज़ सम्दर ६१७ ३२१ तक के किए प्रमाण )

( इरिमिद्रीय भावरपक प्रतिृ्मणाध्ययन प्ठ ६५८ )

( प्रदषम सारोद्धार द्वार ७२ गाया ६६६ ६४० प्रूष्ठ १०७ ) ( समबायांग २५ वा समवापष )

( भझाषारांग सूत्र भुदरकस्प चूजा अ७ २४ सूत्र १७६ ) ( पर्म संपइ अधिकार श्को» ४श हीका पृष्ठ १२५)

३२२--ेंदिका प्रतित्तसना झे पांच मेद'-- हू प्रमाद प्रतितसना में छठी येदिका प्रतित्तेसना है। बह पांच प्रकार फी - (१) ऊ्घे देदिका (२) भधोषेदिका | (३) वि॑स्पेदिफा (४) दिपा बेदिफा (५) एफनो पेदिसाग

ह६० श्री मठिया झैन भन्‍्यमाला

(१) ऊर््ष बेदिका --दोनों घुटनों के ऊपर हाथ रत कर प्रति- लेखना करना ऊर्घ्प बेदिफा ह।

(२) अपोबेदिका--दोलों घुरनों के नीचे हाथ रख कर प्रदिते « खना करना भषघोवेदिका ) “०

(३) ठिर्म्बेदिफा'--डार्नों घुटनों फे पाशर्ज (पसबाड़े) में शाब रख कर भप्रतिछ्तेसना फरना तिर्यग्वेदिका ई।

(४) डिपामेदिदाः--दानों घुटनों को दोनों इुजझों के दोच में करके प्रतिसेखना करना दिघा बेदिका है।

(५) एकसोपेदिफाः--एक घुटने को दोनों ल्‍्ताओं रू बीप में करके प्रतिलेखना फरना एफतोदेदिका

( ठाझांग रहेशां $ सूत्र २०३ टौका )

३२३--पांच समिति को स्यारुपा और उतर मेदः- प्रशस्ठ एक्लाग्र परिसाम पूरक की जाने बाली झाग- माक्त सम्पकू प्रवृत्ति समिद्ि कश्लाती |

अथबा --

प्राश्यतिपात स॑ निइच होने फ़ शिए यतता पूर्णु मम्पक्त प्रहत्ति करना समिति ६। भप्रिति पांच ६. (१) इपा समिति (२) माषा समिति। ] (३) एपणा समिति | (४) भादान मणह माप्र निचंद्शा समिति

भी जैन सिद्धास्ठ योक संग प्रयंम साग १३१

')) (४) उचार प्रख्ननस खेल मिंषाश (जिल्‍स * परिस्वापनिका

गा + मसिसि ॥आ 7६ # काया हे |] के

(१) ईर्पा समिति।--श्ान, दर्शन एप वारित्र के निमिचत आग- मोक्त काल में युग का माण ममि फो एफ्ाग्र चित्त से देखते हुए राजमाग झादि में यतना पूषेक गमनागमन करना ईर्या समिति है।

(४) भाषा समिति।--पना पूरक मापल में प्रद्त्ति करना धर्थात्‌ भ्रापश्यक्रता होने पर माषों के दोपों का परिद्दार करते हुए सत्प, हित, मित भौर भसन्दिग्ध मंचन फइना मापा समिति है।

(३) एपशा समिति -गवेपथ, ग्रदथ भौर प्रास सम्बन्धी एप के दोषों से प्रदूषित भव एवं बिशुद्ध भार पानी, रचो

/! इरुण, प्खपरिप्रिका आदि भोषिक उपधि भौर शय्पा, पाट, पाठलादि झौपग्रशिफ उपधि का ग्रइय करना एपला समिति ह। है

मोठ+--गरैषणैपसा, प्रश्सैपणा भौर प्राप्ेपणा का स्वरूप 8३ दें मोल में दे दिया गया है।

(9) झ्रादान मंद मात्र निधेषा समितिः--भासन, सस्ता

हक, पाट, पाटला, परत्र, पात्र, दएण्डादि उपकरशों को * हपपयोग पूर्वक देख कर एब रजोइरशादि से पूज कर

छेना एवं उपयोग पूर्वफ देखी कौर पूरी हुए भूमि पर

एसना,आादान भड़ मात्र निद्ेपणा समिति

(५) उन्घार- प्रखप्रस् खेल सिपाय अन्स ।परिस्थापनिका समिति।---स्थणिदत्त के दोषों को बर्लेत हुए परिठवने योग्य

श्श्र संठिया जैन मम्यमार्ा

छपुनीत,बड़ीनीत, यू क,कफ, नासिका-मल भौर मैस भारि को निर्मब स्वणिदप्त में उपयोग पूर्वक परिठयना उच्चार प्रजदथ खेत सिंपाश जक्स परिस्पापनिका सबिति है। (प्रमबाबांग 2) (दार्श्वाण इर“ेशा सूत्र ४२०७ ) ( घमम संप्रश अधिकार रलो० ४५ प्र ११० ) . ("त्राष्ययल सूत्र अऋष्यक्त २४) ३२४--भाचार पॉँच)-- सोच के लिए किया साने दाल झानादि भासेबन रूप भ्रजुप्ठान विशेष आभार कइखाता ६। अपबाः-- गुस पृद्धि के शिए क्रिया जाने बाला भाषरण आाजार रुशइताता | अग्रबा/--- पूर्व पुरुषों से भ्राचरित शानादि आसन विधिक आभार कहते €।

श्राचार के पाँच मेद -- (१) शानाणार (२) दर्शनाबार |, _ (३) भापिजाबार | (४) दप आचार | (५) बीर्प्पाचार

(१) प्रानाचारः--सम्पफ तच्द दया शान कराने कारण भूत भुतज्ञान की झाराणना करना श्ञानाचार है |

(२) दर्शनाचार--दर्शन अयांत्‌ सम्पसस्थ ढरी निःशंक्रितादि रूप से शुद्ध भाराषना करना दर्शनाचार है |

(३) चारिशाचर--प्वान एवं अ्रद्धापर्जक सर्व सादए योगों का के चारित्र है | घारिभ्र का सेदन करना भारित्रा- चर है। प्

भी ऊैन सिद्धान्त थोछ संप्रह, प्रथम भाग 8३३३

(४) वंष आचार--इब्छा निरोघ रूप अनशनादि ठप का सेवन करना रुप आाघार ६। ]

(५) भीस्पाचार--अभपनी शबित का गोपन करते हुए घर्म-

क्रार्यो में यथाशक्ति मन, वचन, फ्रायां ह्वारा प्रपृष्ति छरना

चीप्पाचार है एः

( ठाखांग उह्देशा सूत्र ४३२ ) ( घम संप्रइ अधिकार शक्षोक ४४ पृ्ध १४० )

३५४--आाणाए प्रकल्प फे पांच प्रछर---

आयारांग नामक प्रथम झररू फे निशीष नामझ अध्यपन फ्ो आधार प्रकश्प ऋइत ै। निशीय अष्ययन आारांग प्र की परम चूलिफा ६। श्सक पीस ठरेशे हैं। इममें पांच प्रकार फ़ प्रययधित्तों का बयन ६। श्सी लिप॑ इसक पांच प्रफार फइ जाये ई। थे ये ६--

(१) मासिक उदूपघातिक। (२) मासिझ अनुद्पातिफ | (3) पीमासी उद्घातिक (४) चौमासी भनुवपातिझ। (५४) भारोपया

(१) मामिक्ठ उद्घाठिफ -- उद्ूघाद भर्थात्‌ पिमाग फरके यो प्रापप्रित्त दिया जाता दष उद्पातिझ प्रायधित्त ६। एफ मास का ठदपाधिक प्रापप्तिच मासिझ उद्पातिक ईं। इसी को लघु माम प्रापश्दित मी कदते £।

मास भाष पन्‍्द्रद दिन, भार मासिक प्रापप्रिच के पृदबर्ती पच्चीस दिन के भाषे १श॥ दिन-इन दोनों को मोऱने से २७॥ दिन दोत हैं। इस प्रकार माग करफे

१४ श्री सेठित्रा जैन प्रस्थमाला

प्रो एक मास का ग्रायरिचत दिया जाता है। बह मासिझ उदूधाविक या लघु मास प्रायर्चरिच है। + 7

(२) मासिक धनुवृघातिक--जिस प्रायध्चिध का माग हवा गानि

' क्षपुररय न।हो वह अनुदभातिक ई। अनुदभातिक प्रायक्षित्त को गुरू प्रायमिच मो कहत॑।हैं | एक मास का गुरूप्रायमिच मासिक भजुव्घरातिक प्राययित्त कइछ्ताता है

(३) चौमासौ ठद्घातिऋ-'चार मास का छपु प्रापभित्त चौमाती उप्घातिक कहा साता है।

(४) चौमासी झनुदूपातिक/-चार मासः का गुरू प्रायध्रित्त

!५ चौमासी भपभुवूपातिक कशा माता ईै। /

५. दोषों के उपयोग, भलुपपोग तथा भासक्ति पूरक सेबन

) को अपेधा तथा दोपों की स्यूनाधिकता से आमब्रित्त भी शमन्प,मभ्यम भौर उत्कृष्ट रूप से दिया नाता हैं | प्रायम्रित रूप में ठप मी किया बाता है | दीदा का छेद मी होता है। पह सब विस्तार छेद छज्रों से जानना भाहिये।

(५४) भारोपशा-एरू प्रायश्चिच/क ऊपर ट्सरा ग्रायभिव भद्गता आरोपशा प्रायश्चिच है|, तप प्रायक्रित ७&ः! मास तक ऊपर ऊपरी दिया जा सकता है। इसके भागे नहीं।

( ठाणांग 2 एद्देशा सूतज ४३६ )

३२६--मारोपशा के पांच मेद)--- 28 7]

() प्रस्पापिता (२) स्वाप्ता (२) इस्ला (४) भहस्सना (३) शाड़ाइड़ा | [्‌

श्री दैन सिद्धान्त घोक सप्रइ प्रथम मांग 8३५

(१) प्रस्थापिता।---भारेपिता प्रायम्चिच करा जो पाछन किया खाता है। बह प्रस्थापिता आरोपणा है|

(२) स्पापिता --ओो प्रापमि् आरोपणा से दिया गया है। उस का वैयादृष्यादि कारणों से उसी समय पाक्तन फर भागे फे छ्िये स्थापित करना स्थापिता भारोफ्सा है

(३) ऋत्स्ना --दोपों छा यो प्रायभ्चिच छ। महीने ठपरान्त होने से पूण सेवन फ़र छ्िया आता है भौर लिस प्रायमिच में कमी नहीं की जाती | वह रृत्स्ता भारोपणा है।

(४) भहस्स्‍ना --भपराघ बाहल्य से छः! मास से भपिक आरोफ्णा प्रायश्चिच भाने पर ऊपर फ्रा खिंतना मी प्राय बित्त ई। वह लिसमें कम कर दिया जाता है। बह भक् त्सना आरोपणा

(४) शड़ाइड़ा--छघु अथदा शुरु एक, दो, तीन आदि मास फा शो मी प्रायमित्त भाया हो, पढ़ तस्काए्त ही जिस में पेवन किया घाता ई। वह इाड़ाइड़ा आारोपदा !

( ठाणांग इष्ेशा सूत्र ४२३ ) ( समचाणांग ए८ )

३२७--पौँच शात ( श॒द्धि ) -- शौच अर्थात्‌ मत्तीनवा दूर करने रूप शुद्धि के पाँच प्रकार €ै। (१) पृष्बी शौच (२) घल शौच | (३) मैज शौच (9) मन्त्र शौच (४) पध्रक्ष शौघ

३३६ मी धठिया बैम प्रस्यमाका

(१) एप्बी शौंघ--मिट्टी से पृल्धित मल भोर गन्ब का दूर ऋरना पृष्वी शौच है।

(२) ये हक से घोकर मलौनता दर करना जख्

चदे।

(३) पेब: शौच-- झम्नि एवं भ्रप्रि % विकार स्वरूप मस्स से शदि करना तेजः शौच है

(४) मन्त्र शौच--मख्र प॑ होने वाज्ती धद्धि मन्त्र शोच है।

(४) अरछ्ठ शौद--अप्नचर्ग्पादि कुशस भनुष्ठान, दो आास्मा के छ्यम कपायादि भाभ्यन्तर मल कौ शुद्धि करते हैं, अल- शौच कहताते हैं | सत्य, तप, इन्द्रिप मिग्र६ (व सर प्राशियों पर दुयर साइ रूप शौच का मी हसी में ससामेश दोता ६।

इन में पहल्ते $े भार शौच द्रभ्प शौच हैं भर अश् शौच भाव शौभ है ( ठार्यांग 2 इर्टेशा सूत्र ४४६ )

३१८--पाँच प्रकार का प्रस्पासपाना---

अस्पाख्यान (पच्णक्साश) पांच प्रकार से शुद्ध होता है। छंद भेद से अत्पास्यान मौ पाँच प्रफार का ६--

(१) भरद्वान शुद्ध (२) विनय झड़ (३) भजुमापण झुद्ध ! (४) भनुपाशना शुद्ध | (५) मारशुद

(१) भद्धान शुद्धा--जिसकल्प, स्पनिरकल्प एवं आाजकू धर्म दिपपक, ठथा सुभिष, दुर्मिप, पहल्ती, थोथी पहए एवं घरम फ़ात्त में सर मगशात्‌ ने धो प्रत्पात्यान के हैं उन पर भ्रद्धा रपना भ्रद्धान शुद्ध प्रत्यास्यान है

औी मैन सिद्धास्व धोछ्ष संप्रद प्रथम माग ३३७

(२) विनय शुद्ध -प्रस्पाहूपान के समय में मन, वचन, काया का गोपन फ़र शन्यूनाणिक भर्पात्‌ पूर्ण पन्‍्दना फ्री विद्युद्धि रखना बिनय शुद्ध प्रस्पास्यान है।

(३) भनुमापल हृदः--गुरु को पन्‍्दना करके ठनके सामने खड़े शो, दाथ जोड़ फ़र प्रत्याख्यान फरते हुए ख्यक्ति का, गुरु के बचनों को धौसे शम्दों में भघर, पद, व्यस्थन फ्री भपेदा शुद्ध उच्चारण करते शुए दोइराना अनुमभापण (परिमापस) शुद्ध |

(४) भनुपालन शुद्ध: -भटवी, दुष्क्राशा तथा छ्वरादि महा रोग होने पर भी प्रत्पाक्पान फो महू करते हुए उसका पाक्तन छरना भनुपालना शुद्ध £।

(४) माव छठ --(ग, ईप, ऐहिफ प्रशसा तथा फ्रोघादि परिणाम से प्रत्मास्यान को दूपित फ़रना मावशुद्ध है। उक्त प्रत्पाग्थ्यान शुद्धि के सिवाय ज्ञान श॒द्ध मी छूठा प्रकार गिना गया ई। क्षान शुद्ध फ्रा स्वरूप यह - जिनऋण्प भादि में मूल्त शु्व उतर गुण विपयक्ष लो प्रत्पास्पान थिस फ्राज्ष में करना घाहिय उसे सानना शान शुद्ध ६ै। पर प्ञान शुद्ध फा समावेश भद्धान घुद्द में शो जाता क्योंकि भद्धान मी धान बिशेप दी ६। (ठाणांग इदशा सूत्र ४६६ ) ( इरिमिठ्रीपाभ श्पक प्रस्पाम्पासाण्ययप्त पप् ८४७ ) ३२६-- पांष प्रतिक्रमण---

प्रति अपपत्‌ प्रतिकृस भर ऋसण अर्थात्‌ गभ्न।

३४० अ्री सेठिया जैन प्रम्बमान्ा

सांता | उसी प्रकार उक्त राग रूपी झग्निस भारि रुपी इन्पन यत्त कर फोयल की तरइडो जाता है! £ अयांत्‌ राग चारित्र क्रा नाश शो खाता |

॥४) पूमा--मिरस भाइार करत हुए आइर यां दाता डी ऐप बश निन्‍्दा करना पूम दीप ६। पई ड्रेपमाव साएू . फ्र॑धारित्र को जल्ला कर सपूम काप्ट की तरइ अछुपित करने घाता

(५) झ्रकारण/---साप्रु को छ. कारसों सम झाइर करने की भाजा हैं। इन कारणों सिगाय पछत, बीस्यांडि की इद्धि के लिए श्राह्ार फ़रना श्रकारस दोप | १-छुपा बेदनीय का शान्त करन के लिए | २-साधुमों की बेयाइस्‍्प करने लिए | ३-हर्प्पा समिति शोधन के लिए ४-संपम निमाने के छिपे ५-ह॒श प्रा्थों कौ रक्षा के लिये ६-साप्पाय, न्यन भादि करन फू लि

(उत्त अब श्एगा रृशटीका) (उत्त अध्य २६ गाबा २२)

( भ्म संप्रश प्रधिकार रलोक २१ की टीका ४२) ( पिश्ड निर्युक्ति परासैपशाधिकार गाथा ६१२ )

३२३१-छपघस्प फे परिप॒ह उपसग सन के पाँच स्थान -पाँच बोलों की माबना करता इआ हप्रस्प साधु उद्दय में झाय॑ इृए परिपई

उठपसर्गी को सम्यक्‌ प्रकार निर्मय दो कर शदीनता प्रजद सहे, खमे भौर परिषह उपसर्गों वि्क्तित ही |

भी जेस सिद्धास्त बोक़ संप्रद, प्रथम साग इ४१

९१) मिष्यास्व मोइनीय झादि कर्मो करे ठदय से वह पुरुष शराप पिये हुए पुरुष करी सरइ उन्मत्त सादना इभा इसी से यह पुरुष प्रुस्े गाली देता है, मशाक छरता है, मर्सना करता ई, बांघता है, रोकता ६, शरीर के भवयव, हाथ पेर आदि का हेदन फरठा है, मृदित करता ई, मप्णान्त दुशस देता है, सारता है, पस्ख, पात्र, कम्पक्त, पाद पोस्झन झभादि फो धीनठा ई। मेरे वस्थादि फो छुदा फरता , बस्तर फाड़ता एवं पात्र फोड़ता तथा उपझरों फ्री चोरी करता है।

(२) यह पुरुष देवता से अधिप्ठित है, इस क्रारण से गाली देता है| यावत्‌ उप्रफ़रशों की चोरी करता है।

(३) यह पुरुष मिध्यात्व भादि कर्म के दशीमृत भौर मर भी इसो मदर में मोगे खाने पाक्ते बेदनीय फर्म छदय में हैं। इसी से पह पुरुप गाली देता है, पावत्‌ उपफरशों की घोरी करता है।

(४) पह पुरुष मूस्न ६। पाप फ़ा इसे मय नहीं ६। इस स्तिय यह गाली भादि परिषद दे रद्य परन्तु पदि मैं इससे दिये गए परिषद उपसर्गो को सम्पक्क प्रकार अदीन साय से धीर करी तरद सइन करूँ तो पके: मी पाप के सिवाय भोर क्‍या प्राप्त होगा

(५) पह पुरुष झाकोश भादे परिफ्‌त उपसमे देता पा पाप कर्म बांघ रहा ६। परन्तु यदि मैं सममाद इसमे दिये अर उपसर्ग सद खूँगा तो घुके एक्रान्द निर्जरा होगी

यहाँ परिषद उपसर्म स॑ प्राय आफोश भौर अप

श्डप भी सठित्रा जैन प्रन्चमारा

शझुम योगों से अशुभ योग में गये हुए पुरुष का बापित शुम गांग में भाना प्रतिक्मश ६। कद मी ६-- स्वस्थानाव्‌ यत्‌ परस्पाने, प्रमादस्य बशाव्‌ गतम्‌। तम्रैध फ्रमर्ण मूयः, प्रतिकमसप्ठस्यते ॥१॥

अयांत्‌ प्रमादषश झ्रात्मा निञ्र गुर्खो का स्पाग फर पर मुझों में गये हुए पुरुष का बरापिस झारम गुर में शौर भाना प्रविक़्रमय ढुइलाठा

बविपय मेद से प्रतिकमल पांच प्रकार क्या --

(१) भाप्रबढ़ार श्रतिक्रमण (२) मिस्पात्, प्रतिकरमल |

(३) कपाय प्रतिकृमण (४) योग प्रतिक्रमल | (५) माबप्रतिक्मश

(१) झाअबढार ( असयम ) प्रपिकरमस/--झाभ्व के हार प्राखातिपात, मृपाबाद, झ्रदत्तादान मंग्रुन भौर परिप्रइ निहृत्त दोनों, पुनः इनफ्म संबन ने झरना भाभषडार प्रशिकरमण है|

(२) मिध्पास्थ प्रतिक्रमशः--उपयोग, भ्रनुपयोग या सत्ता छारबश आस्मा मिध्यास्व परिशाम में प्राप्त होने पर उस निद्ृत्त द्वाना मिध्यात्व प्रतिक्मश है|

(३) फ्रपाय प्रतिकरमछ"--क्रोष, मान, माया, क्षोमरूप कपाय परिसाम से आस्मा को निश्च झरना ढृपाय प्रतिकमण है।

(४) पांग प्रतिक्र कल --म्‌न, बचन, काया, क॒ झ्रशुम स्पापार प्राप्त इाने पर उनस झास्मो फ् प्यक्त फरना योग प्रतिक्रमण है।

भरी डैन सिद्धास्व चोक सप्रइ प्रथम माग इ३६

(4) माद प्रतिक्रमश -आशयद्वार, मिश्यात्व, फपाय भौर योग में तीन करण सीन योग से प्रदसि करना माव प्रतिक्रमण ( ठाखांग £ रएंशा 8३ सुत्र ४६७ ) (इरि० भाव० प्रतिक्रमणाध्यमत गा? १२४०-५१ पृष्ठ ४६४ ) नोट --मिध्यात््व, भविरति, प्रमाद, फपाय भौर भशुम योग के मंद से भी प्रतिक्रमण पाल प्रकार का फट्टा जाता किन्तु भास्तय में ये और उपरोक्त एंचों मेद एक शी £। फ्पोंकि अविरति और प्रमाद फा समायेश आभपद्भार में हो जाता है |

३३०--पआरंपणा (मांठल्ता) फे पांच दोप --- (१) सयोजना (२) भग्रमाण (३) भंगार (४) घूम (५) भकारण

इन दोपों का दिचार साधुमढली में पेठ फर मोजन फ़रसे समय किया माता | इस लिये “मांठला! # दोप भी कद्े वात ईं।

(१) संपोजनाः--ठस्कर्पता पैदा छरने के क्षिये एक द्रस्य का दूसर द्रस्‍्प के साथ सयोग फरना संयोवना दोप ई। जेस-रस लाहुपता के फारण दूप, शक्‍्कर, पी भादे ट्रस्पों को स्थाट लिये मित्ताना |

( विरद३ नि गरार ६३६ से ६३२७ )

(०) भप्रमाण ---सवाद फं॑ ल्ोम से मान के परिमाण फा भविक्रमय फर भपषिछ भादर छरना अप्रमाय दोप |

(३) भद्दार--आादिष्ट, सरम 'भाहार करते इुए आदर छी या दछा ही प्रश्मा परना भद्गार दोप ६। वैस-भग्नि से जता इसा सदिर भादि दघन भक्कारा (कया) हो

३ए० श्री संठिप्रा जैस म्रम्यमाक्ा

ज्ञाता | उसी प्रदार उक्त राग रूपी भरिन से चारित रूपी इन्पन जल्त रर कांमत्त की तरइ हो जाता ( अपथांत्‌ राग चारित्र छा नाश हो जाता है।

(४) पूम/--पिरस श्राशर छरत॑ हुए आ्राइार या दाता डी

ह्प बश निन्‍्दा करना पूम दोंप ! यह द्वेबमाव साथ चार्रत्र फो च्ता कर सपूम काष्ट की तरइ कछुषिति करने वाला !

(३) झ्रकारसः--साप को कारणों भाइर करन दी भाजा हैं। इन कारणों सिघ्राय बछ, वीस्पारि की वृद्धि $ लिए झ्ाह्ार फ़रना झ्रकारस दाप १-हुपा बेदनीप का शान्त करन के लिए | २-साघुमों की बेयाइृत््प करन के किए ३-ईर्म्पा समिति शोषन लिए। ४-संगम निमाने के छिये

१-श प्राणों फ्री रक्षा लिये ६-साप्पाय, स्यान झ्रादि करने लिप | ( उत्त> झक ऐश? था १२ टीका ) ( उत्त० अध्य० २६ गांबा ३२)

( पे संप्रद मभिकार शकोक ९४३ की टौका पृ ४५ ) ( पियड़ जियेक्ति प्रासेपणाधिकार गाजा ३६५ )

१३१-छप्स्व फे परिपह्ठ उपसग सहन के पाँच स्थानः-पाँच बोशों की माबना फरता हुआ ऋषस्प साधु उदय में झापे इुए परिषह ठपसगों को सम्पक प्रकार से निर्मम दो फर भदीनता पूर्जफ़ सट्दे, पमे भौर परिपह् उपसर्गों विधक्तित मे हो |

मरी बैन सिद्धान्त घोल संप्रइ, प्रथम माग झ्ड्१

५१) मिस्यात्थ मोइनीय भ्ादि कर्मो फ्रे उदय पे वह पुरुष शराब पिये हुए पुरुष की तरइ उन्‍्मच साबना हा | इसी से भह पुरुष ध्रुझ्े गाली देता है, मसाक करता ई, मत्सना फरता (, पांघता है, रोफता है, शरीर के भवयव, हाथ पैर भादि का छेदन करता है, मूर्छित फरता ६, मरणान्स दुख देता है, मारता है, बस्प, पात्र, ऋम्बत्त, पाद पोष्छझन आदि को छीनता ई। मेरे से वस्यादि को जुदा करता , वस्त्र फाड़ता है एवं पात्र फ़ोड़ता है तथा ठपफरयों की चोरी फरता है

(२) यह पुरुप देवता से अधिष्ठित है, इस क्ारस से गाली देता है। यादत्‌ उपकरणों की घोरी फ़रता है!

(३)पह पूठुप मिध्यात्त भादि कर्म फ्रे वशीमूत भौर मर मी इसो भव में मोगे जाने बाले बेदनीय कर्म उदय में हैं। इसी से यह पृरुप गाली देता है, पावद्‌ उपकरणों की भोरी करता ह।

(४) यह पुरुप मूल ईै। पाप का इसे मय नहीं है। इस छिपे पह गाती झ्रादि परिषद दे रद्य परन्तु यदि में इससे दिये गए परिषद् उपसर्गो को सम्पक्क प्रकार झ्रदीन माव से दीर छरी तरइ सइन करू तो घुझे; मी पाप के सियाय और क्‍या प्राप्त होगा

(५) पह पुरुष भाडोश भादि परिफष्द ठपसर्ग देता इुझा पाप कर्म बांध रष्ा परन्तु यदि में सममाव से इससे दिये 28१३९ उपसर्ग सह सूगा शो एके एकान्स निर्मरा

/ ? होगी।

यहाँ परिषद उपसर्ग से प्राय झाफ्रोश और बघ

३४२ और संठिया चैन अस्थमाहता

रूप दो परिपइ तथा मलुष्प सम्भन्धी प्रडपादि जन्य ठप्सम

! “स॒ वा्पय्य है। (ठाय्यांम जइशा है सूज ६)

३३२--क्रेषली फ्॑ परिषद सइन करने के पांच स्थान --

पांच स्थान से झंडी ठदय में आये हुए भाडोश, उपह्ास आदि उपरोक्त परिप् ठपरसर्ग सम्पकू प्रकार से सइन करते हैं।

(!) पुत्र शोक भादि दु से इस पुरुष का चित्त सिन्र एवं विधिप्त ३। इस लिये यद्व पुरुष गाली देता है। पागत्‌ उपकरणों की पघोरी रूरता है।

(२) पुत्र-सन्म आदि हर से पह पुरुष उन्मच हो रहा | इसी से यह पुरुष एम्े गाशी देता हैं, पाबत्‌ उपकरश्ों की चोरी करता है।

(३) यद्द पुरुप देवाभिप्टित हे। इसकी झार्मा पराणीन है। पसी से यह पुरुष मुझे गाली देता हे, यावत्‌ उपकरशों की पोरी करता है |

(४) मेरे इसी मत में मोगे जाने बाल वेदनीप कर्म उदय में ६, इस कारश से है पुरुष गाली देवा ऐ, यावत्‌ उपदरसों की भोरी करता हैं

(५) परिषह्ठ उपसर्ग को सम्पक प्रकार पीरता पूर्वक, झदीनभाद से सन करत हुए एवं बिषलित दोत॑ हुए पुर दस कर दूसरे बहुत छपस्प भ्रमण निग्नन्य ठद॒प में भाये हुए

परिप्‌इ उपसर्ग राय धम्यरू प्रकार धरंगे, पमेंगे एवं परिषर उपसर्ग धरम भत्तित होंगे क्योंकि प्रायः सामान्य

क्तोग मद्मापुस्‍ुषों का अनुसरस झिया करत ( ढाएग ब्टेशा ! सूत्र ४६३ )

न]

भी सिद्धास्त बोक संप्रइ, प्रथम भाग ३४३

२३३३१--घा्मिक पुरुष के पाँच भालस्न स्थान -- अत चारिग्र रूप धर्म का सेभन करने वासे पुरुष के पाँच स्पान भासम्बन रूप हैं प्रयांत उपकारक हैं -- (१) छ+ काया। (२) गज (३) राजा (४) गुएपि (५) शरीर

(१) काया!--पृष्यी आधार रूप पह सोने, बैठने, उपकरण रखने, परिठषन भादि फ्रियाशों में उपकारक है। दक्ष पीने, दस्थ पात्र घोने आदि उपयोग में भावा ६ै। भादर, भोसावन, गर्म पानी झादि में अ्रप्ति काय कला उपयोग है। खीबन के लिये बायू की भनि- दाय्पे आजश्यफ्रता है| संथारा, पात्र, दण्ड, पर्त, पीड़ा, पाटिया आदि उपकरण तथा झाहार औपधि आदि हारा बम्रस्पति धर्म पालन में उपकारक होती है। इसी प्रकार श्रस बीव मी घर्म-पालन में अनेक प्रकार से सदर होते हैं

(२) ग़ब।---सुरु के परिबार को गद पा गन्छ कहते हैं| गन्छ- मारी साथु को विनय से जियुत्त निर्बरा द्ोदी है तथा सरणा, बारदा भादि से उसे दोपों छी प्राप्ति नहीं दोती।

गचष्छ्वासी साधु एक दूसरे फ्ो घम पाक्न में सहायता ऋरते हैं

(१) राजा --राजा दुप्टों से साधु पुरुषों क्री रपा करवा है! इस सिए राजा घर्म पालन में सहायक दोता है।

६] मी सठिया डैन प्रस्थमारा

(४) गृह्पति (शस्पादावा)-९इने के लिये स्थान देने मंगमोपकारी होता है हे (५) शरीरः--धार्मिक क्रिया श्रनुष्टानों का पालन शरीर हारा ही होता; ईं ।इसल्तिए शरीर धर्म क्य सहायक दोता ६। (ठाणांग 2 चदेशा सत्र ४९२)

३३४--पाँच झप्रग्रह-- (१) दश्न्द्राबग्रइ (२) रामाबग्रह (६) गृदपति भवग्नह् | (४) सागारी (शप्पादाता) भवजाह। (३) सापमिक्बग्रह )

(१) दवन्द्राबप्रए*--सोक # मध्य में रहे दुए मेरु पर्वत के बी्षों ग्रीच रुचफ प्रदंशों फ्री एक प्रदेशवाती भेशी ह। हम से शोक दो मास शो गय ई। दृदिशाद और ठत्तराड़ ! इंदिसाद का स्वामी शाफ़ेन्द्र 4 भौर उ्ररार्द का स्पा इशानन्द्र इसलिये दषिणादध वर्ती साधुभों के शकेदर की श्र ठफ्तराद पर्ती साधुझों स्पे इशानेन्द्र की भाज़ा माँगनी बाहिय

मरत चष्र दबिय्ार्द में ६ै। इस लिये यहाँ के सापुन्ञो का शफन्दर पी झान्रा छनी चाहिय। पूर्वकालवर्ती सापुभों ने शपेन्द्र की झ्ात्रा सी थी। यह भाष्टा वर्तमान काप्तीन मापुझों $ मी घत्त रही ६।

(२) राधादग्रद --घडवर्ती भादि राजा शितन चेत्र कय स्वामी है। रमन घंत्र में रघत हुए साधुओं कम राजा की झाजा लगा राजाइग्रद

प्री जैम सिद्धान्त बोक्ष स॑प्रइ, प्रथम भाग श्ट्श

(३) गुद्पपतिव्मग्रद' -मयरख्त छा नायक या ग्राम का मुखिया गृहपति छदलाता है। गुृह्पति से ,भपिष्ठित चेत्र में रहते हुए साधुओं का गृद्रपवि की भ्रलुमति माँगना एवं उसफी अल्ुमति से कोरई!पस्तु छ्लेना गृहपति अषग्रइ है

(४) सागारी (शय्पादाता) झवप्रइः-घर, पाट, पाठला आदि के लिये गृह स्वामी की भाश्ा प्राप्त कना सागारी भाग है।

(४) साधर्मिक झवग्रइ'-समान घर्मबाले साधुभों से उपाभ्रप भादि फ्री भआावा प्राप्त फरना साधसिकराषग्रह है। सापर्मिक फा अबग्रह पाँच फ्रोस परिमाण जानना चाहिपे।

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बसदि (ठपाभय) झादि को अदसण करते हुए साधुझों को उदस पांच स्थामियों क्री यथामोग्प भाज्ा प्राप्त करनी भाहिय॑ | ता

उद्त पांच स्थामियों में से पह्त पहले के देवेस्त्र अधग्रहादि गौर हैं और पोते के राघावग्रहादि पुरूप हैं। शससिये पहले देबेन्द्रादि की भाशा प्राप्त होने पर भी पिछले राखा आदि की भाद्ना प्राप्त नह शो देजेन्द्रादि, फी श्राप्ता बादित हो साती सैसे-देवेन्द्र से श्रगग्रह प्राप्त ने पर पदि राजा भनुमति नहीं दे हो साप्व देपेन्द्र से श्रजुह्लापित दसदि झादि उपमोग नहीं कर सकता | इसी अछ्यर किसी बसति आदि के किये शजा की भाषा प्राप्त हो राय, पर गृइपति फ्री भाज्ञा नहो तो मी साधु ठसफ़ा उपभोग नहीं कर सझ्ता | इसी प्रसार ग्रृहपति की शाज्ञा

अ्घ्१

श्री सठिया जैन प्रस्थमारा

सागारी से झौर सागारी की झाज्ञा साधर्मिक से बाभित समम्ठी घासी है! | फे ( अभिषाम रजझेन्द्र कोप द्वितीय माग प्ष्ठ ४८) ( आाचारांग भतस्दस्प रे चू० झम० > ए० सूत्र १६१) (प्रबचन सारोद्धार द्वार ८५ गाथा $८१ ) (मगबठी शक १६ इंशा सृत्र १९० )

३१५--पांच महानदियों छो एरू मास में दो भकता तीन बार

पार करन के पांच कयरण--

एस्सर्ग मार्ग से साधु साभ्वियों का पांच महानदियों (गंगा, यद्वना, घरयू, पेरावती भौर मश) को एक मास में दो शार ्रवदा तीन बार ठतरना या नौकादि से पार करना नहीं ऋल्पता है| यहां पांच महानदियां गिना गई है, शेप भी बड़ी नदियों को पार फरना निपिद ६।

परन्तु पाँच फारश द्वान॑ पर महानदियां एक मास मे दो पा तीन पार अपषाद रूप में पार की ला संकती

(१) राज विरोधी झादि से उपकरणों चोर याने का मप दो। (२) दुर्भिष्र शोने प्रे मिधा मईं मिलती हो |

(३) कोई बिरोपी गंगा भादि मद्नदियों में फेंक दमे

(४) गंगा भादि मद्यनदियां पाढ़ झान॑ पर उनन्‍्मार्ग गामी होजाँप,

मिसस साधु साप्वी बह जाय

(५) जीवन भौर चारितर के इर्स फरन वात्त म्लन्‍्छ भादि से

परामष हो ( ठाझांग 2 'ेशा सूत्र ४११ )

श्री डैम सिद्धाम्त बोज संप्रह, प्रधम माग ३४७

३३६--चौमासे के प्रारम्मिक पचास दिनों में बिद्र 'फरने के

पाँच फारण -- पाँच कारयों से साघु साध्षियों को प्रथम प्राइट

अ्रधांत्‌ चौमासे फ्े पहले फ्चास दिनों में भपपाद रूप से धिद्ार करना फश्पता £

(१) राज-पिरोघी भादि से ठपकरणों फे चोरे जाने का मय हो |

(२, दुर्मिच्च होन॑ से मिद्दा नहीं मिशती हो

(३) कोई ग्राम से निद्यत्त देव !

(४) पानी की घाद़ भा खाय।

(५) सीवन भौर घारित्र फ्रा नाश फ़रने बालते भनार्य्प दुए पुरुषों से परामब हो

( ठाखांग अहेशा सूत्र ४१३ )

३३७---अर्पबिस भर्थाव्‌ भौमास फ्े पिछले ७० दिनों में विद्वार फरने फे पाँच फारसः--

बर्षावास भर्थात्‌ चौमाते के पिछले सत्तर दिनों में

नियम पूर्वक रहते हुए साधु, साज्ियों को ग्रामानुगआरम विशर

ऋरना नहीं कश्फ्ता टै पर अपबाद रूप में पाँच कारणों

से चौमास के पिछले ७० दिनों में धाधु, साध्वी बिह्वर कर सकते हैं।

| (१) ग्ींनार्थी होने से साधु, साप्यी विह्र कर सझूते ईं। औसे फोद भपूषे शास्पन्नान किसी भाचास्यादि फे पास हो और प्रह संगारा सरना चाहता हो | यदि दइ शास्त्र ड्वान उक्त

श्श् भ्री सेठिया डेन प्रस्यमादा

भाचार्य्यादि से ग्रश्य द्विया गया ठो ठसडा विक्केह हो जायगा | यह सोच कर उस ग्रइश करने के लिये साधू साध्यी रछ काल में मी प्रामानुब्राम पिद्वार कर सफते हैं!

(२) दर्शनार्थी होने से साधु साध्वी बिशर ऋर सकते हैं। सेस-कोई दशन कौ प्रमारना फरने बाल शाम्त्र ज्ञान की इप्छा से विद्र करे

(३) भारित्रार्पी होने से साघु साप्णी गिद्वार कर पकते ई। बेसे कोइ देश भनेपणा, स्त्री आदि दापों से शूपित हो तो शारित्र की रधा लिपे साधु साप्दी विद्वार कर सड़व है

(४) भाषार्प्प उपाध्याय काल कर साँप हो गच्छ में अन्प भाताय्यादि के होने पर इसर गस्छ में याने के ठिये साधु साप्यी दिशर झर सकते'ई |

(५) बषा छेत्र में बाइर रहे इुए भाजार््प, उपाम्पामादि की ईपाइश्प फ्रे त्िय आचार््प मशराज मेसें तो साधु विद्र कर सकते है।

( ठाणांग £ एहेशा रे सूत्र ४१३) ३४८---रामा के अन्तःपुर में प्रवेश करने के पाँच कारश'-- पाँच स्थानों स॑ शा्रा के भन्त पूर में प्रवेश करता इमा भ्रमझ नि्रन्द साधु ब्राचार या मगवात फ्री आज्ञा झ्थ्र उदच्चक्षन नहीं करता

(१) नगर प्राकार से पिरा हुआ हो और दरबाज बन्द हों। इस कारश बहुत स॑ भ्रमस, माइस झाद्र पानी क॑ लिये मगर स॑ बाहर निकल सछते हों और प्रदेश ही कर सकते हों उन भ्रमण, माइण झादि प्रयोजन से अ्रन्तःपुर

श्री मैन सिद्धास्त बोल स॑प्रद, प्रथम माग ३४६

में रहे हुए राजा को या अधिकार प्राप्त शनी को मालूम कराने फे छिपे ,छुनि राजा फे भन्त पुर में प्रदेश कर

7 सम्से हर है. 7]

(२) पढिश्यारी (कास्ये समाप्त होने पर धापिस फ़रने योग्य) पाठ, पाट्ले, शब्पा, सथारे को धापिस देने फे लिये घुनि राया के अ्न्त!पुर में प्रवेश करे, क्घोंकि थो पस्तु जहाँ से छाई गई ठसे वापिस पह्दी सौंपन का साधु फा नियम है।

पाट, पाटलादि छेने के लिये भन्त पुर में प्रयेश करने फ्रा भी इसी में समावेश शोता ६। क्ष्यों कि प्रदण फरने पर ही वापिस फरना धम्मए है।

(३) मतवाले दृष्ट द्वायी, थोड़े सामने भारदे हों, उनसे भपनी रचा के लिय साधु राजा अन्त पूर में प्रवेश कर सफता

(४) कोई स्पक्सि भ्रकस्मात्‌ या जपद॑स्ती से स्ुजा पझदड़ फर साधु फ्लो राशा के झन्त पुर में प्रदेश फरा दंवे

(५) नगर से बाइर आराम या उद्यान में रद्दे हुए साधु फो रामा का भन्त!पुर ( भन्तेठर ) दर्ग चारों तरफ से घेर फ़र ब्रेठ साथ

( ठाखांग ब्ेशा सूत्र ४१५ ) ३३६--साधु साध्यी छे एरूव्र स्पान, शस्पा, निपया के पाँच बोल :-- उस्सर्ग रुप में साधु, साप्दी का एक सगइ वायोस्सग फरना, स्वाप्याय करना, रइना, सोना आदि निषिद | परन्तु पाँच बोलों से साधु, साप्यी पक जगइ फायोस्सर्ग, स्वाध्याय करें तया एक बगई रहें औौर शयन करें तो वे

इ१० और सठिया जैब प्रस्यमाला

7 भगवान्‌ फ्री झराज्ञा ढय अतिकमदझ नहीं करते | (१) इर्मिचादि कारणों से कोई साधु, साथ्यी एक ऐसी शम््रौ अटवी में च्से शाँय, यहाँ ब्रीच में ग्राम हो भौर शोगों क्या भाना जाना शे। वह्शों उस झट में माप साध्यी एक जगड्ट रह सकते हैं भौर छायोत्सर्ग भादि कर

/ भअह्ते है। *

(२) क्ोह पाधु साध्वी, किसी ग्राम, नगर या रानपानी में भाषे हों। पह्दां उनमें से एक करे रहने के सिये जगह मिष्ठ जाब और दूसरों प्ले मिसे।) ऐसी भ्रग॒स्‍्था में साधु, साथी एक अगइ रह सकते हैं भौर फ्रायोस्सर्ग भादि कर

सकते हैं!

(३) कोइ साधु पा साप्यी नाग इमार, सुबर्ण हमार भादि के गेएरे में उठरे हों देदरा धना हो झता वर्शं पहुद पे लोग हो और कोई ठनके नायक हो सो साध्वी की रचा के सिपे दोनों एक स्थान पर र्‌इ सझलते हैं भौर क्ययोस्सर्ग भादि कर सकते

(५) कहीं बोर दिखाई दें और बे बस्प छीनने लिये साथी, को पड़ना भाइत हों हो साभ्दी फ्री रचा के सिये साधु साध्यी एक स्पान पर रद सफ़ते भोर कायोस्सर्ग, सता स्याय श्यादि कर सकते €।

(५) फोह दुराघारी पुरुष साध्दी को शीत्त भ्रष्ट करने की इच्छा से पकड़ना भादष तो एसे क्बसर पर साध्वी बये रदा

सी देन सिद्धान्द बोक स॑प्रद, प्रधम भाग श्श्र्‌

लिये साधु साध्वी एफ स्थान पर रह सझते हैं ओर स्वाष्यायादि कर सकते हैं। नजर (ठार्पांग शश्शा + सत्र ४१०)

३४०--साधु के द्वारा साथी को प्रदर करने या सहारा देने के पाँच भोछ -- पाँच बोल्ों से साधु साथ्दी को प्रदथ करने भभवा सहारा देने फ्रे लिये उसका स्पशे करे तो मगबान्‌ की भाशा का उच्नहन नहीं कश्ता |

(१) कोई मस्त सांड झादि पशु या गीघ भादि पी साथ्यी को मारते हों तो साधु, साध्वी को बचाने क्रे क्विये उसका स्पर्श कर सकता है!

(२) एुर्ग झयवा विपम स्थानों पर फिसल्षती हुई या गिरती हुई रा को पाने के क्षिय साधु उप्का स्पर्श झर सकसा

(३) कोभड़ पा दुसद्स में फंसी हुए भथवा पानी में बदती हृई साध्यी को सपघु निकाल सफता |

(४) नाव पर चरती हुई या उतरती हुई साध्वी ऐो घापु सशरा दे सकता |

(४) यदि कोई साप्यी राग, मय या अपमान स॑ शूज््य चित्त पाली हो, सन्‍्मान से इर्पोन्मच हो, यधापिष्ठित हो, उन्माद इाक्ती छो, उसक उपर उपछ्तण॑ आप हों, पदि बह फ्सह करझे खमाने के लिये आती हा, परन्तु पछतावे और

श्श्र ए.. प्री सेठिया जैम प्रस्थमाला

भय फ्े मारे शिविल्त दो, प्रपपभित्त बा्ती हो, संबारा की इई हो, दृष्ट पुरुष अथवा थोर आदि द्वारा संयम से दिमाई जाती हो, ऐसी साध्वी की रक्षा के लिये साघु उसका सर्म कर सकता है। .. | , [7०५ 7“ 7

(ठाणाग फह्देशा सूत्र ४२०) १४१--आभार्य्य के पाँच प्रकार | [) (१) प्रताशकाचार्प्य। (२) दिगाआर्प्प |” (३) एरेशाचार्सस ।.। (४) सपृएं शालहाचार्प्म |

॥-. “(0 आस्लायार्पवाचकाजार्थ्य |... - |

(१) प्रशाषकाजार्स्प/--सामापिक शत भादि का भारोप्े ऋरन दाले प्रवामकाचाप्पे कश्लाते हैं। | '

(९) दिगाजार्य्प -सचिच, भसित्त, मिश्र पस्तु को भंलुमति देन बाल दिगाघाप्य कहलवे हे).

(३) रे शाचास्प।--सर्द अपथम भरठ का कूपन करने बार पा मृक्ष पाठ सिखान॑ पाले उईं शात्रार्प्प कइशाते है|

(४) सप्रुएं शालुज्ावार्प्प:---भुव की बाचना देनवास गुरु के दोने पर भुव को स्थिर परिचित!करने दी प्रलुमति देने वाले सप्मुर शानुज्ञाचार्स्प कछाते £ं।

(४) भास्नायारथवाघर्पघास्प--ठ स्सगअ्पबाद रूप / आम्ताव अभर्प के कइने वाले भाग्नापापवाभस्पघार्स्प! कइलाते हैं।

( बमंसं॑धइ अधिकार रलो+ डीका पृष्ठ रैए८ )

श्री जेन सिद्धान्द धोक्ष संप्रइ, प्रथम माग श्श्दे

३४२--भा्राय्प, ठपाष्याय के शेप साथुभों कली भ्रपेधा पाँच ७५ भविशय/-- -८ ल्न>ः +

गष्द में पर्तमान आषार्य्य, उपाध्याय के अन्य साधुओों को अपेधा पाँच अतिशय भपषिक होसे हैं।

(१) उत्सगे रूप से समी साधु जब घाइर से भाते हैं दो स्वानक में प्रवेश करने के पद्चिसे बाइर ही पैरों को पूजते हैं भौर झाटकते हैं। उत्सर्ग से झराचार्म्प, उपाध्याय मी उपाभय से बाहर दी खड़े रहते हैं भौर दूसरे साधु ठनके पेरों रा प्रमा- सन झौर ग्रस्क्षेटर करते भ्र्यात्‌ घूलि दूर करते हैं और पूछते है।

परन्तु इसके शिये बाइर ठइना पड़े तो दूसरे साधुभों की सर आषाप्य, उपाष्याय इाइर शर्ते हुए ठपश्नप के अन्दर ही भामाते हैं भीर अन्दर ही दूसरे साधुपों से पूक्ति उड़े, इस प्रकार प्रमार्सन भौर प्रस्फोटन कराते हैं; थानि पुखभाते हैं भौर घूछ्ति इर कराते हैं। ऐसा करते

हुए मी थे साथु के आचार का अतिछमद नहीं करते (२) भाषास्य, उपाष्पाय उपाभय में छघुनौत,पड़ीनीय परठाते

हुए या पैर झादे में सगी हुई अद्युत्ि को इराते हुए साधु हे भाभषार का भ्रतिक्र भण नहीं करते

(३) भादार्प्प, उपाध्याय इस्छा हो दो दूसरे सापुभों की पैपा इस्य करते हैं, इन्हा दो तो नहीं मी करते है। (४) भाषार्प्य, ठपाष्याय रपाभ्रप में एक पा दो रात तझ अकेसे

श्श्ए 7. श्री सठिया डेन प्रन्थमाजा 7

7 रहते हुए मी साथु के भाघार का झति मश नहीं-करते | (५) भालार्स्प, उपाध्याय उपाभय से बाहर एक या दो रात तक 4; भले रहते हुए,मी साधु के भाभार का भविकमसल नहीं ।| 3, > (ठाख्यांगश्ण रृप्तू शए०) ३५३-झाचार्य , उपाष्पाय के गंड से निकलने के पाँच कारश - पाँच कारणों,- ,भ्राचाय , ठपाध्याप-गरऋ से|-निकस बाद है।८६ सतत अन्न

(१) गछऋ में साधुझों-के दुर्शिनीत होने पर भाषाय ;- उपाण्याप /पूस॒प्रकार प्रवृत्ति करो, इस़- प्रदार करो!|! श्स्पादि प्रति निव्डत्ति रूप, भादा घारशा पयायोग्प अवर्चा धर्के।

(२) भाषार्य्य, उपाष्याय पद-के अभिमान स॑ सुनाषिक (दौबा - में बढ़े) साधुभों की यायोग्प विनय मे करें ठबा साधुभों में छोटों से बड़ साधुझों की बिनप प्रा सके |

(३) भाषार्य्य, उपाष्याय था छत्रों फे भर्ययन उ्रेश भादि घारण किये हुए | उनफ्री यपादसर गस को बाचना दें। बाचना देन में दोनों भोर की भपोग्यता संभव है| गण्ध के साधु अधिनीत हो सफ़्त ईं तथा झाचास्व, ठपा ध्याय मी सुखासक्त तथा मन्दपुद्धि दा सकन्‍त ई।

(४) गप्ड में रहे हुए झाघार्स्य; उपाष्याय अपने या इसरे गनछ दी साप्मी में माइपश झासक्त हां जाँप

९१) भाजास्पे, उपाध्याय मिद्र या धाठि झ्लाग किसी कारश घउयें गन्इम निरालें। उन छोगों कये बाद स्वीकार

भरी जैन मिद्धान्त बोक्ष संप्रद, प्रपम माग इधर

कर उनकी इस्परादि से स्यायता झरने के सिये भायार्य,८ > उपाध्याय गघ्छु पे निकश जाये हैं ।-] 7, +- “7 (ायांग रइशा सूत्र ४३४ ) ३४४--गष्छ में भाचाय्ण, उपाध्याय फ्रे पाँच कलइ स्थानः- (१ आबार्स्य, ठपाष्याय गष्छ में “इस कार्य में प्रति फरो, इस फाय को फरो”!इस प्रकार प्रवृत्ति निद्मत्ति रूप आाश्ना भौर घारणा की धम्पक्‌ प्रकार प्रवृचि करा सकें | (२) झाषार्य्य, उपाध्याय गन्द्ध में साधुझों से रत्नाश्कि (शोद्ा में बढ़े ) साथुभों क्री ययायोग्य |बिनय/न छरा सकें तभा स्वय मी रस्‍्नाषिदछ साधुभों,छी उचित विनय फरें (३) झाचार्स्प, उपाध्याय यज्न एप अर्थ सानते हैं उन्हें यथा बसर सम्यग्‌ विधि पूर्वक् मच्छ ,के, सापुझों फ़ोन पढ़ावें (३) भाषाय्य उपाध्याय गच्छ में।दो रहान और नवदीदित साधु हैं। उन बेयाइक्प दी स्यबस्पा में सावनान हों। (५) भाभाय्पे,, उपाष्पाय गझ को पिना पूछे ही दूसरे चेत्रों में विभरन सग घाँय|] : |, 5 / / इन॑ पाँच स्थानों से गस्द में प्रतुशासन नहीं रहता इसस गच्छ में साधुमों के बीच फ्रलइ उत्पन्न होता है भधवा साधु छांग आचार्य, उपाज्याय से ऋक्ता करते है! इन बोल्षों से पिपरीत पांच दरोत्तों से गंब्ड में सम्पक्क व्यवस्था रइती है और ऋत्तइ नहीं होता | इस लिये थे ; पॉचजोस,भक्रइ स्थान कफ है ।। ।, , ( अग्यांग 2 रुद्देशा सूत्र।१६६ )

हे

झ्श्द जौ सेटिदा जैस प्रश्थमाजा

2०५---ध्रमोगी धाधुधों को | घद्धम करने के पाँच बोश-- पाँच बोल बाले स्वघर्मी धंमोगी साधु को वि्भोगी अर्थात्‌ संमोगी से प्रथछ मंडी दाइर करता हुआ अमस निर्ग्न्ध मगबान्‌ कयी श्राज्ञा का भवतिकमश नहीं करता।

(१) जो भझरकुस्प कार्य का सेबन कर्ता है !। (२) जो भइस्प सेबन कर उसकी झातोबना नहीं करता | (१) दो झालोचना करने पर गुरु से दिमे हुए प्रायश्रिच का सेवन नहीं करता | (9) गुरु से दिये हुए प्रायश्रिच ढय सेबन प्रारम्म करके मी प्री परद से हसक्य पालन नहीं करता | हि (५) स्थंषिर कल्पी साधुों के झाचार में जो विश्वुद्ध भार शप्यादि कल्पनीय हैं भौर सासकल्प झादि की शो मर्मादा है। रछका भविक्रमण करता है | सदि साष बासे करें कि मुम्दें ऐसा मे फरना चाहये, ऐसा करने से गुरु मद्ाराज तुम्हें गन्छ से बाहर कर इसे ता ठत्तर में इइ उन्हें कइता है कि में तो ऐसा ही करूँगा शुरु महा- राय मेरा कया कर छेंगे ! नाराज़ हो कर मौ वे मेरा क्‍या कर सफ़ते हैं ! भादि ( ठाश्वांग कर्ेशा ! सूत्र ३६८) ३४६--पार्रचित प्रापबिश के पाँच बोत्त-- भमद नि्नन्ध पाँच बोत वास धापमिंक सापु्तों को इश॒दां पारंचित प्रापक्षित देता हुआ भझाचार झीर आाक्षा का झ्रतिक मस नहीं करता |

भऔ जेन सिद्धास्त बाहर संप्द, प्रदम माग झ््ज

पारक्त दशवां प्रायश्मिच है। इससे बड़ा कोई प्रायमि्त नहीं है। इस में साधु को नियत काल के सिये दोप की धड्ि ५; पर्यन्द साघुलिक् छोड़ कर देप में रहना पढ़ता है (१) साधु बिस गदरछ में रइता 8 उसमें फूट डालने फे लिये आपस में कछतह उस्पन्न करता हो | (२) साधु जिस गच्छ में रहता है। उस में मंद पढ़ लाय इस आशय से, परस्पर फर्तद उत्पन्न करने में तत्पर रइता हो | (३) माघु भादि की हिंसा कश्ना चाहता हो | (४) दिसा के लिये प्रमचता आदि छिठ्रों को देखता रइता हो | (५) पार भार झसयम के स्थान रूप सावय भनुप्तान फ्री पूछताछ ऋरता रहता हो अथवा ध्ंगुछ, कदुथम प्रश्न बगेरह का प्रयोग करता हो

नोर-भयुष्ट प्रश्न विद्या पिशेष है। बिसके डारा झगूठे में देवता बुज्ञाया जाता है इसी प्रकार इछ्यम प्रश्न मी विधा विशेष है। जिसके द्वारा दीपात्त में देवता बुक्तापा जाता है। देवता कद्टे भ्रनुसार प्रभकर्ता को उत्तर दिया धाता है|

३४७---पांच अबन्दनीय साथुः--मिनमत में ये पांच साथ अवन्दनीय है (१) पासस्थ। (२) भोसभ (३) इशीक्त। (४) मंसक्त। (५) पपाच्छल्द (१) पासस्थ (पारवश्थ या पाप्तस्थ) --झओ ज्ञान, दर्शन, भारित्र, उप ओोर प्रबंधन में सम्पगू उपयोग दाक्षा नहीं ह।

श्श्ड

. जी सेठिया देन प्स्थमाक्ला. !

ज्ञानादि के समीप रह कर मी खो उन्हें अपनाता नहीं है। यह पासस्प (पाश्ब॑स्थ) है। ज्ञान, दर्शन भारितर में जो सुस्त रहता है अ्रबात्‌ उपम नहीं करता है | बह पासस्य कद जाता है।

पाश फ्का प्र्थ बन्सन | मिध्यात्वादि बन्‍च के हेत॒ मी मात्र से पात्र रूप ६ै। उनमें रहने बाला भर्षात्‌ उनक्य झाचरश करने भाक्षा पासस्थ ( पाशस्थ ) गा पारई॑स्प कइलाता ! | ;

पासस्प फ्रे दो मेद --सर्ब पासस्थ झौर देश पासत्व !

सब पासस्य'--जा केवल साधु वेपभारी है। डिन्हु श्वान, दधन, घारित्र रूप रस्नश्रय की भाराघना नहीं करता | बह सर्प पासस्थ कद्टा साता है

देश पासस्प---बिना क्यरस शस्पातर पिएं, शज पिण्ड, निस्य पिणड, भग्र पिए्ड भौर सामने त्ापे हुए आदवार का भोजन फरने बाला देश पासस्म कइछाता है|

(२) भोसनन/-- भवसन्न) समाघारी फ्ले बियय में प्रमाद करने

वाज्ना साथु (भीसभ) मषसनन्‍्न कडद्ा यावा ई। अवसभ दा मेद -- (१) सर्प प्बसभ। (२) देश भरसभ |

सद अवसझ--झो एक पच्च के अन्दर पीठ फत्तक भांदि बन्बन साल कर उनको पढ़िलेहना नहीं कर्ता अपसवा बार बार सोने सिय॑ संथारा विदाय॑ रखता

श्री डैन सिद्धास्व घोक संपइ, प्रथम माग ज्श्र

है था दो स्थापना और प्रोमृतिझा दोप से दुपित आइर लेता है बह पर्व अवसन्न | (प्रथ० इ० गा० १०६)

नोट/--सथापन[ दोष/---साधघु के निमित रख छोड़े हुए भाधर

फो लेना स्थापना दोप है।. (्रष० द्वा० ? गा० १०६)

प्रामृतिफा दोप)-साधु फे लिपे पिदाह्वदि फ् मोज को

आगे पीछे करके जो भाद्ार धनाया जाता है। उसे ख॑ना

प्राभृतिका दोप है | (प्रष० द्वा० रे शा० १०३)

देश भशसभझः--ओ प्रतिफरमस नहीं करता अथवा अविधि से द्ीनाषिक दोप युक्त करता है या भसमय में फरता ६। स्वाभ्पाय नहीं फरता भ्रथवा निपिद काल में करता | पढिलेदना नहीं करठा है भ्रथवा असावधानी से करता है| छुखार्थी होकर मिदा के लिये नहीं जाता भथवा अलुपयोग पृथक मिथाचरी करता हैं। अनपथीय आहार ग्रहण करता | “मैने क्या किया ! पे कया करना चाहिये और मैं क्या कया ऋर सकता हूं!” इस्पादि रूप शुमण्यान नहीं फरता | साधुमदली में बेट छर भासन नहीं रूरता, यदि फ़रता है तो संयोश्तनादि माँदश्ता दोपों का समन ऋरता है। बाएर से भारर नेपेषिकी आदि समाचारी नहीं छा तथा ठपाभय से खाते समय झावश्यकादि समाचारी नहीं करता। गसनागमन में हरियाव हिया का कायोस्सग नहीं करता बैठते भौर सोते समय मी समीन प्‌ खने धादि फी समाचारी ऋा पातन नहीं करता और “दोपों फ्री सम्पक झएोखना भादि करझ प्रापभित्त से क्ञो! आदि गुरु

3६० भ्रौ सठित्रा जैन प्रसश्थमाऊा

कहने पर उनके सामने अनिष्ट बन कहता £ और गृह के कड्टे अनुसार नहीं ऋरता। हत्पादि प्रकार से साथु की समाचाही में दोप लगाने बाह्ा दश अवसभ कई बाता (३) इशीक्त --$स्सित भ्र्थाद निन्‍य शीस-झांचार बाले हाघु बयेकुशीए कश्ते ै।.' इशीस के वीन मेदः--आान इशील, दशन इशीस, चारितर इंशीर ज्ञान हशील --कालख, विनय इस्पादि शान के भांचार की विराघना करने बार ज्ञान इशीस कहा बांता है | दर्शन इशीक्ष --नि'शंकित, निष्कांधित आदि समकित झाठ भाचार की विरापना करने बाला दर्शन छुशौश कहा जाता | चारिप्रकृशीश!-कतुफ,भूतिकर्म,प्रभाप्रभ, निमित्त,भाजीष, कस्ककठफा, सथ्ण, विया, मन्त्रादि हारा भाजीविका करने दाल्ा साघु चारित्र इशीज् कहा घाता ! झेतुकादि का लथ्श इस प्रकार ६। (दर्मिद्रीबाबश्बक) क्ौतु$.--सौमाग्यादि के लिए स्त्रौ झयादि क्वा विविध झ्रौपधि मिभित छछ से स्नान आदि -कौतुक कहा जाता

की

शै

हूं ग्रयभा क्ौतुक भाग ढ्ो कइत हैं। जेस इल में

गोशे डाज्त कर नाक या छान झ्ादि से : निश्यसना तथा मुझ भ्रप्रि निकाप्नना भादि |

भूविकर्मः--्वर भादि रोग बालों का मत्र की हुई मस्मी (राख) इना भूतिझम है। 77 )

जी देन सिद्धान्त बोल संप्रइ, प्रथम माग ३६१

आप्रश्च---प्रश्न कर्चा अथवा दूसरे फो, खाप की हुई विधा प्रधिष्ठा्री देदी से,स्पप्न में कही हुई रात फइना अथवा फ्र्से पिशाचिका और मन्त्र से अभिपिक्त घटिकादि से फही हुई घात कहना प्रशाप्रश्म निमिष्त --भूत, मधिष्प भौर यर्तमान फे ज्ञाम, ग्रताम भादि माष फहना निमित्त ६। झावीष!--जावि, इल,गण, शिल्प (भाषार्प परे सीया हुमा), कर्म (स्पयं सीखा धआ) पता फर समान जाति फुल भादि वासों पे भ्ावीदिफा करना तथा अपने को एप झौर भ्रुत का भम्पासी बतां कर झालीनिका -फरना झआाजीव है ) काल्‍्क दुरुकाः--- कन्क इरुफा का भय माया भर्थात-पूर्चता द्वार दूसरों को ठगता कश्फ कुरुफा ६। अझयपा -- कश्झ'--प्रपति झादि रोगों में चारपातन फो फस्क कइत हैं भ्रपौदा शरीर फे एक देश फो पा सार शरोर को छोद आदि से उदटन करना फल्क > इसका --शरीर फ्रे एक देश को या सारे शरीर को घोना इुस्पा छचण --्त्री पुरुष भादि घुमाशुम सापद्रिफ ज़थय बतलाना पसदण कहा जाठा ६। दिया --देबी जिसझ्ी भधिष्ठापिशा होती है भया या साघी जाती वह बिया ६। मन्त्र --दरता दिस का अपिप्ठाता शोता बह मन्य भयवा दिस सापना नहीं पढ़ता बह मग्द €।

शहर जी सेठिया दैन प्रस्यमावा.|!

इसी प्रकार मूल कर्म, (गर्म कराना, गर्म रलामे भादि फ्री भौषधि देना), चूर्थ योग आदि तथा शरौर विभूपादि से चारित्र को मखीन करने बाल साधु को मौ भारित्र हशील दी समझना भाहिप।. 7 रे (प्रघ० सा० हा०श गा० १११--१११) (झ्राष०हरि० अ० नि* गा? ११०० ४० २१3) (४) संसक्तः---मूण गुय भौर उत्तर गुश तथा इनके जितन दोष हैं बे सभी सिसमें मिले रहते हैं बद संसक कइशाता है। झैंसे--गाय फरे बारे में भरच्छी बुरी,उच्छिए , भनुष्किट भादि सभी चीजें मिलती रहती हैं| इसी प्रकार संसक्त में भौ गुर * ओर दोप मिले रहते हैं। 7 संसक्त के दो मेद---संक्सिष्ट और झसंबिसषट संक्लिष्ट संसक्त/--माशातिपात भादि पाँच आश्रवों में प्रद्त्ति करने बाला अड्धि भादि तीन गारब में झासक्त, स्त्री अतिपेदी (सव्री पंक्तिष्) तथा ग्रृहस्थ सम्बन्धी ह्रिपद, चतुप्पद, धन-घान्प झादि प्रयोसनों में प्रदत्त करने बार पंक्ति्ट संपक्त कद्मा धाता है | प्र भ्रसंक्लि्ट ससक्त;---ओ पासरत्व, अवसन्ष, कुशीस भादि में मिल कर पासस्थ, झषसभ, कशीक्ष ब्रादि हो बाता तथा संजिध्र भर्पात्‌ उच्चत बिद्ारी साधुभों में मिए्कर रुघत . बिद्वारी हो जाता है| कुमी पर्म प्रिय सोगों में आकर पर्म से प्रेम करने खगता है भौर कमी धर्म 5 थी छोगों के बीच रइ कर धर्म से डेप करने खगता हैं ऐसे साधु को अस- क्लिषप्ट संसक्त कहते हैं। इसका झाभार पैस ही बदलता

भरी सैन सिद्धान्द बोल संग्रश, प्रथम माग ३६३

रहता है। जेंसे-फ्रपा के अनुसार नट के दाव माद, भेप और मापा आदि बदलते रहते हैं।

(9) ग्रषान्छुन्द--ठर्खत्र (छप्व विपरीत) सी प्ररूपणा फरने पाला भर सदर विरुद्ध आचरस फरने पाला, गुइस्थ फे कार्यों में प्रदृत्ति करने भाला, चिड़पिढ़े स्वमाव वाला, भागम निरपेद, स्वमति कल्पित अपुष्टाकम्घन फ्रा आभय लेकर पुख साइन पाला, दिगय भादि में आरासक्त, तीन गारव से गर्वोन्मिच ऐसा साथु यथाध्छन्द कष्ा जाता है।

इन पांचों फ़ो पन्‍्दना फरने पाले फे नि्यरा होती भीर कीर्ति दी बन्दना करने वासे को फायक्लेश होता (और इसक सिपाय फर्म-बन्ध भी होता है! पासत्ये आदि का संसर्ग फ़रन पा मी अवन्दनीय पताये गये ई। (इरि० आा० बस्दुसास्य० लि० गा० ११०७-८ पूछ ५१६ ४१८) (प्रदचन धारोद्धार इा० पूर्थ भाग गाथा १०३ १२१) ३४८--पास जाकर वनन्‍्दना फ्े पांच असमय---

(१) गुरु महाराय भनेक मस्य जीबों से मरी इइ समा में घर्म कपयादि में स्यग्र हों। ठस समय पास आकर बन्दुना फ़रना चाहिये | उस समय वन्दुना करने से धर्म में अन्त राय छगती

(२) गुरु मद्दाराथ किसी फारण से पराद्पुस हों भयाद पर फेरे हुए हों उस समय मी पन्दना नहीं फरनी चाहिये क्योंकि उस सूमय बे श्न्दना को स्वीकार कर सकेंगे

(३) क्राघद निद्राटि प्रमाद से प्रमच शुरु महाराद को भी बन्दना ने करना चाहिय. क्योंकझि उस ममय वे कोप कर सकते हैं|

३३४ श्री सेठिया बैन प्रस्यमाला

(४) भादार झरते हुए गुरु महाराम को मी बन्दता करनी शाहिपे क्योंकि उस घमय बन्दना करने से आहार में अन्सराय पड़ती ६!

(५) मप्त मूत्र त्यागव प्मय मी गुरु महाराज को बन्दना करनी चाहिये क्योंकि ठस समय बअन्दना करने से दे « छश्जित हो सक्त हैं पा और कोई दोप उत्पन्न हो सकता है| (प्रबचन सापयेद्धार ह्वा० बरदमा हार गा १२४ पृ० २००) (इरिमद्रीपाबस्पक अम्शनाध्यंयत नि० गा० ११६८ पृछ २४०)

३४६--परास न्लाकर बन्दना पोम्प समय के पांच बोख--

(१) गुरु मद्दाराज पसन्‍्न चित्त हों, प्रशान्त हों भ्रगा स्पारुपा- नादि में स्यग्र दो

(२) शुरु महाराज झासन पर बैठे हो |

(३) गुरु मशरात्र क्रोषादि प्रमादबश नो |

(३) शिष्प क॑ बन्दना करना चाहता हूँ! एंसा पूछने पर गुर मदाराख (पद्मा हो? ऐसा कइते हुए बन्दना स्व्रीकार करने में साबघान हों

(५) ऐसे गुरु मह्ाराब से भाज्ञा प्राप्त की हो !

( इरिसप्रीमाबश्पक गा० ११६६ पएए 2४९) ( प्रबचन सारोद्धार धनइना डार गाजा १८९५ पृए्ट २०१ ) ३५४०--मम्णानू मशाषीर से ठपदिए एव शनुमत पांच बोस/-- पाँच बोशों का मगबान्‌ मशाबीर ने नाम निर्देश पूर्वक स्वरूप और फर्त बताया है। हन्दोंने उनकी प्रशंसा की है गौर भावरण करने की भ्रमुमति दी है बे बोल निम्ने प्रकार हैं।--

श्री झऔन सिद्धास्त बोश्ष संप्रह, प्रथम झाग ६५

(१) चान्ति | (२) प्रृक्ति (३) भामंष। (४) मार्दव (४) लाधव (१) चान्तिः--शक्त अथवां झ्रशक्त पुरुष के कठोर मापणादि को सइन फर लेना सथा कोघ का सर्वथा स्थाग फरना चान्ति है

(२) मुक्ति --्मी बस्तुओं में तृष्णा का स्याग करना, धर्मो- फ्रण एवं शरीर में मी ममत्व माव रखना, सश प्रकार फ्े छोम फ्लो छोड़ना पृक्ति | -

(३) भारवः--भन, बचन, फाया की सरलता रखना झौर माया फ्रा निग्रह करना भारव ह। (४) मार्दब/--विनम्र पृत्ति रखना, अभिमान करना मार्दब ड्ै। (५) लायब!--्र॒म्प से भ्रस्प उपकरण रखना एब माप से सीन गारब का स्पाग करना लापष दहै। ( ठाणांग इऐेशा सूत्र ३६६ )

( धर्म संपइ अपिकार शख्ो० ४३ टी० प्रृष्ठ १९७ ) ( प्रबअन सारोद्धार द्वार ९६ पू्वमारा गा० शश४ पृष्ठ १३५ )

३४ १--मगयान्‌ से उपदिष्ट एवं झ्नुमत पांच स्थान --

(१) सस्‍्प। (२) संयम

(३) तप। (४) स्पाग | (५) बअश्नचप्यग

(१) सस्प+--सावध भ्थात्‌ असत्प, झ्रप्रिय, भद्दित वचन फ्ा स्पाग करना, यथार्थ मापथ् करना, मन धन काया की

३६६ श्री सठिया सैत प्रध्यमाला

सरतता रखना ससस्‍्य है।

(२) संग्मा--सर्प साबंध व्यापार से नह होना समम है। पाँच आझ्राभ्रद स॑ निहृत्ति, पाँच इन्द्रिय का निम्रइ, भार ., कपाय पर विदप झौर सीन दुण्ड से विरति | इस अक्ार

/। सधरह भेद बात्त संयम का पान करना पंषम ईै

(३) तपः--जिस ुप्ठान से शरीर ़र रस, रक्त झादि सात घातु झौर आठ कर्म ठप कर नए हो जांस बह तप है। यह ठप थाप्त और भाम्यन्तर के भेद से दो प्रकार का ! दोनों छः छा मेद ैं। ' / ' | *

(४) स्पाग --#र्मो के प्रदर कराने वास्ते बाप्म कारथ माता,पिता, पघ्न, घान्पादि तथा आाम्पन्तर 'कारश राम, 5 *, कसाय आदि छरबब॑ मम्दन्धों फ्रा स्पाग करना, स्पाग है| '

अमबाः-- साधुझों का बस्थादि का दान करना स्पाय है| अपपाः-- शक्ति होत हुए उपत बिद्वारी होना, शाम दोने पर संमांगी स्ाघुों के झाहारादि देना भ्रपत्रा भ्रसक्‍्त होने पर ययाशक्ति हन्‍हें पुदृस्थों के पर बताना भौर इसी प्रकार उपत बिद्वारी, भसंमौगी साधुभों की भाषकों के पर दिखाना स्पाम है। नोट--हेम क्ोप में दान फ्ा झ्मपर नाम स्पाग है।

(५) प्रश्नरस्पबास।--मैथुन का त्याग कर शास्त्र में बताई इई

जष्मरर्य बुत नद शुप्ति (भाड़) पूर्वक छुद्ध हक्षचर्म का पात्तन

जैस सिद्धास्व बोक संपह, प्रथम साग ३६७

करना प्रश्नचर्य्ण वास दे। हि > (ठाखांग £ रुइशा ! सत्र शश्६ ) ( भर्म संप्रइ अधिकार श्छो ४६ टी० प्रप्त १२७ )

( प्रबचन साराद्वार द्वा० ६६ पृष॑माग गा० »५४ प्ठ ११४ ) ६५२--भगवान्‌ से उपद्दिष्ट एवं ब्रनुमत पाँच स्थान!-- (१) उस्विप्त 'ऋरक (२) निधिप्त परर (३) अन्त अऋरक | (४) प्रान्स चरक्र

(५) खूद चरक |

(१) ठस्दिप्त चरक/--एदस्थ के भपने प्रयोजन से पकाने के बर्तन से घाइर निकाले इुए भाइर की गयेपशा फरने पाता साघु एत्पिप्त घरक !

(२) निषिप्त चरफ ---पहाने के पात्र से बाइर निकाले हुए अर्थात्‌ उसी में रहे हुए आशर की गपेपणा करने बाला साधु निधिप्त चरक कइसाता है |

(३) भ्रन्त चरक!--पर बालों फं मोवन करने फे प्यास पे हुए आदर छी गरेपसा करने बाला साधु भन्‍्त चरक कइलाता है।

(४) प्रान्द चरक'--मोखन से भ्रवशिष्ट, पासी या तुष्छ भादर फ्री पर्मेपणा करने वाक्षा साधु प्रान्द चरक कश्त्ाता है

(५) लूध चरक!--रूखे, स्नेह रहित भाशर फी गवेपसा फरने वाश्ता साधु सूद चरर कइशाता है।

ये पाँयों भ्रमिग्रइ-विशेषधारी सांधु फ्े प्रकार हैं | प्रथम दो माव-अभिप्रह भर शेप तीन द्रस्प अमिग्रह हैं। ( ठाखांग रण सूत्र ३६३ ) ३४३--मगवान्‌ से उपदि्ट शव॑ अ्रनुमत पाँच स्पान'-- (१) भन्तात चरक |

ड्ृ८ भौ सठिया लैन भसपमाजा

(२) भन्‍न शक्ताय घरक (अन्न रहानक चरक, अ्रन रतायफ चरक, अन्य म्तायक अरकू)।

(३) मौन भरक !

(9) संसृए ऋश्पिक |

(३) तज्ञात संसृष्ट कम्पिक |

(१) भ्रज्माव चरक!--भागे पीछे के परिचय रहित भज्ञाए परों में भाद्दार की गरेपसा करने बाल्ता भ्रगगा अज्ञात रह कर गृहस्प को स्व्रजाति झादि बदता ऋर भाद्र पानी कौ गर्ेपया करने वाज्ता साधु भरशात चरक कहलाता हैँ

(२) भनन्‍न इसाय चररू (अन्न ग्लानक घरक, भन्‍न स्शापक अरक, भ्रन्य ग्तायफ् चरक )---

भ्रमिप्रद विशेष से सुबद ही झ्ाशार करन बाला साथ भ्रन्न रलानक अरढू एइलाता है। झन्न के बिना भूस झादि से सो स्त्तान हो उसी भगस्वा में भाइर की गषेपसा करने वाला साधु भरस्न सशापक 'करढ कहत्ताता ६। दूसरे स्तान साधु के क्तिप आइर को गवंपशा करने बात्ता एनि भन्प स्तायक भरकर फ्द्छाता इ।

(३) मौन चरक्ा--मौनजत पूरक आदर की गरेषणा करन बास्ता साध मौन घररू कइलाता है।

(४) ससृह् इश्पिक ---संसृष्ट भयात्‌ सरड हुए हज था माजन झाद स॑ दिया जान बाला भादार दी जिसे फ़ल्पठा | बह संसृप्ट कल्पिऊ |

(२) जात संसूए झत्पिछ.-दिय आन बा उम्प सी खरे हुए दाय था माजन भादि दिया शान बात्ता भाहर

भी जेम सिद्धास्त बोज़ संप्हृ, प्रथम माग ३६६

बिसे क्पता है | वह तज्जात संसृष्ट कम्पिक है। ये पाँचों प्रकार मी झ्रमिग्रद विशेष घारी साधु के ही जानने चाहिये

( ठाणांग 2 रुद्ेशा सूत्र ३६६ ) ३४४--भगवषान्‌ मद्दापीर से उपदिष्ट एवं झ्ननुमत पांच स्थान|- (१) भौपनिषिक | (२) झद्धैपशिझ। (३) संख्या दत्तिक। (४) रप्ट लामिफ (५) पृष्ट छामिक |

(१) भौपनिभिक:--शहस्प के पास सो इछ मी भाद्दारादि रखा है ठसी की गयेपणा करने बाला साधु भौपनिषिक बड़ताता है।

(२) शद्पसिर--शद भर्पात शंकितादि दोप बर्णित निर्दोष एपदा अदबा संसृ्टादि सात प्रकार की पा झोर किसी एपशा डारा झाइर फ्री सबेपया करने वाक्ता साधु गुर पसिक कष्टा जाता है।

(३) संख्यादत्तिका--दसि ( दात ) की संरुया का परिमाण करके झ्ाहार सेने बाला साधु संख्या दत्तिक कद्टा लाता है।

पाप के पाप्त में घार टूटे बिना एक बार में खितनी मिदा साय बह दत्ति यानि दात कइज़ाती है।

(४) सट्कामिक---देखे हुए भाहार की दही गदेपणा करने बाला साधु रए शामिक कइरूता है।

(५) पृष्ट ज्ञाभिक्रा--ह ध्रुनिराज | क्या आपको में आइए दूँ” इस प्रछूपर पूछने डाले दाता से ही आदर की गषेपणा करने बाशा साधु प्रष्ट झञामिक ऋूइत्तादा हैं!

३३७० भ्री सेठिया डैन ग्रस्थमाक्षा

ये मी अमिग्नइ घारी साधु के प्रकार हैं।

१३ १---मगबान्‌ महावीर से ठएदिष्ट एप असुमत पाँच स्वान- (१) झाचाम्लिक (२) निर्विक्ृतिक

(३) पूर्वार्दिक (४) परिमित पिण्डपातिक (५) भिन्न फ्यिदपातिक |

(१) भाषधाम्लिक (भायंब्रिज्िए)।:--भाचाम्ल (झ्राप॑बिल) ठप करने बाता साघु झाचाम्तिक कइलाता है |

(२) निर्विकृतिक (सिम्दियत) --थी झादि विगय का ए्वाग करने वात्ा साथु निर्विततिक कहलाता

(३) पूर्वार्दिक (पुरिमइटी):---पुरिमदद प्र्यात्‌ प्रपम दा पहए तक कय प्रत्यास्पान करने वाला साथु पूतार्दिक दा भ्राता ६। $

(४) परिमित पिप्डपातिझ/--अस्पादि कया परिमाल क्लुक परि मित आदर सेन वाज्ला साधु परिमित्त पिणडपातिक इइलाता !

(४) मिन्‍न पिणडपाविकृ१--पूरी वस्तु छतझर हृकड़े की इई भस्तु को शो लंने बात्ता साधु भिन्न पिय्डपाठिक कद क्ञवाईं। [39 +

(टायांग 2 चदशा सत्र ३8४३) ३१६--मगवान्‌ मद्बीर से उपदिष्ट एवं झनुमत पाँच स्थानः- (१) भरमाहार (२) बिरसाइार | (३) भन्यादार | (४) पान्ताद्वार (४) खूचाद्वार। !

मरी जैन सिद्धान्त दोक छप्इ, प्रभस मार ड्ज्‌

(१) भरसाहार --शीैंग आदि के घघार से रहित नीएस आदर फरने वाला साघु भरसाहर फदलाठा ६।

(२) पिरसाइर --पिगत रस भर्यात्‌ रस रहित पुराने धान्य आदि का झादार फरने वाला साधु विरसाह्वार कडछाता ह।

(३) भ्रन्ताहर --मोखन के प्ाद भ्रवशिष्ट रद्दी हुई वस्तु फा आहइार फरमे वाहा साधु भन्ताहार फइलाता है

(9) प्रान्ताइारः--6भछ, इस्फ़ा या घासी आहार करने धाला साघु प्रान्ताद्वर कश्लाता है।

(५) घूचाशर/--नीरस, पी, तैक्षादि बर्थिस मोश्नन करन वाज्ता साधु लूघाद्ार रइलाता है।

ये मी पाँच भमिग्रइ विशेप-बारी साधुभों फ्रे प्रकार हैं। इसी प्रकार लीवन पर्यन्त प्ररस, विरस, भन्त, प्रान्त, एय छूघ मोजन से जीदन निर्वाह के भमिग्रह वाल साधू झरसभीपी, ब्रिसयीवी, प्रन्तणीबी, प्रान्तजीवी एपं रूच चीवी कइलाएे हैं। ( ठाणांग उद्देशा ? सूत्र ३६६) ३४७--मगषणान्‌ मद्दावीर से ठपदिष्ट पथ अ्रनुमत पाँच स्थान!-

(१) स्पानातिय (२) उत्कदुकासनिक | (३) प्रतिमास्थायी | (४) पीरासनिक | (५) नैपषपिर |

(१) स्पानातिंग --भतिशप रूप से स्थान भयाद व्ाोत्सर्ग झरन वाज्ता साधु स्वानातिग कशलाता हे

(२) उत्तदुक्ासनिक--पीढ़े वगैरइ पर झूल्दे ( पुत ) छ्षगाते हुए पैरों पर बैठना उत्फठुकासन है| उस्कदुकासन से बैठन

झ्जरे श्री सेठिया जैन प्रस्यमाता

दे भमि्रइ बाला साधु उस्कदुकगसनिक कडा आता है | (३) प्रतिमास्थायीः-- एक रात्रि भादि की प्रतिमा अरक्लीकार कर

कायोस्सर्ग विशेष में रहने बाला साथु प्रतिमास्थायौ है। (४) बौरासनिक--पैर जमौन पर रख कर पिंद्दासन पर बेटे हुए

पूछ्स के नीचे से सिंहासन निकाल लेने पर जो झबस्ना रहती

है उस झगस्वा से बैठना भीरासन है। पद भासन बहुत

दुष्कर है | इस लिये इसका नाम बीरासन रखा गपा | (५) नैपधिक/--निष्या झभांत्‌ बैठने के बिशंप प्रकारों से बैठन

वाला साघु नेपधिक कद्ा आता है |

( ठाणांग सूत्र ३६४३ )

३४८--निषषा के पाँच मेदः--- (१) स्मपादयुता (२) गीनिषाध्रेका। (३) इस्तिद्युण्दिका ।_ (४) पण्नेड्ठा। (५) भर्ई पर्यक्षा

(१) समपादयृता --जिस में समान रूप से पैर भौर फूलों एृष्णी पा भासन छा स्पर्श छतदे हुए बैठा जाता है बह पमपादयुता निष्रधा है !

(२) गीनिपपरिका/--जिस झासन में गाप ही तरह बैठा आता हैं। बह गोनिपधिका है।

(३) इस्तिशुफ्डिका।--खिस झासन॑ में ऋन्‍्दों पर बेठ कर एक पैर ऊपर ९क्‍्खा धाता है। बह इस्तिशुयिदय निषरधा है|

(५) पर्षह्षा --पि्रासन से बैठना पर्यज्षा निपधा है !

(४) भर पर्यक्षा --अंघा फर पद पैर रख कर बैठना भरा पर्यक्षा निषया है!

मरी जैन घिद्धास्व बोल संभइ, प्रथम माग ३७३

पांच निपपा में इस्सिश्ुपिदिका क्रे स्थान पर उत्कदुका मी कहते हैं उस्फद॒ुकाः- भासन पर झुस्दा ( पुत) खगाणे हुए पैरों पर बैठना उत्कदुका निष्रा ई।

( ठाणांग छ० सृत्र ३६४६ टीझा ) (ठासांग धइ्० छूत्र ४०० )

३५४६--मगषान महावीर से उपदि्ट एवं झनुमत पाँच स्थान -

(१) दण्डायतिक | (२) ज़गयरशायी (३) भातापक | (४) भप्राइृतक | (५) अकूणदयक

(१) दयडायति&.--दण्ड प्री तरह सम्दे होकर भथात्‌ पैर फैला फर बैठने वाश्ता दुश्दायतिक पड़लाता ई।

(२) छक्षमण्दशायी --दू संस्थित या बांकी लकड़ी को छ्गणद कहते हैं। छगएद को तरइ छुबड़ा होकर मस्तक और कोइनी को जमीन पर स्गाते इुए एप पीठ स्रे जमीन को स्पर्श करते हुए सोने बाष्ता साघु लगणइशागी इडइलाता है

(३) भ्रातापकर'--शीत, श्रातप आदि सइन रूप आतापना लेने बाला साथु भाठाफ्फ कड़ा लाता है

(४) भ्रप्राइतक'--इस्त्र पहन ऋर शीत क्यू में ठपड आर ग्रीप्स में घास छम्र सेवन करने बाला अप्राइतक कड़ा जाता है।

(५) भरकपडयक.--शरीर में खुजली भत्तने पर मी खुबलान दात्ता साथु अकयइसक कइखाता है।

( राखांग » उदेशा सूत्र ३६६ )

श्डर श्री सेठिया जेम मन्बमाला

३६०--मद्दानि्रा भौर मदयपर्यबसान के पॉच बोश---

(१) आाषास्पे !

(२) उपाध्याय (छत्रदता)।

(१) सएबिर ! );

(४) रपस्वी |

(५) स्लान साथु की स्त्ानि रहित महुमान पूर्वक बैंगाइत्त

करता इभा भ्रमस निम्न॑न्य महा निर्शरा बाला दोता और पूना ठत्पप्न होने से मइपर्यसान भशंत्‌ अस्पन्तिफ भन्त बात्ता शोदा ई। ( ठासांग 2 रदेशा ? सर १६० ) ३६ १--महानिर्भरा भार महापयंप्सान के पाँच दोसः---

(१) नषदीफित साधु

(२) इस

(३) गश। ||

(२) संप।

(५) साधर्मिक की सलानि रहित बहुमान पूर्वक बेंयाव्वाय करने बाला साधु मद्ानिजंरा भौर महापमंत्रसान बता दोवा है।. !

(१) बोड़े समय की दीदा पर्याम बाल साधु को सब दोक्षित कहते हैं

(२) एड झ्राषाय्यं की सन्‍्तति फ्रो इस कइते हैं सथदा बात आदि साएु सम्नद्धाम विशेष को कुस बड़टे हैं ।'

(३) गढ --इछ के सम्ृृदाप को गय इइत हैं अबजा सापक सीन इल्तों के समुदाय कया गशय ढहइते है ! ॥ं

श्री जैन सिद्धान्ध बोस संप्रद, प्रथम भाग इ्जड

(४) सघः--ग्मों के सप्मुदाय फो संय कते

(५) साधर्मिफ --छिक्त और प्रवचन की भपेषा समान पर्म पाला साधु साधर्मिक फड्टा जाता है।

(ठाणांग 2 ४७ * सूत्र ३६७) ३६२-पाँच परित्रा--पस्तु स्वरूप का ज्ञान फरना भौर क्षान पूषेक उसे छोड़ना परिज्ञा है। परिद्वा के पाँच मेद हैं। (१) ठपधि परिज्ञा। (२) ठपाश्रय परित्ञा | (३) रूपाय परिप्ता (४) योग परिज्ञा | (५) भक्तपान परिज्ञा | ( ठाखाँंग ए्देशा सूत्र ४२० ) ३६३-पाँष स्पवद्दर-मोधामिलापी भारमसाभों फ्री प्रश्डसि निद्वत्ि को एवं तस्फारणऊर श्ञान विशेष को ध्यवह्दार कहते £। अपवहर के पांच मेद -- पा (१) आागम धस्पवद्गार | (२) भुतम्पबइ्ार (३) भाषा प्यशर | (४) घारणाण्यपद्दार (५) जीत स्पमइ्टार।

(१) झागम स्पवदारः--कैवस ज्ञान, मन' पगय ज्ञान, भवपितान चौद॒इ पूर्व, दश पूर्ष भौर नय पूर्व का श्ञान भागम फइ छछा ६। भागम ब्रान स्त प्रवर्टित प्रद्डचि निष्नत्ति रूप स्पबहार आगम स्यवद्दार कहलाता है।

(२) थ्रुत प्पवह्दार --आपघार प्रक्प भादि ज्ञान भुत इसस प्रवठाया सान बाला स्पव्टार भ्रतस्यवद्दार कहलाता हद नद, इश, ओर चांद पूद का धान मी भरत रूप परन्तु

जा मरी सठिया जैन प्रस्थमाला

अतीन्द्रिय झ्र्प दिपयक् विशिष्ट ज्ञान का कारक होन रक्त ज्ञान भतिशय वाला है भर इसी ल्षिपे बह भामम रूप माना गया है!

(३) झात्रा भ्यवह्दारः-दो गीतार्थ साधु एक इसरे से झ्जग दर देश में रह हुए हों भौर शरीर बीस हो छाने से वे विहार करने में असमर्य हों | उन में फिसी एक के प्रापरिचत झाने पर वह एनि योग्य गीताय शिष्प के झ्ममाव में मति भीर धारणा में झडुशल धगौतार्ष शिप्प को भागम की सांडेविक गूह भांपा में झपने मतिघार दोप कद कर पा लिख फर उसे भ्रम्प गीतार्य पनि के पास मेयवा भौर उसझे द्वारा भाशोचना करता | गढ़ भाषा में करी आतछोचना सुन फर ने गीतार्ष ध्वनि द्रल्प, पेत्र, काश, माष, स॑इनन पैस्प, बत झ्ादि का विचार कर स्व॒र्स॑ गहां भाते ईं अ्रथत्रा योग्य गीतार्थ शिप्प को समझा कर मेजते हैं। यदि बेसे शिष्प का भी उनके पास भोग शो दो झ्ाक्तोषना का संदेश शाने गाले के हारा हौ गढ़ अर्प में ग्रतिचार की शुद्धि ्र्यात्‌ प्रायरित्रत्त देवे हैं। यह भाज्ञा स्पषदार है |

(४) धारणा स्पषडार किसी गीता संबिग्न पनि ने दम, भैत्र, कास, माष क्री झ्पेध्या मिस्र अपराध में जो प्रापरिचरत दिया है। उसकी धारशा से बैसे अपराध में ठप्ती प्राव रिचत्त का प्रयोग करना घारया स्पतह्यार है

बंयाइस्प झरने झादि से यो साधु मच्छ का उपकारी हो बड् यदि मम्पूर्स छद धत्र सिखाने बोग्य

मरी शैत सिद्धान्त योक संप्रह, प्रथम माग- ड्फक

हो तो उसे गुरु महाराज छूपा पूर्षफ ठपित प्रायर्धित्त पदों फा कथन बरते हैं। उक्स साधु छा गुरु महाराज से कहे हुए उन प्रायरिचत्त पदों का घारख फ़रना घारसा व्यवहार ई। ४) जीत स्पयद्दार--हम्प, छेत्र, फाल, माय, पुरुष, प्रतिसेवना का औौर संइनन शति भादि की हानि का विचार कर नो प्रायश्बिच दिया जाता है पह स्रीस स्पवह्दार है। भपवा।--

किसी गच्छ में कारश विशेष से छत्न से भषिक

आयश्रिप् दी प्रहृ्ति हुई शो भौर दूसरों न॑ उसक्ा प्नुसरण छर

जिया हो तो वइ प्रायर्चतत्त सीत न्‍्ययद्वार करद्दा जाता ६। अथवा ---

अनेक गीसार्थ प्लुनियों द्वारा छी हुई मर्यादा का प्रतिपादन करने दाझ्ता ग्रन्थ खीत फइल्ताता ईं। ठससे प्रवर्तित स्यबइ्ार जीत घ्यपद्ार है।

इन पाँच स्पदद्दारों में यदि स्पवहल्ता फ्रे पास झागम हो तो ठसे भ्रागम से ख्यवह्र ब्ताना चाहिए। भागम में मी फंप ज्ञान, मनः पर्यप ड्ञान भादि मेर हैं। इनमें पहले फरेबल ज्ञान भादि के होते हुए उन्हीं से स्पवशार चशाया जाना चाहिए। पिछत्न मंन!पर्यय क्षान झादि से नहीं आगम छ॑ अमाषर में भुत से, भर के अमाष में भाज्ञा से, आह्ा के भझमाष में धारणा से भौर घारणा के प्रमाद में जीत भ्पवद्दार से, प्रदत्ति निश्वत्ि रूप म्यबह्वार कला प्रयोग होना चाहिए | देश, फ़ाल #॑ भजुसार उसर कड्े अनुसार

श्ध्द शी सठिया जैन प्रस्थमाला

सम्परू रूपेय पर्चपात रहित व्यवहारों का प्रयोग क्रंठा इआा साधु भगवान्‌ की भाषा का झाराषक़ होता | (टाखाँग पहशा सूत्र श्र! ) (६ स्प्चशार सूत्र पीठिका भाष्य धा० ६२ ) ( मगबती शठक़ उश्शा सू० १४० ) ३६४--पाँच प्रदार कर पुएड'-- प्रुएडन श॒म्द फ्रा भर्थ झ्रपनयन भर्धात्‌ इटाना, गई फ्रना है। सह घुणइन द्रव्य भर भाव से दो प्रकार का ई। शिर से बालों को भलग फरना हृम्प इृएइन £ भौर मत से इन्द्रियों फ्रे बिपय शम्द, रूप, रस भार गन्प, स्प्ठ, सम्बन्धी राग है भौर कपायों को सर करना मार प्यरन ई। इस प्रकार हस्प ध्वृएदइन और भाव प्नप्डन घर्म से युक्त पुरुष घुण्ड कद्टा जाता पाँच पुएंड--- (१) ओ्रेप्रेन्करिप पृष्ठ (२) घष्ठुरिन्द्रिय इुणड (३) प्राशेन्द्रिय प्र॒णंड | (४) स्मनेन्द्रिप हुएड (५) स्पशनन्द्रिय ुण्ड

(१) भोजेन्द्रिय इुपणा--भोत्रेखखिम के बिपय रूप मनोज एवं अमनोज्ष शस्दों में राग द्वेप को इटाने बाला पृठुप भेजेन्दरिय पुष्ड का साता ई।

इसी प्रकार भघुरिन्द्रिय पृणड भाद़ि का स्वरूप मी समझना चाहिये पाँचों मार हुण्ड हैं ( टाफांग १७ सूज ४४१ )

मी देन सिद्धास्व बोल्ष संप्रह, प्रथम माग हु

३६५--पाँच प्रकार के मुएड/-- (१) क्रोध प्रुणठ (२) मान घुण्ड (३) माया मुणड (9) छोम पुणद (५) सिर झुणद

मन स॑ क्रोध, मान, माया और जक्षोम को इटाने वात्त पुरुष क्रमश! क्रोध पुएद, मान ध्ृण्ड, माया प्रुएड झौर ज्ञोम प्रुएद है। सिर से फश झलण करने दाला पुरुष प्रिर घुण्ड ६।

इन पाँचों में सिर म्रुणड द्रस्य घ्ुण्ड £ भोर शेप

चार माप पुएड है

(ठाखांग ३० सूत्र ४४३ )

३६६--पाँच निग्रेय/-- प्रथदो प्रदार का ६। आम्पन्तर भौर ग्राप्त | मिध्यात्व आदि आस्पन्दर प्रन्थ भौर घर्मोपफ्रण फे सिवाय शेप घन घान्पादि प्राप्त ग्रन्य ६) इस प्रकार पास झौर

झाम्यन्तर प्रथ थो प्रक्त ६! बह निग्रथ कहा जाता ह।

निग्र-थ पाँप मंदः--

(१) पुत्ताफ (२) बच्श

(३) इशीन (२) निप्रय | (५) सनएऊ

(१) पृत्तार.--दान से रदिद पान्प की भूमी को पुलाक फइने हैं। बढ निमार होती सप भौर भुत के प्रभाव सं

३८०

श्री सठिया जैन म्रस्पमाला

प्राप्त, सपादि के प्रयोमन बल्त ( सना ) बाइन सहित

अफ्रप्रसी भ्रादि नाम को मर्दन फरने बाली सस्पि

कु प्रयाग और हानादि अतिचारों के सभन द्वारा सपम

का पुत्ताफ क्री तरइ निस्सार करने बात्ा साधु पुलाई

का सारा

पुलाफ़ फ्रे दो मेंद होते ई---

(१) छम्धि पुताइ।. (२) प्रसिं सबा पुछाक ) लम्पि फा प्रयोग फरन दाष्ठा सापु सम्पि पुलाक

आर भानादि भठतिघारों करा सबन करने बात्ता साधु प्रति

सवा पुल्ताक | (मगबती शहक १५ रहेशा $)

(२) बहशः--बडुश शम्द का झ्र शबल भभात्‌ चित्र रस

शरीर और उपफ़रण की शोमा करन जिसका चारित यद्धि भार दापों से मिला हुमा झत एवं अने$ प्रकार ढ्रा (। बह पहुश कहा झाता परकुश के दो मेंद ह--- (१) शरीर बहुश। (२) उपफ्रदा बझूश | शरीर बहुशः-जिभूपा के सिय हाथ, पर, धुँइ भादि घाने शत्ता, भाँस, कान, नाझ झ्ादि अबयभों मेंस श्रादि हूर ऋरने बाशा, दाँत साफ़ करने बाला, कर संशाएन दाक्ता, इस प्रकार कायगुप्ति रद्दिठ साथ शरीर-बकुश ई। उपकरण बहुशु/--जिभूपा कर लिये भक्त में चालपड्ना भाई घान बाला, पृपादि दन दाछ्ा, पात्र, इएड भादि का तैज्ादि लगा झर भमफान भ्ाछा साधु उपकरस बफुरा

प्री मैन सिद्धान्द बाक संप्रद, प्रथम साण इ्प!

ये दोनों प्रकार के साधु प्रभूत पस्त्र पाश्रादि रूप आद्वि और यश रे फ्रामी होते हैं | ये सातगारष शा्त होते हैं और इस जिये रात दिन के फरोन्य पनुप्यनों में पूरं सावधान नहीं रहते | इनका परिवार मी संयम से पृथर तैलादि शरीर की मालिश फरने वाला, कैंची स॑ फ्रेश फारने पाला होता ईं। इस प्रकार इनका चारिश्र सब या देश रूप से दीद्ा पयाय छेद योग्य भतिखारों मे मश्षीन रहता ई।

(१) इशीख --पृक्ष मुझों तथा उत्तर शुणणों में दोप ल्गान सथ। सज्यक्तन फपाय के उदय दूपित चारिश्र वाला साधू कुशीज्ष फद्मा जाता है इशीक्ष रू दो मेद हैं --

(१) प्रतिसबना इुशील (२) फ्रपाय कुशीक्ष |

प्रसिप्िवना कुशीस :---घारिध्र क्ष प्रति भ्रभिम्ुस होते हुए भी भजितन्द्रिय एवं क्रिसी दरइ पिएद पिशुद्धि, समिति मभायना, सप, प्रतिमा आदि ठक्तर गुझों छी तथा मृत्त गुखों की पिराधना फरन सपक् की भाप्ना का उल्लंघन फरन वाला प्रतिसवना इुशीक्त

फ्रपाप इंशील --सम्बतन क्पाप क्र उठय से सक्पाय घारित्त घाज्ञा साधु कपाय झुशीज् कहा नाता

(४) निर्प्रय-्रथ हा भर्थ मोह ६। माह रहित साधू निग्नेथ छएलाता | उपशान्त मोद भीर चौथ माइ मद नि्रेय दो मेर ई।

बुघर ज्रौं सेठिय्रा जैन प्रस्थमाजा

(५) ख्रावफ़ --अक्लभ्यान दवा सम्पूर्श पाती कर्मो के समूह दा चय करके थो युद्ध हुए ईंये स्रातक बद्धलातं हैं। समोगी और झयोगी मेद स्रावक मी दो प्रकार के

होते हैं ( ठाणांग रऐेशा 8 सूत्र श४२ ) ( सगइती शठक गश उरेशा छूद जश१् टी. ) ( पंचनिर्धस्थी प्रकरण गावा ४१ ) ३६७--पुराक ( श्रति सेवा पुल्ताक़ ) के पाँच मेद/--

(१) ज्ञान पुछाक ! (२) दर्शन पूलाऊ। (३) भारिश्र पुलाक | (४) तिज्ञ पुत्ताक (५) पथा धत्तम पुत्ताक।

(१) ब्ान पुक्ताक/--स्वछ्तित, मिशित भादि झ्ान के भ्रदिचारों का सेबन कर संयम को प्रसार फरन बाष्ठा साधु ब्ाव पुसाफ कइछाता |

(२) दर्शन पुक्ताकर-इठीयय परिच्रय भादि समकिठ के अतितारों का सेवन कर संयम को असार करने बाला साधु दर्शन पूलाक

(३) चारिज्र पुलाकः--मूक्त गुण और उत्तर गु्सों में दोप हया कर चरित्र की बिराघना करने बाला साधु चारित्र पुल्ताक है!

(४) जिक्ञ पुतश्ताफ'--शास्त्रों में उपदिष्ट साथु शिक् भषिक घारस करने बाला भश्रयव्रा निष्फ़ारयस भन्प सिम्न को घारण करन बात्ता सापु लिकू पुछाक

(३) यथा छप्तस पृप्ताकः--हइदछ प्रमांद होने प्त मन से अकस्पनीय ग्रइया फरन विचार बाला साधू पथा ब्रद्म पुलाक

भरी डैन सिद्धान्त बोल मंप्राह, प्रथम साग ३८३

अ्रपया उपरोक्त घारों मेदों में ही सो घोड़ी थोड़ी पिराघना ऋरता वइ ययाप्रद्म पुलाफ कहलाता है ( ठाणांग उशेशा सूत्र शृ४२ ) ( सगवती शतक २५ उर्देशा सू० ७५१ ) ३६८--पकुश # पाँच मंद'--

(१) झामोग बरुश (२) भनामोग बरुश (३) सपृच पहुश (४) भसंदच पकुश (५४) यथा खचम पदुश |

(१) भामोग पहुश --शरीर भर उपरूरस फी शरिमूपा करना माप करे लिए निपिद यद लानते हुए मी शरीर भौर उपकरण फ्री विभूषा कर घारिप्र में दोप क्षगाने वाला साधु भागोग पडुश ई।

(२) भनामोग बकुश/--भनजान से भयवा मइसा शरीर भौर उपकरण फ्री विभूषा फर खारित्र को दृपित फरन याला साधु भनामोग पदश |

(३) संदृत बदूण --छिप फर शरीर झोर उपकश प्रो त्रिभूषा झर दाप मवन फरने बाला माघु सदध बद्ण है

(५) भरसंपृत्त पढुश --प्रसट शीठि से शरीर भर टपकरण की विभूषा रूप दोप सेयन करने दासा साधु भरमंइत्त पहुशा £।

(५) पथा घुपम पशुण --उत्तर गुथ सम्पथ में प्रकट या अ्प्रस्ट रूप म॑ शुद्ध प्रमाद सरन छरन बात्ता, भाँप फ़ा मैत्त भादि दर झरने बाज्ना साथ यया यन्‍्म पह्टा रहा जाता

( शागांग पहेशा 3 सूत्र शए१ )

श्८ए सटिया जैन प्रन्यमाला

१६६--हशौील के पांच भेदः-प्रतिसतना हशील झीर कपाय शशीज्ञ के पाँच पाँच भेद ईं--.

(?) ज्ञान इशील (२) इशन इशील | (३) घारित्र इुशील (४) लि कुशीत (५) पयाय्लम इशीक्त |

ज्ञान, दर्शन, चारिश्र भ्ौर छिह्ल से झ्राजीबिका कर इनमें दोप लगाने वाले क्रमश प्रतिसेषना की अपचा ब्रान इशील, दशन कृशीक्त, भारित्र कुशील भौर लि कुशीत्त है पषा यम इशीअ'--यह तपस्पी ई। इस प्रझ्चार प्रशमा "७ होने वाला प्रतिसवना की भ्रपेदा यया सदम इशीक क्रपाय रुशीस भी ये ही पाँच मेद £ै। इसह्ा सरूप इस प्रकार है: -- (?) ज्ञान कुरीक्ता--संस्बलन छोघादि पूर्वक विधादिक्वात का प्रयोग करन वात्ता साथु न्रान इशीत् है| (२) दर्शनइशीक्त--संन्द्सन फ्रोषादि पूर्वक दर्शन ( इशंन ग्रन्य ) फ्ला प्रयोग छरने बाला धाधु दर्शन कशोौल है। (३) चारित्र इशीक्ः--संखलन कपाय आयेश में किसी को शाप दंने बा्या साषु धारित्र झुशील | (४) सिज्ञ इशीरः--संम्पतन रूपाय वश भस्प छिड घारण करन बाला साथ प्षिक्ष इुशील ६। (१) गया रतम इतीक्ः:--मन पे संन्दतन फ्पाय करने बाला साधु यवा छस्म इशील ई।

प्री सैन सिद्धान्द बोक़ संप्रइ, प्रथम माग इ्प्श

अगवा।-- सज्दश्न फपाय सहित कर ज्ञान, दशेन, चारिश्र आर जिक् की विराघना करने पाले क्रमश शान इशील़, दर्शन छुशीस, घारित्र इशील भौर लिप इशील एवं मन से सन्दत्नन रूपाय करने वाज्ा यपासचम कपाय इुशील | तिड्र कुशीक्ष फे स्थान में कई तप कुशील मी ६। ( ठाणांग रशेशा सूत्र ४४२ ) ३७०--निर्ग्नन्थ पांच मेद -- (?) प्रषम समय निर्ग्रन्थ (२) अप्रधम समय निर्प्रन्थ (३) घरम समय निर्ग्रय। (४) झ्रभरम समय निर्ग्रन्थ (५) पया झद्म नि्रव

(१) प्रपम समय निर्ग्रन्प --अन्तपव दस प्रमाण नि्रन्ध काल फी समय राशि में से प्रथम समय में वर्तमान निर्ग्रन्य प्रथम समय निर्ग्रन्ध है।

(२) भ्रप्रथम समय निर्ग्रन्य --प्रथम समय फ्रे सिबाय शेप स्मयों में वर्तमान निर्ग्र-प भ्रप्रथम समय निर्प्रन्थ |

य॑ दोनों मेद पूर्वाचुपर्वी की अपेधा

(३) घरम समय निर्ग्ेन्य --भन्विम समय में ब्मान निर्गन्थ घरम समय निम्नेन्य ई।

(४) भचरम समय निर्ग्रन्थ -अन्विम समय क॑ मिवाय शेप समयों में ब्तमान निर्ग्रन्य भघरम समय निर्ग्रय

ये दोनों मेद पयाल॒पूर्ती की भपेदा है

३८६ श्री छेठिया मैन प्रन्थमाक्ता

(४) यवाग्रलम निर्प्रन्य/--प्रथम समय भादि की अपेधा बिना सामान्य रुप से समी समयों में दतमान मिर्ज्रज पाप निर्मन्प फइलाता ह।

( ठाणांग 2 जशशा है सूत्र शटर ) ३७१--स्नाठक के पांच मंद।-- (१) भस्छवि। (२) भ्रशपत्ष | (३) भक्र्माशा | (५) सद्युद्ध झ्ञान दर्शनघारों भ्ररिहन्त जिन क्रेषछी | (५) अपरिआाषी |

(१) भच्छष्रिः--स्नातर ब्मय यांग ब्य निरोध करने स॑ ऊति झभांत्‌ शरीर रहित झबा स्पया (पौड़ा ) नहीं देन गाता देता

(२) भशपक्त --स्नातफ़ निरतिणार घुद् चारिध्र को पालता | इसशिए बह भशबत्त होता |

(३) प्रकमाश!--घादिद कर्मो का घय कर हासने से स्नातक अक्र्माश दोता ६।

(४) धंशुद्ध धानदर्शनघारी झरिइन्त मिन फेवद्धी --दूसर शान एजं इशन ग्रसम्बद झत एबं शुद्ध निप्फ्सक ज्ञान भौर इशन घारक होने स्नातक संयुद्ध ज्ञान इर्शनघारी इोठा है बह पूजा योग्य इोने अरिहन्त, कपायों काया विजेता होने डिन एवं परिपूर्य ड्वान, दर्शन, चारित्र का स्वामौ हान से कंपती |

श्री जम सिद्धाम्व चोक संप्रह, प्रथम माग हुए

(५४) भ्रपरिभावी--सम्पूय॑ फाय योग क्ला निरोष फर लेने पर स्नातक निष्किय हो जाता आर फ्रम प्रवाह रुछू जाता है। इस लिये यद भपरिभाषी दोता £

(ठाणांग 2 रहेशा सूत्र श2२) (मगचसली शक २५ उद्देशा घृ ७५१) ३७२--पाँच प्रकार के भमश)--

पाँच प्रकार फे साघु भ्रमण नाम से पड़े खाते ई--

(१) निप्रन्य (२) शाक्व |

(३) सापम (५) गैरुफ (५) झाभीविक |

(१) निप्रेंष --जिन-प्रवषन में उपदिष्ट पाँच मदात्रत, पाँच घमिति, तीन गुप्ति भादि साधु फ्रिया का पातन फरने पाले जन धुनि निर्ग्रथ फइलाते ६।

(२) शाक्य -पृद्ध झनुयायी साधु शाक्य पड़लाते ईं।

(३) हापस --जरटाघारी, जंगलों में रहने घन सन्‍्पासी तापस कहइसाते

(५) गेस्झ--मरुए रंग के दस पहनने वाल प्रिदएटी साध गैरफ कऋटलाते £ |

(४) भाजी विइ--गोशासक मत बे अनुपापी साप भाभीविक कहलाते ६।

( प्रबषन सारोदार द्वार २४ प्रथम भाग गा८ ७३१ पृष्त २११ ) 3७३--अनोपऊ हो ध्यास्पा और मेदः--

दूसरों भागे भपनी दुर्दशा दियारुर भनुल

ड्द८ सठिया जैन प्रत्थमाका

माषण करने से जो हस्प मिल्तता ठसे वनी कहते £। वनी को भोगने पाक्ता साथु पनीपक करहछाता | अथवा ---

प्राय दाता फ्रे माने हुए अ्मणशादि का अपने को मफ़्त बता कर खो भार मांगता हैं बह अनीपक कहलाता है | बनीपक के पाँच मेद्‌-- (१) भतिथि बनीपफ | (२) कूपश बनीपक | (३) माप्नस घनीपक (४) श्रा बनीपक

(५) भ्रमण बनीपक

(१) भतिथि बनीपका-मोशन के संमय पर ठपस्थित ने बाला मेहमान भठिषि कइलाता है। भतिभि-मक्त दाता के भागे अतिधिदान की प्रशंसा करक शझाह्यारादि चाहने बाला अतिथि धनीपक है !

(२) झृफ्श बनीपक/--औओ दादा कृपण, दीन, ६खी पुरुषों का मक्त हे श्रर्धात्‌ ऐसे पृरुषों क्रो दानादि देने में विश्वास करता ह। उसके भागे कूपश दान फ्री प्रशसा करे आइारादि उतने बाल्ला एबं मोगने बात्ता ऋृपण बनीपछ |

(३) प्राक्नर दनीपक.---सो दाठा जाइशों फ्ा मक््य ई। उसके झागे प्राप्तस दान की प्रशंसा करके भाइरादि सने बाता एवं मोगने वाला प्राप्मस बनीपक कहलाता है

(४) शा बनीपक--$ु्ते, काफ भादि झये श्राइरादि देन में

पुएप पममने बाल दाठा के भागे इस कार्य की प्रशंसा

भी लैन सिद्धास्त चोक़ संप्रइ, प्रथम माग इ्प

ऋरफे आहारादि छेने वाक्ा एव मोगने बाला श्वा-वनीपक फइलता है|

(५) भ्रमण वनीपझ --धमण के पांच मेद कद्दे जा चुके हैं। जो दाता भ्रमणशों का मत है ठसके भागे भमण-दान फी प्रशता करफे आदहरादि प्राप्त फरने याक्ञा भ्रपण- चनीफ्क है

( ठाझ्यांग कईशा सूत्र ४४४ ) ३७४--बस्त्र के पाँच मेद)---

निर्मन्प और निग्र-थी को पाँच प्रकार फे पस्प प्रदस

४४ ओर सेवन करना फल्पता ईं भस्त्र के पाँच प्रकार ये हैं )---

(१) खाहुमिक (२) माज्निक (३) सानक | (४) पोदक | (५) ठिरीड्पड़

(१) जाहुमिक.--श्रस॒ जीवों के रोमादि से बने हुए वस्थ जाहमिक फइलाते ६। जैसे --फ्म्दत्त वगैरद |

(२) माह्िक ---भक्तसी का घना इहुभा वस्प माहिर कइलाता

(३) सान$,--सन का बना हुआ बस्प सानक फहइलाता ई। (४) पोतफ़'--कृपास का घना हुआ वस्तु पोतक कइलासा ||

(५४) विरीड्पट्ट:--विरीड़ इघ क्री छात्त फ्रा घना हुमा कपड़ा विरीड पद फइत्ताठा है।

३३० श्री सेटिया मैस मख्थमाला

इन पाँच प्रछार के दस्पों में उस्सर्ग रूप से तो कपास और ऊन के बने हुए दो प्रकार के अल्प मृस्य के वस्प ही साधु फे ग्रइश करने योग्य है|

( ठांखांग उह्ेशा सूत्र ४४६ ) ३७४--प्नान के पाँच मेद!-- (१) मवि ज्ञान (२) भ्रुतड्ान (३) भवपि आन (४) मनः पर्यय ज्ञान | (५) कैब हान |

(१) मति ज्लान (आमिनिभोक्कि क्षान))--इन्द्रिय आए मन ऋौ सद्यापता से योग्य देश में रद्दी हुए बस्तु को जानने बाला ध्वान मतिज्ञान ( झामिनिद्रापिक श्रान ) कहस्ताठा है

(२) भुतज्ञानः-बाष्प-बाचक माद सम्बन्ध हार शब्द सं सम्द्ध अध फ्ो प्रहरा कराने बास्ता शन्‍्द्रिय मन कारशक ब्वान मुतब्ान | शैसे-इस प्रकार झम्बुप्रीदादि झाकार दासी बस्तु लक्षभारसादि क्रिया में समर्थ भौर पट शब्द से कही घाती ई। इस्यादि रूप से शम्दार्थ की पर्पालोचना के बाद दोने बाते प्रेकाक्तिक सामान्य परिशाम को प्रघानता डने बाछा जान अत घान है!

अथवाः-- मति ह्ञान के अनन्दर दोने बाशा, भर शप्द हवा श्र्ष दी पयालोषना जिसमें हो एंसा आन भुवज्ञान कराता | जैसे कि घट शम्द कू सुनने पर झ्मवा आँख से घड़ के देखने पर उसक बनान बाशे का, ठसके रंग का

श्री जेन सिद्धान्य घोल संप्रद, प्दम भाग ३६१

और इसी प्रकार तत्सम्बन्धी मिश्र मिम्न विषयों फ्रा विचार झरना श्रुरक्षान है।

(३) भषषि ज्ञानः-इन्द्रिय ठया मन की सहायता षिना, मयांदा फो लिये हुए रूपी द्रम्य फा ज्ञान करना अवधि ज्ञान कहलाता हू |

(४) मनः पय क्ञान --इन्दरिय और मन की सशायता फे भिना मर्यादा फो लिये हुए संज्ञी जीवों फ़ मनोगत माज़ों फा खानना मनः पर्यय ज्ञान ई।

(५) फ्रेवश्न ज्ञान --मंति आदि झान फ्री क्रपेष्दा बिना, अकाल एवं प्रि्धोकुवर्ती समस्य पदार्थों को मुगपत्‌ इस्तामक्कूपत जानना फ्रेदल ज्ञान ई।

( ठाणांग पहशा सत्र ४६३ ) ( कमे प्रख्म प्रथम भाग गा० स्पास्या ) ( झन्‍्री घृषद्ध १) ३७६--क्रैदली पाँच भजुचर)--

फ्ेदल ज्ञानी सर्वज्ञ मगदान्‌ में पाँच गुण अ्रनुचतर भपात्‌ सभ्रेष्ठ होते

(१) भनत्तर ज्ञान। (२) भजुत्तर दर्शन। (३) भजुत्तर भारिष्र (9) भनुत्तर सप। (५) भनुरर बीर्स्य

फंजती मगबान्‌ के परनावरणीय एवं दर्शनावरण्षीय फर्म के दय शो साने से फंवशझान एपं पव्त दर्शन रूप अनुशर शान, दर्गन होत ६) मोइनीय फर्म के चय होने से भनुतर

श्च२ प्री सेटिया जैन प्रस्यमाला

'चारिष्र होता | तप चारित्र का मंद | इस हिय॑ भतुचर भारित्र होन ऐै उनके भदुत्तर हप मी शेटा ६! शैल्ेशी भरदरस्था में इोन बाज्ता शुक्रलघ्पान ही केबली फ़ भनुत्तर तप हू ) बीयन्विराय कर्म के दय होन से छेवसी #॑ भवुत्तर प्री्प होता

( ठाणांग हहैशा ! सत्र ४१० ) ६७७--भवपिंधान या अपभिनवानी के पछ्धित होने पाँच बोस)--- ि

पाँच बोसों भवभिज्ञान दारा पदार्ों को दंखते ही प्रथम समय में बह चक्तित दो लाता £ ्रभवा अषपिशान डारा पदार्थों छा क्षान इाने पर प्रारम्स में ही अ्दपिज्ञानी /यह क्या !!” इस तरह माइनीय फर्म करा कप होने बिस्मयाद़ि दम रह पाता

(१) भ्वषिज्ञानौ थोड़ी पृथ्वी दंस कर “यह क्या !”? इस प्रकार आश्चर्य से धुम्प्र हो साता क्योंफ़ि इस आन के पहल बह विशाक्त प्रष्बी फी सम्मावना करता था।

(२) भस्पन्त प्रशुर पुभ्रों की राशि रूप पृथ्वी देखकर विस्मप और दयाजश झगधिन्नानी लक्ति रइ खाठा ६!

(३) भाहर फे दरीपों में दान बास एक इजार याजन परिमाल के महामर्प का देखकर विस्मप भौर भपत्रश अषषिन्वानी प्रा उठता |

(४) दवता का मशश्रद्धि, धुति, प्रमाष, बस भौर सारूप सहित देपकर भषषिप्वानी आारश्षर्यान्शित हो लाता है।

ओो शैस सिद्धान्त घोक संग्रह, प्रथम माम श्ध्व

) भवधिह्ानी पूर्ों (नगरों) में पुराने विम्दीर्स,बहुमृल्य रखादि से मरे हुए खजाने देखता है। उनके स्वामी नए हो गये हैं। स्पामी की सन्‍्तान का भी पता नहीं उनके इत्त, गइ झ्रादि ही हैं। खत्नानों के मार्ग मी नहीं भौर “यहाँ खजाना है इस प्रफार खजाने फा निर्देश करने पाले सिह मी नहीं रहे इसी प्रकार ग्राम, भाफर, नगर, शेड़, कपट, द्रोणमुख,पाटन, आभम, संवाइ, समियेश, प्रिकोज, मार्ग, तीन भार भौर भनेक पथ जहाँ मित्तत हैं ऐसे मार्ग, राजमाग, गलछियें, नगर के गटर (गन्दी नालियां), श्मशान, बने घर, पर्नस की गुफा, शान्ति शइ, उपस्थान गृह, भवन भौर घर इस्पादि स्थानों में पड़े हुए बहुमृश्य रज्ादि फे निधान भ्रवधिज्ञानी देखता ई। भक्ट पूर्ष इन निषानों फो देखकर भवपिज्ञानी विस्मय एवं सोभमपश चंचल हो उठवा है।

( छाणांग एद्देशा ! सत्र ३६४ ) ३७८--प्षानावरणीय क्री स्यारुपा भौर उसके पांच मेदः-- ज्ञान के भावरण करने बाले रूम फो धानागरणीय फे जिस प्रकार भझांस पर फपड़े की पट्टी सपेटने से बस्तुझों क॑ देखने में रुकावट हो खाती ६। उसी प्रकार भानावरणीय फम के प्रमाव से झारमा को पदार्थों फा ज्ञान करने में रुफ़ावट पड़ जाती ई। परन्तु यह कम भात्मा फो सबया ज्ानशुत्प अर्थात्‌ जड़ शीन घर दता जैसे-पने बादलों से सूरे के इंक घाने पर मी छये क्रा, दिन रात बताने बात्ता, प्रकाश ठो रइता दी उसी प्रदार ज्ञाना

श्ष््ट सेठिया जैन प्रश्भमाजा

- परसीय कमे से ज्ञान के ढक लान पर मी छोड में इतना क्षानांश तो रहता दी कि बह लड़ पदाय से एक समसा जा सफे |

ज्ञानावरणौय कर्म के पाँच मेद--

(१) मति ड्ानावरसीप। (२) भुत झानाबरलीप | (३) अगधि झानावरणीय (४) मनः पर्सय क्षानावरवीद। (५) फ्रेबस झ्ानावरणीय

(१) भति ब्ानावरझीय--मति श्ञान के एक अपेक्षा से तीन सी आशौस मेद शोते हैं इन सब शान के मेदों का भाजरस करने वास कर्मो को मति क्ानापरशीय कर्म कहते हैं

(२) भुत ज्ञानागरणीय!---धीदह भ्रशवा बीस मेद वाले अुतशन का भावरण करने बाल कर्मो को भुठ श्ञानावरशीव कहते

(१) भ्रवधरि श्ञानाबरशीय --भत्र प्रेस्पप आर गुझ प्रत्यप तथा अजुगामी, भनतुगामी भादि मंद बाले अदषिज्ञान के झावारक कर्मो क्रो अवधि श्ञानावरखोय कर्म कहते है!

(४) मन पर्यष धानाबरशौयः--जयजुमति भौर बिपुलमति नेद बाले मन'पर्यय श्ञान का झ्रास्छादन करने बाल कर्मों को सनःपर्यय ज्ञानावरशीय कर्म कहते ई।

(५) कबल् ज्ञानापरशीय ---फबल क्षान कया आाजरश करने बात कर्मों रो छेषत शानाइरशीय रूम कइत हैं

भी जैन सिद्धारद चीक संपर्क, प्रथम भाग श्ष्ष

इन पाँच बानापरणीय छमों में केवल ज्ानापरणीय सर्प थाती भोर शेप भार फर्म देशपाती ( ठा्यांग & इदृंशा सूत्र ४६४ ) पु ( छमप्न्‍्म भ्रथम मांग गावा ) ३७६--परोदच प्रमाण फ्रे पांच भेद)--- (१) स्मृति (२) प्रस्पमिन्नान (३) तक (४) प्रतुमान। (५) भागम (१) स्मृति --पहले लान हुए पदार्थ को पाद करना स्मृति है (४) प्रस्पमिन्ञान;--श्यवति झौर प्रस्यध के मिपयमूल पदार्थ में जोड़ रुप ज्ञान का प्रत्पमिज्ञान कहते है। उंसः-पह वही मनुष्प जिसे फल देखा पा | (8) ठक.--भविनामाद सम्द-ध रूप स्याप्ति ध्वान फो तर्क फइत ५ै। साधन (इंत) दोन पर साध्य का होना, भौर साष्य के पर साधन का मी होना अपिनामाब सम्बन्ध | जैम--जद्दां यहां पूम होता यहां यहां भग्नि इाती भौर-ऊददां भग्नि नहीं इोसी बहां धूम मी नहीं पता (४) प्रचुभान --साधन से साध्य फ्रेप्नान को अनुमान कहते ०४... [६ जैमे --घूम सो देस फर भग्नि का चान प्रिम इम सिद्ध करना चाहते वह साप्य और मिस के दाग साप्प सिद्ध रिया खाता वइ सापन | साधन, भाष्य के साथ क्‍झविनामाद सम्पन्ध से रहता £। उसके होने पर साप्पय भवर॒प होगा झभौर साप्प के भमाव में

३६६ म्री सठिया बेन भरन्‍्वमात्ा

रह नहीं रदता [ छेस:-ऊपर रश्टन्त में घूम के सदुमार में श्ग्नि का सद्भाव और भग्नि के भमाव में घूम का अमाब होता हूं यहां पु, भग्नि फ्रा साधन (१) ज्तार्धानुमान। (रत्ला० परि देसू १९) (२) पराषानुमान (रत्ना० परि० सू» २१,४२) स्वय॑ साधन द्वारा साष्य का क्ञान करना स्वार्शनुमाद है दूसरे फ्लो साघन से साप्प छा ज्ञान कराने के शिए कई जान वाला प्रतिज्ञा, हेतु भादि बचन परावा- नुमान है।

(५) झागम --भाप्त (दिदोपदेष्टा पर्वज्ष मगबान्‌) के बचने से उस्पन्न हुए पदार्य शान को भागम कइते हैं ठपषार से आप्त करा भचन मी ग्रागम कशा ब्लाता है|

शो अमिष्रेय बस्तु के यथाय स्वरूप का जानता भौर जैसा जानता ठसी प्रकार कश्ता | बह भा ह। झ्रपदा रागादि दोपों तय होने को भाति कृत है भाषि युक्त पुरुष भाप्त कइलाता है

( रस्‍्ताउराबतारिका परिष्युंद ४) ( रत्ना परि० घू* १-२)

3८ --प्ररामानुमान $ पांच भडकू ---

(१) प्रदिज्ञा (२) देत। (३) उद्याएस्स। (२) उपनप (३४) निममन

(१) प्रतिद्रा।--प१5 ओर साप्प कइन को प्रतिज्ञा कहते हैं

सष्टां इम साध्य को सिद्ध करना चाहत ईैं गह पथ है वानि

श्री जैल सिद्धान्त बोर संप्रइ, प्रथम माग घघ७

साध्य फे रहने फ्रे स्थान फो पच कहते ईं। खेसे --हस पर्वत में अप्नि है यह प्रतिन्ना दचन है। यहाँ अप्नि साप्य क्ष्योंकि इसे सिद्ध करना और पर्वत पथ क्योंकि साप्य भप्ति क्रो इस पर्यत में सिद्ध ऋरना चाहते हैं।

(२) हैतुः--साधन के फइन छो देतु कइते हैं | बैसे--क्योंकि यह पूम बाला है”। यहाँ घूम, साध्य भ्प्रि फो सित्ध फरने बाला छोने से साधन है ओर साधन फ्ो फइने प्राला पह बचन देत ६।

(३) उदाएएय --स्पाप्ति पुर दृष्टान्स का फइना ठदाइरण ६। चेस---जहाँ जहाँ घूम होता पड्ाँ पशँ भपि होती ई, जैस-रसोई घर जहाँ भ्रप्ति नहीं होती, पदों पृम भी नहीं शेता | बैस -तालाप

वहाँ साध्य भौर साघन फ्री उपस्थिति भौर अल पस्थिति दिखाए खादी बह दृटान्त छैप्ते -श्सोई पर झौर तालाब ( स्पाय दौपिकां प्रफाश ) इृष्टान्व के पअन्वय और प्यतिरेक की भपेता दो मंद हैं। अहाँ साधन फी उपस्थिति में साध्य की उपस्थिति दिखाई साय | वह झन्पय रण्टन्त ई। ससेः-रसोह घर | नहाँ साध्य की फलुपस्थिति में सापन की चनुपस्यिति दियाई जाप | यह स्यठिरेक दृष्टान्च | खैंसे -ताश्ताव (४) उपनय -पच में बेतु का उपसह्ार करना ठपनय सैस - यह पर्रद मी घूण इाछा (१) निगमन --नतीया निकात्त ऋर पद में साभ्य फो दृइराना निगमन ई। जैमः--/इस छिपे इस पर्दस में मो भप्रि

श्श्म श्री संठिवा जैन भस्वमाञा

है! | एस प्रकार के बास्प का प्रपाग निगमन कइलाता ६। ( रजाकराबतारिका परिश्वेर ३) ३८१--स्वाध्पाय की स्परूपा भोर मेद/-- शोमन रीति से मर्यादा पूर्वक अस्ताभ्याय फाल का परिद्दार करत हुए शास्त्र का अध्ययन करना स्वाभ्वास ६) स्वाष्पाय के पांच मेद।- (१) बाधना (२) एप्छना (३) परिषर्चना (४) भव॒प्रेषा (५) घमं फ्रपा | (१) बाबना/--शिप्प को यूज अर्थ रा पड़ाना गाचना है। (२) प्रस्छना --भाअना ग्रइथ करक सशप इने वर पुनः पछना प्ष्छना पा पहले सीखे इए छत्रादि क्षान में शंक्ता इने पर प्रश्न फरना एस्छना है। (३) परिद्ध नाः--पढ़े हुए भू माँग इस छिय एन्‍्हें फ्ररना परिदर्तना है (२) भनतुप्रेचा:--सीले दुए द्रफ्न के भ्र्थ का विस्मरश हों याप, इस शिपे उसका यार बार मनन करना भरनुप्रेषा ई। (५) घमकणा/-उपरोक्त भारों प्रस्यर से शास्त्र र्य भ्रम्पास करने पर भम्प जीबों क्ो शास्त्रों का स्पास्यान सुनाना धरम कया )

( टाझांग 2 इऐशा छृत्र श्वशे ३८२--रज की बाधना देन के पाँच दोह पानि गुर महाराज प्रोंच बांखों से शिष्प को एज सिखाबें-

री

श्री झैल सिद्धान्त वांक संप्रइ, प्रथम माग श्घ्ध

(१) शिष्पों झो शास्त्र ज्ञान का प्रहय दो भौर श्नके भुत का सप्रइ हो, इस प्रयोजद से शिष्पों को इाचना देये | (२) उपग्रह क्े सिये शिष्पों क्लो वायना देपे इस प्रकार शास्त्र सिखाये इुए शिष्प झ्राह्ार, पानी, वस्वादि शुद्ध गमेपणा द्वारा प्राप्त कर सद्येंगे भोर संयम में सशामक्ष शोंगे। (३) ध्त्रों की दाना देने से मेरे फर्मों की निजरा होगी। यह विभार कर बाचना देपे। (४) पद सोभ कर वाचना देपे कि बाचना देने से मेरा शास्त्र ज्ञान स्पष्ट हो जायगा। (५) शास्त्र का स्पवष्छेश हो और शास्त्र की परम्परा कराती रहे, इस प्रयोजन से बाचना देपे ! (ठा्याँग 2 इहेंशा सूत्र ४६८) ३८३--अज सीखने पाँच स्थान!--- १-तत्तों के झ्वान के लिये घरष्न सीखे २-रस्तों पर भद्धा करने के लिये छत्र सौसे | ३-चारित्र के किये छत्र सीसे ! ३-मिष्पामिनियेश छोड़ने के शिये अथवा दूसर से छुड़ दाने के लिये ८त्र सीस | ५-शत्र सीखने से गधावस्पित द्रम्प एव पर्यायों कग ज्ञान होगा, इस विचार से प्रज्न सोधे।

( ठायांग रइशा $ सूत्र ४६८ ) ३८४--निरयावसिका पाँच बग:--. २? 7!

(१) निरपावलिका (२) फ्रप्प वढंसिया |

फ्रश्० प्री सठिया डैन प्रस्पमाजा

(३) पुष्फिया | (२) पृष्फ चूल्ििया | (५) पण्दिदशा (१) निरमामरलिद्वा प्रषम निरयावल्िका पर्ग के दूस भ्रध्पाप हैं।

(१) काल (२) सुकाल

(३) मद्दादात्त ! (४) कृष्ण

(५) सुहृष्य | (६) मह्य रूप्स

(७) वीर उषप्य (८) राम हझृष्श ) (8) सन हृष्ण | (१०) मद्दा सन कृष्ण

उपरोक्त इस ही भ्रेणिद शाप्ता के पुत्र है। इनक माताएं कासती, सुकाल्षी भरादि कुमारों सदश नाम बासी ही £। बिनका बर्सन भन्तऋष्शा पत्र में द। भेसिक राजा कोशिक हमार के सगे माह बंदन्न कुमार फ़रा एक सचानक गए इस्ती भौर एक चटठारद लड़ा द्वार दिया था | मेलिक शाजा की मृत्यु दोत पर कौशिक राजा हुआ। उसने रानी परवृमावती भ्राग्रद घश वहन इुमार सं दद सचानक गन इस्ती श्रौर भठारइ लड़ा हार मांगा इस पर पेदन्न इमार भपन नाना भेड़ा राजा फी शरण की | तस्पभात्‌ क्रो शिक राजा ने इन लिये कात्त, सुझात् भादि दस माहयों के साथ मद्दाराजा घढड़ा पर पढ़ाई प्री नर मप्ति नग छिस्दओों राजाधों ने भड़ा राजा का साथ दिया। दानों फू बीज रपमूमत्त सम्राम हुमा दस दी माई इस युद्ध में काम भाप भार मर कर भाथी नरह में उत्पस्त हुए | बहां आयु पूरी द्वान पर ये मद दिदेद्र छेत्र में जम छेंगे भौर सिद होंगे

भ्री झैन सिद्धान्त बोक स॑प्रदद, प्रथम माग घ०

२) फ्रप्प बड़ सिया।--फ़प्पव्ड सिया मामझ द्विसीय पर्ग फ़े ढस अध्ययन हैं

(१) पप्च (२) मद्मापप्र

(३) मद्र | (४) सुमद्र

(५) पप्ममद्र | (६) पद्मसेन |

(७) पवुमगुरम (८) नसिनी गुन्म (8) झानन्ठ (१०) नन्दन

ये दसों निरपापक्षि्ा वर्ग के दस इमारों फ्रे पुत्र हैं। इनदी माताएं इन्‍्दीं नाम वाली इन्दोंने मगवान्‌ मदापीर फे पास दीदा शी प्रथम दो ब॒सारों ने पाँच धर्ष दीचा पयाय पाली। तीसरे, धीपे भार पाँचदें इुमार ने चार चप और छूटे, सातमें, भाठवें इमार ने सीन वर्ष पक्ध दीवा- पयाय पात्ती भन्सिम ठो इपारों फ्री दो दो बंप की दोष पयाय पहले भ्राठ कुमार क्रमशः पहल से आठवें देवलोक में उत्पन्न हुए। नपद्ां झुमार दससें देखक्तोक में भार दसर्पा फुमार मारदणे देबत्तोरू में उस्पन्न हुआ ये सभी देवत्तोफ स॑ चंद्र फर मह्याषिदे् घेत्र में जन्म ग्रइस फरेंगे और

दहं से सिद्धनति (मोघ) झछो प्राप्त करेंगे

(३) पृष्किया --धसीय पर्ग पृष्फिया के दस भष्यपन ई। (१) चन्द्र (२) एप (३) चुफ (४) घहुपुप्रिफा (५) पूखमद्र (६) मखिमद्र (७) दत्त (८) रिब |

(६) पत्त (१०) झनाध्स |

छ्ण्श्‌

जी सठिपा डेस प्रस्यमार्ा

बन्‍द्र, धर और हींेकू स्पोठिषी देव हैं | बहुपृत्रिका सौघर्म्म देबलोफ की देवी है। पूर्यमद्र, मशिमद्र, इंच, शिद, इस और प्रनारत ये छह्ों सौरम्म देवह्ोझ देव हैं।

भगवान्‌ महाबीर राजगृह नगर के गुशशीर चैर्प में विराजवे थे | द्शँ पे समी मगवान्‌ महादीर के दर्शन करने के लिपे झाये भौर नाटक धयादि दिखला रर मगगाज्‌ को बन्‍्दना नमस्कार कर वापिस यभास्मान ते गये | गौतम स्वामौ के पूछते पर मसंबान्‌ मद्दावीर स्वामी ने इनके पूर्ण मद बतागे और कईा कि ऐसी झरणी (तप,झादि क्रिया) करके हस्दोंने यह ध्द्धि पाई है। सगदान्‌ ने पह मी बताया कि इस मर से कब कर ये पन्‍्ह्र, सर्य भौर शुक्र मदापिदेद धेतर में बन्द छेकर सिद्ध होंगे | बहुपुजिकय देवी देषतोक से चब कर सोमा जाझशी का मत करेगी। ब्शों उसके बहुत बात्त गे होंगे। बाक्त बच्चों से पबरा कर धोमा जाध्रखी सुप्रता झमाम्बा के पास दीया सेगी भौर सौघम्म॑ देवतोक में सामानिक सोमदेब रुप में उस्पन्त दोगी ! बह्ँ से भव कर वद महा बिदेह चेत्र में बन्म लेगी भौर सिद्ध होगी। पूर्थभढ, मशिमद्र भादि छ्टों देवता भी देवतोक से लत्र कर मदविदेद देत्र में जन्म छेगे और बह्ाँ से ध्क्ति को प्राप्त होंगे

इस दर्ग में शुक्र भीर बहुपृत्रिका देवी के भप्यपन बढ़ | शुक्र पूर्व मदर में सामिलआलद। था| सोमिसत के

श्री दैन सिद्धास्त बाहर स्मइ प्रथम भाग इण्३

१५

भव की कथा से दस्काछीन आध्यण सन्याप्तियों के भनेक प्रकार भौर उनकी चय्या आदि फा पता कगता है।इस कया में ब्राद्मयों फे क्रिया-काएड और झजुप्तानों से बेन ब्रत नियमों की प्रबानता पाई गई है। बह्दुपृत्निका फे पूर्व मय सुमद्रा को ऋपा से यह श्ास होता है कि पिना बाल दर्थों बाती स्प्रियाँ द्थों फ्रे श्िये फितनी सरसती भौर अपने को इसमाग्या सममसी हैं। पहुपृत्रिका के आगामी सोमा प्रझणौ के मद की कथा से यह सालूम दोत ईै कि भपिक पास परन्चों बाली स्थ्रियाँ पाप प*चों से कितनी पबरा ठठती हैं। भादि झादि

(४) पुष्फ चूलियाः---चतुर्भ बर्ग पुष्फ चूलिया के दस अधष्य

यन हैं।

(१) भी | (२) ही

(३) एवि (४) कीर्चि।

(४) पुद्धि। (६) छक्मी | (७) इलछा देवी (८) झुरा देवी (8) रस देषी | (१०) गध देगी

ये दस ही प्रषम सौघर्म देवलोक की देवियाँरै। इनके विमानों फे दे द्वी नाम हैं जो फि देवियों के हैं। इस वर्ग में भ्री देबी की कपा विस्तार से दी गई भ्री देवी राजगृद्द नगर के गुणशील पैत्य में विराजमान मगवान्‌ मह्ापीर स्वामी फ् दर्शनार्थ भाई! उसने दचीस प्रझार के नाटफ बताये शौर मगवान्‌ को

ब्श्र

जी सेटिया झैस प्रस्भमाल्ा

वन्दुना नमस्कार कर बापिस अपने स्थान पर चक्की गई | गौतम स्वामी के पूछने पर मगबान्‌ ने भी देबी का पूर्व मइ बताया पूर्व मर में यह रायग्रइ नगर के सुदर्शन यराभा-

7-"ि की पुत्री भी इसफ़ा नाम भूठा था। ठप्ने मगगान

पार्षनाय क्या ठपदेश सुना और ससार से विरक्त होगई | उसने दीक्षा शी भार पुष्प घूज़ा झरार्प्पा की शिष्या हुई ! किसी समप एस सर श्र भराषि ईी भशुधि दिखाई देनी एमी। फिर बद शा धर्म पाक्ती होगई भौर शरीर की शुभूगा करने लगी बह दगव, पैर भ्रादि शरीर के अबगर्दों को, सोने,बैठन भादि फने स्थानों को बारबार धोने लगी भौर सूत्र साफ़ रखने खगी ! पुष्प घूत्ता आस्पा के मना करने पर मी बह उनस भछतग रइन छगी इस सरह पहुत बर्ष तक दीबा परयाय पा्ष फ़र भ्रन्त समय में उसने आलोचना, प्रतिकमल किये पिना ही सपारा किया, और कस धर्म को प्राप्त हुई। मंगवान्‌ ने फरमाया यह फ्रसी करफ़े श्रीदेवी ने पह ऋद्धि पाई झौर यहाँ से 'बव कर महादजिदेइ क्षेत्र में जन्म खकर मिद्गति फ्े प्राप्त होगी

शेप नव अध्ययन मी इसी तरइ के ६। इनक पूर्क मत है नगर, चेस्प, माता पिता और खुद के नाम संप्रदकी सत्र के झतुसार ही हैं) समी ने मगवान्‌ पारवनाव के पास दीपा सी भोर पृष्प घूत्ता झार्या की सिप्पा हुए भमी भी देबी डी तरइ शोत्र झौर दुभूपा धर्म बाली हो ग६। पह्टाँ सबब कर ये सभी भी दवी की तरद ही मदजिदेद चत्र में यम शेंगी भीर सिद्ध पद का प्राप्त करेंगी |

भ्री। जैन सिद्धान्त वोज़ संपह, प्रथम माग भण्ड

() वगिददसाः--परम्चम घर्ग पणिदद्सा फ्े दारइ भष्पयपन ईैं---

(१) निसछ (२) माभयणि : “(३) घह | (४) बदे। (४ ) पगया (६ ) छुपी (७ ) दसरद | (८) दर (६) महाघणू्‌ (१०) सचघणू | (११) दस घस्‌ ! (१२) सय घण्‌।

इनमें पहले अध्ययन की कथा विस्तार पूर्वक दी गई ई। शेप ग्यारह भष्ययन के स्षिये सग्रइणी की सूचना दीई। निसड कुमार हारिफा नगरी के घलदेव राजा की रेबदी रानी क॑ पुत्र थे | मगवान्‌ भरिष्टनमि क्र द्वारिफा नगरी मनन्‍्दन धन में पघारन पर निसद कुमार ने भगवान्‌ के दशन फिये भौर उपदेश भबण किया | उप देश सुन कर दृमार ने भाग के बार्‌दह प्रत अद्लीसार किये | प्रघान शिप्प परद्च भणगार फे पूछने पर भगवान्‌ भरिए- नमी निस॒ड छुमार के पूर्व सद छी कपा फरद्ी पूर्यमब में निसद झुमार मरतेत्र के रोदीदक नामक नगर में महा इत्त राजा फे यहां पदूमावसी रानी को रुदि पृष्र सूप में उस्पन्त हुए! इनझा नाम पीखद था। इन्द्ोंन सिद्धार्थ आप्यार्प्प के पास दोचा शी | ४५ वर्ष फ्री दीदा पर्याय पात हर वीरडद एमार संधारा छिपा भौर प्रक्ष देबतोक में ददता हुए इददं घुव इर निम कुमार हुए हं।

४4६ शी सेठिया जैन प्रम्बमाता

बाद में निसड़ इुमार ने मगधान्‌ झरिष्टनेमि के पास दीचा छी नौ बे तक दीक्षा पर्याय पाक्त कर मे संबारा करके काछ्त धर्म को प्राप्त हुए भोर सर्वार्वसिद्ध बिनान में देददा हुए 0०३2)

! अरद अशगार के पूछने पर मगवान्‌ भरिश्नदि ने बताया कि ये सबर्थिसिद गिमान से चष इर महाविदेष कत्र में जन्म छेंगे। बह दीक्षा शकर बहुत पर्ष तक पारित्र पाल कर अन्त में एक मास करी संलेखना फरेंगे भौर प्ृक्ति को प्राप्त करेंगे

( मिरमाधक्षिका ! ३८५--दग्पादर “पांच/---

क्मप्प में अथरों के द्यमाह्युमकने वर प्यान दिया साता है। भ्रद्युम भ्रचरों में मी पांच भजर बहुत दृषिति समझे दाते हैं| घो दइग्घाबर कइछाते £ं। पथ के भादि में पे अचर झाने चाहिये | दग्पाषर पे हैं---

से, ह, र, म, |

पद्े छन्द पत्र पईंछा शम्द देवता पा महच्पा्री हो दो भदष्मम अदरों का बोर नहीं रहता भक्र के दी कर देने से मी दग्पाषर का दोप याता रइता है।

( सरब पिज्रू ) ३८६--पांच बोल छुमस्प साकात्‌ नहीं जानता-- (१) घमास्तिकाप ] (२) भ्रपर्मास्किकयम

(३) झाकाशास्तिकाप (४) शरीर रहित घीष | (५) परमाधश्यु पुदरगल

श्री देन सिद्धास्त घोक़ संप्रइ, प्रथम साग छढन्७

घर्मास्तिकाय झादि भमूत्ते हैं इस लिये अपधिन्नानी रन्‍्हें नहीं घानता | परन्तु परमाणु पुदूगल मूत्त (रूपी) है भौर उसे भबषिन्नानी वानता हे। श्सक्षिए यहां छुमस्प से झपषि ज्ञान भादि के झ्रतिशय रहित छद्मंस्थ ही का

आशय है| ( ठाझ्यांग रहेशा सूत्र ४५० टीका )

३८७--जीप क्ले पांच माद ---

विशिष्ट हेतुभों से भ्रणवा स्थमाव से जीवों क्य मिम्न

भिन्न रूप से होना माव है अपबा।--

उपशमादि पर्यायों से सो शोते हैं बे माव कइलाते हैं| मात के पांच मेद:--- (१) भौपशमिक | (२) चापिक | (३) पायोपशमिक (४) भौदपिरझ

(५४) पारिशामिक | (१) क्रौपशमिकः!--ल्लो ठउपशम से होता है वह औपशमिक भाव बदशाता है प्रदेश और विपाफ़ दोनों प्रकार से कर्मों का उदय रुक जाना उपशम है।इस प्रकार का उपशम सर्पोपशम कइखाता ओर वह सर्वोपशम भोइनीय कर्म का दी शोता ईं, शेप कर्मो का नहीं। भौपशमिफ भाव क॑ दो भेद हैं-- (१) सम्पकत्व | (२) चारित्र।

ये भाव दर्शन भौर चारित्र मोइनीय के उपशम से होने बाले

घ्भ्र

श्री सेठिया जैम प्रस्थमाञा

(२)

शायिक माय--जो फर्म के स्मशा छत होने पर प्रकट

होता है | पह चापिफ माव #इलाता है। : चापिफ भाव के नी भेद -- 0

(१) केष्त ज्ञान 4 - (२) कैबल्ष देर्शन | (३) दान श्षम्घि (४) श्ाम सम्षि | (३) मोग श्षम्बि (६) उपमांग शम्धि। (७) वीर्य्प छष्पि। “7 (८) सम्पक्त् |

(१) चारित्र।

चार सर्यधाती कर्मो के दय हाने पर ये नव माद प्रकट होते है| ये सादि भनन्त ई।

(३) धायरापशमिफ्र--ठद॒य में आये हुए कर्म का दय भौर

भनुदीर्स भंश का विपाफ़ की भपेषा उपशम होना चंपों पशम फ्रइलाठा | चयोपशम में प्रदेश बी श्रपेषा कम॑ का ठदय रहता ६। इसक (१८) अठारइ मेद ए--

पार क्षान, तीन ध्जान, तीन दर्शन, दान, खाम भोग, उपमाग भर वीर्य्प दी पांच लम्पियों, सम्पक्स, देशपिरिति और सर्प बिरदि चारित्र | भार स्भाती कर्मो के धर्योपणम से ये मात्र प्रकट शंते है। शेप फर्मो रा धपोपशम नहीं होता !

(४) भौदपिछ मात/--पथा ग्रोग्प समय पर उदय प्राप्त भाठ

कर्मो क्या अपने ध्पन स्वरूप सं फल मोगना ठदप £। उदय होने बाला भाप औदयिक कश्साता | भौदपिर मात्र के इफ्फ्रीस मेद ईैं --

भार शेति, भार कपाय, पौन ल्िक्न, छः लश्पा, अन्नान सिश्यान्व, असिद्धस्त, अ्सयम !

औी जैन सिद्धाल्य बोल संप्रद प्रझम माग ४०३६

(५) पारिणामिक साव ---#मों उदय, ठपशम आदि ऐसे निरपेद्ध जो माघ चीव को फ़रेबल स्वमाष से ही होता | सह पारिणामिफ भा है |

अपपा -- स्वमाव से दो स्वरूप में परिणत होसे रहना पारिसामिक भाव है | अथवा३-- अवस्थित बस्तु फ़ा पूर्य अबस्था छा स्पाग किये बिना ठत्तराबस्था में पते साना परिणाम ऋदत्ताता है। उससे शोने पाता माव पारिणामिक माद है अनुयोगद्वार सच्न में और प्रइघन सारोद्ार में पारिशामिक भाव फ्रे दो मेद पताये गये हैं'-- (१) सादि पारिणासिक्त और (२) भनादि पारिसासिफ | मे माव अनादि अनन्त दोते हैं। जीप द्रम्प फ्रे उपरोक्त पाँच साव हैं। अजीब हरस्‍्यों में धर्मास्तिकाय, अघर्मास्तकाय, भ्राकाशास्तिकाय भौर काक्त, इन चारों फरे पारिसामिर माद शी होता ई। पुद्‌ गलत द्रम्प में परमाणु पुदूगल भौर इपशुक्ादि सादि स्कन्ध पारिणामिक भाष पाले दी हैं। किन्तु भौदारिरू भआादि शरीर रूप स्कन्घों में पारिणामिक्त और भौदगिक दो मात्र दोते हैं| कम पुदूगश फ्रे तो भ्ौपशमिक आदि भाष होते हैं। नोट.--ऋसमंग्रन्थ में पारिसामिफ माद के तौन मेद बताये गये ई।-यीपत्व, मष्यत्व और अमब्यस्व | प्रदबन सारोदार में पे तीन मेद्‌ मी बताये गये हैं। क्मग्रन्थ में पारिया सिक साथ को अनलादि अनन्त बताया गया ह।

(कम प्रस्थ गा० इ३) (अनुयोग हार सूत्र १२ (प्रचचत सारोद्धार 6० २०१ गामा १९६४४ 2] १)

शी सेठिया जैन प्रस्यमाजा

(20 नह ४४ जज. 00%: 200: /270 (72 नमक की

श१८८---भन्तराय कर्म के पाँच मेदः- |

थो कर्म आाष्मा फ्रे दीर्प्प, दान क्ताम, मोर और एप- मोग ूप शक्तियों करा घात करता है! भइ भन्तराम कहा खाता है | यह कर्म मयदारी के समान ॥ै मेंसे!-रावा को दान देने कौ भाज्ा होन पर भी मयडारौ दे प्रतिझश होने से याचक्र को सत्सी हाव छौटना पढ़ता है। राजा की इस्खा को मणडारी सफल नहीं होने दंता | इसी प्रकार जीघ राजा है, दान देने झ्रादि की उसकी इच्छा है परन्त

मपडारी के सरीक्षा यह झन्तराय कर्म जीब की इप्का को सफल नई होने देता | प्न्पराप कर्म के पाँच मेदः- (१) दानान्तराय (२) ज्ञामान्तराय (१) मोगान्तराय ! (४) उपमोगान्दराय | ! (५) बीर्यान्तराय |

(१) दानान्तराय “दान की सामग्री थैगार है, गुसवात्‌ पात्र भाषा इभा है, दाता दान का फ्त मी श्ानता है [इस पर मी जिस कर्म के ठद॒य से जीव को दान करने का उस्ताई नई होता, बइ दानान्तराय कम ६। ||;

(२) शामान्तराय/-योग्य सामग्री के रहसे हुए मी खित्त कर्म के उदय से अमीएट बस्तु की प्राप्ति नहीं होती,व६ क्षामास्तराम कर्म प्ैसेः-दाता के ठदार होते हुए, दान की सामत्री विध्रमान रहत हुए तथा माँगने की झा में हुशर दांते हुए मी कोई याचक दान नहीं पाता,पह क्वामान्दराम का फस ही समझना आादिए |

श्री सैन सिद्धास्ड बोक संप्रह, प्रधम भाग ४११

विन मान रन २४४५9 02: * 4:20: 22/70/4072 कक 7. 2252: (है) मोगान्वराय+-स्पाग, प्रत्पास्यान के होते इुए वथा मोगने की इच्छा रहते हुए मी जिस कर्म के उदय से लीब विधमान स्वाघीन मांग सामग्री का ऋपणता बश मोग फर सके, बह भोगान्सराय कर्म है।

(५) उपमोगान्तराय;-खिस छूमे फे उदय से वीव त्याग, प्रत्या रुपान दोते हुए सथा उपमोग फ्री इष्था होते हुए मी बिधमान स्वाधीन उपमोग घामग्री का कृपणता वश उपभोग कर सके, वह उपभोगान्तराय कर्म है।

(५) बीयान्दरापः--शरीर नीरोग हो, तरुणात्रस्था हो, बतपधान्‌ हो, फिर मी जिस क्रम के उदय से जीब प्राथशक्ति रहित

होता है दथा सस्‍्य शीन फी तरद प्रति फ़रता है। बह वीर्पान्दराय कम ६।

चौपान्तराय फर्म के तीन मेद)- (१) माज्त पीयान्तराय।. (२) पयिदत मरौर्यान्दराय | (३) घात्-पणिदित वीयान्तराय |

बाल्त-वीर्पान्चराय/--समर्थ होत॑ हुए एवं चाहते हुए मी सिसके उदय स्रीष सांसारिफ कार्य फर सक। यह धाक्ष वीपान्वराय !

पणिदत बीपान्दराय/ः--सम्पस्धष्टि साधु मोद् की चाह रखता इआ मी जिस फरम करे उदय से लीद मोद प्राप्ति परांग्य डिपाए मे रर सर | घइ पणिदत बीर्पाम्तराय हई

हर प्री सटिया जैन प्रत्थमाजा

इाछ-पणिदत-बीयान्दराय*--देश बिरति रूप आरित्र को चाहता हुआ मी जिस क्रम के ठदय से जौज आबक ढी क्रियाभों ढ़ पात्तन कर सक | बइ बात-पणिडित बीयान्तराय £।

( कर्म प्रत्य मांग गा० 2२)

(पस्नचसा पह १३ सू ९६१ )

३८६--शरीर कौ स्पारुया भौर उसफ्रे भेद '- मो उत्पत्ति समय से संऋर प्रतिषण ठीर्स-शीे शोता रहसा तथा शरीर नाम कर्म के उदय से ठस्पन्‍न दीता बह शरीर कहलाता ६।

शरीर पाँच भेर)--- (१?) धादारिफ शरीर (२) बैकिय शरीर। (३) भ्ाद्दारफ़र शरौर | (४) दैजस शरीर |

(५) कामाण शरीर |

(१) झादा रिक शरीर ---ठदार भ्र्यात्‌ प्रभान झथदा स्वृत् पूदुगलों से पना हुआ शरीर भोदारिक कइछाता ई। तीर्पक्र गणपरों का शरीर प्रधान पुवृ॒ग्तों बनता भीर सब साधारण फ्म शरीर स्पूल ध्सार पुदुगरों सबता इभा शोता ६।

झथबाः-- भन्प शरीरों की अ्रपेषा अभस्थित रूप विशार्त अवाद्‌ घड़े परिमाणय वाला होने स॑ पह भौदारिक शरीर कटा जाता | इनस्पति काय की भपेधा भौदारिफ शरीर ही पक सइसत थायन की भडस्थित झबगाइना £। धन्य धमी शरीरों करी झदस्थित भबगाइना इसस कम | बैकिय

प्री बैन सिद्धास्त बोल संप्रइ, प्रथम माग श्श्३्‌

शरीर फी उच्चर वेक्षिय की भपेदा भ्नपृस्थित श्रवगाहइना लाख योजन फी ई। परन्तु मब घारणीय वैफ़िय शरीर की अवगाइना सो पांच सौ घनुप ज्यादा नहीं ६ै।

इथपा --

अन्य शरीरों फ्री भपेधा भन्‍्प प्रदेश बाला सभा परिमा में पड़ा शोने से भौदारिफ शरीर कइलाता झ्रथवा -- मांस, रुषिर, भस्थि भादि से घना हुआ शरीर ओदारिक कइ्ताता ६। भौदारिफ शरीर मनुष्प भोर तिय॑मच थे शत ६।

(२) पैक्िप शरीर --मिस शरीर से गिविष झधथा विशिष्ट प्रकार फी क्रियाए होती हैं पद पै क्रिय शरीर कषत्ताता | जैस-एर रूप शोकर भनेक रूप पारण करना, भनेर रूप दोकर एफ रूप धारण करना, छोटे शरीर मे पड़ा शरीर पनाना भर पढ़े छाटा नाना, पृथ्यी भार भाफाश पर भलने योग्प शरीर घारख करना,प्श्प, अध्श्प रूप बनाना भ्रादि।

वैक्रिप शरीर दो प्रस्मर फ्रा ई!--

(१) भाषपातिछ वैक्रिय शरीर (२) श्म्पि प्रत्पप ईक्िय शरीर। जन्म सद्दी जो बैक्रिप शरोर मिलता ई। वह

दछोपपातिफर्द किय शरीर ६। देदता भौर मारकी नैरियें जम में ही पंकिय शरीरघारी दोव £

श्ः् भी सेठिया दैंन प्यमाला

हम्धि प्रस्यय दैक्रिय शरीरः--तप भझादि द्वारा प्राप्त शम्षि परिशेष स॑प्राप्त इोने बाज बेकिय शरीर छम्बि मत्वद वैकिप शरीर ह। मलुप्प झौर ठिर्पृस्त्र में सम्पिअत्वय वेक्रिप शरीर होता है। ,

(३) भ्राइरक शरीर --आझी दपा, तीर्पहुर मगषान्‌ की ड़ का इर्शन हथा संशप निमारस झादि प्रयोगनों से भौदइ पूर्षघारी ध्वनिराय, भन्‍प थेत (मद्माविवेद घेत्र) में विरातमान तीयंड्डर मगबान्‌ के समीप मेमने कं खिये, उम्पि गिशेष पे भ्रतिबिद्युद स्फटिक के सध्य एक शाम का यो पुतक्ता निकाराते हैं। बइ प्राइरफ शरीर कड़छाता हैं| ठक्त प्रयोजनों के सिद्ध हो जाने पर मे परनिराज उस शरीर को झोड़ देते £।

(४) तैज्स शरीर/--सैघ्/पुदृगज्तों से बना हुआ शरीर ऐेगस शरीर कहलाता ६। प्राशियों के शरीर में विमान उप्यता से शप्त शरीर का अस्विस्व सिद होता है| यह शरीर भाहार का पाचन करता ई। तपोविशेष प्राप्त वैजस- रम्धि का कारण भी पद्दी शरीर

(५) कामांश शरीरः--कर्मों स्व पना हुआ शरीर कार्माण फ्रन्छाठा भगवा यौष हे प्रदर्शों के धाय सगे हुए आठ प्रफार के कमे पृदृगछों को कामांण शरीर बदते हैं। यह शरीर दी सए शरीरों काया बीय |

पांचों शरीरों के इस फ्रम का कारण यद फि भागे भागे के शरोर पिछसे को भ्रपेदा प्रदश बहस

मैन मिद्धार्द श्रोत्न सेमह, प्रथम माग श्र

( अधिक प्रदेश घात्ते ) £ एवं परिमाण में प्रदमतर ई। सैश्नस भौर फामाण शरीर सभी समारी जीबों फे होते हैं| इन दोनों शरीरों के साथ द्वी जीव मरण देश फो छोड़ फत उत्पत्ति स्पान फो जाता

( ठाणांग उेशा ९१ सूत्र ३१६४ )

( पम्नवणा पद २॥ सूत्र २६७ ) ( कममस्य पहला गा० ३१३ )

३६०--अन्धन नाम कमे के पांच भेद -- जिस प्रफ़ार लाख, गोंद भादि चिकन पदार्थों से दो चीजें आपस में जोढ दी जाती उसी प्रकार जिस नाम फर्म से प्रथम प्रदण फिये हुए शरीर पुदुगततों फे माय वर्तमान में ग्रदण किये वान बाते शरीर पुद्गल परस्पर प्रघन फ्ो प्राप्स होते हैं। वह बघन नाम फर्म कद माता ई। बन्धन नाम कर्म फे पांच मंद'-- (१) भौदारिक शरीर बघन नाम कर्म (२) बैफ्रिय शरीर बन्‍्धन नाम कर्म (३) भाशरक्त शरोर बघन नाम रूम (४) सैमस शरीर बघन नाम कम (६) कामाय शरीर बन्पन नाम ऋूम | (१) भादारिकर शरीर बन्धन नाम कर्म --जिस फर्म उत्य दुएई प्रीद एवं गृप्तणाण (बर्दमान में प्रशण छिपे जान चाल) भदारिक पृदुगतों झा परस्पर सैजस् बर्र्माण शरीर पृदगर्लों छे माप सम्दप दाता ६। बह भौदारिर शरसेर बघन नाम कर्म |

शहद श्री सठिया झैन भ्रस्यमाजा

(२) बैकिय छरीर बन्घन नामकर्म --विस कर्म के उदय पे पूरे गृद्दीद एवं गृश्ठमाख बेकिय पुदुगलों फ्रा परस्पर तैजस फ्रार्माख शरीर के पुदुगत्तों के साथ सम्बन्ध होता है | वह इक्रिय शरीर ध्रन्धन नामकर्म £।

(३) भाद्ारक शरीर बन्घन नामकरम:--जिस कर्म के ठद्म पे पूर्व गृद्दीव एवं गृप्तमाश भाद्वारक पुदगतों का परस्पर एव पैनस फामांण शरीर फ्ले पुदूगों के साब पम्बन्ध होता ई। इइ झाइरक प्रीर इन्‍्पन नामकर्म |

(४) वैयस शरीर पन्घन नामकर्म!--जिस कर्म के उदप से पर्ज गृददीत एवं एद्ठमास सैसस पृद्गज्ञों फ़ा परस्पर एवं कामों शरीर-पुव॒गों साथ सम्बन्ध ोता है | बद तेजस शरीए बन्धन नामकर्म है।

(५) फ्रामाण शरीर बन्धन नामकर्म --विस कर्म के छदय से पूर्व ग्रहत एवं यृप्तमाक्ष कर्म पुदृगर्ों का परस्पर सम्बन्ध होता हैं। बह कामांय शरीर बन्धन नामहूमे |

अआदारिक, दे क्रिय और आहारक इन तौन शरीरों का उत्पत्ति के समय सर्ष बन्‍्ध भर बाद में देश बन्च होता ६ै। तेजस और कर्म्माण शरीर की नवीन र॒प्पत्ति होन से उनमें छा देश बन्ध ही होता है।

( कमे प्रश्य साग पहक्ा घाजा १५ ) ( प्रबचन सारोद्धार हम ३१६ गाजा १२५२ )

३६१--संपाव नाम कर्म के पाँच मंदः-- पूबगृद्दीद भ्रीदारिक शरीर आदि पुतृगछों का गृसमाय अदारिक भ्ादि पुदृगर्सों के साथ सम्बन्ध होना बनने

श्री जैन सिद्धाम्त बाल सप्रद प्रथम भाग इक

कहलाता है | परन्तु पह सम्बन्ध तमी हो सकता है जब कि पे पुद्गक्त एकत्रित होकर समिद्दित हों | सपात नाम फर्म का यही कार्य कि बह गृह्दीत भौर गृध्माथ शरीर पूवृगलों को परस्पर समिद्दित फ़र व्यवस्था से स्थापित कर देता है। इसके बाद एन्धन नाम छर्म से थे सम्पद हो आते हैं। जैसे दांतती से इधर ठघर पिखरी हुई घास इकष्टी की जाकर व्यवस्थित की जाती ईै। समी बाद में वह गई के रूप में भाँधी जाती | शिस कर्म के उदय से एप्तमाद नवीन शरीर-पुद्गछ पूर्ण गृद्ीत शरीर पृद॒ग्ों के समीप का पूर्षफ स्थापित किये जाते हैं। बह सपाव नाम फर्म

संघात नाम कर्म पाँच मेद्‌ -- (१) भौदारिक शरीर सपात नाम कर्म (२) पैक्रिय शरीर संघ नाम फर्म (३) भाइरक शरीर संपात नाम फर्म | (४) वैजस शरीर संघात नाम फर्म (४) कामांस शरीर संघाठ नाम कर्म | आदारिक शरीर सघाव नाम कर्म --विस कर्म के उदय से भोदारिरू शरीर रूप परिणव गृद्दीव एव गृक्ममाय पुदूगछ्तों का परस्पर साभिष्य हो भर्थात्‌ एकत्रित दोकर पं दूसरे ऊे पास स्यवस्या पूर्वक जम जाँप, बद भौदारिक शरीर संघात नाम कर्म ६। इसी प्रफार शेप घार सपात का स्परूप भी समझना चाहिय |

( कमप्रस्थ प्रथम साग गाया ३६ ) प्रषधन सारोदार दवा २१६ गाथा १९७२ )

श्र

भी सेठिय्रा सैन परस्पमाक्ता

३६२--अाँभ इन्द्रियाँ।---

भ्रात्मा, सर्व वस्ठुभों छा ज्ञान फरने हवा मोग करने रूप एंस्र्म से सम्पन्न शोने से इन्द्र ऋश्लाता | भालमा के भिह् क्री इन्द्रिय कहते ६। अगवा३-- इन्द्र भर्पात्‌ सात्मा द्वारा दृष्ट, रडणित, संवित भौर दी हुए दोने से भोत्र, चघु भादि इन्त्रियों कइत्ताती ई। अपबा त्वचा, नेप्र ्रादि भिन साधनों से सर्दी, गर्मी, काला, पीला धादि पिपयों फ्रा ज्ञान होता £ ता जो भड़्ोपाई भौर निमास नाम कम के उदय से प्राप्त होती है बह इस्किय फ्र्लाती के: इन्किय पाँच मेद्‌।-- हि (१) शरोभेन्द्रि ।/. (२) घह्दुरिन्द्रिप ) (३) मायेन्द्रि। (४) रसनेन्द्रिय (४) स्परशनेंन्द्रिप

|

(१) ओतेन्दिय/--सखिसक्रे ड्वारा लीब, अजीव भीर मिभ्र शक

का कान शोता | उसे ओोजेन्द्रिप कइस ई।

(२) बहछुरिन्द्रिय --दिसके दारा भात्मा पाँच वर्यो क्य क्ञात

करती बइ चष्ठुरिन्द्रिय कदक्तावी |

(१) आरोन्द्रिय --जिसक़े द्वारा झात्मा सुगापघ भौर॒ बुर्गन्म

को जानती बह प्रायेन्द्रिय फाछाती |

(४) रसनन्द्रिय/ः--जिसके द्वारा पाँच प्रझार रसों का

मान होता बह रसनन्द्रिय कइणाती |

भी जैन सिद्धास्त बोक्ष संप्रह, प्रथम भाग र्घ

(४) स्पर्शनेन्द्रि! - जिसके ढारा आठ प्रझ्वार के स्परों पा

ज्ञान होता है। यह स्पशनेन्द्रिय कहलाती हैं। (उन्‍्नवणा पद १५ ए० है खू० १६१) ठाखांग छश्टेशा सत्र ४४३ ) ( जैन सिद्धास्त प्रधशिका ) _ ३६३--पाँच इन्त्रियों फे सस्पान'--

इन्द्रियों की पिशेष प्रकार फ्री बनावट को संस्‍्यान

पड़ते हैं। इल्द्रियों फ्ा स्थान दो प्रकार का प्राह्म - ओर आम्मन्तर | इन्द्रियों फा भाप्त संस्थान मिम्न मिन्न थौगों फू मिम्न मिप्न शोता ई। समी के एक सा नहीं शेता फिन्तु भाम्पन्सर संस्थान सभी जीघों का एक सा होता है। इस छिये यहाँ इन्द्रियों का भाम्यन्त्र संस्थान दिया खाता ६। ओग्रेन्द्रिय का संस्थान फदम्म के फूल जैसा इं। शद्युर्न्द्रिय का सस्पान मधर करी दाक्त जेसा प्रासेन्द्रिप का झ्राकार भतिस्तक्तफ चन्द्र ( राष्ट्र भादि से सर्ववा ध्रुक्त चद्धमा या छुद्दार फी घोंकणी ) जेंसा ई। रसनेन्द्रिय का भाफार सुरपे जेसा स्पर्शनन्द्रिय का भाकार भनेक प्रकार फा है | ( पन्चचणा पद १५ ₹० है सू० १६१) ( ठाणांग रइशा सूत्र ४2३ टीका ) ३०४--पाँच इन्द्रियों का बिपय परिमाण --

श्रोग्रेन्द्रिय जपन्प अंशुत्ञ कू असस्यातर्वे माग से उस्कृए्ट बारइ योजन से आय हुए, शस्दान्दर भार वापु आदि से अप्रतिइत शक्ति वाले, शम्द पुद्गल्लों फो बिपय करती है।

भी सेठिया डरे पस्थमाका

ओग्रेन्द्रिय कान में अबिष्ट शम्दों को स्पशों करती ईुई शी सानती है।

घहुरिन्द्रिय जघन्प भज्ूज्त सस्यातर्दे गाग उस्कुष्ट एक शास योघन से इुछ झधिक दूरी पर रहे इए अश्यवह्ित रूप को देखती है | पह भ्रप्राप्पकारी है इस लिये रूप का स्पश फरके उसका प्ञान नहीं करती

प्राशेन्द्रिय, (सनेन्द्रिय भौर स्पर्शनेन्द्रिप--जे तौनों इम्द्रियाँ जपन्य भज्भ के असरूपात्ष माग उत्कृष्ट नई थोजन से प्राप्त ्रस्पबद्धित विपयों को स्पर्श करती हुई आनती ६।

इन्द्रियों करा जो विषय परिमा है बह भारमाड

स॑ जानना चाहिए | (पप्चदशा पद १५ रण स्‌ (8४)

१६५--पाँच काम गुण -- (१) शम्द (२) रूप (३) गन | (२) श्स। (९) सफर

ये पाँचों क्रमशः पाँच इम्द्रियों के दिपय ह। ये पाँच छ्पम भर्थात्‌ अमिल्तापा उत्पन्न करने बाले गुल ह। शस लिए काम गुश के बाते हैं। ( टाशांग दशा ! सूज ३६० )

३६६--पाँच अनुत्तर बिसान)-- (१) बिमप (२) पैलपन्त (३) जपन्त | (४) अपराजित !

(५) सडार्पसिद्ध |

भरी बेल सियासत बोल संग्रइ, प्रथम मारा प्र!

ये विमान भनुत्तर भर्थात्‌ सर्वोत्तम होते हैं दया इन विमानों में रइने वासे देवों के शब्द पादत्‌ स्पर्श सब श्रेष्ठ होते हैं| इस लिये ये भनुत्तर विमान कहलाते हैं। एक ग्रेष्ा दो उपवास) तपसे भेष्ठ साधु जितने कम चीण करता है उतने कर्म जिन घ्ुनियों के घाफी रह जाते हैं ये भ्रनुत्तर पिमान में उत्पन्न होते हैं। सर्वाय॑ सिद्ध पिमानवासी देवों के श्रीव तो सात कवर की स्थिति के फ्रम रहने से वहां जाकर उत्पन्न होते हैं (पस्नच्रणा पद सूए है८) ( मगबती शतक १४ वरेशा घू ४२६) ३६७---३न्द्र स्थान फी पाँच समाए।-- सरम आदि इन्द्रों के रइने के स्थान, भवन, नगर या विमान इन्द्र स्पान कइलाते हैं। इन्द्र स्थान में पाँच समाएं होती हैं-- (१) सुषर्मा समा (२) उपपाद समा। (३) भमिपेक समा | (४) भलकझ्वारिका समा | (५) स्पवसाय समा | (१) सुघमा समाः--जर्धाँ देवताभों की शस्पा होती | बह सुघमा समा है (२) उपपात समाः--जह्ाँ सारूर मीव देवता रूप से उस्पन्न दोदा व६ उपपात समा (३) झमिपेक समाः--जहईाँ इन्द्र का रान्यामियेक होता वह अमिपेक समा

श्र संठिया जैन मन्‍्बसाह्ा

(४) प्क्नद्स्‍ारिका समाः--जिस में देवता भरह्वार पहनते हैं। वह झलड्डारिफा समा है। ! (४) स्यंध्साय समा--अ्िसमें पुस्सडें पढ़कर तत्तों कय निम्न किया खाता है। पहइ ख्यद्साय समा | ( ठाझांग हशेशा सूत्र रे ) इ६&८--दंबों की पाँच परिघारशा।--- घेद श्लनित बाघा दोने पर उसे शान्त करना परि चारणा फहइल्ताती है।

परिचारशा के पाँच भेद्‌ हैं।--- (१) क्वाय परिचारणा | (२) स्पर्श परिचारणा | (३) रूप परिचारशा | (४) शब्दु परिचारशा ! (५) मन परिभारता |

मधनपति, ब्यन्तर, पयोतिप्री भौर सौंघर्म, (शान देवक्षोक फ़ देवता फाय परिचारणा बाले ईं भ्रभांव शरीर शाह स्त्री पुस्षों फ्री तरह मैथुन सेवन करते हैं भौर इससे बंद श्ननित बाघा को शान्त फरत॑ हैं

सीसरे सनत्कृमर भौर चौपे माहेन्द्र देवशतोक़ के देवता स्पर्श परिचारशा बात हैं भवात देवियों फे भन्नी- पाक फा स्पशे करन से ही उनकी बेद मनित बाधा शान्त हो जाती है

पाँचवें अप्तीक और छट ज्ञान्दक देषर्ाक में दंवता रूप परिचारशा दाल | भे दंवियों के सिफ रूप फो देख कर ही एृप्त शो चाते

पी सैस सिद्धान्द दोक संप्रइ, प्रथम भाग ४२३

+ साहवयें महाशुरझ भौर भाठयें सइस्तार देषस्षोक में देवता शम्द परिचारणा वाले हैं थे देवियों के आमूपज आदि की ज्वनि को सुन कर ही वेद त्नित बाधा से निदत्त हो बाते ह। शेष चार आशय,प्राणत, झारणय और भच्युत देव- लोह फे देवता सन परिचारणा बा्षे होते हैं भर्थात्‌ संकल्प मप्र से ही पे ठप्त हो जाते हैं ग्रैबेयक भौर अजुच्र पिमाननासी देषता परिचारणा रहिए होते हैं उन्‍हें मोह का ठदय कूम रहता है। इस लिये थे प्रशम सुख में हो तल्चीन रहते ई। फाय परिचारणा पाले देवों स॑ स्पर्श परिचारणा वाले देव अनन्त गुण सुख का भतुमय करते हैं। इसी प्रकार उच्रोचर रूप, शब्द, मन की परिचारणा वाले देव पूर्व पूर्द से भनन्स गुल सुख फ्रा भ्नुमथ फरते हैं। परिचारणा रहित देवता और मो भनन्‍्त गरुय सुख फा अनुमव करते हैं

( फ्सनवणा पद ३४ छु० ३९३ ) ( ठाणांग £ उद्देशा खू० ४०२ टी० )

३६६--न्पोतिपी देख के पाँच भेद --- (१) घन्द्र। (२) धरम (३) प्रद (४) नदत्र ! (५) वारा

सुष्य चेश्रयर्ती भ्र्थात्‌ माजुष्योचर पर्वत पर्यन्त भराई दीप में रदे हुए ज्योतिपी देव सदा मेरु पर्मत की

श्र

भी सठित्रा मैन पस्पमाना

अदक्षिया फ़रत॑ हुए चत्धते रत हैं। मालुप्पो्तर पर्षत आगे रहन वात्त समी ज्योतिषी देव स्थिर रहते हैं।

छम्पूदीप में दो चन्द्र, दो तय, रूप्पन नचज, एक सा छिौ्चर ग्रह और एफ काल तेवीस इसार नी सी पषाम कोड़ा को डी तारे हैं। छवश समुद्र में चार, चार, पातकी तयह में बारइ, स्पलोदधिमें बयातीस और झठ पुष्कर शो में बदचर चन्द्र ई। इन देत्रों में धर्य की सस्या मी चन्द्र के प्रमान ही ६। इस प्रकार भद्ाई दौप में १३२ चन्द्र भर १३२ एर्य हैं।

एक चन्द्र करा परिवार २८ नदत्र, ८८ प्र भोर ६६६७१ ढोड़ा कोड़ी दारे हैं | इस प्रदधर भक्ाई हीप में इनसे १३२ गुये प्रइ नषत्र भौर तारे हैं।

चन्द्र स॑प्वर्य, धर्य से प्रा, प्रह से नवत्र भौर नफ्त में बारे शीप्र गति बाले हैं।

अध्यक्षोक में मेर पर्व सम मूमिमाग से ७६० योशन से ६०० योशन तक यानि ११० योजन में ज्पोतिषी दंदों के विमान है।

(ठाणांग 2 उहेशां सूत १) ( श्रीषामिसम प्रतिपत्ति घू० १४२ )

४००--पाँष संबस्सर!।-- एक धर्ष को संगस्सर झहते ई! संबस्सर पाँच हैं?-- (१) नथधत्र संबस्सर (२) युग घबरसर | (३) प्रमास संबस्मर (२) सद॒ल संबस्सर |

(५) शनैरघर सबत्सर

भी जैन छिद्वास्त बोल संप्रई, प्रथम माग श्र

) नधप्र समस्सर --घन्द्रमा फा भग्ठाईस नथप्रों में रइन का फाज्त नक्षत्र मास कहलाता ई। पार्‌इ नझप्र मास का मंयत्सर, नथय्र संवस्मर फड़लाता है।

) युग मंव॒त्सर --पन्द्र भादि पाँव संवत्सर शा एक युग होता यूग फे एफ दुश रूप संवत्सर फो युग सपत्मर कहते £। युग मवस्सर पाँख प्रकार का इता --

(१) घन्द्र (२) पन्द्र (३) भमियधित (श) पन्द्र (४) भमिदर्षित

३) प्रभाग सपमर --पन्द्र घादि सयस्‍्मर जब दिनों परिमाग ऐड प्रषानता मे घयम हिय जात लापदी प्रमाण सयसर झकूाताव |ैं। प्रमाण स॑रसर रे पास मर «+ (१) नचत्र (२) पन्द्र (३) शत (४) धारिस्प (4) भमिदर्षित नधप प्रभाग मबसर --नचग्र माम ७५, हिन पा ता

६। एस ऐारद मास झपाव ७६, शिनों दा एड नदप प्रमाथ संरामर धागा

घट प्रणाम मर्णा -हई८द प्रीषदा चारग्न झा चृशमामी का मात्र दान दाणा २४६०३ हिल इय झाव

श्र भ्री सठिया जैन पस्यमाला

सन्द्र मास फक्इत्ताता हैं। बारह मात श्रघांत्‌ ३५४३३ दिनों हो एक चन्द्र प्रमाश संबस्सर होता ६। अतु प्रमाथ सवस्सर/--६० दिन कौ एक आतु प्रसिद है| अआतु के भाभे दिस्स को ऋतु मास फ़डते हैं। साइन मास भरीर कर्म माप्त श्यत॒ मास के दी पयांपवाची है। ऋत॒ सास्त सीस दिन फा होता ६। बारइ ऋतु मास भर्घात्‌ ३१६० दिनों फ्रा एक ऋतु प्रमाल सबस्सर ता है। आ्रादिस्य प्रमाश संबत्सर!-आदिसत्प (धरम) १८३ दिन इविशा- पन झौर १८३ दिन ठच्तरापग्य में रहता ई। दृष्षिशायन झौर उत्तरायण के १६६ दिनों का बर्प आादिस्य संबरसर कइशाता अपबाः- छुपे के २८ नणत्र एव बारइ राशि के मोग का काल झादिस्य संबत्सर कश्छाता ई। छाप १६६ दिनों में टक्क नदत्र एवं राशियों का भोग फरता | झादिस्प मास कौ झौसद ३०३ दिन की है| अमिपर्धित संबरसरः-सैरह अन्दर मास कि्य संबस्पर, प्मिवर्णित संबत्सर कइलाता ६। चन्द्र संबस्सर में एक मास अभि पड़ने से पइ संबस्सर भ्रमिर्र्षिद संबरसर कइ्लाता है अथव्रा:-- ३१३३३ दिनों का एक अमिद्र्षित सास्त होता ई। 5 3 मास का एक अमिषर्षित सबत्सर ता ई।

श्री जैन सिद्धास्द बोल ह॑प्रद, प्रथम माग झर७

(४) छचझ संबर्सर --पे शी उपरोक्त नचत्र, अन्द्र, ऋतु, आदित्य और अमिषर्षित सवस्सर सघस प्रघान होने पर झदस पपत्सर इइलाते हैं। उनके शधस निम्न

|" प्रकार हैं!

नष्षन्न पंवत्सरः-इछ नचत्र स्त्रमाप से शी निश्चित तिथियों में

+ ईैभा करते है। जैसे -कार्तिक पूर्समासी में फुचिका भौर मार्गशीर्ष में मगशिरा एवं पौपी पूर्शिमा में पुष्प झादि।

- श्रष्र ये नक्षत्र ठीकू अपनी विधियों में हों भौर ध्यतु भी

_. यथा समय आरम्म हो | शीत भौर ठप्य करी अषिकता ने हो एवं पानी भ्रपिरझ हो। इन क्षक्रों पाला संवत्सर नदत्र सबत्सर कइलाठा है।

चन्द्र संबस्सरः---जिस संपत्सर में पूर्सिमा की पूरी रात पन्‍्द्र से प्रफाश माने रहे नधत्र पिपमचारी हों तथा सिसमें शीत उप्स भौर पानी फ्री भ्रपिकता हो। इन छषसों पाते सपत्सर को घन्द्र सवस्सर छड्ते हैं

तु सदस्तर --जिस सपस्सर में झ्समय में पृ भं्रित हों, बिना ऋतु के दृदों में पृष्ष भौर फल भायें तथा दपां ठीक समय पर हो। श्न क्पर्यों बाछे संवत्सर फो ऋतु सवस्सर कहते ६।

भादित्प संवत्सरः--सिस संबस्सर में यर्प, पृष्प भौर फलों को पृष्यी पानी के माधुर्य स्निग्पतादि रसों फ्ो देता है भौर इस छिपे शोड़ी गर्ण इोन पर मी खूब भान्प पैदा हो खाता टू ; शवों वाता संबत्सर झ्रादित्प संबर्सर कइ सादा ६।

्ट्श्प और सेठित्रा डेस प्रम्यमाजा

अमिइर्धित संबत्सर -मिस संबस्सर में चश, सब (४६ उच्छुवात प्रमाण) दिवस भौर धऋतुएं ध्य के तेज से तह होकर स्यतीत होती हैं | यहां पर छूर्प के ताप से पृप्बौ झादि सपने पर मी चथ, सब, दिवस भादि में ताप का उपचार . किया गया तथा खिसमें वायु से एड़ी हुई पूश्षिसे स्वत्त मर जाते ६। इन लद॒शों सं युक्त संबत्सर को अमिवर्धित संरस्सर कइठे

(४) शनैरणर संबत्सर --वितने फाश् में शवैमर एक नषत्र को मोगता | बह शनैभर सपत्सर | नपत्र २८ है [इस सिये शनेमर संबस्सर मी नदत्रों के नाम से २८ प्रकार

क्ाहै। + धपषवा!--- अटठठाईस नघन्नों के तीस ब्ष परिमाझ मोग कास को नथत्र संबत्सर कहते

(ठाणांग 2 रह्देशा सूत्र ४६ ) ( प्रचचन सारोद्धार दार १४३ शाबा ६०१ )

४०१--पाँच झ्रद्यम मावना/- (१) झन्दर्प माषना। (२) फ़िस्बिपी भावना (३) आमियोगी मादना। (४) भासुरी माषना | (५) सम्मोह्दी मातना

(प्रबंधन सारोद्धार हार ७१ गा ईश) (इत्तरास्गपन ऋष्पयन ३१६ गा» २६१-३५)

४०२--#न्दर्प माबना के पाँच प्रकारः-- (१) फन्‍्दप (२) बकृष्प

श्री डे सिद्धास्त चोक सप्रह, प्रभभ माग श्र

(३) दुश्शीक्षवा (४) शस्पोत्यादन (४) परविस्मयोस्पादन | (१) फल्दरप१--भडृद्यास फरना, इंसी मज़ाक फरना, स्पच्छन्द होकर गुरु आदि से ड्िठाई पृर्धंक कोर या वक़् बचने ऋदना, काम कया करना, क्मम झा उपदेश देना, काम फ्ली प्रश्ता छरना आदि कन्दप है! (२) फ्रौत्कुप्प:--भांड की तरइ चेष्टा फरना कोसटृभ्य ६। काया भर प्रचन के मेद कोसकृज्य दो प्रकार फा है।- काप क्षैत्कृष्प--स्वयं इसते हुए माँ, नेत्र, पुख, दांत, दाथ, पेर आदि से ऐसी बेटा फरना जिससे इसरे इंसने क्षगें, यह काय कात्इ्प ६। बाक्‌ फ्रौत्झुप्प+--दूसरे प्रासिपों फ्री बोली की नकत़ कश्ना, मुख से बाज़ा बधाना ठया इास्पतनक घचन फइना पाक कोत्कुप्प | (३) दुशशीक्षता--<दुए स्ममाव का शोना दुःशीक्षता है। सम्रम और आमश बश बिना बिचार॑ जल्दी जन्‍्दी धोसना, मद माते बैल फी दरइ जल्दी जल्दी बत्ना, समी काय॑ बिना दिचारे हृद़पड़ी से करना इस्यादि इरफतों फा दुशीक्षता में समाबेश होता | (४) द्वाप्पोस्पादन --दूसरों के बिरूप घंप भौर माष्रा बिपयक छिद्मों की गदंपया करना भौर माएद की परइ उसी प्रफ्ार के विसिप्र भेप घनाकर भर बचन पद फर दर्शक और ओताझों को इंसाना दया स्वयं ईमना दवास्पोत्पादन ई।

३३९ भी सेडिया जैस मन्‍्थमाजा

(५) पर विस्मयोस्पादइनः--ईन्द्रजास बगैरइ इतहल, पहेसी तथा इं्रेरिफ, आमालक (नाटक का एक प्रकार) आदि से इसरों को विस्मित फ़रना पर जिस्मयोत्यादन ई।

- मूठ मूठ ही भाधय में हालने वाले मन्त्र, पन्‍्त्र, तन्त्र झ्यादि ढ़ा शान कुईटिका विदा कश्साती है | (उत्त* अ० ३६ गा २६१) (प्रच०्सा०डा(० ७३ गा० १४२

४०३--किल्चिपी माना के पाँच प्रद्वार'--

(१) भुवज्ञान। > (२) फेषत्ती (३) पर्माचार्स्प। (४) संप (५) घाप्‌

उपरोक्त पाँचों का झ्रबर्सबाद बोलना, उन में अविधमान दोप बठखाना झादि थे किस्बियीं मावना के पाँच प्रकार ई। +

इसो के साभ माया होना मौ द्विस्दिब्री माषना में गरिनाया गया है। कई कई 'संप झोर साधु के गदछे सर्व साधु का झदसबाद फरना कद कर पॉँभर्षों प्रकार मापावी होना बठसाया गया है|

मायादी)--छोगों को रिम्पाने के शिये कपट करने बाल्ता, महापुरुषों के प्रति स्वमात से कठोर, बात बात में नाराज भौर लुश होने बाला, गृहस्थों दी भाप्यूसी करने बारा, अपनी शक्ति का गोपन करने वार्ता, दूसरों के विधमान गुदयों क्यो रुकने बाल्ता पुरुष मायावी कइहाता है। बद घोर की तरइ सदा सर्व कार्पो में शैंकाशीस रहता आर कपटाजारी होता ६!

(रुच० अष्य ६६ गा २६२) (फ्ब छा हारब ७१ गा ३४२)

श्री मैन सिद्धास्त दोक संभह, प्रथम माग भ्रश्र

४०४--आमियोगी मावना फे पाँच प्रकार)-- (१) कौतुक (२) भृतिकर्म (३) प्रश्न। (७) प्रश्नाप्रश्न

(५) निमित्त

(१) कलैतुक।--घालक झादि फी रचा फे निर्मित स्नान कराना, हाथ घुमाना, मन्त्र करना, धुस्कारना, धूप देना भादि यो दिया गाता है। वइ फौतुफ है।

(२) भूदि फर्म:--बसति,शरीर और माएड(पात्र)कौ रधा फे लिये राख, मिट्टी या उस से उन्हें परिषेष्ित करना भूति कर्म है।

(३) प्रश्न/--दूसरे से छ्वाम, अत्ाम झादि पूछना प्रश्न है। भंगूटी, खदग, दर्पण, पानी झादि में स्वर्य देखना प्रश्न है।

(४) प्रश्नाप्रश --स्वम में झाराधी इई विधा में झ्रदबा पटि कादि में झाई हुई देवी से रू्ी हुई भास दूसरों से फइना प्रशाप्रश्त है।

(५) मा अनागत एवं बरेमान का जान पिशंप

निमित्त है

इन कौतुकादि को अपने गौरब भादि के किये करने बासा साधु झ्राभियोगी मायना वात्षा है। परन्तु गौरव रहित अठिशय हनी सप्यु निस्यह्त माद से सीर्पोननति आदि के निमित्त श्रपत्राद कप में इनकम प्रयोग झरे तो बह भाराधक है और तीर्थ दी उन्नति करने से उथ गोत्र बाॉघता है।

(इत्त> ऋअ० ३६ गा० २६२ (प्रव० सा* हा ७३ गा[० धईश ४०५--भासुरी भावना के पांच भेद --- (१) सदा दिप्रह शीसता। (२) संसक्त तप]

श्र ञश्री सठिया मैन प्रस्थमाजा

«नस 3०० कान.

(३) निमिच कपन |, (9) निष्कपवा। (५) निरनुरूम्पता

(१) रद्द विग्नह शीक्षता --इमेशा, लड़ाई झगढ़ा करते रहता, झरने के बाद पआचाप करना, दूसरे फ्े खमाने पर मी प्रसन्‍न होना और सदा विरोध मात्र रखना, सदा विज शीता है।

(२) संसक्त तपा---झाइर, ठपकरश, शय्पा भादि में झासक्त साधु का भाशर झादि फ्रे लिये श्ननशनादि तप करना पंसक्त हप है

(३) निमिच्त फ़घनः--भमिमानादि बश छाम, भधाम, सुख, दुःख श्लीगन, मरण विपयक तीन काल सम्बन्धी निमित्त कहना निमित्त फूपन है!

(9) निफ्पता -स्पादरादि सत्तों को झज्जीग मानन से धंद्धिपयक इयामाद की उपेधा करके या दूसरे कार्य में ठपयोग रख कर भासन, शयन, गसन झादि क्विया फरना तथा किसी कइने पर झजुताप मी करना निष्कृष्ता ई। ,

(५) निरलुकम्फ्ताा---कपापात्र हुःशी प्रासी को देख कर मी ऋर परिणाम सन्‍्प करता धारण फरना झौर सामने बाएं के दुख का पश्रनुमब करना निरनुकूम्फता ६।

(इच अझ ३६ गया २६४। (प्रब० सा हवा उ3 गा? ४४४)

४०६--सम्मोद्दी माबना के पाँश्व प्रकार -- (१) एन्मार्ग देशना | (२) मार्ग दूपण (३) मार्ग विप्रतिपत्ति ! (४) मोद

(५) मोह जनन |

+

श्री जैन सिद्धास्व घोक् संप्रह प्रभस माग ध्श्३

(!) रन्मार्ग देशना --श्वानादि धर्म मार्ग पर दोप लगाते हुए स्व-पर छे अद्दित के लिये बत्र विपरीत मार्ग कहना उन्मार्ग देशना है। (२) सार्ग दषण--पारमार्थिक क्षान, दर्शन भौर चारिष्र रूप सत्य धर्म मार्ग भौर उसके पालने वाले साधुझों में स्वकल्पित दपण पतलाना मार्ग दपछ ई। (३) मार्ग विप्रतिपत्ति --श्ञानादि रूप धर्म मार्ग पर दूषश लगा फ़र देश से प्रप्न विरुद्ध मार्ग को अम्ञीफार ररना मार्ग विप्रविपत्ति है (४) मोहा--मन्द बुद्धि पुरुष का भ्रति गइन क्षानादि विचारों में मोइ प्राप्त फरना एणा झन्प तीर्धियों फी पिपिम ऋद्धि देस कर शक्षचा जाना मोह ६।

(५) मोह अनन --सक्लाब झ्रथवा फ्पट से भ्रन्‍्य दर्शनों में इसरों फ्ये मोह प्राप्त फराना मांइ जनन है। ऐसा फरने गा को बोध घीस रूपी समक्ित फ्री प्राप्ति नहीं

( रत अध्य ३६ गा? २६४५)

( प्रव० सा० द्वा० ७१ गा० १५६ टीका ) से पश्चीस मावनाए चारित्र में विप्त रूप हैं। इनक

निरोघ स॑ सम्पक्‌ चारित्र झी प्राप्ति होती है।

(बोल सथ्यर ४०१ से ४०६ तक के किये प्रमाण)

(प्रबचचनन साशेद्धांर द्वार ७४ गा १४६)

(इत्तराभ्यवम्त अध्यय| ३६ गाबा २११ से २६५)

४५०७---ससारिक निधि के पांच मेद्‌:---

विशिष्ट रत्न सुबर्भादि द्रस्य जिसमें रखे जाँय पेसे पात्रादि को निभि कइते हैं। निधि क्ली तरह जो झानन्द

श्श्ए श्री सठ्िया यैन प्रस्थमाजा

भर सुख के साधन रूप हों, उन्हें मी निधि ही समसना

आदहिए।

निधि पाँच हैं।--

(१) पुत्र निधि। (२) मित्र निषि। (३) शिन्प निधि | (४) घन निधि |

(४) घान्प निधि |

(१) पूत्र निषिः--पृश्न स्वभाव से ही माता पिता के झानन्द भौर सुद फ्रा कारण तथा द्रस्प क्या ठपा्जन कहने से निर्वाह फ्रा मी हेतु ६ै। झतः बह निभि रूप है।

(२) मित्र निषि --मित्र, भय भौर काम का साधक ने से झानन्द का दतु ६। इसक्तिय बह मी निधि रूप कहा गया है।

(३) शिक््प निधि --शिल्प का भर्थ है चित्रादि ज्ञान पहाँ शिल्प का आशय सभ्र विद्याओों से ६। मे पुरुषा्ण चतुट्टण की साधक होने से भानन्द भौर सुख रूप हैं। इस सिम शिक्षप-विधा निषि कही पर है|

(४) पर झौर (५) धान्य निषि बास्तबिफ निधि रूप

निधि ये पाँचों प्रार द्रस्य निधि रूप हैं और हशत अनुप्टान का सदन भाद निधि ई। ( ठार्याग 2 बरह्देशा श्सूत्र धशंय ) ४०८--भाँतर घाय (घरान्री)-- बछ्चों का पालन पोपस करने के लिये रखी बाने बाशी स्त्री घाय या घात्री कहती |

भी मैन सिद्धान्त बोज़ संप्रद, प्रथम साग ३३

धभाय के पाँच मेदः--

(१) चीर घाय। (२) मन्जन घाय |

(३) मएडन घाय (४) फ्रीड़न घाय | (५) झट घाय |

(१) चीर धायः--४थों फ्रो स्तन-पान कराने बाख्ती धघाय पीर घाय कइणाती है।

(२) मनन घाय।--पर्चों को स्नान कराने वाली घाय मन्जन घाय कइल्षाती है।

(१) सणढन धाय-- बद्दों को रल़झ्भारादि पहनाने बाली घाय सणएडन घाय ऋइलाती है। (४) कीड़न घाय --बच्चों को खिलाने बाशी घाय फ्रीड़न घाय , कहलाती है। (५) भक्ट धाय --इों फो शोद में बिठाने या छुताने वाशी घाय झ्रक्नू घाय कइस्ताती है। (झाचारांग भ्रुतस्कंप सादना ध्यध्यपम १५ चूकिका सू० १७३) (मगबती शतक ११ रद्देशा सू० ४२३) ४०६--िर्यस्च पम्षेन्द्रिय के पांच मेद)-- (१) घल्तचर | (२) स्पलसचर (३) खेघर (४) ठरपरिसप। (५) झुसपरिसर्प (१) जलचरः---पानी में ऋतने पाले सीब जततचर कहलाते हैं। चैसे।--भष्छ पगेरद मच्छ, कप्छुप, मगर, अ्रद और मु सुमार ये श्त्तचर के पाँच भेद हैं।

श्र प्री सठिया डैन प्रन्थमादा

(२) स्थछ्तसर।--प्रभ्वी पर फ्तने बाले लीइ स्पत्तचर $इक्तात हैं संसः--गाय, घोड़ा भादि | |

(३) खेचरः--आफाश में टड़ने बाते खीइ खेचर $इल्ाते है चैसेः--ीत, फ्पूतर बगैरह। ,

(४) ठरपरिसर्प:---ठर कक छादी से चलने बस जरीद ठर॒परिसर्प कहलाते सैसेः--सांप बगेरइ |

(४) छब परिसर्प:--छुआशों से 'कतने बा सीद छड परिसर्प कडज्ताते हैं। बेस --नाक्तिया, चूहा वर !

पन्‍नवर्सा छप्न एव ठत्तराष्पयन प्र में तिर्यम्ण्न पस्ने न्विय सचर स्पछ्तचर भौर खेचर ये तीन मंद्‌ बतल्ाये गये भीर स्थत्चर के मर्दों में उरपरिसप॑ झौर मुज परिष्तप गिनाय हुए ६। (पम्रथझ पर सू १० से ३६) (उत्तरास्ययम अध्ययन ३६ गाबा १६४ से १६९)

४१०--मस्छ पाँच प्रकार - (१) भत्ुस्तात घारी | (२) प्रति स्लोत चारी (३) भनन्‍्त चारी | (४) मध्य चारी।

(५) सर्बंचारी

१--पानी प्रवाइ के भनुझूठ भलन बाला मप्च झनुप्तोत घारी है।

२--थआानी प्रवाह प्रतिहझृतत चत्तन तास्ता मच्छ प्रतिश्नोत पारी

3--पानी थार्श्र झयदा पसवाड़ चत्तन बाता मच्छ प्रन्त भारी |

भी जैन सिद्धास्व योल संमहव, प्रथम मांग ३७

४--पानी फ्े धीच में चलने बाला मच्छ मध्यचारी है। ४--पानी में सब प्रकार से चलने घाला मष्छ सर्वचारी है (ठाणांग 2 उद्देशा सूत्र ४४४) ४११--मच्छ क्ली ठपमा से मिथ लेने पाले मिचुक फ्रे पांच प्रकार हैं-- (१) झनुस्नोत चारी (२) प्रतिस्नात चारी | (३) भन्त घारी। (४) मध्य चारी। (५) सर्पस्रोत भारी | १--अमिग्रइ पिशेप सं उपाभ्य के समीप से प्रारम्भ करके क्रम से मिद्दा छेने बाला साधु भनुश्तोत घारी मिषु हे। २३--मिग्रह विशेष से उपाभय से बहुत दूर जाकर छौटत हुए भिचा ल॑न॑ पाला साधु प्रतिस्नोत चारी है। ३--चेत्र के पाश्व में भयांत्‌ भन्‍त में मिष्ता क्ेने वाला साधु अन्तचारी ह। ४--पेष्र प्रीच बीच फ्े परों से मिष्षा लेने वादा साधु मष्य चारी है। ४--सरब प्रकार से मिद्दा सेने बाला साधु सर्वस्नोत चारी | (ठाणांग 2 उद्देशा सूत्र ४५४ ) ४१२---पाँच स्थाबर काय:-- प्ृष्वी, पानी, भग्नि, पायु झौर बनस्पति फे नीव स्थावर नाम फर्म का उदय होने स॑ स््पावर फदलाते हैं] उनपी काय अगांत्‌ राशि को स्पाजर छाय कहते £

भ्र३्८ श्री सेड़िया जैन प्स्दमाञा

स्थाबर फ्रापपाँच हैं -- (१) इन्द्र स्पादर झाय | (२) प्रश्न स्थातर फाय | (३) शिल्प स्पावर फाय! (४) सम्मति स्थावर काम (५) प्राधाफ्त्प स्पावर कझाय ) (१) इन्द्र स्पावर ढाय --एप्वी काय का स्पामी इन्द्र ६) इस लिये इस इन्द्र स्थागर काय फहते हैं (२) प्रष्न स्वाइर काय -- श्रपूकाय का स्वामी अ"झ् है। इस लिये इसे अध्न स्पावर काय कहते हैं (३) शिल्प स्थावर फाय*--वतेजस्काय क्यू स्वामी शिल्प ई। इस लिये यह शिन्प स्थाजर काय *इछताती है। (४) सम्मति स्थावर फाय --बायु कय स्वामी सम्मति | इस लिये यह सम्मति स्थागर काय फडलाती ई। (५) प्राजापत्प स्थावर फ्लायः-इनस्पति काय का स्वामी प्रजा पति | इस सिये इसे प्राजापत्प स्थादर राय कहते हैं (ठाणांग 2 राद्देशा ? सूत्र ३६३) 9४१३--पाँख प्रकार की झचित्त बरायु+-- (१) भाड़ान्त (२) ध्मात | (३) पीड़ित (४) शरीराजुगव। (५) पम्मूर्धिम (१) भाहान्त --पैर झादि से जमीन बगैर्‌इ के दबन पर श्ायु उठती है | बह झाछान्त बायु है |

(२) भध्मात --घमली आदि घमने सं पेदा हुई बायु प्मात बाय है।

श्री जैन सिद्धास्द बोल संपह, प्रथम माग भ्रघ

(३) पीड़ित --गीले परत फे निोड़ने से निकल्तने बाली वायु पीड़ित वायु है (४) शरीरानुगतः--डकार झादि खेते हुए निकलने वाली वायु शरीरानुग्त वायु है (५) सम्भूद्धिम/--पस्के भादि पेंदा दोने बाझ्ी पायु सम्मूर्थिम वायु है। ये पांचों प्रकार की भ्रच्ित्त वायु पहले भघतेतन दोसी है और बाद में सचेतन मी हो जाती | (ठाणयांग रह्देशा सूत्र ४४४) ४१४--पाँच पर्थ -- (१) काज्षा | २२) नीचा। (३) लाख | (४) पीछा | (५) पफेद | ये ही पाँच मूल बर्ण हैं | इनके सिवाय लोक प्रसिद्ध अन्य इर्य इन्हीं फ्रे संयोग से पेंदा होते £। ( ठाखांग एश्शा है सूत्र ३६० )

४१४--पाँच रसः-- (१) तीजा (२) कइभा (३) कपेत्ता (५) जड्टा (४) सीठा।

इनक भठिरिक्त दूसरे रस इन्हीं के संयोग से पैदा होते इस छिपे यहाँ पाँच मूल रस ही गिनाये गये ईं। ( ठाख्ांग रश्ेशा सुभ ३६ )

१2 श्वी सठिया जेम प्रस्थमाला

४१६--पाँच प्रतिभात'-- अतिबन्ध या रुफ़ावर को प्रतिपाद फइत है (१) गति प्रतियाव | (२) स्पिठि प्रतिघात | (३) बन्धन प्रतिघात | (४) भोग प्रतियात | (३) बछ, पीर्य, पुरुपाफ़ार पराक्रम प्रतिघात |

(१) गति प्रदिघात*--झुम देवगति भादि पाने की ग्रोग्यता होते हुए भी पिरुप (विपरीत) कूम॑ फ़रन॑ से उसकी प्राप्ति मे द्वोना गति प्रतिपात है जैसे दीक्षा पाक्तन पे कुणडरीक को झम गति पाना था | छेफिन नरक गति की प्राप्ति इई आर इस प्रकार उसक दंबगति का प्रतिघात हो गपा |

(२) स्पिति प्रतिघातः--झ्युम स्विदि बुल्त कर अध्याय दिशप्र स॑ उसका प्रतिघात फर द॑ना श्रपांत्‌ शम्दी स्थिति को धारटी स्थिति में परिणत फर द॑ना स्थिति प्रतिपात ईं।

(३) बन्घन प्रतिघात --अन्धन नामक का मंद ई। इसके ओदारिक बन्पन पादि पाँच मेद हैं प्रशस्त बन्ध्रन की प्राप्ति की पोग्यदा होने पर मी प्रतिकृत्त कर्म करकू उसद्री पात कर देना भीर झ्रप्रशस्त पघन पाना बन्धन प्रतिघात है पन्धन प्रतिघात इसहझ सइचारी प्रशत्त शरीर, झल्लापाज़ सहयन, सस्पान आदि का ध्रतिपात मी समझ छ॑ना चाहिये |

(४) मीग प्रतिषातः--प्रशम्त गधि, स्थिति, बन्धन भादि का प्रतिमा होने पर उनमे सम्बद्ध भोगों छी प्राप्ति में छक्यवर शोेना मांग प्रतियात ६। क्योंकि कारय # ने पर

कार्य केसे हो सकता ! ना

श्री जैम सिद्धान्त वाक संप्रह प्रथम माग

(४) ब्ल्ल बीस्‍्पे पुरुपाकार पराक्रम प्रतिघात --गति, स्थिति आदि के प्रतिघात ने पर भोग की तरद प्रश॒स्त बस्तर पीर्य्य पुरुपाकार पराक्रम की प्राप्ति में रुछावट पड जाती है। यही बह पीर्य्य पृरुपाकार पराक्रम प्रतिघात है |

शारीरिफ शक्ति को बत छद्दते हैं जीव फी शक्ति फो वीर्य कहते हैं। पुरुष कर्शस्य या पुरुपाभिमान को पुरुपकार (पुरुपाफार) कहते हैं। पल और वीस्पफा प्रयोग फरना पराक्रम ई। ( ठाणांग रहेशा ! सूत्र ४०६ )

४१७--पाँच भननन्‍्तकः--- (१) नाम झभननन्‍्तफ (२) स्पापना भनन्‍्तक [ (३) द्रम्प अनन्तक | (४) गसना भ्रनन्तक | (५) प्रदेश भननन्‍्तक।

(१) नाम अनन्तक/-सथचित्त, अधित्त, भादि बस्तु का 'झनन्तक! इस प्रफार जो नाम दिया खाता है | बद नाम भनन्तक है।

(२) स्थापना अनन्तक,--फिसी सस्तु में भ्रनन्तक फ्री स्थापना करना स्थापना अनन्तक है!

(३) द्रम्प अनन्तफ्ः--गिनती योग्य ख्ीब या पृवुगस दृष्यों का भ्रनन्तफ द्रस्प अनन्तक |

(४) गणना भननन्‍्तरः---गणना फी भपेधा लो भनन्तक संख्या है बद गणना अनन्तफ है

(५) प्रदेश भनन्तक्ः--भाकाश प्रदेशों फ्री दो भनन्दता | | हह प्रदेश अनन्तरू £।

( ठाणांग रहेशां सूत्र ४६२

ड्रग सठिय्ना मम प्रस्पमाला

४१८--पाँच भननन्‍्वकू,--

(१) एफ! अनन्त | (२) द्विपा भनन्तक | (३) देश विस्तार अनन्तक। (४) सर्ब बिस्तार भनन्तक। (५) शाग्रत झ्ननन्‍्तक |

(१) एक्स भनन्तकः--एक पंश भर्थात्‌ लम्बाई की भ्रपेंधा जो भनन्तक बह एक्स अनन्तफ ई। जैसे -- एफ भेसी बाला भोग

(२) दवा भनन्तफः-दो प्रकार भयात्‌ खम्बाइ और चौड़ाई की भ्रपेत्ता सो भनन्तक | बह दिघा भनन्तक कइलाता है चैत --प्रवर चेत्र

(३) देश विस्तार अनन्तक --रुपक प्रदेशों की अपंचा पूर्व पर्मिम झ्ादि दिशा रूप यो क्षेत्र का एक देश भार उसका विस्तार उस प्रदेशों की श्रपेशा जो झन न्तता | बह देश विस्तार अनन्तक

(४) सर्द विस्तार अनन्तकः --सार आकाश छेत्र का दो विस्तार हैं उसझे प्रदशों की झनन्‍्दता सब बिस्दार अनन्तक £।

(५) शाम्रत झनन्तक:--भ्रनादि अनन्त स्थिति बाले कीबादि द्रस्प शाश्रत अनन्तक कहलाते हैं।

( डााँग 2 बदशा सूत्र ४६२ ) ४१६--पाँच निद्रा --- डशनावरसीय कर्म क॑ नद मंद हैंः-- आर दशन औौर पाँच निद्रा

श्री जैन सिद्धान्त बोक संप्रइ, प्रथम माग श््३

दर्शन के चार भेद! -- (१) घहु दर्शन (२) मचह्लु दर्शन | (३) भपषधि दर्शन (४) फेसल दर्शन |

नोट/--घच्चु दर्शन झ्रादि का स्परूप, योल मम्पर १६६घं में दिया या चुफा है

निद्रा के पाँच मेद ये हैं --

(१) निद्रा (२) निद्रा निद्रा

(३) प्रघत्ता | (७) भ्रचता अचत्ता | (५) स्स्पानणद्धि

(१) निद्रा --मिस निद्रा में सोने वाज्ञा सुखपूवफ घीमी घीमी भाषाम से खग खाता ई, वह निद्रा ई।

(२) निद्गा निद्रा।--जिंस निद्रा में सोने पाला थीव पढ़ी पुरिकश से मोर जोर सम चिद्नाने वा इाथ से शिलाने पर जगता ई। पद् निद्रा न्ठा

(३) प्रचता --सड़ हुए था मंठे हुए स्यक्ति फ़ो सो नींद आती है, इए प्रचत्ता

(४) प्रचता प्रचला ---चत्तते चलते जो नींद आती ई, वह प्रचत्ता प्रचछा |

(५) स्त्पानणद्धि--शिस निद्रा में बीए दिन प्थवा रात में सोचा हुआ काम निद्धिताबस्था में कर दाक्षता ई, वह स्त्पानगृद्धि है !

बत ध्यपम नाराघ सइनन बाल चौप फो जब स्न्‍या नग्ृद्धि निद्रा भावी तब उसमें दामुद्प का आधा बस्त

या श्री सठिया जैन प्रश्षमाका

आजाता | | ऐसी निद्रा में मरने बाला जीद, पदि झावु बाँध घुरा दो सो, नरक सति में खाता ( कर्म प्रस्थ प्रथम साग गा* १) (पश्चचर्णा पह २३ उ० सू २६३ ) ४२०--निद्रा बागन पाँच कारणय'-- (१) शम्द। (२) स्पर्श (३) चरुघा। (४) निद्रा चय (५) स्वप्न दर्शन इन पाँच फ़ारशों से सांय॑ हुए जीव की निद्रा मद हो जाती झौर बह शीघ्र खग साठा (ठाणाए ढश्शा ? सूत्र 2१६ ) ४२१--स्तप्न दर्शन के पाँच मेद्‌ -- (१) य्रायाठस्य स्वप्न दर्शन (२) प्रतान स्वप्न दर्शन | (३) चिन्ता स्वप्न दर्शन | (४) विपरीत स्वप्न दर्शन | (५) भ्रष्पक्त स्वप्न दशन |

(१) पराथासश्य स्वप्न दर्शन/--स्त्रप्न में जिस बस्तु स्वरूप का दर्शन हुआ ह। जगने पर ठसी को देखना या ठसऋु अनुरुप द्यमाश्ुम फत्त की प्राप्ति झोना याभथातस्य स्वप्न दर्शन है

(२) प्रतान स्वप्न दर्शनः-प्रतान का ऊर्ण विस्तार। विस्तार बाला स्वप्न टखना प्रतान स्वप्न इर्शन है| बह यवार्ण आर पभयपार्थ मी हो सकता है।

(३) चिस्ता स्वप्न दशन --जाग्रृत भवरथा में शिस पस्तु की सिन्‍दा रही दो, ठसी छा स्वप्न में देखना शिन्ता स्वप्न डशन है।

भी लेन सिद्धान्त बोक संप्रह, प्रथम माग श्श्र

(४) विपरीत स्वप्न दर्शन --स्वप्न में जो पस्तु देखी है | जगने पर ठससे विपरीत भस्तु झी प्राप्ति डोना पिपरीत स्वप्न दर्शन है

(५) प्रव्यक्स स्वप्न दर्शनः--स्वप्न विपयफ प्रस्तु फा अस्पष्ट शान होना, भम्यक्त स्पप्न दर्शन है

४२२--पाँच देव/-- लो फ्रीड़ादि घर्म वाल ईं भथवा जिनकी भमाराध्य रूप से स्तुति की धाती | बे देव फहलाते देव पाँच ईं।--- (१) मण्यय दरस्य देख | (२) नर देव | (३) धर्म देव | (४) देवाघिदेव | (५) माव दंव

(१) भष्प द्रस्प देव ---भागामी भष में देव होकर उत्पन्न शोने बाले तियस्च पश्चेन्द्रिय एव मलुष्प भस्प द्रश्य देय फलाते

(२) नर देव --समस्त रहीं में प्रधान चक्र रत्न सथा नवनिधि के स्पामी, समृद्ध कोश बाले, बीस इज़ार नरेशों से भलुगत,

पश्चिम एयं दिल में समुद्र तथा उत्तर में दिमवान्‌ पर्वत पयन्‍्त खंड प्ृस्पी के स्वामी मनुप्पन्द्र भफ्रवर्ती नर देव कहलाते

(३) पर्म देश --भुव चारिध्र रूप प्रपान धर्म भाराषक, इया झादि समिति समन्वित पाबद गुप्त प्र्षचारी भ्रनगार धर्म देव बदताते हैं

श्ण्प और सेठिया जैस प्रम्यमाश्या

(३) देषाधि देवः--देगों से मी पढ़ुरूर मतिशय बाल, अदश्व उन से भी आाराष्य, फ्रेइछ श्वान एवं केबत्त दर्शन के घारक अरिहन्त मगषान्‌ देधापिदेध कइलाते £।

(५) भाष देब।--देवगति, नाम, गोत्र, भरायु भादि कर्म के उदय से देव मद को धारण किए दुए मशनपति, स्यन्तर, ज्पोतिप भौर पैमानिक देव माव देव कइकषाते हैं।

(ठाणांग 2 घऐशा सूत्र ४०१) ( मगषती शतक १४ रहशा सूत्र ४१९ ) ४२३--शिधाग्राप्ति में बापर पाँच फारथ -- (१) भमिमान | (२) कोघ | (श) प्रमार (३) रोग (१) भालस्प ये पांच बातें जिस प्रासी में हों पह शिक्षा प्राप्त नहीं फर सकता | शिक्षा प्राप्त करन के इच्छुक प्रायौ की उप- राक्त पांच दातों का त्याग कर शिक्षा प्राप्ति में ठप्रम करना चाहिए शिक्षा ही 5३ सौफिक भर पारशौकिफ सर्व सुखों का कारण ई।

( इत्तराध्यमम छत्र अध्यमम ११ गाबा ३)

अन्तिम मगलाचर ए/--

शिवमस्तु सबंजगत , परश्िसनिरता भषन्तु भूतगशा दोपा प्रयान्तु नाशं, सर्श्र सुखी मयतु छोफः।॥ भावार्थ:---अखिल्त विश्व का क्याय हो, जगत फे प्रासी प्रोपकार में शीन रहें, दोप नष्ट हों भौर सब बगह लोग सदा सुख्री रहें सर मजृतत माम़म्यं, सर्वे फल्पाश कारण प्रधान सर घमाशां, सेन जयत शासनम्‌ भावार्थ --सब मगल्लों में मंगल रूप, सब प्रकार के कम्यामों का फारण भूत झौर सब धर्मों में प्रधान रूप चैन शासन जय पाते |